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वक़्त है फूलों की सेज, वक़्त है काँटों का ताज

(प्रबोध कुमार गोविल की किताब ‘ज़बाने यार मनतुर्की’ की समीक्षा)

पुस्तक: ज़बाने यार मनतुर्की
लेखक: प्रबोध कुमार गोविल 
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन 
ISBN: 978-81-947232-6-4
पृष्ठ संख्या: 143 
समीक्षक: प्रवीण प्रणव

बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित प्रबोध कुमार गोविल की किताब ‘ज़बाने यार मनतुर्की’ हाल में ही पढ़ने को मिली। बोधि प्रकाशन ने जिस तरह के किताबों के प्रकाशन का ज़िम्मा उठाया है, किताबों के स्तर का जिस तरह ध्यान रखा है और किताबें लेखकों को नहीं बल्कि पाठकों को ध्यान में रख कर पाठकों की रुचि और विषय के अनुरूप उचित मूल्य पर किताबें प्रकाशित की हैं, इनसे बोधि प्रकाशन का नाम शीर्ष के प्रकाशकों में शुमार हो गया है और इस यात्रा के पीछे माया मृग की अथक मेहनत है जो साहित्य प्रेमियों की नज़र से छुपी नहीं है। ‘ज़बाने यार मनतुर्की’ हाथ में लेते ही सबसे पहले जिन बातों ने ध्यान आकृष्ट किया वह था किताब का शीर्षक, आवरण चित्र, किताब के पन्ने और छपाई का स्तर। मेरे लिए किताब को पढ़ने से पहले किताब का पसंद आना बहुत ज़रूरी है। कई बार ऐसा हुआ है कि बेहतर किताब एक ऐसे कलेवर में सामने आई कि पढ़ने का उत्साह ही जाता रहा। यह उसी तरह है जैसे किसी से प्रेम में पड़ने से पहले उस प्रेम का अनुभव अपने अंदर करना। बोधि प्रकाशन की लगभग सभी किताबें इस पैमाने पर खरी उतरती हैं और यह किताब भी अपवाद नहीं है। एक बात जिस की कमी लगी, कि इस किताब के बारे में कुछ नहीं लिखा है। अमूमन पाठक किताब पढ़ने से पहले जानना चाहता है कि किताब की विषय-वस्तु क्या है? किताब के पिछले कवर पेज पर किताब की विषय वस्तु के बारे में लिखा जा सकता था। इस किताब में न लेखकीय वक़्तव्य है और न ही भूमिका, इस वज़ह से भी किताब के बारे में जानने में मुश्किल होती है। विषय सूची के बाद किताब सीधे पहले अध्याय से शुरू होती है और यदि पाठक ने यह अध्याय पढ़ लिया तो फिर प्रबोध कुमार गोविल के लेखन की शैली और विषय की रोचकता आपको अपने आग़ोश में कस लेते हैं और किताब ख़त्म होने से पहले इसे वापस रखना मुश्किल हो जाता है। पहले अध्याय में ही पाठक को यह भी महसूस हो जाता है कि किताब अपने ज़माने की मशहूर अदाकारा साधना के जीवन के बारे में है। एक और बात जो इस किताब के विषय में जोड़ना चाहूँगा कि किसी जादूगर की सफलता इस बात में है कि लोग जादू देखकर वाह-वाह करने पर मजबूर तो हों ही लेकिन साथ ही उनके मन में यह जानने की उत्कंठा भी हो कि आख़िर जादूगर ने इसे किया कैसे? और जादूगर के लिए ज़रूरी है कि यह राज़ ज़ाहिर न हो और तिलस्म बना रहे। साहित्य में इसके उलट जब कोई साहित्यकार कोई ऐसी (सत्य घटना पर आधारित) बात प्रस्तुत करता है जिसे पढ़ कर पाठक प्रसन्न हो उठे और तब उसका पहला सवाल होता है कि लेखक ने जो लिखा है उसका स्रोत क्या है? लेखक के लिए ज़रूरी है कि वह पाठकों को बताए कि उसने जो लिखा वह उसके ख़ुद के अनुभव हैं, किसी से बातचीत पर आधारित है या किसी अन्य माध्यम पर। प्रबोध कुमार गोविल की इस महत्वपूर्ण किताब जिसमें वह साधना के बारे में कई रोचक जानकारियाँ पाठकों के लिए उपलब्ध करवाते हैं, में इस जानकारी का न होना कि उन्हें इन बातों की जानकारी कैसे हुई, खटकता है। यदि इस किताब में उन्होंने भूमिका लिखी होती तो शायद इस सवाल का जबाव अवश्य मिलता। 

