बसवेश्वर के वचनों में सामाजिक चेतनाः एक विश्लेषण
आलेख | शोध निबन्ध हसन पठान26 Dec 2015
बसवेश्वर कर्नाटक के भक्ति साहित्य के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। बसवेश्वर की प्रेरणा से कर्नाटक में 12 वी शताब्दीं में सामाजिक चेतना का आंदोलन आरंभ हुआ जिसका असर तत्कालीन समाज में देखा जा सकता है। बसवेश्वर का जन्म सन् 1131 में बिजापुर जिले के बागेवाडी गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम मादरस और माता का नाम मादलाम्बिका था। बसवेश्वर के बारे में यह कहा जाता है कि उनमें क्रांतिकारी विचारों का जन्म बाल्यावस्था में हुआ था और इसकी पहली झाँकी तब दिखाई दी जब उनका उपनयन संस्कार करने का समय आया तो वे विद्रोह करके घर से भाग खड़े हुए और कूडलसंगम नामक स्थान पर रहने लगे जो कृष्णा और मलप्रभा नदियों के संगम स्थल पर प्रसिद्ध तीर्थ क्षेत्र है। इसी स्थान पर जातवेद नामक वीरशैव तपस्वी से दीक्षा ग्रहण करके गुरु के सानिध्य में अपने व्यक्तित्व का विकास करते रहे और यही रहकर उन्हें समाज में प्रचलित अंधविश्वाव का ज्ञान हुआ तो बसवेश्वर ने निश्चय किया कि समाज में प्रचलित इस कुप्रथा को, सामाजिक जीवन की विषमताओं को मिटाना हैं। कालान्तर से बसवेश्वर की कीर्ति सारे प्रदेश में फैल गई थी। बाद में बसवेश्वर को बिज्जल राजा का आश्रय भी प्राप्त हुआ। राजा को बसवेश्वर ने इस तरह से प्रभावित किया कि कुछ समय के बाद बसवेश्वर को राज्य का प्रधानमंत्री बना दिया। जिस प्रकार राजा बसवेश्वर से प्रभावित हुआ उसी प्रकार सामान्य जनता भी बसवेश्वर की मुरीद बन गई और देखते ही देखते लाखों की संख्या में भक्तों की मण्डली जमा हो गई। बसवेश्वर का कार्यक्षेत्र विस्तृत था, अंतरजातिय विवाह को प्रोत्साहन, स्त्रियों के प्रति आदरभाव, बहुदेवतावाद का विरोध, मूर्तिपूजा का विरोध, कर्मकाड का विरोध आदि। ऐसे क्रांतिकारी युग प्रवर्तक, सामाज सुधारक संत-भक्त की मृत्यु अपने जीवन के केवल 36 साल में सन् 1167 में हुई।
बसवेश्वर द्वारा रचित वचनों की संख्या लगभग एक हज़ार मानी जाती है। इस में कुछ अतिशयोक्ति भी हो सकती है। क्योंकि इसके अनेक संस्करण निकले हैं और हर किसी ने वचनों की संख्या कम अधिक बताई है। हो सकता है कुछ वचन भक्तों द्वारा बसवेश्वर के नाम से बाद में जोड़े गए हो। लेकिन इन वचनों की विविधता और सामाजिक दायित्वों के प्रति बसवेश्वर की प्रतिबद्धता उस काल की दृष्टि से काफी आगे वाली थी। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ यह आपके समझ में आ गया होगा।
बसवेश्वर अपने वचनों में प्राणी मात्रा पर दया भाव रखने की बात करते हैं। क्यों कि उस काल में भी और आज के सूचना तकनीकी के दौर में भी मानव दया भाव से वंचित होता गया है। स्वार्थ ने इसे इस कदर घेरा है कि वह सिर्फ अपने बारे में ही सोचने लगा है। आज के इस आधुनिक युग में चोरी, हत्या, झूठ, घृणा, निंदा ये सब बातें आम बन गयी हैं। वैश्विकरण के इस चक्रव्यूह में समाज की नैतिकता का हनन हो रहा है। विश्व के सभी धर्म हमें दया भाव की शिक्षा देते हैं लेकिन हम क्या करते हैं यह सोचने वाली बात है। बसवेश्वर कहते हैं कि निर्धन की सहायता करना धनवान व्यक्ति का कर्तव्य है और उसका धर्म भी है। आज इस धरती पर चारों ओर अशांति, अराजकता, आतंकवाद फैल चुका है, नरसंहार का तांडव मचा हुआ है। कोई किसी की सहायता नहीं करता, किसी पर दया नहीं दिखाता, मानव की वाणी अब पहले से कठोर बन गई है और साथ में दिल भी कठोर बन गया है। आज करुणाहीन मानव को दूसरों की छोड़िए भगवान का भी भय नहीं है।वह यह भूल गया है कि सुखी समाज का सपना एक दूसरे के सहयोग से ही पूर्ण होगा। इसीलिए बसवेश्वर कहते हैः-
दया के बिना धर्म कहाँ?
