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भाग्य की विडम्बना


मंजु सिंह
 काशीनाथ जी का सीना गर्व से फूल कर दोगुना हो गया था उस दिन जब उनकी छोटी बहू ने तीसरे बेटे को जन्म दिया… क्यों न होता आखिर! पुरातनपंथी सोच के परिवारों में अक्सर पुत्र प्रेम छुपाये नहीं छुपता, वैसे उन्हें बेटियों से कोई बैर तो नहीं था, लेकिन बेटों के प्रति, पोतों के प्रति लाड का जो सोता फूट पड़ता था वह पोतियों को देखते ही जैसे सूख जाता था। इतना स्नेह कभी नहीं लुटाया अपनी पोतियों पर, जितना पोतों पर लुटाते रहे जीवन भर; दो पोतियाँ भी थीं काशीनाथ जी की, लेकिन बड़े बेटे से। वैसे तो बड़ा बेटा अपने सुमित परिवार के साथ दिल्ली में रहता था। रहना बहुत चाहा था उसने परिवार वालों के साथ लेकिन बहू के कारण कभी टिकने ही नहीं दिया किसी ने उसे वहाँ। यूँ बड़ी बहू स्वाभाव की बुरी नहीं थी परंतु न जाने क्या बात थी कि कभी परिवार के सदस्यों ने उसे मन से नहीं अपनाया। शायद उसका पढ़ा-लिखा होना ही उसका बड़ा दोष था। वह परिवार में जब आयी तो उसने पाया की उसके मायके और ससुराल के माहौल में ज़मीन आसमान का अंतर था। वह एक पढ़ी लिखी और शिक्षित परिवार की बेटी थी; जबकि जिस घर में ब्याह कर आयी थी उसके सदस्य पढ़ाई लिखाई से लगभग दूर का नाता ही रखते थे। केवल उसका पति ही था परिवार में एक शिक्षित और सरकारी नौकरी करने वाला सदस्य। सीमा का घर दिल्ली जैसे शहर में था। वह वहीं की पली बढ़ी थी और ससुराल थी एक क़सबे में जहाँ परिवार के सब रीति-रिवाज़ और सोच सीमा की सोच से मेल नहीं खाती थी। सीमा के पिता की असमय मृत्यु और घर के अभाव के कारण ही सीमा की माँ को यह रिश्ता करना पड़ा किन्तु अच्छी बात यह थी कि सीमा का पति सबसे अलग था, सरकारी नौकरी थी। पति की तरफ़ से उसे कोई शिकायत न थी, न ही कभी पछतावा हुआ इस शादी के कारण।

उसने इस बात को ज़्यादा तरजीह कभी नहीं दी और पहले दिन से ही कोशिश की कि परिवार के तौर-तरीक़े सीखे और घुलमिल जाये सबके साथ। बहू ने ब्याह कर आने के बाद सबका दिल जीतने कि पूरी कोशिश की, घर की साज-सज्जा नए ढंग से की, नए-नए पकवान बनाने और खिलाने में भी कसर न छोड़ी। उस बेचारी ने अपने मायके में कभी चूल्हे और अंगीठी के दर्शन तक न किये थे, लेकिन ससुराल में खाना बनाने में कभी आना-कानी नहीं की, और सब बातें तो एक तरफ़ उसने घर का संडास तक साफ़ करने में नाक-भौ नहीं सिकोड़ी। सिलाई-कढ़ाई भी की। अपना हर सामान सबके साथ साझा करने से कभी गुरेज़ न किया, सबके साथ प्यार से रहने की पूरी कोशिश की। अब शहर में पलने बढ़ने के कारण उसे गाँव के तौर तरीक़े नहीं आते थे और कुछ उसके विचार आड़े आ जाते थे। उसे पता ही नहीं चलता था की कब किसको क्या बात बुरी लग जाएगी। हँसने बोलने वाली सीमा कब सोच-सोच के बोलने लगी पता ही न चला। इतना करने पर भी सबका दिल जीत ही न सकी। परिवार के सदस्यों का व्यव्हार बुरा नहीं था लेकिन कभी किसी ने कोई बात समझायी नहीं सबने चाहा की सीमा उनकी बातें सुनकर ख़ुद ही समझ ले। दूसरों की मिसालें देकर बात की जाती तो समझ में तो आ जाता था पर यह बात उसे बहुत चुभती थी की साफ़ कहकर कोई समझने वाला न था घर में किसी भी नव विवाहिता से हमारा समाज यह उम्मीद करता है कि वह मायके से हँसती-खेलती आयी बच्ची एक ही दिन में समझदार हो जानी चाहिए यही कारण है की परिवारों में मनमुटाव हो जाता है।