साधना को उस दौर में ‘मिस्ट्री गर्ल’ कहा गया जिसके कई कारण रहे। 1962 में एक फ़िल्म आई थी ‘एक मुसाफ़िर एक हसीना’। फ़िल्म में जॉय मुखर्जी और साधना थे। अमीर खुसरो ने फारसी में लिखा ‘ज़ुबान-ए-यार मन तुर्की, व मन तुर्की नमी दानम’’, खुसरो की इसी पंक्ति को इस फ़िल्म में शेवन रिजवी ने गाना लिखते हुए लिया। मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले की मखमली आवाज़ का जादू और ओ.पी. नय्यर का संगीत ऐसा था कि लोग इन पंक्तियों का मतलब न जानते हुए भी उसे गुनगुनाने लगे। कुछ लोगों की जिज्ञासा भी हुई कि आखिर ‘ज़ुबान-ए-यार मन तुर्की, व मन तुर्की नमी दानम’ का मतलब क्या है? मुझे यक़ीन है इस किताब को पढ़ने वाले कई पाठकों के मन में भी यह सवाल होगा। खुसरो ने इस पंक्ति में लिखा कि प्रेमी और प्रेमिका भाषागत दूरियों की वज़ह से एक दूसरे से बात नहीं कर पा रहे है। प्रेमी कहता है मेरे यार की ज़बान तुर्की है जो मुझे नहीं आती, काश मेरे मुँह में भी उसकी ही ज़बान होती। साधना का व्यक्तित्व भी ऐसा रहा कि वह अपने काम में ज़्यादा मशग़ूल रहीं और उस समय के पार्टी कल्चर से दूर रहीं। यही कारण रहा कि संवाद के स्तर पर कुछ दूरियाँ उनके समकालीनों से बनी रही। ऐसे में साधना की ज़िंदगी पर लिखे गए इस किताब का शीर्षक ‘ज़बाने यार मनतुर्की’ सर्वथा उचित प्रतीत होता है। 

