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व्यंग्यकार की मेथी की भाजी 

 

व्यंग्य संग्रह : ‘मेथी की भाजी और लोकतंत्र`
व्यंग्य लेखक : ब्रजेश कानूनगो
प्रकाशक : रश्मि प्रकाशन, लखनऊ
मूल्य : ₹100.00
पृष्ठ : 100

पिछले दिनों कनाडा प्रवास पर आये श्री ब्रजेश कानूनगो से बहुप्रतीक्षित मुलाक़ात हुई तो उन्होंने उनकी बनाई “मेथी की भाजी” मुझे परोसी। मेथी की भाजी का कड़वा स्वाद पराठों में जो ज़ायक़ा भरता है वह मुझे सदैव आनंदित करता रहा है और यह तो व्यंग्यकार की मेथी की भाजी थी, ऐसे व्यंग्यकार जो कड़वी-कसैली-तीखी बातों से रस बनाने में पारंगत हैं। ब्रजेश कानूनगो मास्टरशेफ़ चाहे नहीं हों पर वे मास्टर व्यंग्यकार हैं। 32 वर्षों के निरन्तर लेखन में दर्जन से ज़्यादा किताबें लिख चुके हैं। जहाँ विषय मिलता है वहाँ सदैव बल्लेबाज की तरह रन ठोक देते हैं। उम्मीद के मुआफ़िक़ उनके व्यंग्य संग्रह “मेथी की भाजी और लोकतंत्र” का स्वाद खट्टा-मीठा और चरपरा रहा। आप भी चखिए कुछ व्यंग्य डिशों की बानगी।

ब्रजेश अपने चुटीले अंदाज़ में कहते हैं – “मेथी की भाजी के साथ की पत्तियाँ सोशल मीडिया के फॉलोवरों की तरह घनिष्ठता से डाली के साथ जुड़ी रहती हैं। जिस डाली में अधिक फॉलोवर होते हैं, वह उतनी बेहतर मानी जाती है।.... आमतौर पर मेथी की मुलायम डालियाँ कालांतर में डंठल में बदल जाती हैं। सब्जी हो या सरकार, डंठलों की स्थिति ज़ायक़ा प्रभावित करती है।” ... और फिर वे स्थापित करते हैं – “कृपया कड़वी मेथी को सत्ता के विपक्ष की तरह मत देखिए, इसका होना भोजन में लोकतंत्र बनाए रखने की ज़रूरत है, मेथी है तो लोकतंत्र भी है।”

अन्य लेखकों की रचनाएँ चोरी कर अपने नाम से प्रकाशित कराने वाले स्वनाम धन्य लेखकों पर कटाक्ष करते हुए ब्रजेश “लेखक से चुराइटर तक” में कहते हैं “इन दिनों बाजार में बहुत सारे ‘चुराइटर’ पैदा हो गए हैं।” उन्होंने चोरी और राइटर को मिलाकर बहुत पारिभाषिक शब्द का निर्माण मज़े-मज़े में भले ही कर दिया... “लुगदी लेखक भले ही साहित्य में बड़ी आलोचना के केंद्र में रहकर बहुत लोकप्रिय हुए हैं लेकिन वे भी इतने गुणी कभी नहीं रहे जितने कि आज के चुराइटर होते हैं।”  ‘झंडों के डंडे’ में उनका प्रत्यक्षदर्शी व्यंग्यकार लिखता है – “झंडे और प्रदर्शन अब कोई चौंकाने वाली चीज़ नहीं रह गई है। वो बात इतिहास हो गई है, जब किसी आंदोलन की अगुवाई में हमारा नेता झंडा उठा लिया करता था। अब ऐसा नहीं है, अब कभी भी झंडा उठाया जा सकता है और विरोध के लिए चीखा जा सकता है। इसके लिए नेता होना भी आवश्यक नहीं है। लोकतंत्र हमें इसकी इज़ाज़त भी देता है। संविधान में भी यह कहीं नहीं कहा गया है कि आप झंडा लहराते हुए नारे नहीं लगा सकते।”