क़िस्मत में यश लिखा ही नहीं था कुछ दिनों बाद ही पति कि नौकरी के कारण उसे भी घर से जाना पड़ा शायद यह दूसरा बड़ा कारण था सबकी नाराज़गी का, उसके बाद तो लाख कोशिश करने पर भी वह सबके मन में जगह न बना सकी। अच्छा स्वाभाव और अच्छी नीयत ही नहीं, थोड़ी चालाकी भी चाहिए होती है सबका मन जीतने के लिए यह उसे बहुत बाद में समझ आया जब उसकी देवरानी घर में आयी।

नयी बहू ने आते ही काम-काज तो सँभाला ही, साथ ही सबकी हाँ में हाँ और न में न,यही उसकी जीत का सबसे बड़ा मंत्र था, जो सीमा कभी न कर पायी; उसका मन, उसके विचार, उसकी सोच अलग थी। वो आँख बंद कर के सिर्फ़ इसलिए सबकी हाँ में हाँ नहीं मिला सकती थी कि घर के लोगों का यह मानना था तो यही सही है। उसने ग़लत बातों को हमेशा ग़लत ही माना शायद यह उसका एक बड़ा दोष रहा। उसके उचित-अनुचित के तर्क भी घर के लोगों को पसंद नहीं आते थे। उर्मि, सीमा की देवरानी, गाँव की रहने वाली थी जबकि सीमा शहर की। सीमा झूठी तारीफ़ करके किसी से अपना काम नहीं निकलवा सकती थी जबकि उर्मि इसमें माहिर थी।

उर्मि काशीनाथ जी की नज़रों के सामने उनकी अम्मा यानी दादी के सम्मान का ढोंग करती जबकि उनके पीछे से अम्मा को पिछले दिन की बासी रोटी गरम कर के देने से भी न चूकती थी। अम्मा बेचारी सब समझती थीं लेकिन कभी कुछ कहती न थी, ऐसा उर्मि सिर्फ़ इसलिए करती, क्योंकि उसकी सास ने अम्मा के ऐसे व्यवहार की कुछ बातें उर्मि को बता रखी थीं, जैसा पुराने समय में अक्सर सास अपनी बहू के साथ करती थीं। तो बस सास को ख़ुश करने को वह कुछ भी कर सकती थी। सीमा को यह सब बहुत बुरा लगता था। उसका मन करता था बाबूजी को सब बता दे पर कभी घर में क्लेश करने की मंशा न होती थी उसकी। उर्मि की सास भी यह सब करना नहीं चाहती थीं परंतु वह न मानती, कहती, "अम्मा ने भी तो किया था आपके साथ "। ...अम्मा को रोज़ उसी टूटे कप में चाय देती जिस से उन्हें चिढ़ थी। जानबूझ कर, कहती थी इसी मे दूँगी। ....ऐसे संस्कार सीमा के न थे कुढ़न होती थी उसे पर चाह कर भी कर कुछ न पाती थी वह।

उसने बड़ी बहू के विरुद्ध घरवालों के कान भर-भर के सबको उसके ख़िलाफ़ कर दिया। वैसे घर के सदस्य कभी खुल कर सीमा से कुछ नहीं कहते थे ऊपरी तौर पर सब ठीक था पर जब भी बड़ा बेटा अपने परिवार के साथ घर पे आता तो घर के लोगों का अटपटा व्यवहार देखकर उन्हें कभी लगता नहीं था कि यह घर उनका भी है। घर के सभी सदस्य न जाने क्यों हमेशा उर्मि की झूठी बातों पर यक़ीन करते थे और सीमा और उसकी बेटियों के साथ ग़ैरों का सा व्यवहार करते थे, ऐसा जिसे कोई बुरा भी न कह सके और एहसास भी हो जाये कि घर तो सिर्फ़ अमित, उर्मि और उनके बेटों का है सुमित, सीमा और उनकी बेटियाँ तो घर के मेहमान हैं जो कुछ दिनों में चले जायेंगे।