लेखक ने इस किताब में साधना के बचपन से ले कर उनके फ़िल्मों में आने तक के सफ़र, फ़िल्मों में उनके स्टारडम का दौर, उनकी बीमारी और फिर फ़िल्मों में वापस सफल होने की ज़द्दोजेहद, और फिर हक़ीक़त को आत्मसात कर फ़िल्मों से दूरी और अंततः दुनिया से दूरी की घटनाओं का प्रभावी चित्रण किया है। किताब में किसी बेहद सफल काल्पनिक उपन्यास के जैसी रोचकता है जिसके लिए लेखक की लेखन शैली और साधना के जीवन में आए कई नाटकीय उतार-चढ़ाव बराबर के हिस्सेदार हैं। अपना बसा-बसाया घर छोड़ कर किसी अजनबी जगह अपने हिस्से की मिट्टी और आसमान ढूँढना आसान नहीं होता। अंजली के माँ-बाप भारत-पाकिस्तान के बँटवारे के समय कराची से हिंदुस्तान आए और कई जगहों की ख़ाक छानने के बाद मुंबई रहने का निर्णय लिया। अंजली के चाचा पहले से ही मुंबई में थे और फ़िल्मों में छोटे-मोटे किरदार निभा रहे थे। शायद मुंबई आने के पीछे फ़िल्मों में काम करने का सपना भी शामिल रहा हो। अंजली के पिता बांग्ला अभिनेत्री साधोना बोस से बहुत प्रभावित थे, इसलिए स्कूल में उन्होंने अंजली का नाम साधोना लिखवाया लेकिन अंजली ने अपने आप को साधना कहना शुरू कर दिया। स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही एक घटना हुई। एक फ़िल्म के कोरस गाने को फ़िल्माने के लिए कुछ लड़कियाँ चाहिए थीं। फ़िल्म से जुड़े लोग साधना के स्कूल आए और गोरी, ख़ूबसूरत, लंबी साधना का भी चयन उस गाने के लिए हो गया। गाना था “मुड़ मुड़ के न देख, मुड़ मुड़ के”, फ़िल्म थी राज कपूर की ‘श्री चार सौ बीस’ और यूँ हुआ साधना का फ़िल्मों में पदार्पण। कॉलेज में जाते ही साधना ने एक सिन्धी फ़िल्म ‘अबाना’ में अभिनेत्री की छोटी बहन का किरदार निभाया। फ़िल्म सफल रही और इसी फ़िल्म की वज़ह से वह फ़िल्मालय स्टूडियो के मालिक की नज़र में आईं जिन्होंने साधना को अपने फ़िल्म निर्माण कंपनी के लिए साइन कर लिया। साधना की आरंभिक तीन फ़िल्में ‘लव इन शिमला’, ‘परख’ और ‘प्रेमपत्र’ सफल रहीं और साधना का नाम बुलंदियों पर पहुँच गया। 

साधना के फ़िल्मी सफ़र को फ़िल्म-दर-फ़िल्म लेखक ने बहुत ही ख़ूबसूरती के साथ लिखा है। कभी मात्र कुछ सौ रुपये मासिक से फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत करने वाली साधना देखते-देखते सबसे ज़्यादा पैसे लेने वाली अभिनेत्री बन चुकी थीं। उस दौर में साधना ने जो कुछ भी किया वह फ़ैशन स्टेटमेंट बन गया। उनके चौड़े माथे को ढकने के लिए उनके बाल माथे पर लाए गए तो यह साधना कट के नाम से भारत भर में मशहूर हो गया। उन्होंने चूड़ीदार पायजामा पहना तो वह भी लड़के-लड़कियों सभी का पसंदीदा बन गया। साधना की लंबाई अच्छी थी इसलिए फ़िल्मों के हीरो उन्हें हील वाली चप्पल पहनने से मना करते थे। साधना के एक पैर की एक उँगली दूसरे पर चढ़ी हुई थी। चप्पल पहनने पर यह दिखता था जो साधना नहीं चाहती थीं। ऐसे में उन्होंने जूती पहनने का चलन शुरू किया और यह भी लड़के-लड़कियों दोनों के लिए फ़ैशन बन गया। 

साधना लंबे समय तक अपने फ़िल्मी कैरियर में शीर्ष पर क़ाबिज़ रहीं, उनकी फ़िल्में एक से बढ़ कर एक सफल होती रहीं लेकिन उन्हें कभी कोई बड़ा पुरस्कार नहीं मिला। शायद इसकी वज़ह उनका सिर्फ़ अपने काम से काम रखना और फ़िल्मी पार्टियों से दूरी बनाए रखना भी रहा हो। साधना ने 16 वर्ष की आयु में काम करना शुरू किया। प्यार एक ऐसी चीज़ है जो उम्र के साथ हो ही जाती है। साधना की पहली फ़िल्म के निदेशक आर.के. नय्यर, साधना को चाहने लगे लेकिन साधना के सामने घर चलाने की ज़िम्मेदारी थी। आर.के. नय्यर ने लंबे समय तक इंतज़ार किया और जब साधना अपने शीर्ष पर थीं तो उन्होंने आर.के. नय्यर से शादी कर ली। फ़िल्म जगत में आम तौर पर हीरो-हीरोइन के बीच रोमांस की ख़बरें आती ही रहती हैं लेकिन साधना इसकी अपवाद रहीं, उनका नाम कभी किसी के साथ नहीं जुड़ा। 

