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ऐसे थे हमारे कल्लू भइया!

बात 1986 की है मैं उस समय हाईस्कूल का छात्र हुआ करता था। मेरी दोस्ती हुई राजीव मिश्रा नाम के एक सहपाठी के साथ। प्यार से उन्हें लोग टिल्लू भाई पुकारा करते थे। टिल्लू के साथ दोस्ती के बाद मैंने उनकी दो आदतों को अपनी आदतों में शामिल कर लिया। एक था उनके नाई अयूब भाई से बाल कटवाना और दूसरा उनके साथ मल्हू भाई के दुकान पर रोज़ जाकर दोहरा खाना। दोहरा खाने का एक सबसे बड़ा फ़ायदा यह था कि घर पर किसी को पता नहीं चलता था कि मैं दोहरा (पान में पड़ने वाला मीठा मसाला) खाता हूँ। चूँकि इसमें पान, चूना या कत्था जैसी कोई चीज़ नहीं होती थी इसलिए मुँह में कुछ लगता नहीं था और मैं घर अपनी माता जी से डाँट खाने से बच जाता था।

मल्हू भइया के तीन और भाई थे। सबसे बड़े ज्ञान भइया, उसके बाद कल्लू भइया और सबसे छोट थे दिनेश। टिल्लू की दोस्ती और मल्हू भाई के दोहरे से मुझे ऐसा प्यार हुआ कि मैं शाम को कोचिंग से सीधे मल्हू भाई की दुकान पर पहुँच जाता और कुछ समय वहीं पर टिल्लू के साथ बिताता। धीरे-धीरे मल्हू भाई के साथ ही साथ उनके सभी भाइयों से मेरी दोस्ती हो गई। अब रोज़ मल्हू भाई की दुकान पर बैठकी होने लगी। उसी दुकान पर कुछ लोगों की एक अलग पार्टी भी बैठकी करती थी जिन्हें शायद मेरा वहाँ पर बैठना अच्छा नहीं लगता था। एक दिन किसी बहाने से वे मुझसे लड़ाई करने लगे बातचीत चल ही रही थी कि मुझे पीछे से किसी ने एक झापड़ रसीद दिया। मैं कुछ समझ पाता कि इससे पहले बग़ल वाली दुकान जिस पर मल्हू भाई के तीनों भाई बैठा करते थे, में से निकल कर कल्लू भइया उन सभी लोगों से भिड़ गये। कल्लू भइया का उन लोगों से भिड़ना क्या था सभी भाइयों के साथ ही आस-पास के दुकान वालों ने भी कल्लू भइया की तरफ़ से मोर्चा सँभाल लिया। मुझे कल्लू भइया ने तुरन्त घर जाने को कहा और मैं भी और अधिक मार खाने की डर से सीधे घर की तरफ़ भाग चला। घर पहुँच कर मुझे बहुत आत्मग्लानि महसूस हुई कि तुम्हारे कारण कल्लू भइया ने सभी से लड़ाई मोल ली और तुम कायरों की तरह घर भाग आये। बहुत शर्मिन्दगी महसूस हुई। साइकिल उठायी और फिर सीधे कल्लू भाई की दुकान की तरफ़ भागा। वहाँ पहुँचने पर जो नज़ारा देखने को मिला मैं समझ गया कि कोई बहुत बड़ी बात हो गई। सुलतानपुर जैसे छोटे से शहर की सबसे बड़ी मार्केट की दुकानों के शटर गिर चुके थे। कल्लू भइया और उनके भाईयों का भी कहीं कुछ पता नहीं चला। उस समय मोबाइल नहीं हुआ करता था। हार कर मैं भी अपने घर लौट आया। सुबह हुई दूसरी पार्टी में शामिल एक लड़के के चाचाजी मेरे पिता जी के पास शिकायत के साथ खड़े थे कि आपके लड़के की वज़ह से मेरे लड़के को बहुत मार पड़ी। उसकी पीठ खोलकर दिखाई तो उसके निशान बता रहे थे कि कल मेरे घर भाग आने के बाद की स्थिति क्या रही होगी। मैं तुरन्त कल्लू भइया की कुशल-क्षेम पूछने के लिए उनकी दुकान की तरफ़ भागा। दुकान पर सभी भाई मौजूद थे और वो भी पूरी तैयारी के साथ कि अगर दूसरी पार्टी फिर आती है तो आज फिर वही होगा जो कल रात को हुआ था। ख़ैर पिता जी के इस आश्वासन के बाद कि अब उनके लड़के को फिर से यह तकलीफ़ नहीं उठानी पड़ेगी दूसरी पार्टी शांत पड़ गई थी और मेरे हीरो कल्लू भइया हो गये।

