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व्यंग्य नव लेखन में ऊँचे दर्जे का अधिकार : शिकारी का अधिकार

समीक्ष्य पुस्तक : शिकारी का अधिकार
लेखिका : आरिफा एविस
प्रकाशक : लोकमित्र
पृष्ठ सं. 64
कीमत : 30 रुपये

पिछले दिनों आयोजित तीन दिवसीय 'व्यंग्य की महापंचायत' में कई अनोखी बातें हुईं। पहली तो यही कि बन्दा 'अट्टहास' के प्रोग्राम में पहली बार शामिल हुआ । व्यंग्य में गाली-गलौज के प्रयोग और सपाटबयानी पर मेरे विचारों से सभी अवगत हैं, क्योंकि मैं इन पर बहुत कह और लिख चुका हूँ, इसलिए यहाँ मैं ख़ुद को दोहराना नहीं चाहता। फिलहाल इतना बताना चाहता हूँ कि सम्मेलन की एक सहभागी आरिफा एविस ने उसमें अपने व्यंग्य-संकलन ‘शिकारी का अधिकार’ (प्रकाशक : लोकमित्र 1/6588, सी-1, रोहतास नगर (पूर्व), शाहदरा, दिल्ली-110032, पृष्ठ 64, मूल्य 30 रुपये) का विमोचन भी करवाया। मौका निकालकर मैंने इस संकलन को पढ़ना शुरू किया, तो पढ़ता ही चला गया। पढ़कर हैरत में भी पड़ गया, क्योंकि संकलन के प्राय: सभी व्यंग्य बहुत प्रखर हैं। आकार-प्रकार से बच्चों की किताब जैसे लगने वाले इस व्यंग्य-संकलन में आरिफा के 17 व्यंग्य संकलित हैं। ज़्यादातर व्यंग्य सामयिक घटनाओं पर आधारित हैं, पर वे व्यंग्य ही हैं, तात्कालिक टिप्पणियाँ नहीं। उत्तराखंड में एक विधायक द्वारा घोड़े की टाँग तोड़ने की घटना हो, या जबरन भारत माता की जय बुलवाने का मामला, कोलकाता में लंबे समय से बन रहे पुल का अंतत: भरभराकर गिर जाने का वाकया हो या बात-बात पर पाकिस्तान चले जाने का धमकीनुमा सुझाव, महँगाई और सूखे के बावजूद अच्छे दिन आने का जश्न हो या सरकारी पुरस्कार दिए जाने के मापदंड, सभी पर आरिफा की क़लम चारा काटने की मशीन की तरह तेज़ी से चली है और सब-कुछ काटती चली गई है। आरिफा ने ज़्यादातर उलटबाँसी यानी विपरीत-कथन को व्यंग्य का औजार बनाया है, जैसे ‘बोलो अच्छे दिन आ गए’ में वे लिखती हैं, “पूरी दुनिया में देश का डंका बज रहा है। अमेरिका भारत की शर्त पर झुक गया है। पाक में हड़कंप मच गया है। चीन जैसे गद्दार देश में भारत की तूती बोल रही है। (प्रधानमंत्री के) विश्वभ्रमण से देश को विश्वगुरु मान लिया गया है। चाहे आर्थिक, सामाजिक ख़ुशहाली के मामलों में दूसरे देशों की तुलना में हमारे देश की रैंक नीचे से पहले या दूसरे नंबर पर हो।...देश के हर नागरिक के खाते में 15 लाख रुपये आ चुके हैं।...रोज़गार इतने पैदा हो चुके हैं कि एक व्यक्ति के लिए लाखों वेकेंसी निकलती हैं। भर्ती-फॉर्म से बिलकुल पैसा नहीं कमाया जाता, चाहे वो भर्ती कैंसिल ही क्यों न करनी पड़े।”

इसी प्रकार ‘ये इश्क़ बहुत आसां’ में छद्म देशप्रेमियों पर व्यंग्य करते हुए वे लिखती हैं, “दूसरे वतन से नफ़रत करे बिना देशप्रेम भी कोई देशप्रेम है। देशप्रेम तो होता ही दूसरी जाति, धर्म, देश से नफ़रत करने के लिए है। अब सब इनसानों से इश्क़ करने लगेंगे तो ये ऊँच-नीच, अमीरी-ग़रीबी, अपनी-पराई संस्कृति का भेद कौन बरक़रार रखेगा?”

पुस्तक बहुत छोटी-सी है और अमूल्य होते हुए भी उसका मूल्य केवल तीस रुपए है। इसके सारे के सारे व्यंग्य एक अद्भुत ताज़गी से भरे हैं। साथ में अनूप श्रीवास्तव जी को किया गया भावभीना समर्पण है, अनूप शुक्ल की अलग अंदाज़ में लिखी हुई भूमिका है और लेखिका की ‘मेरी क़लम से’ शीर्षक प्रस्तावना भी, हालाँकि व्यंग्य भी उसी की क़लम से हैं। पुस्तक में कमियाँ भी हैं, जो न होतीं तो आश्चर्य होता। फिर भी, बड़बोलेपन और जी-हुजूरी के बल पर अपना स्थान बना सकने की काल्पनिक दुनिया में जीने वाले हिंदी-व्यंग्य के पप्पू इस लड़की से बहुत-कुछ सीख सकते हैं। मैं आरिफा के व्यंग्य पढ़कर नई पीढ़ी की महिलाओं के व्यंग्य-लेखन से बहुत आश्वस्त हुआ हूँ, उतना ही जितना नई पीढ़ी के पुरुषों में शशिकांत सिंह, वीरेंद्र सरल और अरविंद पथिक मुझे आश्वस्त करते हैं। लिखने को तो पुस्तक के बारे में पाँच-दस पेज मैं और लिख सकता हूँ, लेकिन अच्छा होगा कि भोर की ओस सरीखी ताज़गी से भरे व्यंग्यों वाली इस अल्पमोली छोटी-सी पुस्तक को आप लोग ख़ुद पढ़कर इसका आनंद लें।

समीक्षक : वरिष्ठ व्यंग्यकार सुरेशकांत

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