खाने पीने की छोटी-छोटी चीज़ें तक छुपा कर रखी जाती थीं पोतों को चुपचाप खिला दिया जाता और पोतियों को दो बिस्कुट दिन में दिए जाते थे। बॉर्नविटा आता तो उसपर पोते का ही नाम लिखा होता, कभी ग़लती से सीमा ने बच्चों के दूध में डाला तो सुनने को मिला कि ये साहिल के लिए है, ख़त्म हो गया तो वह दूध नहीं पियेगा - ऐसे में सीमा मन मसोस कर रह जाती; किसी से कुछ न कह पाती। यहाँ तक कि उन्हें उनका सामान ठीक तरह से रखने के लिए जगह तक देने को तैयार नहीं था कोई। जहाँ भी सीमा अपना कोई सामान रखती उसे कहा जाता, "यहाँ से हटा लो यहाँ तो यह रखा जाता है वहाँ से हटा लो वहाँ तो यह किया जाता है।" घर के बरामदे में ही रखा रहा उनका सामान जब तक वे घर छोड़ कर चले न गए तिस पर दोष सारा सीमा के सर मढ़ दिया गया कि परिवार के साथ रहना उसके बस की बात नहीं।

उर्मि का इरादा शुरू से ही घर कि ज़मीन जायदाद को अकेले हथियाने का था और उसके पति और बच्चों कि नीयत भी कुछ ऐसी ही थी। जब नौकरी छोड़ कर बड़ा बेटा घर आया तो सबका व्यवहार ऐसा था कि वे लोग घर पर टिकें ही न, क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो अंत में ज़मीन जायदाद का बंटवारा हो जायेगा। उर्मि और उसका पति अपना एकछत्र राज चाहते थे घर पर। भाती तो उन्हें अपनी दो बहने भी नहीं थीं लेकिन कभी किसी को यह बात समझ में इसलिए नहीं आयी क्योंकि परिवार का हर एक सदस्य उन दोनों पर आँख मूँद कर भरोसा करता था। जब तक अपने घर में यह सब नहीं देखा था तब तक ऐसी बातों पे यक़ीन नहीं होता था कि सचमुच खून पानी हो जाता है। अमित ने अपनी बहन तक पर आरोप लगा दिया कि उस की बेटी कि शादी में दिया गया सारा सामान मायके से ही गया है चोरी-चोरी। उसे लगता था कि दुकान तो अच्छी ख़ासी चलती है लेकिन यहाँ तो सब बेटियों के घर में भरा जाता है, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं था। कोई उसे पूछने वाला नहीं था कि क्या दूसरों ने अपना स्वाभिमान गिरवी रखा हुआ है, वे क्यों लेंगे इस प्रकार चोरी छुपे कुछ भी। बहनोई अच्छे ख़ासे परिवार से थे कहते कमाते थे भला वे क्यों करते ऐसा। अमित तो हमेशा से यही सोचता था कि बस हर चीज़ उसकी है दूसरा कोई किसी चीज़ का हक़दार नहीं है। सब कुछ अकेले ही समेत लेना चाहता था और बहन भाई का दिल दुखे तो दुखता रहे,वह कहने से पहले कभी न सोचता था कि किसी के दिल पे क्या बीतेगी।