इस काल में हमारी रचनात्मकता और स्मार्टनेस इमोजी के उपयोग पर निर्भर करती है। ‘स्मार्टनेस और इमोजी’ पर ब्रजेश का मुखरित व्यंग्य कहता है, “गब्बर के तमंचे की तरह निर्देशक ने पिस्तौल में दुनिया की मैगजीन को ऐसा घुमा दिया है कि अब किसी को पता नहीं है, कहाँ असली है और कहाँ आभासी... हमें कुछ नहीं पता... विकास के इस महत्वपूर्ण समय में इमोजी से दोस्ती ज़रूरी है या रूबरू अनुभूतियों, दिली संवेदनाओं का संप्रेषण... किसी को कुछ नहीं मालूम....! स्मार्टनेस की रेस में कहीं हम पीछे न छूट जाएँ, इस चिंता में सब दौड़े जा रहे हैं। इस दौड़ में भी इमोजी हमारा बहुमूल्य पसीना बचा लेता है। बस एक पिक तो टच करनी होती है धावक इमोजी की, अपने स्मार्टफोन में।”

‘मुन्नाभाई का भ्रातृ-प्रेम’ सहज व्यंग्य का सटीक निर्वाह है, वे लिखते हैं - “भारतीय भूत में भाई की बड़ी महत्ता रही है। भाई की खातिर भाई जान पर खेल जाया करते थे। राम को वनवास भेजने वाली सगी माँ को एक सौतेला भाई आजीवन क्षमा नहीं कर पाता और स्वयं राम की पादुकाएँ सिंहासन पर रखकर वनवासी-सा जीवन चौदह वर्षों तक व्यतीत करता है, दूसरा अपनी नवब्याहता पत्नी को छोड़कर भाई की सेवा में वन को चला जाता है। कहावत-सी बन गई है कि इस युग में राम तो बहुत मिल जाएँगे लेकिन भरत और लक्ष्मण-सा भाई मिलना कठिन है।”

प्रतिष्ठित अख़बारों के संपादकीय पृष्ठों पर सम-सामयिक विषयों पर लिखे सहज हास्य-व्यंग्य हर दिन छाये रहते हैं। श्री ब्रजेश कानूनगो ने अपनी इसी सहज बयानी से समकालीन व्यंग्य में अपने काम को स्थापित किया है। उन्हें सांसद सदन में सोते हुए दिख जाते हैं, इसे पकड़ते हुए उन्होंने लिखा ‘सदन में उनका सो जाना’, “वे इस बार फिर सदन में सो गए। वे ऐसा कर सकते हैं बल्कि यों कहें उनके साथ ऐसा हो जाता है। उनके दुर्भाग्य और देश के सौभाग्य से पूरा देश उन्हें ऐसा करते हुए टीवी पर देख भी लेता है। उन्हें इस तरह चैन की नींद सोते देख उन लाखों लोगों का मन कुंठा से भर जाता है, जिन्हें नींद की गोली खाकर भी कमबख्त नींद नहीं आती और वे हैं कि भरे सदन में चिल्ल-पों के बीच भी येन-केन प्रकारेण शयन कर लेते हैं। ....माननीय की समस्या समझी जाना चाहिए। अगर आज नहीं सोएँगे, तो कल देश को कैसे जगायेंगे। वे सोएँगे, तभी तो हमारे लिए सपने देखेंगे, देश के लिए सपने देखेंगे। उनके सपनों का ख्याल तो कीजिए।” 

