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भारतीयता की पहचान और भारतीय साहित्य 

भारतीय समाज की संरचना में एक साथ इतने अधिक तत्व सक्रिय रहे हैं कि किसी एक प्रजाति, एक भाषा या एक धर्म के साँचे में ढालकर भारतीयता की अवधारणा को समझा नहीं जा सकता। इस देश का लम्बा इतिहास और जटिल सामाजिक संरचना इस बहुआयामिता के लिए उत्तरदायी रहे हैं। भारतीय समाज और संस्कृति के निर्माण में अनेकानेक जातियों, धर्मों, समुदायों, संप्रदायों, विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं पर विश्वास रखने वाले लोगों का योगदान रहा है। विविध रीतियों-नीतियों पर चलने वाले, भिन्न-भिन्न भाषाओं को बोलने वाले, भाँति-भाँति के रंग-रूप कद-काठी वाले, तरह-तरह के खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन वाले लोगों ने मिलकर जिस सांस्कृतिक समाज की रचना की है वही भारतीयता की असली पहचान है। डॉ. विजय राघव रेड्डी भारत की इसी विशेषता को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि “पाश्चात्य देशों में राष्ट्र की एक धारणा है—एक जाति, एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति। उन देशों में ‘मोनोलिथिक’ सोसाएटी की परिकल्पना है। वहाँ की संस्कृति भौतिक संस्कृति है। उनके यहाँ बहुभाषिकता अभिशाप है। भारत की सामाजिक रचना बहुजातीय है। हमारा समाज बहुभाषी समाज है और बहुभाषिकता हमारी विशेषता है।” विस्मित करने वाला तथ्य यह है कि विभिन्नताओं और विपरीत प्रतीत होने वाले छोरों के मध्य ही समन्वय की वह डोर भी मौजूद है जो सबको एकसूत्र में बाँधती है। अपनी विशिष्टताओं के प्रति सजग रहते हुए भी हमारी चेतना अपने अस्तित्व को भारतीय होने के बोध में एक आत्मीय सम्बन्ध से जुड़ा हुआ पाती है। 

“भारतीय समाज बहुत पुराना और अत्यधिक जटिल है। लगभग पाँच हज़ार वर्षों की अवधि इस समाज में समाहित है। इस लम्बी अवधि में विभिन्न प्रजातीय लक्षणों वाले और विविध भाषा-परिवारों के आप्रवासियों की कई लहरें यहाँ आकर इसकी आबादी में घुलमिल गयीं और इस समाज की विविधता, समृद्धि और जीवन्तता में अपना-अपना योगदान दिया।”1 हज़ारों वर्षों में विविध प्रजातीय समूहों के समीकरण से बने भारतीय समाज के नृजातीय तत्वों या विभिन्न प्रजातीय समूहों की पहचान भौतिक मानवशास्त्रियों ने की है। उनके अनुसार भारत की जनसंख्या में छह मुख्य प्रजातीय तत्व मौजूद हैं। ये मुख्य प्रजातियाँ हैं—नेग्रीटो, प्रोटो-आस्ट्रलायड, मंगोलायड, भूमध्यसागरीय, पश्चिमी लघुशिरस्क तथा नोड्रिक। बाद में यूनानी, सीथीयन, पार्थियन, शक, कुषाण, हूण आदि आप्रवासियों ने लम्बे समय तक भारत पर शासन किया और अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के साथ भारतीय समाज में विलीन हुए। आभीर, गुर्जर आदि जातियों ने भी कुछ समय तक अलग सांस्कृतिक अस्तित्व क़ायम रखा पर धीरे-धीरे भारतीय समाज में घुलमिल गए। भारतीय संस्कृति कोष के संपादक देवेन्द्र मिश्र के शब्दों में—“समय-समय पर देश में यूनानी, पार्थियन, मंगोल, युची, शक, आभीर, हूण, तुर्क, यवन आदि क़बीले, क़ौमें सैनिक तैयारी के साथ आक्रांता के रूप में आईं और इसी भारतीय संस्कृति के महासागर में समा गईं। कुछ ने अपनी अलग पहचान भी बनाई लेकिन धीरे-धीरे उन पर भी भारतीयता का रंग चढ़ गया। बाहर से आने वाले लोगों की पीढ़ियाँ यहाँ के रीति-रिवाज़ों, विचारों-भावनाओं, रहन-सहन के तरीक़ों, भाषा को आत्मसात करती गईं। आर्य, अनार्य, द्रविड़, बाहरी हमलावर जातियों और भाग कर आए क़बीले एकाकार होते गए और एक साझी सभ्यता और संस्कृति के वारिस बने।”2 

