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असमिया लोककथा: एक अनुशीलन 

 

शोध सार: 

लोककथा मानव सभ्यता की अमूल्य धरोहर है, जिसने सदियों से समाज को दिशा, ज्ञान और मनोरंजन प्रदान किया है। यह केवल कहानी कहने की परंपरा भर नहीं है, बल्कि इसमें समाज की संस्कृति, इतिहास, धर्म, आस्था और लोकमानस का गहरा प्रतिबिंब दिखाई देता है। लोककथाएँ अपने भीतर जीवन के उन विविध रंगों को सँजोए रहती हैं, जो लिखित साहित्य में प्रायः उपेक्षित रह जाते हैं। इसमें निहित कल्पनाशीलता और अनुभव का अद्वितीय समन्वय लोकजीवन की सादगी, आस्था और जिजीविषा का सजीव चित्र प्रस्तुत करता है। लोककथाओं का महत्त्व केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं है। इसमें नैतिक शिक्षा, सामाजिक एकता, परस्पर सहयोग, धार्मिक आस्था और जीवनोपयोगी संदेश निहित रहते हैं। हर पीढ़ी ने इन कथाओं से किसी न किसी रूप में प्रेरणा प्राप्त की है। यही कारण है कि मौखिक परंपरा से आज तक लोककथाएँ जीवित रही हैं। यह समय के साथ रूप बदलती रही हैं, फिर भी अपने मूल में समाज के आदर्शों और मूल्यों को सँजोये रहती हैं। असमिया लोकसाहित्य में लोककथा के लिए साधुकथा शब्द का प्रयोग किया जाता है। 

बीज शब्द: असमिया, लोकसाहित्य, लोककथा, समाज, सामाजिक 

प्रस्तावना: 

मानव समाज की सांस्कृतिक धरोहर का सबसे जीवंत और प्रामाणिक स्वरूप लोकसाहित्य में मिलता है। लोकसाहित्य न केवल मनोरंजन का माध्यम है, बल्कि यह जनजीवन के अनुभवों, विश्वासों और परंपराओं का अमूल्य भंडार भी है। इसमें समाज की मानसिकता, जीवन-दृष्टि, आस्थाएँ और व्यवहार सहज रूप से अभिव्यक्त होते हैं। लोकसाहित्य का उद्भव लोकमन की सहज अभिव्यक्ति से हुआ है, अतः इसमें कृत्रिमता का अभाव और सरलता की प्रधानता रहती है। लोककथा लोकसाहित्य का ही एक भेद है। लोककथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से संप्रेषित होती रही हैं। इसमें ऐतिहासिक घटनाओं, धार्मिक विश्वासों, नैतिक मूल्यों और जीवनोपयोगी शिक्षाओं का संग्रह मिलता है। यही कारण है कि लोककथा समाज की सामूहिक चेतना का आईना बन जाती है। लोककथा में कल्पना और यथार्थ का अद्भुत संगम होता है। एक ओर जहाँ इसमें अलौकिक और अद्भुत प्रसंग मिलते हैं, वहीं दूसरी ओर यह समाज की वास्तविक परिस्थितियों और लोकानुभव का भी चित्रण करती है। 

भारतीय संदर्भ में लोककथाओं की परंपरा अत्यंत समृद्ध रही है। पंचतंत्र, कथासरित्सागर, बेताल पच्चीसी जैसे प्राचीन ग्रंथों में लोककथा का सुंदर संकलन मिलता है। क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों में भी अनेक लोककथाएँ प्रचलित रही हैं, जो स्थानीय संस्कृति और समाज के विशिष्ट स्वरूप को सामने लाती हैं। वास्तव में, लोककथा केवल अतीत का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि यह वर्तमान और भविष्य के लिए भी मूल्यवान प्रेरणा-स्रोत है। यह हमें हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ती है और समाज में नैतिक एवं मानवीय गुणों को जीवित रखने में सहायक होती है। इसलिए लोककथा का अध्ययन केवल साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 

मूल विषय: 

