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बहुभाषी समाज के बीच राष्ट्र भाषा हिन्दी 

(तराई-ड्वार्स अंचल विशेष के संदर्भ में) 

 

भूमंडलीकरण ने जीवन के हर पहलू को प्रभावित किया है। ऐसे में भाषा का प्रश्न इससे अछूता कैसे रह सकता है। आज का समय वह समय है जहाँ एक नई सम्राज्यवादी ताक़त हमें अपने बाहुपाश में कसने को तैयार है और इसका पहला आक्रमण भाषा को ही झेलना पड़ा है। हम जितने भूमंडलीकृत होते जा रहे हैं, अपनी भाषा से उतना ही पल्लू झाड़ते नज़र आ रहे हैं। हम जानते हैं कि भाषा किसी भी सभ्यता और संस्कृति की मूल है। किसी जाति की भाषा का मिटना, उसकी सभ्यता और संस्कृति का मिटना है। भाषा पर हमला कर नव-सम्राज्यवादी ताक़तें हमारी संस्कृति पर हमला कर रही है। आज अंग्रेज़ी को ग्लोबल लेंग्वेज के रूप में माना जाता है। नौबत यहाँ तक आ गयी है कि विश्व बाज़ार में अपना पैर फैलाने के लिए अंग्रेज़ी सीखना ज़रूरी बना दिया गया है तो दूसरी ओर हमने अपनी भाषा के साथ अपमान किया है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा होने के बावजूद अपने ही देश में अवांछित है। आज जहाँ विश्व भूमंडलीकृत हो चुका है, वहाँ हिन्दी भाषा, हिन्दी प्रदेश का पर्याय बनकर रह गयी है। आज भी हिन्दुस्तान में अधिकांश राज्यों के लोगों को हिन्दी जब़ान नहीं आती हैं, अहिन्दी प्रदेश के लोग तो हिन्दी बोलने से कतराते हैं। भारतवर्ष की संपर्क भाषा ही नहीं, राजभाषा और राष्ट्रभाषा भी हिन्दी ही है, फिर भी न तो हिन्दी अकेली राजभाषा ही बन पायी और न ही इसे अब तक राष्ट्रभाषा के रूप में संवैधानिक मान्यता ही मिली है। शासक वर्ग स्वयं हिन्दी के साथ राजनीतिक खेल खेलते रहे हैं। संविधान लागू होते समय 15 वर्षों तक हिन्दी के साथ अंग्रेज़ी लादकर और फिर कालांतर में उसकी सीमा बढ़ाकर हिन्दी को अपाहिज कर दिया गया। उसी का नतीजा है कि आज भी हिन्दुस्तान की राजभाषा अकेली हिन्दी न होकर अंग्रेज़ी भी है। यहीं नहीं हिन्दुस्तान के कई राज्यों की राजभाषा तो केवल अंग्रेज़ी ही है, हिन्दी नहीं। हिन्दी एक साथ संपर्क भाषा, राजभाषा और राष्ट्रभाषा तीनों है, फिर भी आज यह ज्ञान-विज्ञान और रोज़गार की भाषा बनने के लिए लड़ रही है। हमारी संकीर्ण मानसिकता ही है कि हम सोचते हैं कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भाषा हिन्दी हो ही नहीं सकती और हम अंग्रेज़ी की ओर भागने लगते हैं। इस सम्बन्ध में विमलेश कान्ति वर्मा ठीक ही कहते हैं, “हमने हिन्दी को बचाए बनाए तो रखा, किन्तु हिन्दी को जीवंत बनाने की चेष्टा नहीं की।”(पृ-45) यह हिन्दी भाषा का संख्या बल है कि आज विज्ञापन की सबसे बड़ी भाषा हिन्दी बन गई है। हिन्दी की यह अपनी ताक़त है जिसने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में व्यापार करने के लिए हिन्दी को अपनाने के लिए विवश कर दिया है। 