धीरे-धीरे कल्लू भइया से ऐसी आत्मीयता हो गई कि उनसे अगर एक दिन भी न मिलूँ तो मन ही नहीं लगता। मेरी ज़िंदगी में मेरी माता जी के बाद अगर किसी का सबसे बड़ा प्रभाव पड़ा तो वे थे कल्लू भइया। मेरी ज़िंदंगी में कल्लू भइया का मतलब था कि सभी समस्याओं का समाधान। उनके रहते मैंने किसी भी तरह की समस्या को गंभीरता से लिया ही नहीं। मेरा बस एक ही काम होता था वो था समस्या को कल्लू भइया तक पहुँचाना। बाक़ी समस्याओं के समाधान का काम कल्लू भइया ख़ुद करते थे। समस्या चाहे सामाजिक हो, आर्थिक हो या राजनैतिक सभी समस्याओं का समाधान मेरे कल्लू भइया ऐसा करते थे कि मुझे पता भी नहीं चलता था और समस्या ग़ायब भी हो जाती थी। अपनी माता जी और कल्लू भइया से मैंने जो सबसे बड़ी चीज़ सीखी वो है किसी दूसरे को बिना किसी स्वार्थ के प्यार करना, उसे मदद करना। फिर वो चाहे कोई भी हो इसका कल्लू भइया पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था।

बात 1995 की है। उस समय मैं बेरोज़गार था जिसके कारण पैसों की समस्या सताने लगी थी। कल्लू भइया से कहा तो बोले क्या करना चाहते हो? उस समय पी.सी.ओ. का काम बहुत अच्छा माना जाता था। मैंने कहा कि पी.सी.ओ. खोलना है पर लाइसेंस कैसे मिलेगा? मेरा इतना कहना था कि वो मुझे अपनी स्कूटर पर बिठा कर पहुँच गये उस कमेटी के सदस्य के पास जो पी.सी.ओ. का आवंटन करते थे। लिस्ट आई तो मुझे भी एक पी.सी.ओ. मिल चुका था। समस्या दुकान की आयी। पिता जी से बोला तो कुछ पैसों का इतंज़ाम उन्होंने किया और एक लकड़ी की गुमटी खड़ी हो गई। लाइट का कनेक्शन भी मिल गया पर अब तक पैसे ख़त्म हो गये थे। उसी बीच एक दिन शाम को कल्लू भइया के घर पर एक पार्टी थी। मैं भी पहुँचा। पार्टी घर के दो मंज़िला छत पर चल रही थी। कल्लू भइया ने बात ही बात में मेरे पी.सी.ओ. के बारे में पूछा तो मैं चुप हो गया। उनको समझते देर न लगी कि मुझे पैसों की समस्या आ गई है। बोले पी.सी.ओ. खुलने के लिए अभी कितना पैसा चाहिए? मैंने हिसाब लगाया कि 18 हज़ार रुपये की तो मशीन ही है बाक़ी सभी चीज़ों को शामिल करते हुए मैंने उनसे 23 हज़ार रुपये बताये। बिना कुछ सोचे वे मेरा हाथ पकड़ कर नीचे अपने कमरे में ले गये और लॉकर से 23 हज़ार रुपये निकाल कर मुझे देते हुए बोले, "इसे शर्ट के अंदर डालो और सीधे घर जाकर इस पैसे को रखकर तब फिर पार्टी में आना।" अंधे को क्या चाहिए थी दो आँखें। वो दो आँखें मुझे मेरे कल्लू भइया ने दे दी थीं। सीधे घर की तरफ़ भागा और अगले ही दिन पी.सी.ओ. के उद्घाटन की तिथि भी तय हो गई। आने वाले एक साल तक मैंने उन्हें पी.सी.ओ. की कमाई से धीरे-धीरे पूरा पैसा वापस कर दिया लेकिन इस एक साल में उन्होंने अपनी तरफ़ से कभी पैसा नहीं माँगा।