सभी प्राणियों के प्रति दया चाहिए
दया ही धर्म का मूल है
दया धर्म के पथ पर जो न चलता
कूडल संगमदेव को वह नहीं भाता।
(बसवेश्वर काव्यशक्ति और सामाजिक शक्ति, पृ. 25)
बसवेश्वर का सबसे महत्वपूर्ण कार्य स्त्री समाज के प्रति था। 12वीं शताब्दी तक जिसको सदियों से सामाजिक बंधनों में जकड़ कर रख दिया गया था। जिसे शुद्र के श्रेणी में रख कर गुलाम का दर्जा दिया गया था। माता, बहन, पत्नी, बेटी आदि संबोधनों के बावजूद भी इसे पुरुषों से निम्न माना जाता था। धर्म के नाम पर उस पर अनेक सामाजिक बंधन डाल दिए गए थे। बसवेश्वर को समाज में व्याप्त यह स्त्री-पुरुष भेदभाव अन्याय कारक लगा। इसी कारणों से बसवेश्वर ने 12वीं में स्त्री-पुरुष समानता का आंदोलन चलाया जिसकों व्यापक जन समर्थन प्राप्त हुआ। बसवेश्वर ने स्त्रियों को घर और समाज की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए जिन सुधारों का स्वीकार किया था वह वर्तमान समाज के लिए भी अचंभित करने वाली घटना है। 12वीं शताब्दीं में बसवेश्वर द्वारा महिलाओं के लिए बहुउद्देशीय संघटनाओं की स्थापना की गई थी। बसवेश्वर के इस कार्य के संदर्भ में डॉ. जयदेवीताई लिगाडे कहती है कि, “बारहवीं शताब्दी की शिवशणियाँ स्त्री-मुक्ति-क्रांति का आदर्श हैं।”(बसवेश्वर काव्यशक्ति और सामाजिक शक्ति, पृ. 34) बसवेश्वर द्वारा स्थापित ‘अनुभव मंडप’ विश्व की पहली लोकसभा थी। इस अनुभव मंडप में 700 पुरुष और 70 स्त्रियाँ थी। बसवेश्वर द्वारा स्थापित इस अनुभव मंडप में स्त्रियों को धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में पूर्ण स्वातंत्र्य दिया गया। बसवेश्वर जब बिज्जल राजा के प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने बाल विवाह का विरोध किया और विधवा के पुनर्विवाह को मंजूरी दी। समाज से दुर्लक्षित वेश्याओं को जीने की नयी राह दिखाई। उनका पुनर्वास तो किया ही साथ में उनको नैतिक मूल्यों का शिक्षण भी अपने अनुयाईयों द्वारा दिया। सुली संकबे नामक वेश्या को आपने अनुभव मंडप में प्रवेश दिया। बाद में सुली संकबे ने अनेक वचनों का निर्माण किया। अनुभव मंडप में जो स्त्रियाँ थीं उनमें से 30-35 महिला वचनकार थीं जिन्हों ने समाज में काफी ख्याती आर्जित की थी। अक्का महादेवी उनमें से एक है जिनको प्रथम स्त्री वचनकार के नाम से कन्नड साहित्य में जाना जाता है। बसवेश्वर के स्त्री कार्य के संदर्भ में विठल बन्ने लिखते है, “स्त्री मुक्ति और जनतांत्रिक तत्त्वों का व्यावहारिक समर्थन करने वाले बसवेश्वर एक अग्रणी व्यक्ति थे। धार्मिक क्षेत्र में रहते हुए भी उन्होंने स्त्री-मुक्ति का आंदोलन चलाया, यह एक विशेष बात है।”(बसवेश्वर काव्यशक्ति और सामाजिक शक्ति, पृ. 34)