दूसरी भाषा की तरह असमिया भाषा में भी लोकसाहित्य की समृद्ध परंपरा है। असमिया लोकसाहित्य में लोककथा के लिए ‘साधु कथा’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। साधु यानी संत—इस दृष्टि से साधु कथा शब्द का अर्थ हुआ संतों द्वारा कही गई कथा। साधु कथा शब्द पर चर्चा करनेवाले प्रथम विद्वान लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा थे। साधु कथा शब्द पर चर्चा करते हुए लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा कहते हैं कि—“साधु कथा माने सज कथा बा संत साधुर वाक्य बुलि आदिर पराय अखमियाय भावि आहिछे।”1 अर्थात्‌ साधु कथा का तात्पर्य है संतों के द्वारा कही गई कथा या वाक्य। लोककथा लोकजीवन का ही चित्रण है। लोकजीवन के विश्वास, कल्पना, आदर्श का ही रूप है लोककथा।” डॉ. प्रफुल्ल दत्त गोस्वामी ने भी साधु शब्द को साधु अर्थात्‌ सौदागर शब्द से आया हुआ बताया है। अनुमान यह लगाया जाता है कि सौदागर व्यापार करने के लिए पानी के रास्ते जगह-जगह भ्रमण किया करते थे तथा वहाँ से आकर आपबीती लोगों को बताया करते थे। इसलिए उनके द्वारा कहे गये कथा को साधुकथा अथवा सच कथा कहा जाता है।”2

असमिया लोककथा के बारे में बताते हुए भूपेन्द्र नाथ रायचौधरी लिखते हैं—“असमिया लोकसाहित्य का विपुल भण्डार लोककथाओं से परिपूर्ण है। धीरे-धीरे विद्वतजनों की दृष्टि इस दिशा में गई है। फलतः अभी तक असमिया लोककथाओं के कतिपय संग्रह प्रकाशित हो पाये हैं। अनेक असंग्रहीत लोककथाएँ आज भी इस जनपद में बिखरी हुई हैं। असमिया लोककथाओं की कतिपय विशेषताएँ हैं—वर्णन में स्वाभाविकता, कौतूहलता, मानव की मूल प्रवृत्ति का साहचर्य, हास्य-व्यंग तथा अलौकिकता का पुट, जनजीवन में व्यवहृत उपादानों का वर्णन, कथा का सुखान्त होना, प्रेम-रोमांच और कल्पना का आधिक्य होना इत्यादि।”3

असमिया लोककथा के वर्गीकरण पर विद्वानों ने कम विचार किया है। इसका मुख्य कारण लोककथा संग्रह का अभाव है। डॉ. प्रफुल्ल दत्त गोस्वामी असमिया लोककथा के वर्गीकरण में आनेवाली बाधाओं का उल्लेख करते हुए लिखते हैं—“असमिया साधुबिलाक सुश्रृंखलकै संग्रह करिब पारिले एइ धरणर श्रेणी विभाग करिबलै उजु हब। इयात मइ माथोन दुटामान भागर कथा कम।”4 पर्याप्त संग्रह संकलित होने से ही असमिया लोककथा का वर्गीकरण आसान होगा। जिस कारण से उन्होंने अपने ग्रन्थ में केवल देवी-देवता से संबंधित लोककथा और टेटोन (ठग-प्रवंचक) संबंधित लोककथा में वर्गीकरण किया है।5 इसके अतिरिक्त लोककथा की आलोचना करते हुए बहुविवाह से संबंधित लोककथा और निचुकनी प्रसंग की कथा का भी विवेचन किया है। 

लीला गगै ने अपनी पुस्तक ‘असमिया लोक साहित्यर रूपरेखा’ में असमिया लोककथा का वर्गीकरण निम्न रूपों में किया है: क. जंतु संबंधी, ख. अलौकिक, ग. टेटोन घ. सृष्टि विषयक।6

