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थोपी गई रईसी

कुछ पैदायशी रईस होते हैं, कुछ अपनी मेहनत से बनते हैं और कुछ पर थोप दी जाती है। मेरे पर थोपी गयी थी। 

पैदायशी रईस तो मैं था नहीं। मेहनत मेरे मिज़ाज में था नहीं। जब साथी रात-रात भर जाग कर रट्टा मार रहे होते मैं लंबी तान रहा होता। कॉलेज जा नहीं पाया जिससे भारी-भरकम डिग्री मिलती जिससे मोटी रक़म वाली नौकरी मिलती जिससे अच्छा ख़ासा बैंक बैलेंस बनता। 

फिर भी मैं रईस बन गया। पूछो कैसे? तो ध्यान से सुनो। 

चाचा वार्ड लेवल पर रसूख़ वाले राजनैतिक कार्यकर्ता थे। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे। उनको पता था मैं निकम्मा और नाकारा अपने आप किसी काम का नहीं। जोड़-जुगाड़ लगाकर सेल्स टैक्स ऑफ़िस मे चपरासी लगवा दिया। सेल्स टैक्स ऑफ़िसर के दरवाज़े पर खड़े रहने की ड्यूटी मिली। मेरा काम था बिना साहिब की इजाज़त के कोई अंदर न घुसे। ऑफ़िस के बाबू भी नहीं। वो घंटी बजाते, मैं अंदर जाता, जिसको बुलाते वही जाता। बस यह नियम लीला जी के लिये यह लागू नहीं था। साहिब की पीए जो थी। 

साहिब के दायरे में बड़ा बाज़ार इलाक़े के व्यापारी आते थे। साहिब से मिलने वालों का ताँता लगा रहता। बाहर बेंच पर आकर बैठ जाते सुबह-सुबह। कुछ बुलाये हुये कुछ बिना बुलाये हुये। स्लिप पर नाम लिख कर देते, मैं साहिब को पकड़ा देता, वो घंटी बजाते, जिसकी पर्ची पकड़ाते उसे अंदर भेज देता। बस! आराम की नौकरी। बस एक ही दिक़्क़त कि साहिब देर तक बैठे रहते तो मुझे भी रुकना पड़ता। 

नौकरी के पहले हफ़्ते मे ही मेरे साथ अजीब सा वाक़या हुआ। सुना तो था पर देखा हुआ नहीं था। एक धोतीधारी अधेड़ उम्र के, जो कोई दुकानदार थे, व्यक्ति ने मेरी जेब मे बीस का नोट घुसाकर कहा, "ज़रा जल्दी मिलवा दो।" मिलना न मिलना साहिब के हाथ में है, मैं क्या, मेरी बिसात क्या? ख़ैर. . . जाकर साहिब को पर्ची पकड़ाई और साहिब ने बुला भी लिया। 

दिमाग़ दौड़ने लगा। अगर मैं साहिब को पर्ची ही न दूँ तो? अब मैं पर्ची ले तो लेता, पर जेब में डालकर रखता और कहता "साहिब बिजी हैं, बैठो। टाइम लगेगा"। अब समझदार लोग पर्ची के साथ बीस का नोट भी रखने लगे। जो नहीं रखता उसकी पर्ची जेब में ही सोती रहती। कोई याद दिलाता तो कह देता, "मैं क्या करूँ?" धीरे-धीरे सब लाइन पर आ गये। कइयों ने ख़ुद ही बीस की जगह पचास का नोट रखना शुरू कर दिया और देखते-देखते रेट पचास हो गया। कोई-कोई तो सौ का नोट भी दे देता। 

मुझे भनक पड़ी कि साहिब को कुछ अंदेशा हो गया है। बिना आगे-पीछे की सोचे लिफ़ाफ़े में आधी कमाई रखी और चुपके से साहिब के हाथ में पकड़ा दिया। उन्होंने पूछा, "क्या है?" मैंने कहा, "आपकी मेहरबानी!" तब से साहिब बहुत मेहरबान रहने लगे। कहीं से जुगाड़ करके मुझे मैट्रिक पास का सर्टिफ़िकेट दिलवा दिया। मैं चपरासी से रिकार्ड क्लर्क बन गया। 

मेरे ज़िम्मे ऑफ़िस की ढेर सारी फ़ाइल का काम आ गया। पेपर सही फ़ाइल में फ़ाइल करना, फ़ाइल को तरतीब-वार रैक में रखना और माँगने पर हाज़िर करना। काम बोरिंग था पर आमदनी बहुत थी। साहिब के पास जो क्लाइंट्स आते उनकी फ़ाइल मँगवाते, मैं हाज़िर करता, अपने हिसाब से। जिसको जल्दी है नोट खिसकाये नहीं तो बैठे रहो। नोट भी पाँच सौ का। पहले की तरह हिसाब में आधा साहिब का। शिकायत कौन करता और किससे? 

समय खिसका पर मैं अपनी पोस्ट से नहीं हटा। पुराने साहिब गये, नये आये पर मैं वहीं टिका रहा। प्रमोशन किसे चाहिये था? 

आज मेरे पास अच्छा ख़ासा बैंक बैलेंस है, गाड़ी है, थ्री बीएच के फ़्लैट हैं। बच्चे पब्लिक स्कूल मे पढ़ते हैं। धर्मपत्नी पचास महिलाओं का किट्टी क्लब चलाती है। 

मुझे लगता है मेरी तरह कई हैं जिनपर मेरी तरह रईसी थोपी गई। 

आम खाओ पेड़ मत गिनो!

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