धड़ल्ले से और थोक में लिखे जा रहे – छप रहे व्यंग्य के कैनवास पर नित नए दृश्य और रंग चाहिए। संभावित दोहराव को टालने के लिए ब्रजेश बहुत सतर्कता से अपना विषय चुनते हैं। ‘बायपास के पास’ सतर्कता की ऐसी ही एक मिसाल है। “गाँव-बस्ती का विकास होता है, तो वह क़स्बे में बदल जाते हैं। फिर क़स्बा शहर में बदलने लगता है। शहर भी अपना विकास करता है। ऐसे में मज़बूत इरादे हों, तो खेतों को कॉलोनियों में बदल देना भी कठिन नहीं होता। जहाँ कभी घरौंदों तरह गोभियाँ और गन्नों की मीनारें नज़र आती थीं, वहाँ रो हाउस, बंगलों और बहुमंज़िला इमारतों की फसल लहलहाने लगती है।” जहाँ व्यंग्य विषय सुपरिचित हों, ब्रजेश वहाँ शैली और शब्दावली में परिवर्तन लाते हैं और नयापन बनाये रखने में कामयाब होते हैं। पाखंडी बाबाओं पर ‘निराश आत्मा का संकट’ में वे इस तरह लिखते हैं, “मन भले ही मैला हो, लेकिन आत्मा निर्मल होनी चाहिए।.... हर तरफ से निराश व्यक्ति आखिर कहीं तो दो बूँद आशा की तलाश में जाएगा। यही तो निराश आत्मा का असली संकट है। अब यह अलग बात है कि निराशा के इस विशाल समुद्र में कुछ चतुर व्यापारी मोतियों का दोहन करने में सफल हो रहे हैं।”  जूते और टमाटर भी हास्य-व्यंग्य के परम्परागत स्रोत रहे हैं। ‘पथभ्रष्ट जूता’ में ब्रजेश का निशाना देखिए, “टमाटर हो, अंडा हो या जूता हो, अक्सर लक्ष्य चूकते रहे हैं। चूक किससे नहीं होती? भगवान भी चूक जाता है, किसी जीव को जिस पूर्व निर्धारित योनि में जन्म देना होता है, जरा-सी चूक से उसे किसी और योनि का नागरिक बना देती है। शेर के शरीर में गीदड़ की आत्मा और आदमी के सिर में लोमड़ी का दिमाग खुराफ़ात करने से चूकता नहीं। लोग समझते हैं आदमी चूक गया है, शेर गीदड़ हो गया है।”

विद्रूपताओं पर प्रहार, व्यंग्यकार की ताक़त का सम्यक बयान है। ब्रजेश यहाँ अपनी शक्ति दिखाने से नहीं चूकते। मठाधीशों पर ग़ज़ब का कटाक्ष है ‘बस्ती में मगरमच्छ’ आलेख में, “शब्दों में संसार के अर्थ का अभिलाषी व्यक्ति बैंक में आँकड़ों की कलाबाज़ी करके अर्थव्यवस्था का एक मामूली अक्षर बना बैठा है। अंडरवर्ल्ड के डॉन अपराध की सुरंगों से निकलकर प्रजातंत्र की बिसात पर शतरंज खेलते दिखाई देते हैं। जिन्हें राजनीति में होना चाहिए, उन्हें महानता का मुकुट पहनाकर शोभा-पुरुष की तरह श्रद्धा की चौखट में संजो दिया जाता है। जो पढ़े जाते हैं उन्हें साहित्य के मठ में प्रवेश नहीं मिलता, जिन्हें कोई नहीं पढ़ता मठ उनकी जागीर होता है।”

इक्यावन व्यंग्य रचनाओं की प्रस्तुति में ब्रजेश ने संकलन की पठनीयता को बरकरार रखा है। उन्होंने व्यंग्य की धार और उसकी प्रहारक क्षमता को बेहतर और तीक्ष्ण बनाया है। निश्चित ही उनके मारक व्यंग्य हमें लगातार उकसाते रहेंगे, सफल और सशक्त व्यंग्य संकलन के लिए ब्रजेश को बहुत-बहुत हार्दिक बधाइयाँ।

 

लेखक का पता
ब्रजेश कानूनगो 
503, गोयल रिजेंसी, चमेली पार्क, कनाडिया रोड, इंदौर 452018
मो 9893944294  bskanungo@gmail.com  

 
समीक्षक का पता –
धर्मपाल महेंद्र जैन
1512-17 Anndale Drive, Toronto M2N2W7, Canada
फ़ोन : + 416 225 2415
ईमेल : dharmtoronto@gmail.com

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टिप्पणियाँ

GYAN CHAND OSWAL 2019/07/02 04:58 AM

मेरी भाजी पर बहुत सुंदर लेख एवं सटीक व्यंग। लेखक को बधाई।

सिंघई सुभाष जैन 2019/07/01 11:39 AM

समीक्षक ने पुस्तक पर सारगर्भित समीक्षा की है। सरल भाषा में सभी ५१ रचनाओं पर सटीक टिप्पणियाँ है। बधाइयाँ।

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