लेखक ने इस किताब में साधना की जीवनी के बहाने आज भी फ़िल्मों में जो राजनीति हो रही है उस पर प्रहार किया है। पुरस्कार बाँटने में हो रही राजनीति पर लेखक ने विस्तार से लिखा है कि कैसे साल की बड़ी-बड़ी हिट देने के बाद भी साधना को पुरस्कार नहीं दिया गया। आज भी इस तरह की आवाज़ें सुनाई देती रहती हैं। आज फ़िल्मों में नशे पर बड़ी चर्चा हो रही है लेकिन साधना की एक फ़िल्म में जब उन्होंने शराब पीते हुए एक गाना गाया था तब सेंसर बोर्ड ने इस पर आपत्ति जताई थी। गाने के बाद फ़िल्म में साधना को एक संवाद जोड़ना पड़ा कि मैं तो शराब पीने का नाटक कर रही थी, असल में वह कोला था और तब जा कर सेंसर बोर्ड ने उसे पास किया। जबकि कड़वी हक़ीक़त थी कि उस समय हीरोइनों का पार्टी में शराब पीना आम बात थी। मीना कुमारी का करियर शराब की ही भेंट चढ़ गया। 

स्त्री सशक्तिकरण की बात करते हुए लेखक ने कपूर खानदान के दोहरे मानदंड पर प्रश्न चिन्ह लगाया है। अपनी फ़िल्मों के लिए नायक तो हमेशा कपूर खानदान से ही लिए जाते थे लेकिन नायिकाओं को कई तरह के टेस्ट से गुज़रना पड़ता था। अपनी क़ाबिलीयत साबित करने के बाद नायिकाओं को काम मिला लेकिन यही कपूर खानदान अपने बेटी-बहू के लिए फ़िल्मों के दरवाज़े बंद रखता था। बबीता, साधना के चाचा की बेटी थी। सात साल छोटी बबीता ने भी फ़िल्मों में काम करने का सपना देखा। फ़िल्मों में पदार्पण से पहले ही राज कपूर के बेटे रणधीर कपूर से उनकी नज़दीकियाँ बढ़ने लगीं। राज कपूर को जब यह ख़बर लगी तो उन्होंने साधना से बात की और स्पष्ट कहा कि बबीता को फ़िल्म या कपूर खानदान में से एक को चुनना होगा। साधना और बबीता के रिश्ते कभी मधुर नहीं रहे, इस विषय पर साधना ने जब बबीता से बात करनी चाही तो रिश्ते ऐसे बिगड़े कि ताउम्र नहीं ठीक हुए। बबीता बग़ावत करते हुए फ़िल्मों में आ गईं और बतौर अभिनेत्री उनकी कई फ़िल्में सफल रहीं। लेकिन कपूर खानदान के इस नियम के आगे बबीता को हार माननी पड़ी और रणधीर कपूर से शादी करने के बाद उन्होंने फ़िल्मों को अलविदा कह दिया। हालाँकि इस टीस को वह भूली नहीं और अपनी बेटियों करिश्मा और करीना कपूर को फ़िल्मों में ला कर कपूर खानदान के इस रिवाज़ को तिलांजलि दे दी। 

परिवारवाद या नेपोटिज़्म की चर्चा भी आजकल ज़ोरों पर है। लेखक ने लिखा है कि जहाँ साधना ने अपना दौर ख़त्म होने के बाद फ़िल्मों से विदाई ले ली, वहीं उनकी समकालीन अभिनेत्रियाँ माँ और भाभी के किरदार निभा रही थीं। इसके पीछे अपनी संतानों को फ़िल्मों में लॉन्च करने के बाद ही फ़िल्मों से विदाई लेने की भावना प्रबल थी। 

