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विषकन्या

मेरे हाथ में ही सुई है, दवा भी। चाहूँ तो बहुत कुछ कर सकती हूँ। चाहती हूँ भी। फिर क्यों रुक जाती हूँ।

क्या सचमुच डाक्टर के हाथ में होता है मारना-जिलाना?

पर पापा तो डाक्टर नहीं थे। फिर भी मुझे मारना-जिलाना क्या उन्हीं के हाथ में नहीं था?

हो सकता है पापा को इस बात का अहसास ही न हो जबकि एक डाक्टर के रूप में मैं लगातार मारने-जिलाने की बात को लेकर अतिरिक्त सचेत रही हूँ। इसीलिये सोच-समझ कर कोई एक्शन लेती हूँ। मुझे मालूम है कि अंतत: जिम्मेदारी मेरी हो होगी।

जहाँ तक पापा का सवाल है उन्होंने शायद इस तरह से सोचा भी न हो! आखिर वे क्या कभी सोच सकते थे कि वे मुझे मार रहे थे! और क्या मैं भी कभी इस तरह सोच सकती थी? या अब सोच सकती हूँ।

अगर पापा को पता लगे कि मेरा दिमाग किस उल्टी दिशा में जा रहा है तो...

मारना सिर्फ़ दवा की गोली से ही तो नहीं होता..? बहुत कुछ और भी तो... बातें...दृष्टियाँ, और कितना-कुछ जिसे नाम भी नहीं दिया जा सकता।

क्या पापा सोच के इस तरीके को कभी समझ सकते हैं। कोई कह दे तो भड़क नहीं जायेंगे? फिर सिर्फ़ यही प्रस्फुटन - “दिमाग खराब हो गया है”, “पागल हो गयी हो” के इलावा और क्या हाथ में आयेगा?

ओह कितनी अजीब तरह से लिबड़ गयी हूँ पापा की दिनचर्या सें मैं। पैर की हड्डी न टूटी होती तो इस तरह मेरा घर पर पड़े रहना नामुमकिन हो जाता। तब मेरे जैसा पापा की सेवा के लिये भी यहाँ कौन बचता! करते अपने-आप मम्मी-पापा जैसे दूसरे माँ-बाप करते हैं या फिर नर्सिंग होममें दाखिल कर दिया जैसा.. जैसे और लोग होते हैं... मैं हूँ इसी से पापा का नखरा भी  है और अधिकार भी.. कम से कम वे तो अधिकार मानते ही हैं वर्ना क्योंकर मेरा इस तरह उनके आसपास रहना उनको स्वीकार होता.. या इसे हालात की मजबूरी कह दिया जाये...!

मेरे और उनके दोनों के हालात!

मेरा अकेलापन और मम्मी के रहते भी उनका बुझाबुझापन!

अपनी दशा के लिये तो मैं उन्हीं को जिम्मेदार ठहराती हूँ.. यहाँ तक कि यह एक्सिडेंट में हड्डी भी न टूटती अगर पापा ही ने मुझे दवा लाने बाहर न भेजा होता!

भेजते न अपने बेटे को? जिसकी अब तरफ़दारी कर रहे हैं...?

महक को बुला रहे थे पापा। मैं नहीं चाहती कि वह होमवर्क छोड़कर उनका मनोरंजन करने जाय। यूँ जरूरी नहीं कि पापा ने उसे मनोरंजन के लिये ही बुलाया हो पर मुझे यही लगता कि महक का उनसे बात करना जरूरी नहीं। वह क्यों अपना कीमती वक्त उनके लिये ज़ाया करती फिरे.. थोड़ी देर में ही उसे डाँस की क्लास के लिये जाना है। होमवर्क खत्म नहीं होगा तो स्कूल में मुसीबत!