हिन्दी भाषा के आधार पर ही भारतवर्ष को हिन्दी और अहिन्दी क्षेत्र में बाँटा गया है। हिन्दी अपने हिन्दी क्षेत्र में फल-फूल तो रही है, किन्तु जहाँ तक पश्चिम बंगाल का सवाल है, यह अहिन्दी क्षेत्र होने के बावजूद हिन्दी के विकास में अग्रणी रहा है। हिन्दी के विकास में पश्चिम बंगाल का इतिहास बहुत समृद्ध रहा है। हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से लेकर साहित्यकारों तक की भूमिका में पश्चिम बंगाल का स्थान किसी भी हिन्दी क्षेत्र से कम नहीं रहा है। किन्तु, यह सोचने की बात है कि बंगाल में हिन्दी का अर्थ केवल कोलकाता केन्द्रित हिन्दी का विकास नहीं है। उत्तर बंगाल एक बड़ा क्षेत्र है, जहाँ हिन्दी भाषियों की संख्या कम नहीं है। तराई और ड्वार्स अंचल बंगाल का एक अहम हिस्सा है। इस अंचल को उत्तर बंगाल कहा जाता है। बंगाल का यह अंचल अपनी प्राकृतिक सौन्दर्य और प्राकृतिक सम्पदा के लिए जाना जाता है। यह अंचल ट्रीपल टी के लिए विख्यात1 है—Tea, Tourism और Timber। तराई–ड्वार्स की यह ख़ास विशेषता हैं कि यहाँ का समाज बहुभाषी समाज है, जहाँ हर धर्म के लोग बिना भेदभाव के वास करते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से इस अंचल को चिकन नेक भी कहा जाता है। बँगलादेश, नेपाल और भुटान की सीमाओं से घिरे होने के कारण यह काफ़ी संवेदनशील क्षेत्र भी है। भारत के उत्तर-पूर्व क्षेत्र का प्रवेश द्वार भी यही है। भौगोलिक दृष्टि से इस अंचल को मिनी भारत भी कहा जाता है। जहाँ तक इस अंचल के बहुभाषी समाज के बीच हिन्दी के विकास की बात है, हिन्दी यहाँ की प्रमुख संपर्क भाषा है। राजकाज की भाषा बँगला होने के बावजूद हिन्दी का प्रयोग किसी भी रूप में कम नहीं होता है। 

हिन्दी जनसंपर्क की भाषाः 

बहुभाषी समाज के बीच राष्ट्र भाषा हिन्दी तराई और ड्वार्स अंचल चाय के बाग़ानों से भरे हुए हैं। इन चाय बाग़ानों में काम करने वाले मज़दूर ख़ास कर गोरखा और आदिवासी समुदाय के लोग हैं। इसके अलावा राजवंशी जाति के लोग जो इस अंचल के भूमिपूत्र है, उनका जीवन खेती से जुड़ा हुआ है, वे भी संपर्क के लिए हिन्दी भाषा का प्रयोग करते हैं। प्रमुख रूप से नेपाली, राजवंशी, सादरी, बँगला यहाँ की प्रमुख भाषाएँ हैं। इन भाषाओं के अतिरिक्त नेपाली एवं आदिवासी जाति के अंतर्गत कई बोलियाँ बोली जाती है। इतनी भाषाएँ एवं बोलियाँ होने के बावजूद लगभग सभी जाति के लोग हिन्दी भाषा जानते, बोलते एवं समझते हैं। हिन्दी भाषा यहाँ बाज़ार की प्रमुख भाषा है। ब्रिटिश सरकार द्वारा चाय बाग़ान लगाने के लिए सस्ते मज़दूर बिहार, झारखंड से यहाँ लाए गए थे। गोरखा जाति जीविका के लिए पहाड़ों से उतर कर मैदानी क्षेत्र में आने लगे। बंगाली जाति के वे लोग जो पढ़े–लिखे थे, इन चाय बाग़ानों में बाबू के पद पर कार्यरत हुए। धीरे-धीरे कई और जातियाँ अपनी जीविका के लिए यहाँ देश के कई कोनों से लोग आने लगे। समय के साथ-साथ छोटे-छोटे क़स्बों एवं शहरों का विकास होने लगा। चूँकि यहाँ कई जाति एवं धर्मों के लोग एक साथ रहने लगे, अतः उनके बीच संपर्क भाषा की ज़रूरत आन पड़ी। इस संपर्क भाषा का काम हिन्दी ने किया। इन चाय बाग़ानों में मज़दूरों को साप्तहिक या पाक्षिक वेतन मिलता है, जिस दिन यह वेतन मिलता है, उस दिन उन चाय बाग़ानों में हाट लगता है, जहाँ से ये लोग अपने दिनचर्या के सामान ख़रीदते हैं। हाट-बाज़ार लगाने के लिए एक व्यापारी वर्ग का उदय हुआ। यह व्यापारी वर्ग बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे हिन्दी प्रदेश से आए थे। यह वर्ग यही बस गए। अतः धीरे-धीरे व्यापारी वर्ग एवं बाज़ार की भाषा का स्थान हिन्दी ने ले लिया। 