बात यदि साधना की करें तो वक़्त का पहिया घूमा और जब साधना शीर्ष पर थीं तभी उन्हें थायराइड बीमारी हो गई। साधना इलाज के लिए अमेरिका गईं जहाँ लंबे समय तक उनका इलाज चला। इस बीच नई अभिनेत्रियों की खेप फ़िल्मों में आ चुकी थीं। इलाज के बाद साधना ठीक हो कर वापस आ गईं लेकिन बीमारी की वज़ह से उनके चेहरे और उनकी आँखों पर फ़र्क़ पड़ा। वक़्त विपरीत हो जाय तो कुछ भी ठीक नहीं होता। साधना की एक के बाद एक फ़िल्में असफल होती चली गई। नय्यर का निदेशक का काम भी बंद हो गया। आर्थिक परेशानी होनी शुरू हो गई और लाख प्रयास के बाद जब साधना की कोई फ़िल्म नहीं चली तो उन्होंने फ़िल्मों को अलविदा कहने का फ़ैसला कर लिया। जहाँ साधना की समकालीन अभिनेत्रियों ने अपनी उम्र के मुताबिक़ किरदार करना शुरू कर दिया, साधना का फ़ैसला था कि वह अपने चाहने वालों की नज़र में वही साधना बन कर रहेंगी जिसे उन्होंने चाहा, प्यार दिया। इस निर्णय पर साधना इतनी डटी रहीं कि फ़िल्मों से दूर होने के बाद, किसी भी सामाजिक समारोह से उन्होंने दूरी बनाए रखी ताकि उनकी कोई तस्वीर कहीं न छपे। अपने किसी मिलने वाले के साथ उन्होंने कोई तस्वीर नहीं खिंचवाई। इसके कुछ अपवाद रहे लेकिन ज़्यादा नहीं। 

फ़िल्मों से दूर तो हो ही गई थीं, आर्थिक तंगी भी थी ऐसे में एक ख़ुशी जो साधना की ज़िंदगी में आई कि वह माँ बनने वाली थीं। लेकिन ईश्वर उनसे बिल्कुल ही विपरीत हो गया था और यह ख़ुशी भी उन्हें नहीं मिलनी थी। 9 महीने गर्भ में बच्चे को पालने के बाद जब उसका जन्म हुआ तो बच्चा मृत पैदा हुआ। साथ ही डॉक्टर ने कह दिया कि थायराइड बीमारी की वज़ह से शरीर पर जो असर हुआ है उसकी वज़ह से अब वह कभी माँ नहीं बन पाएँगी। साधना के लिए अब कोई ख़ुशी बची नहीं थी। नय्यर साहब के साथ दुनिया घूमने निकल पड़ीं लेकिन इससे दुख ख़त्म होने वाला नहीं था। साधना हर दिन अंदर-ही-अंदर टूटती रहीं और 1995 में जब नय्यर साहब नहीं रहे तो साधना का आख़िरी सहारा भी जाता रहा। अपनी नौकरानी की बेटी को उन्होंने अपनी बेटी की तरह माना और उसके पढ़ने-लिखने का सारा ख़र्च उठाया, हालाँकि क़ानूनी तौर पर उन्होंने गोद नहीं लिया। साधना के आख़िरी के दिन बहुत तन्हा बीते, ख़ुद को ज़माने के सामने न आने देने का उनका फ़ैसला भी इसका कारण रहा। अपने कुछ दोस्तों के साथ बैठना और ताश खेलना ही उनका शौक़ रहा। मुंबई से दूर लेह भी कुछ दिनों के लिए चली गईं लेकिन वहाँ पहचान ली गईं और फिर वापस मुंबई आ गईं। लेखक ने जिस ख़ूबसूरती से उनके परवान चढ़ते सफलता को लिखा है, उतना ही दर्द उनके ढलान और एकाकीपन में है। उनकी जीवनी को पढ़ना जैसे ई.सी.जी. रिपोर्ट में ऊपर नीचे जाती रेखाओं को पढ़ना है। 2015 में डॉक्टर ने कहा कि थायराइड की वज़ह से उनके मुँह पर असर हुआ है और यदि जल्द ऑपरेशन न किया गया तो कैंसर का ख़तरा है। इस समय साधना अपने एकाकीपन से, अपने बिगड़ते स्वास्थ्य से और अपने घर से जुड़े कुछ क़ानूनी झमेले से भी जूझ रही थीं और इन सब के बीच उनका कोई अपने पास नहीं था। चचेरी बहन बबीता बड़े घर की साधन-संपन्न बहू थीं लेकिन ऐसे वक़्त में भी उन्होंने मन में खटास जारी रखा और देखने तक नहीं आईं। साधना का ऑपरेशन हुआ लेकिन इसके बाद भी उनकी तबीयत बिगड़ती ही गई और अंततः 25 दिसम्बर 2015 को अपने ज़माने की उस अभिनेत्री ने जिसकी एक झलक पाने को लाखों लोग उमड़ पड़ते थे, ख़ामोशी और तनहाई में दुनिया को अलविदा कह दिया। साधना को हमेशा मृत्यु से डर लगा रहा, वह किसी के भी मरने पर परिवार से मिलने नहीं जाती थीं। मृत्यु के दो-तीन दिन बाद जा कर परिवार से मिल आतीं। लेकिन जिस डर से वह हमेशा दूर रहीं, एक दिन उसी डर ने उन्हें इस दुनिया से मुक्ति दे दी और शायद वह अवसर दे दिया कि एक बार फिर वह अपने सारे दुख भूल, ऊपर अपने पति और अपने कई समकालीन दोस्तों से मिल कर हँस सकें। 