माँ और बाबूजी जीवन भर उनके लिए खपते रहे। अमित ने घर में रहते हुए हर तरह की सुख सुविधा से परिपूर्ण जीवन व्यतीत किया, बच्चों की फ़ीस कब देनी है, कितनी देनी है, ट्यूशन की फ़ीस, हर तरह के एंट्रेंस परीक्षा की फ़ीस- कौन सा ऐसा ख़र्च था जो बाबूजी ने न उठाया हो पाँच सदस्यों का अमित का परिवार बाबूजी ही पालते रहे। अमित को एक दुकान खोल कर दी जिसका सामान तक बेच कर ख़त्म कर दिया। दुकान खाली हो गयी, फिर भी बाबूजी ने मदद की। भावनाओं को भुना कर जब जी में आता अमित घर छोड़ने का नाटक करता। पढ़ा-लिखा अधिक था नहीं फिर भी ख़ुद कमाने का ताना मार कर निकल जाता घर से। लेकिन उर्मि इतनी सायानी थी की उसने कभी घर नहीं छोड़ा और कहती रही, "मैं तो आप दोनों की सेवा करूँगी। आपको इस उम्र में अकेले छोड़ कर न जाऊँगी।" इसके पीछे जो मंशा थी उसका किसी को कभी पता नहीं चला। ...कैसे चालाकी से उसने सारे दाँव खेले कि किसी को कभी शक ही न हुआ कि उसके दिमाग़ में चल क्या रहा था। वह इस बात को भी ख़ूब जानती थी कि उसके पति को ऐसा कोई काम न मिलेगा कि वह स्वतंत्र रूप से अपने परिवार को पाल सके। दरअसल उन दोनों पति पत्नी को अगर किसी चीज़ से लगाव था तो वो थी परिवार की संपत्त॥ उन के तीनों बेटे बड़े हुए तो उनका दिमाग़ भी उसी दिशा की और बढ़ने लगा और पढ़ाई लिखाई में उनका मन कभी न लगा। फिर भी काशीनाथ जी उनकी शिक्षा-दीक्षा पूरी करने में कभी कोई कोर कसर न छोड़ी। अच्छे से अच्छे स्कूल में दाख़िल दिलाने के आलावा महँगे ट्यूशन महँगी किताबें और न जाने क्या-क्या। उन्हें क्या पता था की वे आस्तीन में साँप पाल रहे थे।

दिन बीतते गए अमित बार-बार ड्रामा करता। फिर माँजी और बहनें मना कर बुला लेतीं। बाबूजी की उम्र बढ़ रही थी और अमित के बेटे जवान हो गए थे। अब बाबूजी की एक न सुनते थे; वे जो बाबूजी को बुरा लगता वही काम करते बाबूजी दुखी होते थे। काफ़ी बीमार भी रहने लगे थे संजय और सीमा जब-तब मिलने आते थे। माँ कभी घर के गेहूँ, गुड़, घी दे देती थीं तो अमित से सहन न होता। उसने झगड़ा कर-कर के सब छुड़वा दिया। माँ को वैसे अपने छोटे बेटे और उसकी पत्नी बच्चों में कभी कोई खोट दीखता ही नहीं था। वे हमेशा ग़लती बाबूजी की ही बताती थीं। बेचारे बाबूजी ने कभी अपने लिए कुछ न सोचा घर की दशा कुछ अच्छी नहीं थी सबको ज़मीन का मुआवज़ा मिलने का इंतज़ार था।

बस दिन काट रहे थे क्योंकि सात प्राणियों के परिवार का गुज़र-बसर एक छोटी सी दूकान से मुश्किल से ही होता था। अब बाबूजी को उसी में दुनियादारी, बेटियों का लेन-देन और भी न जाने क्या-क्या निबटाने की चिंता रहती थी। घर ख़र्च में हाथ खींचना पड़ जाता था; कभी-कभी, तो अमित को बुरा लगता था।

बाबूजी के आख़िरी समय से तीन महीने पहले ज़मीन का मुआवज़ा मिला। अमित ख़ुद कुछ कहता न था पिता से, न ही उसकी पत्नी या बच्चे ही कुछ कहते किन्तु पिता से बात करना बंद कर दिया। घर में शीत युद्ध का सा माहौल रहने लगा। काशीनाथ को हर बात का उल्टा जवाब सुनना पड़ता था। एक दिन घर के सामने पड़े एक बड़े पत्थर को हटाने के लिए जब काशीनाथ जी ने अपने पोते को कहा तो उसने उसे हटाने कि बजाय उसे लाकर उनके ही कमरे में टिका दिया। गाने गा-गा कर उन्हें चिढ़ाया करते पोते। काशीनाथ जी ने यह सब कभी सपने में भी न सोचा था बल्कि उनके तो मन में सदा से अपने छोटे बेटे अमित और उसका परिवार ही बसा हुआ था। सुमित और सीमा ने कभी इस और कुछ सोचा ही नहीं था। लोग भड़काने में कसर नहीं छोड़ते थे जिसे देखो वह यही सलाह देता था कि अपना हिस्सा माँग लो लेकिन उन दोनों ने कभी किसी चीज़ का लालच नहीं किया था। यही सोचते थे कि जो मिला ठीक है, नहीं मिला तो भी कोई बात नहीं।