भूपेन्द्रनाथ रायचौधरी ने असमिया लोकसाहित्य पर विचार करते हुए अपनी पुस्तक ‘असमिया लोकसाहित्य की भूमिका’ में व्यावहारिक वर्गीकरण प्रस्तुत किये हैं। जो निम्ननिखित हैं: पौराणिक, अलौकिक, उपदेशात्मक, कौशलपूर्ण, शौर्यपूर्ण, सामाजिक, जीव-जंतु संबंधी, कौतुहलोद्दीपक, बुझौवल एवं मनोरंजन कथा। 

असमिया लोककथाओं का विश्लेषण निम्नलिखित हैं:

पौराणिक लोककथा: पौराणिक लोककथा में रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रंथों के किसी चरित्र के आधार पर वर्णित कथा है। “प्राचीनकाल में घटित घटनाओं पर आधारित लोककथाओं को Myth नाम से अभिहित किया गया है। इन लोककथाओं में जनसमुदाय के धार्मिक विश्वास, सृष्टि संबंधी घटनाओं, जनता की अलौकिक परंपराओं आदि का समावेश होता है।”7 असमिया लोककथा में भी पुराण, रामायण, महाभारत आदि के आधार पर अनेक कथाएँ प्रचलन में हैं। नरकासुर की कथा आज भी असमिया लोकसाहित्य में जनप्रिय है। इसके अतिरिक्त ऊषा-अनिरुद्ध की कथा, हरिश्चंद्र की कथा, नल-दमयंती आदि पौराणिक घटनाओं पर आधारित लोककथाएँ हैं। 

अलौकिक लोककथा: लोककथाओं में रहस्य, अलौकिकता की प्रधानता भी देखने मिलती है। कुछ लोककथाओं में ऐसे पात्र का वर्णन मिलता है, जो अलौकिक कार्य को सम्भव कर दिखाता है। इस तरह की कथा में देवता, राक्षस, अप्सरा आदि से संबंधित कथाएँ आती हैं। इन कथाओं में अलौकिकता के वर्णन से श्रोताओं का मन रोचकता से भर जाता है। इन कथाओं में जादू-टोना के कारण अनेक मनुष्य तथा देवताओं को जीव-जंतु का रूप धारण करके पृथ्वी पर रहते हुए चित्रण किया जाता है। असमिया लोकसाहित्य में भी अनेक अलौकिकता से पूर्ण लोककथा प्रचलन में हैं। चंपावती, तेजीमला, ओ कुंवरी, राक्षस पंडित आदि इस तरह की लोककथाएँ हैं। चंपावती लोककथा में चंपावती की शादी एक अजगर का रूप धारण किए हुए देवता से होती है। जिसकी माँ राक्षस होती है। वह चंपावती को मारने के लिए अनेक षड्यंत्र करती है। सास की बातें सुनने के कारण वह अपने पति से दूर हो जाती है। अन्य लोककथा की तरह ही इस कथा का अंत भी सुखान्त है। चंपावती अपनी राक्षस सास के षड्यंत्र से बच जाती है। अपने पति से पुनः मिलती है। 

उपदेशात्मक लोककथा: कुछ लोककथाएँ ऐसी भी होती हैं जिनमें उपदेशात्मक तत्त्व प्रमुख रूप से पाए जाते हैं। पंचतंत्र और हितोपदेश जैसे ग्रंथों की भाँति लोकसाहित्य में भी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं, जिनका मूल उद्देश्य समाज को नैतिक शिक्षा प्रदान करना है। इन कथाओं के माध्यम से बच्चों को नीतिशिक्षा दी जाती है तथा एक आदर्श समाज की स्थापना की कल्पना प्रस्तुत की जाती है। “पंचतंत्र, हितोपदेश आदि संस्कृत ग्रंथों से नीतिपरक या उपदेशात्मक कथा की परंपरा शुरू होती है। यह मनोवैज्ञानिक कारण है कि किसी कथा के द्वारा बच्चों को जितना प्रभावित किया जा सकता है, उतना नीरस उपदेश से नहीं।”8 असमिया लोकसाहित्य में प्रचलित कथा ‘राजहांह आरु काउरी’ उपदेशात्मक लोककथा है। इस कथा से बच्चों को यह नीति शिक्षा मिलती है कि दुर्जनों का संग सदा अहितकर है। 