अन्य भाषाओं के साथ व्याकरणिक समानताएँ: 

तराई-ड्वार्स अंचल में बोली जाने वाली प्रमुख भाषाएँ-नेपाली, बँगला, सादरी के साथ हिन्दी की व्याकरणिक समानताएँ भी देखने को मिलती हैं, जिसकी वजह से किसी भी भाषा के लोग दूसरों की भाषा को न जानते हुए भी हिन्दी को कुछ न कुछ समझ लेते हैं। नेपाली और हिन्दी के बीच ख़ास सम्बन्ध तो यह है कि इन दोनों भाषाओं का व्याकरण और लिपि एक ही है। बँगला और सादरी के कई शब्दों के बीच ख़ास सम्बन्ध है। मैं (हिन्दी), मो (नेपाली), मोय (सादरी) आमी (बंगली) शब्दों में ध्वनयात्मक समानता देखी जा सकती है। मैं जा रहा हूँ (हिन्दी), मोय जा थौ (सादरी), मो जादैछु (नेपाली), आमी जाच्छी (बँगला) वाक्य में समानता देखी जा सकती है। इसके साथ ही हिन्दी के कई शब्द नेपाली भाषा में ज्यों के त्यों बोले जाते हैं। बँगला, सादरी और हिन्दी में भी कई शब्द एक ही रूप से व्यवहार में लाये जाते हैं। यहाँ बोली जाने वाली भाषाओं में अन्य भाषा के शब्दों का आसानी से प्रयोग होता है। हम जानते भी नहीं है कि यह शब्द किसी और भाषा से हमारी भाषा में आ गया है। जैसे बँगला का एक शब्द है—ढूकना। बंगाली में कहा जाता है—आमी ढुके ग्येछी। इस शब्द को हम हिन्दी में भी प्रयोग करने लगे हैं जैसे—मैं ढुक गया। यह ढुकना शब्द बिहार या उत्तर प्रदेश जैसे हिन्दी क्षेत्रों में प्रयोग में नहीं लाया जाता है। यह यहाँ की हिन्दी में बँगला का प्रभाव है। 