अमित और उर्मि के साथ-साथ उनके बेटों ने भी सपने सजाना शुरू कर दिया लेकिन बाबूजी ने अभी उन्हें कुछ दिया नहीं था। उनके मन की पता नहीं पर कभी सीमा सुमित को यह सपने में भी नहीं लगा कि इस ज़मीन जायदाद का कोई हिस्सा उन्हें भी मिलने वाला है। क्योंकि उनका कोई बेटा नहीं था और इसलिए उर्मि और सास ननद ने कई बार इशारों में कहने की कोशिश भी की थी कि सुमित की तो बेटियाँ है। अपने अपने घर चली जाएँगी फिर सब एक साथ रहेंगे यानी सब कुछ अमित और उसके परिवार को मिलेगा और सुमित और सीमा को उनकी दया पर रहना मंज़ूर हो तो रहेंगे अन्यथा जैसे चाहें करें।

अब जाकर बाबूजी को शायद कुछ एहसास हो गया था कि उनके पास अब ज़्यादा समय नहीं है। उन्होंने सारे धन के तीन हिस्से किये एक बड़े बेटे को दिया एक छोटे को और एक अपने पास। इतना करना था काशीनाथजी का, कि अमित और उसका पूरा परिवार ईर्ष्या से सुलग उठा। जिस तिस के सामने काशीनाथ जी को अपशब्द कहना आरम्भ कर दिया। जब देखो उनके मुँह से यही सुनने को मिलता कि "किया ही क्या है हमारे लिए, हमने तो मुफ़्त में ही इतने दिन सेवा की। हमसे अच्छे तो भाई साहब रहे, कुछ किये बिना ही माल मिल गया"। माँ को भी शायद इस बात कि उम्मीद न थी पर वे कुछ कह न पायीं काशीनाथ जी के सामने।

उन सब कि हरकतें अब काशीनाथजी से सहन नहीं होती थीं। एक दिन उन्होंने दुखी होकर कह ही दिया कि "अब तुम्हें तुम्हारा हिस्सा दे दिया है। अब तुम इस घर से निकल जाओ जब तक तुम न निकलोगे मैं न कुछ खाऊँगा न पियूँगा"।

यह सुनकर जो अमित के बेटों ने किया वह सुन कर काशीनाथजी के पैरों तले की ज़मीन खिसक गयी। तीनों-के-तीनों पोते उनके सर पे चढ़ कर बोले कि ऐसे न जायेंगे इस मकान से मकान का हिस्सा लिए बिना। काशीनाथी जी के दिल पर क्या गुज़री इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। जिन्हें गोद में खिलाया, कन्धों पर बिठाया, आज वो ही सर पर चढ़ बैठे थे। देर से ही सही काशीनाथ जी अब सब समझ चुके थे। उन्हें इस बात का एहसास हो चुका था कि इन सब ने इतने दिन मुँह क्यों बंद रखा हुआ था। काशीनाथ जी ने चालीस लाख का चेक काट कर अमित को थमा दिया और उनके घर से निकलने का इंतज़ार करने लगे। असली सितम तो अभी देखना शेष था। अमित कि पत्नी ने रसोई का एक-एक सामान पैक कर लिया। वहाँ न कोई बर्तन छोड़ा न डिब्बा। यहाँ तक कि गैस का सिलिंडर भी निकल लिया, चकला बेलन तक न छोड़ गए। यह भी न सोचा कि शाम को बेचारे बूढ़े माता पिता कहना कैसे खा पाएँगे।

