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वह आवाज़

फान तो बीत चुका था पर उस तूफान से उजड़े साँय साँय करते घर में अनन्या थकी हारी सी बैठी थी, बहुत बड़ा मूल्य चुकाया था उसने वह आवाज़ सुन कर, वह समझ नही पा रही थी कि उसने जो कुछ किया, उस पर हँसे कि रोए। मन लाख रोकने पर भी किसी नटखट बच्चे के समान हाथ छुड़ा कर अतीत की राह पर भटक जाता था।-------

अभी तीन माह ही तो बीते थे उस दिन को, जब यह घर शहनाइयों की धुन और ढोलक की थाप से गूँज रहा था और लाल लहँगे चूनर में लजायी सकुचाई सी वन्या भाभी ने विक्रम भैया के साथ घर की देहरी लाँघी थी। मुखड़े पर गुलाबी आभा, नासिका पर झूलती नथ, कजरारे नेत्र, अनन्या तो देखती ही रह गई थी इस अप्रतिम सौंदर्य की साम्राज्ञी को। भाभी ने जब उसकी ओर दृष्टि उठाई तो नई नवेली वधू के मन में उठती उमंगों में डूबी स्वप्निल आँखों के सारे रंग अनन्या की आँखों से हृदय में उतरते चले गए।----भैया का आँखों ही आँखों में प्रणय निवेदन, भाभी का लजाना, बिना बात ही चेहरे पर स्मित आ जाना और भैया से आनायास ही दृष्टि मिल जाए तो मूक भाषा में ही बहुत कुछ कह जाना--- अनन्या के जीवन में भी सद्य: वर्षा के बाद आकाश में प्रकट इन्द्रधनुष के समान नए सप्तरंगी स्वप्न उकेर रहा था। भैया-भाभी का प्रणय उसके मन के तारों को भी छेड़ने लगा था वह भी आतुर हो उठी थी स्वयं भी वही धुन गुनगुनाने को।-------

उस मधुर तान की आलाप पूरी भी न हो पाई थी कि पड़ोस की शर्मा चाची की के नालायक बेटे मनीष के विवाह में मिली कार ने सुरों को बेसुरा कर दिया। वन्या भाभी के स्वप्नों के रंग शीघ्र ही किसी सस्ती कम्पनी के पेंट की भाँति धूमिल हो गए। --अब भाभी को घर आई लक्ष्मी कहते न थकने वाली माँ को लगने लगा था कि वह धोखे से अपने कामदेव से सरकारी नौकरी करते बेटे के लिये रूप की चाँदी में लिपटा खोटा सिक्का ले आई थीं। सिक्का लौटाना तो सरल न था, पर कम से कम उस पर सोने का पानी चढ़ाकर अपनी गलती का सुधार तो किया जा सकता था। तो बस फिर क्या था माँ अपनी गलती सुधारने के प्रयास में लग गईं। -----दिन रात भाभी को बातों बातों में व्यंग्य किये जाने लगे थे। जितनी बार शर्मा चाची ठसके से कार में निकलतीं माँ और पिता जी को अपनी भूल की अनुभूति अधिक तीव्रता से होने लगती।

“शर्मा की बहू चढ़ाव में चार सेट लाई है“ -- ”क्या बताएँ हम तो सीधाई में रह गए मुँह खोल कर नही कहा, क्या पता था कि बूढ़ा इतना चालाक निकलेगा।” --- ”सोचा था, इतना लायक जमाई मिल रहा है खुद ही देंगे।”

“माँ चुप रहो भाभी सुन रही हैं उन्हे बुरा लगेगा।”

अनन्या ने भाभी को आते देख कर माँ को चुप कराना चाहा, तो मालती देवी ने उसे भी घुड़क दिया, “उसे क्या बुरा लगेगा, जैसा बाप वैसी ही बेटी भी चिकना घड़ा है, कोई पानी वाली होती तो अब तक अपने बाप से कुछ माँग लाती पर इसके कानों में तो जूँ भी नही रेंगती।”

वन्या जानती थी कि उसके पापा ने अपनी सामर्थ्य से अधिक किया था, पापा ने इनके यहाँ दहेज की माँग न देख कर ही विवाह तय किया था अत: वह स्वयं ही एकान्त में आँसू बहा लेती पर पापा को इसकी भनक भी न लगने दी। उसकी चुप्पी ने मालती देवी के लिये क्रोध में अग्नि का कार्य किया वह तो वन्या के माध्यम से उसके पिता तक अपनी शिकायत पहुँचाना चाहती थीं जिससे उनसे दहेज न माँग कर जो गलती हो गई थी उसकी कुछ तो भर पाई हो सकें,पर वन्या थी कि उसकी आकांक्षाओं पर पानी फेरे दे रही थी।