बसवेश्वर के सामाजिक आंदोलन का और एक महत्वपूर्ण पहलू था निम्न जातियों के व्यक्तियों को अनुभव मंडप में स्थान तथा शिक्षा भी दी जाती थी। आधिकांश शिवशरण कवि तथा कथित निम्न जाति तथा सर्वहारा वर्ग से आते थे। बसवेश्वर ने इन तथा कथित निम्न एवं सर्वहारा वर्ग में ऐसा आत्मविश्वास भर दिया था कि वो भी ईश्वर की भक्ति के वचनों की रचना करने लगे। इसीलिए बसवेश्वर कहते है कि सदगुण वाले व्यक्ति की कोई जाति नहीं होती। अगर कुलहीन व्यक्ति सुशील है तो उसके पड़ोस में रहना अच्छा होता है। वो कहते हैः-
“कुलहीन सुशील हो तो,
उसके पड़ोस में रहना भला है।
सुपथ छोड़े बिना लिंग का सुमिरन कीजिए।
अनुभव मंडप में
मोची चन्नय्य सुशील है, कूडल संगम देव।”
(बसवेश्वर काव्यशक्ति और सामाजिक शक्ति, पृ. 110)
समाज में व्यभिचार का बोल-बाला था। लोग पापों से मुक्ति के लिए काशी जैसे स्थानों पर जाकर गंगा स्नान कर लेते थे। लेकिन इसके बावजूद भी पर नारी के संग व्यभिचार करते थे। जिससे समाज का नैतिक पतन हो रहा था। अनैतिक रिश्तों से समाज का विकास भी अवरुद्ध सा हो जाता है। और यह जो अनैतिकता थी उसमें उच्च वर्ग के लोग निम्न जाति की स्त्रियों के साथ ज़बरदस्ती व्यभिचार करते थे। वह इसे अपना धर्मिक अधिकार समझ लेते थे। पर धन पर जबरन अपना अधिकार कर लेते थे। बसवेश्वर इस संबंध में कहते हैः-
“नदिया में नहानेवाले भाइयों,
नदिया में नहानेवाले साँइयों
तजो रे, तजो रे !
परनारी का संग तजो
परधन का लोभ तजो
कूडलसंगमदेव, इनको तजे बिना
व्यर्थ जाएगा नदिया का स्नाना।”
(बसवेश्वर काव्यशक्ति और सामाजिक शक्ति, पृ. 104)
जाति व्यवस्था पर जो प्रहार बसवेश्वर ने 12वीं शताब्दी में किया था वह सबसे क्रांतिकारी था। उन्होंने स्थापित किए हुए अनुभव मंडप में अनेक भक्त निम्न जाति से आते थे। बसवेश्वर कहते है कि अगर उन के कार्य से उनकी जाति बन जाती है तो में खुद को ब्राह्मन कहूँ तो हे ईश्वर तुम हँसने लगोगे। लोगों कि जाति व्यवसाय या कार्य से नहीं तो इसके वर्तन, उसके व्यवहार से, उसके आचरण से बनती है। बसवेश्वर कहते हैः-
“सेठ कहूँ क्या सिरियाल को?
धोबी कहूँ क्या माचय्या को?
डोम कहूँ क्या कक्कय्या को?
चमार कहूँ क्या चन्नय्या को?
ब्राह्मन कहूँ यदि अपने को
हँस देंगे कूडलसंगदेव!”