मनोरंजन कथा: असमिया लोकसाहित्य में मनोरंजन लोककथा भी प्रचलन में हैं। असमिया लोकसाहित्य के टेटोन श्रेणी लोककथा को इस तरह की लोककथा में रखा गया है। टेटोन का अर्थ है धूर्त। अपनी धूर्तता से किसी दूसरे को ठग या प्रवंचना करके अपने काम सिद्ध करना ही इन लोककथाओं का विषय है। डॉ. भूपेन्द्रनाथ रायचौधरी इस तरह की कथा को कौशलपूर्ण लोककथा कहा है। इस बारे में लिखते हैं कि—“इस प्रकार की लोककथा को टेटोन श्रेणी में रखा गया है। टेटोन का अर्थ है धूर्त। धूर्तता से दूसरों की ठगी अथवा प्रवंचना कर अपना काम हासिल करना ही इन कथाओं का विषय है। 1. लटकन, 2. दुइ बुधियक, 3. टेटोन तामुली, आदि कथाओं के अतिरिक्त ‘निनि भाओरीयार रहस्य’ की अधिकांश कथाएँ इसी प्रकार की हैं। असम्भव या कठिन कार्य को बुद्धि और कौशल से सम्भव तथा संपन्न करना ही ऐसी कथाओं का प्रतिपाद्य है। प्रायः निर्धन व्यक्ति ही इनके कथा नायक होते हैं। ग्रामीण जनजीवन के व्यावहारिक बुद्धि चातुर्य के ये उत्कृष्ट उदाहरण माने जा सकते हैं।”9 इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी लोककथाएँ भी प्रचलन में हैं जिनका उद्देश्य केवल बच्चों का मनोरंजन करना है। 

जीव-जंतु संबंधी लोककथा: असमिया लोकसाहित्य में अनेक कथाएँ जीव-जंतुओं से जुड़ी हुई मिलती हैं। ये कथाएँ आज भी असमिया समाज में अत्यंत लोकप्रिय हैं। इनमें जीव-जंतु केवल साधारण जानवर नहीं होते, बल्कि वे मनुष्यों की भाँति व्यवहार करते हैं। उनमें वाणी की शक्ति निहित होती है और वे मानव जीवन के सहभागी के रूप में चित्रित किए जाते हैं। “गीदड़ और बाघ संबंधी ऐसी अनेक असमिया लोककथाएँ हैं जो अत्यंत लोकप्रिय हैं। गीदड़ हमेशा धूर्तता का प्रतीक बनकर आता है। बाघ, सिंह आदि अधिक बली होने पर भी अनेक प्रसंगों में मोटी बुद्धि के साबित होते हैं बन्दर, मेंढक, केकड़ा आदि अनेक सयाने मालूम पड़ते हैं।”10 बांदर आरु शियाल, बुधियक शियाल, बाघ आरु केकुरार साधु, बूढ़ा आरु शियाल आदि जीव-जंतु से संबंधित लोककथा हैं। 

सामाजिक लोककथा: सामाजिक लोककथाएँ वे कहानियाँ हैं जिनमें समाज के रीति-रिवाज़, परंपराएँ, आचार-विचार और पारस्परिक संबंधों का चित्रण मिलता है। ऐसी कथाओं में पारिवारिक जीवन, पड़ोसी धर्म, दान-पुण्य, परोपकार, सत्य, न्याय और करुणा जैसी मान्यताएँ विशेष रूप से उभरकर सामने आती हैं। इन लोककथाओं के पात्र प्रायः साधारण मनुष्य ही होते हैं, जो समाज में प्रचलित अच्छाइयों और बुराइयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। किसी पात्र की बुद्धिमत्ता, ईमानदारी और परिश्रम को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जबकि लोभ, ईर्ष्या और अन्याय जैसी प्रवृत्तियों की आलोचना की जाती है। इस प्रकार सामाजिक लोककथाएँ न केवल लोकजीवन का सजीव प्रतिबिंब प्रस्तुत करती हैं, बल्कि आदर्श समाज की संरचना के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन भी प्रदान करती हैं। असमिया लोकसाहित्य में अनेक सामाजिक लोककथा प्रचलन में हैं। तेजीमला, तुला आरु तेजा, जोवाइर साधु आदि सामाजिक लोककथा का उदाहरण हैं। 