हिन्दी शिक्षा का माध्यमः 

तराई और ड्वार्स अंचल की प्रमुख भाषा बँगला, हिन्दी और नेपाली होने के कारण यहाँ तीनों भाषाओं में शिक्षा दी जाती है। ज़्यादातर स्कूल बँगला माध्यम के है। जिन क्षेत्रों में हिन्दी और नेपाली भाषी अधिक है, उन क्षेत्रों में हिन्दी और नेपाली माध्यम के स्कूल भी है। हालाँकि बँगला की तुलना में हिन्दी एवं नेपाली स्कूलों की संख्या काफ़ी कम हैं, इन हिन्दी स्कूलों में छात्रों की संख्या बहुत ज़्यादा है। उत्तर बंगाल के जलपाईगुड़ी, अलीपुरद्वार, दार्जीलिंग ज़िलों में कई हिन्दी माध्यम के स्कूल है, वहीं आज हिन्दी को भी उच्च शिक्षा में माध्यम भाषा का दर्जा मिल चुका है। अब यहाँ के छात्र भी हिन्दी माध्यम में उच्च शिक्षा प्राप्त कर पा रहे हैं। लेकिन यह सत्य है कि ड्वार्स अंचल में हिन्दी भाषा को जीवित रखने में नेपाली और आदिवासी समुदाय का प्रमुख हाथ है। ज़्यादातर नेपाली और आदिवासी समुदाय के लोग हिन्दी माध्यम में पढ़ाई करते हैं और आगे चलकर हिन्दी को अपनी मातृ भाषा का दर्जा देते हुए इसके विकास में अपना योगदान देते हैं। इन आदिवासी समुदाय के साथ समस्या यह है कि इनकी सादरी, संथाली, कुड़ुप आदि भाषाओं में शिक्षा उपलब्ध नहीं है, अतः इन्हें हिन्दी और बँगला के बीच ही एक भाषा को चुनना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर नेपाली भाषा में शिक्षा का अधिकार मिलने के बावजूद तराई एवं ड्वार्स क्षेत्र में नेपाली माध्यम के स्कूलों की संख्या बहुत कम है, जिससे अधिकांश नेपाली समुदाय के विद्यार्थियों को हिन्दी भाषा में शिक्षा ग्रहण करना पड़ता है, वे बँगला के स्थान पर हिन्दी को शिक्षा का माध्यम चुनना ज़्यादा पसंद करते हैं। अधिकांश आदिवास समुदाय भी हिन्दी में ही शिक्षा ग्रहण करते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि ड्वार्स अंचल में हिन्दी भाषा के विकास में आदिवासी और नेपाली समुदाय के लोगों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इनके संख्याबल के सामने अन्य हिन्दी क्षेत्रों से आए हिन्दी भाषियों की संख्या बहुत कम है। इन अंचलों में हिन्दी माध्यम के हाई स्कूल और हाईयर सेकेन्डरी स्कूलों की संख्या भी पर्याप्त नहीं है। हिन्दी स्कूलों की समस्या यह है कि एक-एक स्कूलों में चार से पाँच हज़ार बच्चे पढ़ते हैं और एक कक्षा में 200 से 300 बच्चों को बैठना पड़ता है। अतः यह हिन्दी की ताक़त है कि इतने बहुभाषी समाज के बीच वह फल-फूल रही है। 

उच्च शिक्षा में हिन्दीः

एक समय ऐसा था कि हिन्दी माध्यम के स्कूलों में माध्यमिक और उच्च माध्यमिक के प्रश्न पत्र तक हिन्दी में नहीं आते थे। काफ़ी आन्दोलनों के बाद आज न केवल प्रश्न पत्र हिन्दी में आते हैं, बल्कि उच्च शिक्षा में भी हिन्दी शिक्षा के माध्यम की भाषा बन चुकी है। बंगाल का प्रथम हिन्दी माध्यम कॉलेज की स्थापना भी ड्वार्स के ही बानारहाट में ‘बानारहाट कार्तिक उराँव हिन्दी गवर्मेंट कॉलेज’ के नाम से खुल चुका है, जहाँ शिक्षा का माध्यम पूरी तरीक़े से हिन्दी को बनाया गया है। सिलीगुड़ी के हाथीघिसा में भी बिरसा मुंडा कॉलेज हिन्दी माध्यम का ही कॉलेज है। इसके अलावा उत्तर बंगाल के कॉलेजों में पढ़ने वाले हिन्दी माध्यम के विद्यार्थियों को भी हिन्दी में उत्तर लिखने की अनुमति सरकार द्वारा दे दी गई है। अभी फ़िलहाल ही बी.एड. की परीक्षाओं में भी हिन्दी में उत्तर लिखने की अनुमति मिल गई है। लेकिन समस्या यह है कि तराई एवं ड्वार्स क्षेत्र में हिन्दी माध्यम में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की जितनी संख्या है, उस अनुपात में हिन्दी कॉलेजों की संख्या नहीं है। कॉलेजों में हिन्दी माध्यम को स्थान मिलने के बावजूद अभी भी सारे कॉलेज हिन्दी भाषा को माध्यम भाषा के रूप में नहीं अपना पाए हैं। दूसरी समस्या यह है कि उत्तर बंगाल के इन दोनों हिन्दी कॉलेजों में हिन्दी विभाग को छोड़कर अन्य विभागों में पढ़ाने वाले अधिकांश शिक्षक न तो हिन्दी भाषी हैं न वे हिन्दी में दक्ष ही है, जिससे विद्यार्थियों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अन्य कॉलेज जो मूलतः अंग्रेज़ी और बँगला माध्यम के है, वहाँ हिन्दी को माध्यम भाषा बनाने में इन कॉलेजों की अपनी अलग ही समस्या है, वे कई तरह के तर्क देकर हिन्दी को माध्यम भाषा बनाने से कन्नी काटते नज़र आते हैं। नॉर्थ बंगाल यूनिवर्सिटी के अंतर्गत शामिल सभी कॉलेजों में हिन्दी कम्पलसरी और इलेक्टिव पेपर के रूप में सेलेबस में शामिल है, इसके बावजूद अधिकतर कॉलेजों में हिन्दी शिक्षक का कोई स्थायी पद नहीं है और इन कॉलेजों के प्रधानाचार्यों द्वारा पार्ट टाइम शिक्षक की नियुक्ति भी नहीं की जाती है। इन कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चे भगवान के भरोसे ही हिन्दी की पढ़ाई करते हैं। तराई एवं ड्वार्स अंचल में छह से सात कॉलेजों में हिन्दी ऑनर्स की पढ़ाई होती है, उत्तर बंगाल विश्व विद्यालय और पंचानन वर्मा विश्व विद्यालय में भी हिन्दी के विभाग खोले गए है, इन सभी स्थानों में हिन्दी भाषा को लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों में नेपाली और आदिवासी समुदाय के बच्चे ही ज़्यादा है। 