(बसवेश्वर काव्यशक्ति और सामाजिक शक्ति, पृ. 101)
बसवेश्वर ने कबीर की तरह मूर्ति पूजा का विरोध किया है। साथ में बहुदेवता वाद पर भी बसवेश्वर ने तीव्र प्रहार किया है। लोग पत्थर के देवताओं पर दूध चढ़ाते हैं लेकिन किसी गरीब को एक बूँद तक नहीं देंगे। जब कही हमें साँप दिखाई देता है तो पहले हम उसे मार देते हैं और जब नाग पंचमा आती है तो पत्थर के नाग को दूध पिलाते हैं। बसवेश्वर अपने एक वचन में कहते हैं:-
जीवित नाग की हत्या करने दौड़ेंगे
खाने वाले जंगम को झिड़का देंगे,
जो खाता नहीं उस लिंग का भोग लगाएँगे”।”
(बसवेश्वर काव्यशक्ति और सामाजिक शक्ति, पृ. 99)
बहुदेवता वाद का विरोध करते हुए बसवेश्वर अपने वचन में स्पष्ट लिखते है कि
“देव एक नाम अनेक
परम पतिव्रता का पति एक
अन्यदैव से जो टेके माथा
नाक-कान काटेगा संगमनाथा
अनेक देवों की जूठन खानेवालों को
क्या कहूँ, कुडलसंगमदेव”।”
(बसवेश्वर काव्यशक्ति और सामाजिक शक्ति, पृ. 104)
बसवेश्वर न सिर्फ मूर्तिपूजा, बहुदेवतावाद का विरोध किया बल्कि गीता, वेद-पुरानों को भी व्यर्थ बता दिया है। वे कहते है कि अगर वेद को श्रेष्ठ कहूँ तो वह प्राणी वध का समर्थन करता है। बसवेश्वर वेदों ब्रह्म के ढोंग है, जिसके कारण वे उसे वे म्यान में रखना चाहते हैं। शास्त्र सरस्वती का व्यर्थ का खेल है जिसकी वज़ह से वह सिर्फ कर्म की उपासना पर बल देता है इसलिए वह श्रेष्ठ नहीं हो सकते जिस कारण वह शास्त्र बसवेश्वर को बेड़ी पहनाना चाहते हैं। एक वचन में बसवेश्वर कहते हैः-
“गीता का गायन करने से क्या होता है?
शास्त्र का पारायण करने से क्या होता है?
वेद वेदान्त के पढ़ने से क्या होता है?”
(I Shall Put Leather Sheath To The Vedas पृ.2)
दूसरे एक वचन में इससे भी आगे पढ़कर कहते हैः-
“वेद जो हैं ब्रह्म के ढोंग हैं
शास्त्र जो है सरस्वती के व्यर्थ का खेल हैं
आगम जो हैं ऋषि के मुग्धखेल हैं
पुराण जो हैं वे पूर्वजों के व्यर्थखेल हैं।”
(I Shall Put Leather Sheath To The Vedas, पृ.8)
इस प्रकार से बसवेश्वर के वचन काव्य में समाजिक चेतना के प्रति विविधता दिखाई देती है। बसवेश्वर ने जो कार्य 12वीं शताब्दीं में किया था वह उस काल विशेष और वर्तमान समय के लिए भी एक प्रेरणा स्त्रोंत के रूप में कार्य करता है। बसवेश्वर सच्चे अर्थ में एक समाज सुधारक थे जिनके कार्य को जितनी लोकप्रियता मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिली है और बसवेश्वर एक वर्ग विशेष तक ही सीमित हो गए है। उनको किसी एक वर्ग तक सीमित रखना उनके कार्य के प्रति अन्याय होगा।
संदर्भ सूचीः-
1. https://hi.wikipedia.org/wiki/
2. https://mr.wikipedia.org/wiki/
3. https://en.wikipedia.org/wiki/Basava
4. http://lingayatreligion.com/
5. http://jayvijay.co
6. डॉ. काशीनाथ अंबलगे, बसवेश्वर काव्यशक्ति और सामाजिक शक्ति, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबादः2006.
7. डॉ. काशीनाथ अंबलगे, वचन साहित्य और संत साहित्य का समाजशास्त्र, राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्लीः2007
8. http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/SantoshMahipati/Kannad_mein_vacan_andolan_aur-stri_mukti_Shodhnibandh.htm
9. I Shall Put Leather Sheath To The Vedas, Editor Dr. M. M. Kalburgi, Basavadharma Prakashan, Kalaburagi:2015.
संपर्कः-
1.हसन पठान,
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कर्नाटक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कलबुरगी (कर्नाटक)
फोन नंबरः-09480625080
hasanpathan09@gmail.com
2.गीता राठोड, शोधार्थी, अंग्रेजी विभाग, कर्नाटक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कलबुरगी
geeturathod143@gmail.com
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