अब तो धन की इच्छा में भाभी के गुण भी अवगुण लगने लगे थे, आश्चर्य तो इस बात का था कि पता नही धन की लालसा ने जादू की कौन सी छड़ी घुमाई थी कि पिता जी तो पिता जी, भैया को भी कार भाभी से अधिक मूल्यवान लगने लगी थी और उसको पाने की आकांक्षा में भाभी पर दिनो दिन बढ़ने वाले अत्याचार में वह भी सहयोग देने से नहीं चूके।

----उस दिन का प्रारम्भ एक दर्दनाक चीख के साथ हुआ था। अनन्या चौंक कर उठी तो उसे यह चीख अपने ही घर से आती सुनाई दी, दूसरे ही क्षण उसे अनुभव हुआ कि यह वन्या की आवाज है, वह बदहवास सी नीचे दौड़ी। नीचे आँगन का दृश्य देख कर उसके रोंगटे खड़े हो गए। वन्या आग की लपटों में लिपटी बुरी तरह तड़प रही थी और माँ पापा तथा भैया निर्लिप्त भाव से खड़े देख रहे थे। अनन्या आग बुझाने को दौड़ पड़ी, पर इसके पूर्व कि वह वन्या के पास तक पहुँचती, पापा के दो बलिष्ठ हाथों ने उसे रोक लिया। वह स्वयं को छुड़ाने का पूरा प्रयास करती रही, पर सफल न हो सकी और वन्या भाभी की चीखें धीरे धीरे सदा के लिये शान्त हो गईं। सौन्दर्य की प्रतिमा वन्या का झुलसा वीभत्स रूप देख कर अनन्या बेसुध हो गई। पता नहीं वह कितनी देर बेसुध रही पर जब सुध आई तो नीरव शान्ति थी, पर यह तूफान के पूर्व की शान्ति थी।

बेटी की मौत की सूचना पा कर उसके पिता स्तब्ध थे, पर बेटी से सदा ससुराल की प्रशंसा ही सुनी थी अत: वह कल्पना भी न कर पाए कि उसकी बेटी को मारा गया है। उन्हें वन्या के ससुराल वालों ने बताया कि खाना बनाते समय गलती से वन्या की साड़ी में आग लग गई और वह उे ही सच समझ अपना दुर्भाग्य मान कर रोते कलपते लौट गए।

वन्या से इतनी सरलता से छुटकारा पा कर घर के सभी सदस्य अपनी सफलता पर फूले नही समा रहे थे। माँ कहतीं, “पिछली बार रूप के चक्कर में हम धोखा खा गए इस बार सोच समझ कर बड़े घर की बहू लाएँगे।” पिता जी बोले, “अरे, जीवन राम जी तो कितना पीछे पड़े थे पर उस समय तुमने मेरी सुनी कहाँ थी।”  भैया को इस समय आदर्श बेटा बनने में ही लाभ दिखाई दे रहा था, उन्हें पता था कि माँ पिता जी उसे कार तो दिला ही देंगे। सभी के मनों में दहेज की कल्पनाएँ पतंग के समान उड़ाने भर रही थीं।

पर वहीं वन्या की चीखें तड़पन और अग्नि की वे लपटें अनन्या को दिन रात झुलसा रही थीं, पता नही कैसे धीरे धीरे वह चीखें वन्या भाभी की न हो कर उसे अपनी लगने लगीं, उसे न दिन में चैन था न रात में, मानों वन्या बार बार उससे न्याय माँग रही है अनन्या व्यग्र हो कर कह उठती, “तुम क्यों नही समझ रही कि अपराधी मेरे अपने है।” पर वह निरीह आँखें उसका पीछा न छोड़तीं।

 द्वन्द्व में उलझी अनन्या ने एक दिन स्वयं को वन्या के पापा के घर पर खड़ा पाया उसके एक सच ने पासा ही पलट दिया। माँ पापा और भैया सलाखों के पीछे थे। आज अपने ही परिवार से कृत्घनता करके वह उनसे आँख नहीं मिला पा रही थी, पर उसके झुलसते मन की तड़पन शान्त हो गई थी क्यों कि वह आवाज़ जो उसे दिन रात सुनाई पड़ती थी शान्त हो गई थी।

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