हिन्दी के विकास में संस्थाओं का योगदानः

यह बात पहले ही कही जा चुकी है कि तराई एवं ड्वार्स क्षेत्र के कई कॉलेजों और विश्व विद्यालयों में हिन्दी की पढ़ाई होती है। ये संस्थान अपने तरीक़े से हिन्दी के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं, लेकिन ड्वार्स में एक भी हिन्दी की ऐसी संस्था नहीं हो जो हिन्दी के विकास में पूर्णतः काम करती हो। तराई अंचल में यों तो नाम गिनाने के लिए कई संस्थाएँ है, किन्तु पूरी तरीक़े से हिन्दी के लिए काम करने वाली संस्था मेरी नज़र में एक भी नहीं है। हम जानते हैं कि हिन्दी के विकास में न केवल शिक्षण संस्थानों, बल्कि संस्थाओं का भी प्रमुख हाथ होता है। संस्थाओं को अक़्सर राजनीतिक रूप दे दिया जाता है या फिर बची हुई संस्थाएँ किसी लॉबी तक सीमित रह जाती है। तराई के सिलीगुड़ी में हिन्दी की कई संस्थाएँ हैं जो आपसी मन-मुटाव का ही शिकार बनी रहती हैं। एक भी हिन्दी की ऐसी पत्रिका नहीं है जो ड्वार्स से निकलती हो। जो संस्थाएँ अपने होने का दावा करती है, उनके पास न तो अपना कार्यालय ही है, न ऐसी कोई जगह जहाँ जाकर विद्यार्थी कुछ पुस्तकें या पत्रिकाएँ ही देख ले। तराई एवं ड्वार्स अंचल में इतने कॉलेज और विश्वविद्यालय होते हुए भी संस्थागत एक भी लाईब्रेरी नहीं है। लाईब्रेरी की कमी के कारण हिन्दी में शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों को या तो कॉलेज की लाईब्रेरी के भरोसे रहना पड़ता है या दूर कोलकाता जाकर पुस्तकें ख़रीदनी पड़ती है। हिन्दी भाषा के जो साधारण विद्यार्थी है, वे हिन्दी की पत्रिकाओं के नाम तक नहीं जान पाते हैं। इन अंचलों से चुनकर संसद एवं विधानसभाओं तक पहुँचने वाले नेताओं में भी हिन्दी भाषा के विकास को लेकर कोई योजना नज़र नहीं आती है। वे भी इस मामले में एक-दूसरे को दोष देते हुए उदासीन बने रहते हैं। 