इसीलिये मैंने आवाज़ लगाकर कहा-”वह नहीं आ सकती। होमवर्क खत्म करना है।”

पापा ने वापिस जवाब नहीं दिया। हो सकता है कि उनको अंदाज हो गया है कि सुरभि आजकल कुछ उदंड-सी हो रही है, आगे जवाब देती है। या फिर यही कि महक का स्कूल का काम आखिर सबसे जरूरी है।

पर जब से पापा की आवाज़ पड़ी है खुद महक ही उखड़ गयी है। पढ़ाई में मन नहीं लग रहा। हिसाब उल्टा-सीधा कर रही है। मैं जानती हूँ वह पापा के पास जाना चाहती है। पर जब तक मेरे बस में है मैं उसे पापा के पास नहीं जाने दूँगी।

क्यों ऐसी हो गयी हूँ? वर्ना मैं खुद भी तो महक की तरह ही थी। पापा की आवाज़ पड़ तो जाये, बस उनके सामने पहुँच जाती थी। न भी पड़े तो क्या! यूँ भी आगे-पीछे घूमती रहती थी।

पापा, पापा पा..पा..पा। यही नाम जुबान पर रहता। पापा की इतनी दीवानी कि मम्मी की भी पापा से चुगली करती। पापा मम्मी को गुस्सा होते तो मजा आता। मम्मी मुझसे डरने लग गयी थीं। पापा के माध्यम से मम्मी पर एक तरह पहरा लगा दिया था। मम्मी कहाँ जाती है,कब जाती है, क्या करती है... जितना कुछ मैं जान सकती थी, सब पापा के रिपोर्ट कर देती। पहले अनजाने में यह सब करती थी। फिर समझ आने पर जानबूझ कर।

मम्मी को सामने पापा और मैं एक हस्ती थे। यूँ भी चूँकि मैं घर में पहला बच्चा थी,मम्मी हर नये आनेवाले बच्चे के साथ मशगूल हो जातीं और मैं ज्यादा से ज्यादा वक्त पापा के साथ गुजारती। फिर तो बाहर भी मैं ही पापा के साथ जाने लगी थी। शापिंग, क्लब, टेनिस, बुआ के यहाँ। सब में पापा और मेरा साथ।

पापा जब अमरीका में माइग्रेट कर गये तो मेरा और पापा का नैकट्‌य और ज्यादा बढ़ गया। अंग्रेज़ी तो मुझी को सबसे अच्छी आती थी। सो जितने भी आवास संबंधी कागजात थे, या नौकरी के लिये अर्ज़ियाँ देनी होतीं वह सारी मैं ही लिखती। अमरीकी तौर तरीकों की सबसे ज्यादा मुझी को समझ थी। शायद इसीलिये कि मैं तब हाई स्कूल के आखिरी साल में थी और सोलह-सत्रह साल की उम्र में काफी परिपक्व थी। शायद यह भी था कि हालात ने मुझे और भी ज्यादा समझदार बना दिया। बाकी भाई-बहन छोटे थे सो उनका काम भी मुझी को संवारना पड़ता। उनके स्कूलों में दाखिले,  होमवर्क में मदद, आने-जाने की मुश्किलें...इन सब कामों का जिम्मा एक तरह से मुझ पर ही आ पड़ा था। क्योंकि मम्मी के लिये घर का काम ही बहुत हो गया था, उपर से घर की आर्थिक हालत ठीकठाक बनायी रखने के लिये उन्होंने ग्रोसरी स्टोर में सेल्सगर्ल की नौकरी कर ली थी। पापा को भी एक सिनेमा हाल के काऊँटर पर नौकरी मिल गयी थी।

पापा मुझे डाक्टर बनाना चाहते थे और मैं बनी भी। मैंने उनके सारे सपने पूरे किये। पापा सबके सामने मेरी तारीफ करते अघाते न थे। यह भी कि मैं किसी लड़के से कम नहीं जिस तरह से मैंने बड़े होने के नाते जिम्मेदारी निभायी है, छोटे भाई-बहनों का ख़्याल रखा है। सब कुछ!