अपने ज़माने की सबसे ज़्यादा सफल और चर्चित अभिनेत्री ने जिस ख़ामोशी से फ़िल्मों को अलविदा कहा, उसी ख़ामोशी से वह दुनिया को भी अलविदा कह गईं। लेकिन आप यदि कभी साधना की ज़ुल्फ़ों के चाहने वाले रहे हों तो यह किताब आपके लिए है, यदि आप साधना की छरहरी काया और उनके सफ़ेद लिबास में लिपटी सादगी के कायल रहे हों तो यह किताब आपके लिए है, यदि आप साधना की ख़ूबसूरती, उनकी बोलती आँखें और शोख़ अदाओं के दीवाने रहे हों तो यह किताब आपके लिए है और यदि आप इनमें से कोई भी न हों तब भी यह किताब इस मायने में आपके लिए है कि यह एक बेहद चर्चित शख़्सियत के फ़र्श से अर्श और पुनः अर्श से फ़र्श तक आ जाने की सच्ची कहानी है। साधना की ही फ़िल्म ‘वक़्त’ के लिए साहिर ने लिखा था ‘वक़्त है फूलों की सेज, वक़्त है काँटों का ताज’, और साधना की जिंदगी ने इस गाने को अक्षरशः सत्य किया। इसी गाने में साहिर ने यह भी लिखा ‘आदमी को चाहिये, वक़्त से डर कर रहे। कौन जाने किस घड़ी, वक़्त का बदले मिज़ाज।‘ साधना की ज़िंदगी से रूबरू होते हुए साहिर की ये नसीहत हर पाठक को बार-बार याद आती रहेगी। बोधि प्रकाशन और इस किताब के लेखक प्रबोध कुमार गोविल बधाई के पात्र हैं कि इन्होंने साधना के लाखों प्रशंसकों को उनके जीवन में झाँकने और उन्हें करीब से जानने का अवसर दिया। इस किताब की उपयोगिता लंबे समय तक बनी रहेगी। 

प्रवीण प्रणव, बी-415, गायत्री क्लासिक्स, लिंगमपल्ली, हैदराबाद, तेलंगाना – 500019
ईमेल: Praveen.pranav@gmail.com फ़ोन: 9908855506
 

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