ईश्वर कि लीला है तभी उनकी बड़ी बेटी आ पहुँची। तब के तब बाजार से सब सामान ख़रीद कर दे गयी, खाने-पीने का प्रबंध कर गयी। काशीनाथ जी और उनकी पत्नी अकेले रह गए। बेटी के जाने के बाद अगले दिन जब सुमित को सब पता चला तब वह आया और जिस चीज़ कि ज़रूरत थी वह रख कर गया। सीमा ने यहाँ तक कहा कि वह अपनी नौकरी छोड़ कर आ जाएगी माता-पिता के पास परंतु माँ ने मना कर दिया।

जब काशीनाथ जी अपनी पत्नी के साथ अकेले रह गए तब सुमित ने माता-पिता के साथ रहने की इच्छा ज़ाहिर की किन्तु उन्होंने मन कर दिया यह कहकर कि अमित यह सोचेगा कि अब सब हड़पने के लिए यहाँ आ बैठे। सुमित को लगा कि वे सही कह रहे हैं। उसने हर आठ दस दिन में यह सोचकर माता-पिता के पास आना शुरू कर दिया कि वे अकेले थे लेकिन इस पर भी सुमित और उसके परिवार ने ताने मारने में कसर न छोड़ी। अब तो ताऊ जी रोज़ ही आने लगे पता नहीं क्या चाहते हैं। सुमित को पता लगा तो उसने आना कम कर दिया किन्तु जिस दिन पिता कि मृत्यु का समाचार मिला उसे स्वयं पर ही क्रोध आया। यदि उसने अमित के बच्चों की बात को दिल से न लगाया होता तो शायद आज वह अंतिम समय में उनके पास ही होता। अपनी इस भूल के लिए सीमा और अमित स्वयं को कभी माफ़ न कर पाए।

यह झटका काशीनाथजी झेल न सके और लगभग एक महीने में ही चल बसे। बेचारे भरे पुरे परिवार के होते हुए आखिरी समय में घर में अकेले थे भाग्य कि विडम्बना ही है कि तीन पोतों के दादा बन कर जो काशीनाथजी फूले न समाते थे वे अंत समय में नितांत अकेल थे।

अमित का लालच अभी पूरा न हुआ था वह पिता कि मृत्यु पर घड़ियाली आँसू बहाने के बाद वहीं टिक गया और घर, दुकान, काशीनाथ जी कि नयी गाड़ी हर चीज़ पर कब्ज़ा कर लियाहीँ तेरहवीं पर ही जो हंगामा किया कि बड़े भाई और भाभी के घर से चले जाने के बाद ही शांत हुआहीँ जिस मकान के पैसे पिता से ले चुका था बेशर्मों कि तरह उसी पे हक़ जमा कर बैठ गया। घर-बाहर वालों में से किसी की शर्म न की। कुछ ही दिन माँ वहाँ गुज़ार सकीं और फिर अपने बड़े बेटे और बहु जिन्हें कभी परिवार वालों ने घर का सदस्य नहीं समझा था, उन्हीं के साथ जाकर रहना पड़ा।

यह अलग बात है कि वे मन से वहाँ रह न पायीं क्योंकि उनसे कभी इतना लगाव रहा ही नहीं। माँ तो माँ होती है अपने बच्चे कभी बुरे तो नहीं लगते माँ को। लेकिन उस घर को उन्होंने कभी अपना घर समझा भी नहीं। बेटा बहू कमी न छोड़ते थे उनकी देख-भाल में किन्तु एक महीना ही टिक कर रह पातीं थीं वे हर बार, और फिर बेटियों के पास रहने चली जाती थी। उनकी ग़लती न थी। जहाँ इंसान कभी रहा न हो अपना घर छोड़ कर, यदि वहाँ रहना पड़े तो कठिनाई होती ही है। सीमा और सुमित नौकरी पर चले जाते थे वक़्त बितातीं भी तो कैसे?

देखिये भाग्य की विडम्बना!!!! दो-दो बेटों के होते हुए वे बेटियों के यहाँ जीवन काट रही थीं। यूँ चली जाती थीं कभी-कभी बेटे के पास परंतु बड़े बेमन से।

समय जो न दिखाए वही कम है। ....

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