यूँ मेरे छोटे भाई-बहन मेरी इज्जत करते थे तो मुझसे खार भी बहुत खाते थे। इन्हीं बातों पर कि मुझे खास अधिकार मिले हुए हैं जो उनको नहीं मिले। वह चाहे खाने-पीने-सोने,किसी भी महकमे में मनमानी करना हो या जब मर्जी आये छोटों को डाँट-डपट देना या उनसे जी चाहे जो भी काम करवाने की हुक्मबाज़ी हो। मम्मी से ज्यादा रौब मेरा था उन पर। मेरे खिलाफ़वे मम्मी से ही शिकायतें करते। उनको पता था कि पापा के दरबार में मेरे खिलाफ़ कुछ भी नहीं सुना जायेगा। उल्टे पापा उन्हीं को डपट देंगे और साथ में जोड़ देंगे कि सुरभि जैसा समझदार और कोई नहीं। वह जो भी कहती या करती है, ठीक है।

पर पापा से ओहदा पाने के लिये मुझे भी वही करना पड़ता था यानि कि पापा जो कहें या फ़ैसला करें, वह मेरे लिये पत्थर की लकीर था।

यहाँ तक कि मैंने शादी भी उस व्यक्ति से की जिसे पापा ने मेरे लिये चुना, देखा-भाला और पास कर दिया। यूँ मेरी पूरी हामी थी उसमें। देखा जाये तो इस बारे में मेरी कोई साफ सोच ही नहीं थी। पापा जो करेंगे ठीक करेंगे.. इसी का भरोसा था।

पापा को यह लड़का भारत से लाना पड़ा था। यहाँ के लड़के या तो उनके लिये बहुत ज्यादा अमरीकीकृत थे, या अंग्रेज़दाँ।

देखा जाये तो जो लड़का पापा ने मेरे लिये चुना उसमें मेरे हिसाब से कोई भी कमी नहीं थी.. हैंडसम था, डाक्टर था, बहुत ही विनीत, शालीन। सचमुच कहीं भी कोई त्रुटि नहीं।

शादी भी खूब धूमधाम से की पापा ने।

फिर ऐसा क्या हुआ कि यहाँ आने के हफ़्ते भर बाद ही पहले वह पापा से फिर मुझसे नफ़रत करने लगा।

पापा ने हमारा आपसी रिश्ता सुधरवाने के लिये हमें अलग अपार्टमेंट भी लेकर दिया। पर एक बार बात बिगड़ी तो बिगड़ती ही चली गयी।

पहले उसने कहा-”यूअर फादर इज़ वैरी डोमीनियिंग।”

फिर अलग रहने लगे तो कहने लगा-”यू आर लाइक योअर फादर।”

प्यार पनपने से पहले ही नफ़रत का पानी हमारे रिश्ते को सींचने लगा। फिर कितनी दूर साथ जाया जा सकता था?

पापा ने हम दोनों को ही समझाने की कोशिश की। यूँ पापा की निगाह में मैं तो कुछ गलत कर ही नहीं सकती थी। ज्यादा समझाने का काम उसी को किया गया। पर मुझसे पापा भरसक यह ज़रूर कहते रहे कि कोशिश करूँ कि रिश्ता न टूटे तो भला है। पर मेरे बस में ही कहाँ था सब कुछ। अजय ने साल गुजरने से पहले ही मुझे तलाक देने का फैसला कर लिया था।

इस बीच मैं गर्भवती भी हो गयी थी पर आनेवाले में कहीं किसी तरह का मोह न पड़ जाये, उसने मेरे होनेवाले को किसी और का .. यहाँ तक कि मेरे पापा का बच्चा कह कर मुझसे तलाक ले लिया था।

अस्पताल में वह महक को देखने भी नहीं आया था।

क्या इतनी घृणा सचमुच उसे पापा की वजह से थी?

मैं आजतक इस बात का फैसला नहीं कर पायी।

वर्ना मैंने सचमुच उसे खुद को पूरी तरह समर्पित करने की कोशिश की थी।

यह सच है कि पापा का फोन भी आता तो मैं पूरी तरह से उसमें घुस जाती।

क्या मुझे पापा को दोष देना चाहिये या खुद को?

कि मैं पापा से कभी मुक्त नहीं हो पायी!

यह मेरा दोष है या पापा का?

और अब जब कि पापा उम्र के इस पड़ाव पर आकर पूरी तरह से मुझ पर निर्भर हैं तो मैं.....