वैदिक साहित्य, संगम साहित्य, रामायण-महाभारत, पुराण, बौद्ध और जैन दर्शन तथा साहित्य, विभिन्न दार्शनिक सिद्धांत, अनेक मत-मतान्तरों से युक्त धर्म और सम्प्रदाय, विभिन्न देवी-देवता और उपासना-पद्धतियाँ, अनेक आस्थाएँ और विश्वास, विविध परम्पराएँ और रीतियाँ, परस्पर प्रभाव ग्रहण करती जीवन पद्धतियाँ भारतीय समाज का निरंतर परिमार्जन करती रहीं। कालांतर में ईसाई और इस्लाम धर्म ने भी अपनी अमिट छाप के द्वारा इस विविधता को नए आयाम दिए। इसी अर्थ में रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता ‘भारत तीर्थ’ भारत को मानवजाति का महासागर कहकर संबोधित करती है। मध्यकाल में मुग़लों का शासन, आधुनिक युग में डच, पुर्तगाल, फ़्रांस और अँग्रेज़ों के शासनकाल का व्यापक प्रभाव भी भारत की सामाजिक संरचना में बदलाव की तरंगें प्रवाहित करते रहे। 

समय-समय पर विभिन्न प्रभावों को आत्मसात करती भारतीयता ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’ पंक्ति को चरितार्थ करती हुई अपनी जड़ों से जुड़ी रही और नई दिशाओं की ओर अग्रसर होती रही। प्राचीन और नवीन के बीच संतुलन साधता हमारा विवेक अपनी सांस्कृतिक पहचान को क़ायम रखने में क़ामयाब रहा। प्राचीन को सँजोए रखकर नवीन को अपनाना और दोनों के बीच समन्वय साध पाना भारतीयता की विशिष्ट प्रवृत्ति है। हम परम्परा के लिए नवीनता की उपेक्षा नहीं करते और न नवीन की अभिलाषा में प्राचीन को त्याज्य समझते हैं। समन्वयन की इस प्रवृत्ति से ही भारतीय समाज की विविधता पनपती और फलती फूलती रही है। खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज़, विश्वास और मान्यताएँ, धर्म और उपासना पद्धतियाँ, भाषाएँ, बोलियाँ, विचार-दर्शन, चिंतन-पद्धतियाँ, कला, संगीत, स्थापत्य, साहित्य-संस्कृति के जितने आयाम हो सकते हैं उन सबके न जाने कितने विविध रंग-रूप भारतीय संस्कृति में मौजूद हैं। 

क्षेत्रीय, भाषाई, राजनैतिक या धार्मिक तनावों-खिचावों के बावजूद यह साझी संस्कृति बिखरती या टूटती नहीं है क्योंकि इसकी जड़े गहरी और मज़बूत तंतुओं से बनी हैं। हम अपनी क्षेत्रीय पहचान से जितना लगाव रखते हैं उतनी ही लगावट और गौरव की अनुभूति हमें अपने भारतीय होने में भी है। हमारी अस्मिता और पहचान इकहरी नहीं है। हम एक साथ कई स्तरों पर अपने अस्तित्व को साधे हुए हैं। हमारी जाति, धर्म, भाषा, प्रदेश तथा इन सबके भीतर भी अनेक तहें हैं जिनमें हम अपनी पहचान को विशिष्ट बनाते हैं पर इन सब पहचानों से कहीं अधिक गहरी, आत्मीय और सर्वमान्य पहचान हम अपने भारतीय होने में पाते हैं। भारतीयता की यह चेतना ही वह सम्बन्ध-सूत्र है जो विविधतामयी सांस्कृतिक इकाइयों को एक डोर में पिरोए रखता है। यही सांस्कृतिक एकता विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य की एकसूत्रता का आधार है। 

सांस्कृतिक एकता और भाषाई सामंजस्य के सूत्र भारतीय साहित्य में बिखरे पड़े हैं। उन्हें परस्पर सम्बद्ध करते हुए भारतीयता की पहचान को सुदृढ़ आधार दिया जा सकता है। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार, “इस देश की राष्ट्रीयता कम-से-कम महाभारत के रचना काल से लेकर अब तक निरंतर विकसित और पुष्ट होती रही है। इस राष्ट्रीयता के विकास में यहाँ के कवियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने इस राष्ट्रीयता की सृष्टि नहीं की उसका वस्तुगत अस्तित्व पहचानकर उन्होंने उसे अपने काव्य में प्रतिबिंबित किया।”

समाज और संस्कृति की विविधातामयी एकान्विति से भी अधिक विस्मयकारी है भारतीय समाज में विभिन्न भाषाओं का सह-अस्तित्व। विश्व के किसी भी देश में भाषाओं का और वह भी समृद्ध साहित्यिक परम्पराओं वाली भाषाओं का ऐसा जमघट नहीं मिलेगा जैसा भारत में है। भारत भर की विविध भाषाओं में रचित साहित्य को समन्वित रूप से भारतीय साहित्य कहा जाता है। ‘भारतीय साहित्य एक है जो अनेक भाषाओं में लिखा गया है’ यह उक्ति भारतीय साहित्य के विषय में बहुधा उद्धृत की जाती है। विभिन्न भाषाओं के रचनाकार, चिन्तक, समीक्षक, साहित्येतिहासकार आदि भी यह स्वीकार करते हैं कि भारतीय साहित्य की आत्मा मूलत: एक है, भले ही उसकी शैलियाँ, अभिव्यक्ति के उपकरण और भाषिक संरचनाएँ विविधतापूर्ण रही हैं। 

भारतीय साहित्य की अवधारणा और उसका स्वरूप विवेचन करते हुए अक़्सर कई प्रश्न भी उठते रहे हैं। यहाँ तक कि कुछ विद्वान् भाषा और साहित्य को अभिन्न और विशिष्ट इकाई मानते हुए भारतीय साहित्य जैसी किसी अवधारणा के अस्तित्व से ही इनकार करते हैं। भारतीय साहित्य की परिकल्पना पर विचार करते हुए इस सवाल से रू-ब-रू होना आवश्यक है कि क्या भाषा और साहित्य का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है? 