हिन्दी की चुनौतियाँ एवं समाधान:

यूँ तो इन अंचलों में हिन्दी अपने दम पर आगे बढ़ रही है। विकास के राह पर इसे कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यह अच्छी बात है कि तराई एवं ड्वार्स के कई भाषाओं के समुदायों ने हिन्दी को अपनाया है, उनके प्रयास से इन अंचलों में हिन्दी फल-फूल रही है, किन्तु ज़रूरत है तो इन समुदायों के बीच पलने वाली हिन्दी को सम्मान दिया जाए। हम जानते हैं कि आज इन क्षेत्रों में पढ़कर कई विद्यार्थी स्कूलों, कॉलेजों एवं विश्वविद्यालयों में अपनी सेवा दे रहे हैं। इनके द्वारा बोली गई हिन्दी भाषा में आंचलिक भाषा के शब्दों एवं बोलने के तरीक़ों में एक अन्तर तो आएगा ही, अतः ज़रूरत है इनके द्वारा बोली गई हिन्दी भाषा में त्रुटियाँ न ढूँढ़कर उन्हें प्रोत्साहित किया जाय। आज भी जब यहाँ के बच्चे स्कूल और कॉलेजों की नौकरी के लिए साक्षात्कार देने जाते हैं तब उनके द्वारा बोली गई हिन्दी में आंचलिक भाषा का पुट होने के कारण उन्हें नज़र अंदाज़ किया जाता है। हमें यह मान कर चलना होगा कि यहाँ के बच्चे अगर हिन्दी भाषा बोलते हैं और हिन्दी को अपनी भाषा मानकर इसे अपनाते हैं और एक प्रमुख भाषा का स्थान देते हैं, तो हमारा भी यह दायित्व बनता हैं कि इनके द्वारा बोली गई हिन्दी भाषा में त्रुटियाँ न खोजकर इन्हें अपनाया जाय। इन अंचलों में पढ़ने वाले बच्चे, वे बच्चे हैं जो अपनी पीढ़ियों में पहली पीढ़ी है जो शिक्षित हो रहे हैं। इन्हें फ़र्स्ट जेनेरेशन लर्नर कहा जाता है। हम इनसे यह आशा नहीं कर सकते कि ये और जाति के बच्चों के समान ही सरपट दौड़ लगाएँ। सरकार एवं हिन्दी के बड़े-बड़े संगठनों का यह दायित्व है कि वे इन स्थानों में कई लाईब्रेरियों एवं संस्थाओं की स्थापना करें ताकि यहाँ के बच्चे आसानी से हिन्दी की दुनिया से वाक़िफ़ हो पाए। यहाँ कार्यरत हिन्दी के ऊँचे पदाधिकारियों एवं शिक्षकों का दायित्व हैं कि वे हिन्दी की सेवा के नाम पर केवल नौकरी न कर सामाजिक स्तर पर भी काम करें। 

रहीम मियाँ
एसिसटेंट प्रोफ़ेसर (WBES) 
बानारहाट कार्तिक उराँव हिन्दी गवर्नमेंट कॉलेज, बानारहाट, जलपाईगुड़ी, प. बंगाल
9832636020

संदर्भ–ग्रंथ:

  1. वर्मा, डॉ. विमलेश कान्ति. हिन्दीः वैश्वीकरण का परिप्रेक्ष्य (लेख), राजभाषा भारती (पत्रिका), अंक अप्रैल-जून, 2018.

  2. “District Census Handbook- Jalpaiguri” censusindia.gov.in

  3. Debnath, S. “The dooars in Historical transition” N.L. Publisher, 2010.

  4. Dooars- Wikipedia.

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टिप्पणियाँ

Tabarak sekh 2023/02/21 11:40 AM

क्या केवल तराई - डुवास में केवल नेपाली और आदिवासी समाज के लोग ही रहते हैं? क्या केवल तराई - डुवास में नेपाली और सादरी भाषा ही बोली जाती है ?

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