हैरान तो मैं पापा पर हूँ।

जिस व्यक्ति को मैं समझती रही कि मुझे सबसे ज्यादा प्यार दिया है और जिसके लिये मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी ख़्वार की.. आज जब जायदाद का फ़ैसला करने की बात हुई है तो अपना इकलौता मकान बेटे के नाम किया जा रहा है....

क्यों?

पापा ने प्यार मुझी को दिया, मुझी से लिया.. फिर यह बेटा कहाँ से आ गया?
 संजय तो घर में सबसे छोटा था। उसकी पढ़ाई-लिखाई सबकी देखभाल मैंने ही की। आज अगर वह कुछ बना है तो मेरी ही भागदौड़ से..वर्ना और कौन था उसे दिशा दिखानेवाला..

और अब किस परंपरा की.. किस भारतीयता की बात करते हैं पापा कि मकान बेटे को ही दिया जाता है... मैं तलाकशुदा...जिसने पूरी ज़िंदगी पापा के नाम लगा दी। अब चालीस साल की तो हो ही चुकी हूँ...ज़िंदगी का खूबसूरत पासा तो पलट ही चुका..

क्यों कर रहे हैं पापा ऐसा...?

मम्मी के मुँह में कभी जबान थी ही नहीं जो अब होगी। फिर भी क्यों चाहती हूँ कि मम्मी पापा को समझाये...मुझसे ऐसा बर्ताव क्यों...

मैं बड़ी हूँ..

मैंने बेटे की तरह सब निभाया है..

मुझे क्यों नहीं मिल सकता मकान?

अभी भी बिमारी में पापा की कौन देखभाल कर रहा है? मैं ही न...

मैं चाहूँ तो आज भी...अगर छोड़छाड़ के ही चली जाऊँ तो देखती हूँ कितने दिन और पापा ज़िंदा रह सकते हैं...

अपना काम-धंधा छोड़ के मैं ही बैठी हूँ उनकी सेवा करने वर्ना दूसरी दोनों बेटियाँ तो शादी करके रफादफा...और बेटा भी नौकरी के नाम पर कभी एक शहर में तो कभी दूसरे...सिर्फ़ सुरभि से ही उम्मीद कि वह अपना सब छोड़छाड़ पापा की सेवा में निवृत्त हो...भला क्यों...

पर यह भी शायद मेरी अपनी मजबूरी है...हड्डी न टूटती तो मैं भी लाचार क्योंकर होती...फिर डिसेबिलिटि तो मिल ही रही है...काम पर फिलहाल लौटने की ज़रूरत ही नहीं...शायद सालों साल तक न लौटना पड़े...खैर वह तो डाक्टरों की रिपोर्ट पर मुनस्सर करेगा।

बाकी दो चार दिन लिये आते हैं और पापा को देखदाख कर लौट जाते हैं...मम्मी भी कभी कमर दर्द तो कभी सर दर्द को लेकर पड़ी जाती है...एक मैं ही तो हूँ जो पापा को रोज देखे बिना रह भी नहीं सकती..

और सोचती हूँ कि पापा भी नहीं रह सकते...

शायद इसीलिये भीतर कहीं यह भी चाहती हूँ कि पापा सचमुच न हों, तो कितना सही हो जाये सब...मेरी मुक्ति...मेरा त्राण...मेरी अपनी ज़िंदगी...एक नयी ज़िंदगी की शुरूआत...!

क्या उसी में है मेरी मुक्ति...? मेरी नयी ज़िंदगी...सचमुच...क्या ऐसा है? हो सकता है?

कैसे होगी नयी शुरूआत....कोई ढंग का पुरुष तो कभी मिलता नहीं...अब जैसे-जैसे उम्र की ओर बढ़ रही हूँ..क्या उम्मीदें और भी कम नहीं हो जायेंगी?

शायद पापा को भी कष्ट होता है मुझे घर में देख....उनको भी यही सही लगता कि मैं भी पति के घर में बसूँ...पर अब...शायद उसके लिये बहुत देर हो चुकी....नहीं यहाँ तो सब कहते हैं..शादी के लिये कोई भी उम्र सही है...पर मेरा मन कहीं अंटे ...तब न...पापा की देखभाल से ही फुरसत मिले...तब न...?