अन्य लोककथा: असमिया लोकसाहित्य में कुछ ऐसी कथाएँ भी प्रचलन में हैं, जिन्हें उपर्युक्त प्रकारों में नहीं रखा जा सकता है। उन कथाओं को अन्य लोककथा में रखा गया है। जैसे पहेली बुझौबल कथा, शौर्यपूर्ण कथा। डॉ. भूपेन्द्रनाथ रायचौधरी असमिया लोककथा पर चर्चा करते हुए लिखते हैं कि—“कम शब्दों में पहेलियों की भाँति एक कथा कह देना और श्रोता या पाठक के मन में उत्सुकता जगाये रखना ही बुझौबल कथा की विशिष्टता है। असमिया में इस प्रकार की कथा को ‘साँथर साधु’ कहा जाता है।”11

निष्कर्ष: 

आज के आधुनिक युग में, जब तकनीक और उपभोक्तावाद ने पारंपरिक संस्कृति को प्रभावित किया है, तब लोककथा की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। यह हमें हमारी जड़ों से जोड़ती है और हमारी पहचान को सुरक्षित रखने का कार्य करती है। लोककथा केवल अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि भविष्य के लिए मार्गदर्शन भी है। यदि हम इन्हें सँजोकर आगे बढ़ाएँ, तो यह हमारी नई पीढ़ी को सांस्कृतिक चेतना, नैतिकता और मानवीय मूल्यों से समृद्ध कर सकती है। लोककथा केवल कहानी नहीं, बल्कि समाज का दर्पण, संस्कृति का संरक्षक और पीढ़ियों को जोड़ने वाली अमर कड़ी है। इसका संरक्षण और अध्ययन न केवल साहित्यिक दृष्टि से आवश्यक है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अनिवार्य है। लोककथाएँ मानव जीवन की उस सहजता, सरलता और सजीवता की पहचान हैं, जो हमें हर युग में अपने मूल्यों और संस्कृति के प्रति जागरूक बनाए रखती हैं। 

दिगंत बोरा
सहायक प्राध्यापक (हिंदी) 
जे.डी.एस.जी. महाविद्यालय
बोकाखात, असम 

संदर्भ सूची: 

  1. बूढ़ी आइर साधु, लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा, बीणा लाइब्रेरी, गुवाहाटी, भूमिका

  2. लोक साहित्य, डॉ. समीर कुमार झा, बनलता प्रकाशन, डिब्रूगढ़, संस्करण: 2024, पृष्ठ–265

  3. भूपेन्द्रनाथ रायचौधरी, असमिया लोकसाहित्य की भूमिका, भारती प्रकाश, रिहाबारी, संस्करण: विक्रमाब्द २०३५, गुवाहाटी, पृष्ठ–82

  4. वही, पृष्ठ–82

  5. वही, पृष्ठ–83

  6. असमिया लोक साहित्यर रूपरेखा, लीला गगै, बनलता प्रकाशन, संस्करण: 2011, पृष्ठ–180

  7. लोकसाहित्य: सिद्धांत और प्रयोग, डॉ. श्रीराम शर्मा, श्री विनोद पुस्तक मंदिर-आगरा, नवीनतम संस्करण, पृष्ठ–120

  8. भूपेन्द्रनाथ रायचौधरी, असमिया लोकसाहित्य की भूमिका, भारती प्रकाश, रिहाबारी, संस्करण: विक्रमाब्द २०३५, गुवाहाटी, पृष्ठ–83

  9. वही, पृष्ठ–87

  10. वही, पृष्ठ–92

  11. वही, पृष्ठ–96

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