विषयों का जाल
बाल साहित्य | किशोर साहित्य कविता अर्चना सिंह 'जया'8 Nov 2016
अकस्मात् ही आया, मन में एक सवाल
विषयों का यह कैसा जाल
क्यों अनिवार्य है विषयों का संसार?
नानी की यह याद दिलाता
"गणित" क्यों है हमें रुलाता?
गुणा, भाग, जोड़, घटाव
क्यों आते जीवन में ऐसे पड़ाव?
विषय "अँग्रेज़ी" का पूछो न हाल
नव पीढ़ी के सिर चढ़ा बुखार
पश्चिमी भॅंवर में हम हैं घिरते
बिन इसके दो क़दम भी न रखते।
"इतिहास" की तो कुछ ऐसी है गाथा
अतीत की मरुभूमि पर हमें सुलाता
सुनी अनसुनी न जाने कितनी पुरानी
ढूँढता फिरता पत्थरों में फिर नई कहानी।
उधर "विज्ञान" नित करता अविष्कार
न चाह कर भी बच्चे कर लेते स्वीकार
माना जल, वायु, प्रकाश से है यह संसार
पर यह तो ईश का है सब चमत्कार।
"हिन्दी" भाषा का ना करना तिरस्कार
बंद दीवारों में ही सब करते हैं विचार
चाह कर भी यह न पा सका सम्मान
विषयों के चक्रव्यूह में -
फँसता गया नन्हीं सी जान!
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