और अब यह कर क्या रही हूँ मैं...? देखभाल भी कहाँ ठीक से कर पाती हूँ...मन तो इतना जला-जला है....

नहीं पापा से महक का लगाव नहीं होने दूँगी।...देते रहें आवाज़ें..। नहीं जायेगी महक उनके पास....

 

पर ज्यों ही मैं गुसलखाने गयी..वह उठकर पहुँच गयी पापा के पास...। मैंने पापा के सामने ही जोर से थप्पड़ जड़ा था उसे...”खबरदार जो खेलने का नाम लिया...पहले अपना काम्पोज़िशन लिखो....”

यही महक जब नयी-नयी स्कूल पढ़ना शुरू हुई थी तो रोज़ पूछती थी-”एवरीवन हैज़ ए फ़ादर। हू इज़ माई फ़ादर?”

मैं नहीं बता पायी थी कि तेरा बाप तो तुझे पैदा होने पर देखने तक नहीं आया। उसका दिल रखने के लिये बोली थी- ”पापा इज योअर फ़ादर।”

“नो ही इज माई नाना।”

“नाना इज आलसो ए फ़ादर। वो हम दोनों के पापा हैं।”

 

महक यही सवाल पूछती रही थी। नाना-नानी का प्यार माँ के प्यार से भी ज्यादा लाड़ लड़ाता था। महक बिना ज्यादा विवाद किये मेरा सुझाव मान गयी थी।

अब खुद पछताती हूँ कि क्यों इस भुलेखे में रखा बच्ची को।

यह बात नहीं कि वक्त के साथ बच्ची सब जान-समझ नहीं जायेगी पर शायद इससे उसका प्यार उसके मन में और भी अधिकारिक, और भी पुष्ट हो गया होगा...आज जब मैं खुद को  पापा से तोड़ना चाह रही हूँ तो लगता है...कि महक के जरिये से जो पापा के साथ मैंने जो दोहरा रिश्ता कायम कर लिया था...उसका क्या होन वाला है...क्या सही होगा!

जो गुस्सा, आक्रोश अपने मन में है क्या महक के भीतर उगाया जा सकता है....उगाना सही होगा? क्या मैं महक को उसी तरह कंट्रोल करने की कोशिश नहीं कर रही जैसे कि पापा ने मेरे साथ किया..यहाँ तक कि मम्मी से भी मेरा प्यार नहीं पनपने दिया..?

 

दरअसल जिसे मैं पापा का प्यार मानती रही...जिसे पाकर हमेशा इतराती रही..अब जाकर लगता है कि वह प्यार नहीं ज़हर था...जिसे थोड़ा-थोड़ा पिलाकर पापा ने मुझमें एक विषकन्या रच दी थी। जिसमें औरों के लिये सिर्फ़ ज़हर था...अजय को तो मुझमें ज़हर ही दिखा न सिर्फ़...ऐसा ज़हर कि जो महक को भी पिता से तिरस्कार की मार दे गया..

और मेरा मन हर गलत होने के लिये पापा को ही जिम्मेदार ठहराता है...पापा जिन्होंने मेरा संसार रचा!

रचा या रचने से रोक दिया!

रोका ही या हमेशा के लिये तहस-नहस कर दिया। यहाँ तक कि मेरी आगे की पीढ़ी का भी सर्वनाश...

पर यह सब पहले तो नहीं सोच पायी थी? इधर कुछ अरसे से ही मन दूसरी दिशाओं में भटक गया है..?

पर मैं शायद यह बहुत घटिया बात सोच रही हूँ कि मकान पापा मेरे नाम पर क्यों नहीं करवाते। उनका तर्क है कि मुझे दें तो दूसरी बेटियों को भी।

पर दूसरी बेटियाँ क्या मेरी बराबरी कर सकती हैं जो मेरे बराबर उनको तौला जा रहा है? जिस तरह मैंने पापा के कंधे से कंधा मिलाकर घर भर का बोझ उठाया है क्या और कोई...? उनका चाहे बेटा ही...? कर पाया है? अगर रिटायर होने पर बेटे ने इनको पैसे भेजने शुरू कर दिये तो क्या घर पर सारा हक उसी को हो गया? मैं जो यहाँ मर-खप रही हूँ...पता नहीं कब से मरती-खपती रही। सारी ज़िंदगी पापा के नाम कर दी...कल को शादी हुई तो संजय बीवी का नहीं हो जायेगा...?