कुछ समय के बाद मैं लखनऊ नौकरी करने आ गया। लखनऊ आने के बाद भी मैं क़रीब-क़रीब उनसे हर दूसरे दिन ज़रूर बात करता। मेरा फ़ोन ना जाता तो उनका ही फ़ोन आ जाता। लखनऊ मैं नौकरी कभी मिलती तो कभी छूट जाती पर अगर कुछ ना छूटता था तो वो था कल्लू भइया का प्यार और आशीर्वाद। जब कभी भी नौकरी जाने की सूचना उन्हें मिलती तो उनका फ़ोन आता, "अरे पगलू, सुलतानपुर आ जाओ, अच्छा सा बिजनेस करवा देता हूँ। यहीं पर रहो काहे नौकरी के चक्कर में पड़े हो। अच्छा चलो बताओ कितना पैसा भेज दूँ।" मैं हर बार हँस कर टाल जाता क्योंकि मेरी निगाह में उनकी इज़्ज़त मात्र पैसों तक ही सीमित नहीं थी। मैं जब कभी लखनऊ से सुलतानपुर जाता तो रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद मेरा पहला ठिकाना कल्लू भइया की दुकान होती। उनसे मिलने के बाद ही मैं अपने घर जाता। अपने देहान्त से दो दिन पहले ही वे अपने को डॉक्टर को दिखाने के लिए लखनऊ आये थे। दो दिन के बाद उनके मोबाइल से फ़ोन आया मैंने कहा, "प्रणाम भइया तबियत कैसी है" उधर से उनके बड़े बेटे गोलू की आवाज़ आई, "अंकल पापा नहीं रहे।" मुझे विश्वास नहीं रहा कि मेरे ऊपर से मेरे कल्लू भइया का साया उठ चुका है। आज फ़ेसबुक पर उनके छोटे बेटे मोनू ने फ़ादर्स-डे पर उनकी फोटो शेयर की तो मैं उन यादों में फिर से लौट गया जो मैंने अपने कल्लू भइया के साथ बिताया था। एक सच्चाई और भी मैं जानता हूँ कि अगर कल्लू भइया को उनके छोटे भाई दिनेश ने और कल्लू भइया की धर्मपत्नी आदरणीया भाभी जी ने सहयोग ना दिया होता तो शायद वे मेरे साथ ही बहुत से और भी अन्य लोगों की मदद इस तरह से कभी ना कर पाते। इसलिए कल्लू भइया के साथ ही भाभी के प्रति भी मेरा आदर व सम्मान उसी तरह से है जैसा कि कल्लू भइया के प्रति है। पता नहीं क्यों मुझे अपनी ज़िंदगी में अपनी माता जी और मेरे कल्लू भइया की कमी इतनी क्यों खलती है। पर एक अहसास भी है कि ये दोनों ही लोग मुझे अदृश्य रूप से मेरा मार्गदर्शन करने के साथ ही साथ मुझे अपना आशीर्वाद भी देते रहते हैं। एक बार इन दोनों ही लोगों की महान आत्माओं को फिर से शत् शत् नमन्।

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2023/01/09 04:18 PM

सादर नमन ऐसे आदरणीय व्यक्तित्व को

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