मैं सारा वक्त इनके साथ रहती हूँ तो मैं कैसे परायी हो गयी?

भला किस नजरिये से पराया धन हूँ मैं...पैदा हाने से अब तक तो माँ-बाप के साथ हूँ। पति से भी इसीलिए कुछ नहीं मिल कि पिता की बेटी है और अब पिता कुछ नहीं देना चाहता कि पराया धन है...?

यह कैसा रिवाज है...कैसी रीति है...?

किसने बनाये हैं ये नियम...?

घर बेटे के नाम और काम सारा बेटी से।
जितना लगाव इस घर से मुझको है क्या संजय को हो सकता है? मैं जिसने अपनी ज़िंदगी के बेशकीमत साल यहाँ गुजारे। इस घर की ईंट-ईंट में तो मेरी साँसे बसी हैं। कल को संजय की बहू मुझे निकाल दे तो मेरा क्या होगा? क्या पापा को इस बात का ख्याल नहीं आता? क्या वे सोचते हैं कि उनके न होने पर भी मेरा अधिकार बना रहेगा?

ये सच है कि तलाक लेने के बाद मुझी को घर रहने के लिये चाहिये था और पापा ने मेहरबान हो कर अपना घर हवाले कर दिया। मैं अपार्टमेंट छोड़ स्थायी तौर पर उन्हीं के साथ रहने लगी।

गर्भवती भी तो थी। अकेली रहती भी कैसे? मम्मी ने जी भर के मेरी सेवा की। महक को मम्मी पापा ने ही पाला। मैं नौकरी भला कैसे चलाती अगर माँ न पालतीं।

पर मैं ने भी तो कुछ कम नहीं किया। पापा की भयंकर बीमारियों में मैंने ही बचाया। रात-दिन सेवा की। संजय तो हमेशा बाहर ही रहा। अब जब मकान देने की बात आयी तो सारा मकान उसके नाम। भला क्यों?

बराबर बाँटे न?

मैं भी वकील करूँगी। पता चले इनको। इतना अन्याय?

माँ को तरसाया दबाया पर मेरे साथ ऐसा नहीं कर पाओगे। जबकि अब समझ में आता है कि मेरा तलाक क्यों हुआ। ऐसे बाप के साथ अजय कैसे निभाता- लव मी लव माई डाग...सो वो पहले ही भाग गया।

जिस पापा का होना हमेशा मेरा सौभाग्य या अब वैसा क्यों नहीं लगता?

मेरे मौजूदा रवैये पर मम्मी, भाई-बहन सब मुझी को बुरा-भला कहते हैं। मेरे त्याग को कोई नहीं देखता। छुटकी बोलती है- ”अब तेरा तलाक हो गया तो हम या मम्मी-पापा उसके जिम्मेवार थोड़े न हैं। अपनी करनी सबको खुद भुगतनी पड़ती है। मैं तो अपने पति से खूब बना कर रखती हूँ। तुझे भी चाहिये था।”

मैं सर से पाँव तक सूखी लकड़ी की तरह जलने लगती हूँ।

गुस्से में मैंने धमकी दी थी नालिश करने की तो पापा ने भभक के कहा था- ”जिस थाली में खाना उसी में छेद”,  आगे जोड़ा- ”खाती है और भौंकती भी।”

यही नहीं...पापा चाहते हैं मैं उनका कुत्ता बन कर रहूँ...जो जूतियाँ खा कर भी दुत्कारे नहीं...दुम हिलाता रहे। भौंकनेवाला कुत्ता कैसे बन गयी मैं?

पर वैसा नहीं होगा।

अगर पापा को मुझसे प्यार है तो साबित करना होगा...कथनी ही नहीं ..करनी में भी...है हिम्मत तो कर दें घर को सुरभि के नाम।

वर्ना मैं भी वंचित कर दूँगी पापा को अपने साथ से...अपने प्यार से...अपनी बात से...अपने साये तक से...हाँ कर सकती हूँ ऐसा। जानती हूँ पापा तब खूब तड़पेंगे...

बस यही एक हथियार बचा है न मेरे पास?

मुझे मालूम भी है कि मैं क्या कर रही हूँ और नहीं भी मालूम...पल में तोला पल में मासा चलता रहता है हिसाब-किताब....

क्या पापा से मुक्ति पीड़ा से मुक्ति हो सकती है? क्या मेरे लिए वहाँ और भी ज्यादा अंधेरा नहीं? और भी ज्यादा शीशे के चूर...काँटों के सलीब?

पापा के बिना कोई हस्ती हो सकती है मेरी?

पर उससे भी बड़ी है यह जलन...अवहेलना की मार...मेरी सारी अस्मिता को फूँक की तरह उड़ा देने की उनकी जुर्रत?

क्यों????...आखिर क्यों?

मैं क्या कोई राह का पत्थर हूँ कि यूँ ही ठोकर मारकर हटा दो?

पता तो लगे किससे वास्ता पड़ा है...

जो पलटकर लगे वही तीर हूँ मैं...

 

जिस धातु ने पापा को गड्ढा है...उसी से गढ़ी हूँ मैं भी...

एक बार नश्तर चुभोया तो घाव कभी भरेगा नहीं!

पापा को कैसे समझाऊँ...मेरे क्रोध की आग कभी बुझने नहीं वाली।

बेहोश कर देनेवाली दवाई से भरा यह इंजेक्शन पापा के दर्द को कम करेगा पर मैं ..एनीस्थीज़ीआलोजिस्ट..डा. सुरभि पाँडे- यह भी जानती हूँ कि दवा की कितनी मात्रा पापा को हमेशा के लिये मुझसे और अपने-आप से मुक्ति दिला सकती है?

क्या मेरे भीतर लगा हुआ यह दावानल मेरे हाथ पर काबू पा सकेगा...या...क्या पापा के प्यार का भरोसा कहीं बचा है मुझमें? नहीं जो प्यार करता है वह रीति-रिवाज की बात नहीं करता। प्यार में रीतियों को तोड़ना होता है....लेकिन पापा ने तो ऐसा कभी कहा नहीं?

वे तो रीति-रिवाज के हमेशा मानते रहे। सब कुछ किया- बच्चों को पाला-पोसा। शादियाँ कीं। पत्नी को घर की सेवा में लगा रखना भी रीति के खिलाफ नहीं। देखा जाये तो पापा ने सभी कुछ रीतियों के मुताबिक ही किया।

सिर्फ़ मुझसे प्यार ...हाँ मुझसे इतना ज्यादा प्यार...यही शायद रीति के खिलाफ़ होगा...!

तो मुझे कोई उम्मीद नहीं होनी चाहिये कि पापा किसी नियम के खिलाफ़ जाकर मुझे वे सौंपेंगे जो मेरा प्राप्य नहीं।

तो फिर क्या है मेरा देय?

लेकिन क्या मैं पापा को वैसे ही नहीं मार रही जैसे उन्होंने मुझे पाला...यानि कि मारा...?  आज मैं उन्हें खुद से पूरी तरह वंचित कर देना चाहती हूँ...अपनी बेटी से भी। प्यार का कोई स्रोत न रहे...सुनीता, संजय का प्यार मिले भी तो उसकी वह कीमत नहीं जो मेरे प्यार की है। यह मैं जानती हूँ इसीसे उस प्यार को लौटा लेना चाहती हूँ...

क्या यही कहलाती थीं विषकन्या जिन्हें पाला-पोसा जाता था..दूसरों की हत्या करने के लिये। क्या ऐसी विषकन्यायें भी होती होंगी जिन्हें अपनी हत्या के लिये भी पाला जा सकता होगा?

क्या मेरे हाथ की यह सूई वक्त के साथ बलात्कार करेगी या यूँ ही धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा ज़हर....यह क्या? मेरा हाथ क्यों काँप रहा है...? जैसे कोई भूचाल मच गया हो मेरी हथेलियों में...मेरी उंगलियों में......!

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