इस तथ्य में दो राय नहीं कि प्रत्येक साहित्य अपनी भाषा के साथ अनिवार्य रूप से सम्बद्ध होता है, वह उसकी निजी पहचान है, उसका अपना विशिष्ट सांस्कृतिक क्षेत्र है, इयत्ता है, पर साहित्य को केवल भाषा के दायरे में ही बाँधकर देखना उसकी असीम संभावनाओं को अनदेखा करना है। भारत जैसे बहुभाषी समाज के सन्दर्भ में हम भाषा और साहित्य की इस हदबंदी को अनायास ही टूटा हुआ पाते हैं। जब अवधारणा के स्तर पर एक भारतीय साहित्य का विचार नहीं उभरा था तब भी भारतीय भाषाएँ मिलकर एक ऐसे साहित्य का सृजन कर रही थीं जो अपनी भाषा का सगा होने के साथ-साथ बृहत्तर भारतीय सन्दर्भ से जुड़ा हुआ था। भारतीय साहित्य जैसी किसी अवधारणा का अस्तित्व है या नहीं, इस प्रश्न का उत्तर भाषिक सिद्धांतों से नहीं बल्कि भारतीय साहित्य का अवगाहन करने पर आसानी से मिल जाता है। क्या भारत की कोई भी भाषा यह दावा कर सकती है कि अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य से उसका कोई लेने-देना नहीं है? सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में आदान-प्रदान की परंपरा इतनी पुरानी, गहरी और मज़बूत है कि यह दावा स्वयं ही खारिज़ हो जाता है। सभी भाषाओं के रचनाकार एक ही भावधारा में बहे हैं, एक ही चिंतन-प्रक्रिया से गुज़रे हैं, समान सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों, प्रेरणाओं, प्रतिक्रियाओं से संचालित हुए हैं। 

भाषा और साहित्य के अंतर्सम्बन्ध के संदर्भ में दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि भारतीय भाषाओं के कई रचनाकार एक से अधिक भाषाओं में एक साथ सृजनरत रहे हैं। कालिदास के नाटकों में संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत का प्रयोग जग ज़ाहिर है। विद्यापति ने संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली में रचनाएँ लिखीं। तुलसी दास अवधी के साथ-साथ बृजभाषा और संस्कृत का प्रयोग करते हैं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बांगला साहित्य को विश्वस्तरीय पहचान देने से पहले ब्रजबुली में भानुसिंह नाम से रचनाएँ कीं। प्रेमचंद उर्दू और हिंदी में समान अधिकार रखते हैं। पंजाबी कवि भाई गुरुदास अपनी वारें ठेठ पंजाबी में और कवित्त सवैय्ये विशुद्ध ब्रज में रचते रहे। दक्षिण भारत के अनेक आचार्यों, रचनाकारों ने अपनी मातृभाषा और संस्कृत को एक साथ साधा। तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ में रचना करने के साथ-साथ संस्कृत में भी कृतियों का सृजन किया। दक्षिण में प्रचलित मणिप्रवाल शैली दो भाषाओं के समन्वय का अनूठा उदहारण है। भास के संस्कृत में रचित नाटकों की लिपि मलयालम है। जायसी आदि सूफ़ी संतों ने अवधी भाषा और फारसी लिपि को अपनाया है। पंजाब का बहुत सा साहित्य गुरुमुखी लिपि और ब्रजभाषा में रचित है। गुरुग्रंथ साहब तो स्वयं में अनेक भाषा के कवियों की रचनाओं का संकलन है। बारहवीं शताब्दी के तेलुगु कवि पाल्कुरिकि सोमनाथ ने संस्कृत, कन्नड़ और तेलुगु तीनों भाषाओं में काव्यरचना की है। आधुनिक युग में कई भारतीय साहित्यकार अपनी मातृभाषा के साथ-साथ अँग्रेज़ी में भी रचनारत रहे हैं। रामानुजन अत्तिप्पत कृष्णास्वामी ने अँग्रेज़ी और कन्नड़ में समान रूप से सिद्धहस्त हो दोनों भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्य की सर्जना की है। साथ ही उन्होंने तमिल और कन्नड़ की प्राचीन रचनाओं का अँग्रेज़ी में अनुवाद भी किया। 

तीसरा तथ्य यह भी है कि अपनी मातृभाषा में न लिखकर अनेक रचनाकारों ने अन्य भारतीय भाषाओं को अपनी रचनाभूमि बनाया है। मुक्तिबोध, मोहन राकेश, इन्द्रनाथ चौधरी, अज्ञेय, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, काका साहेब कालेलकर प्रभृति अनेक रचनाकारों ने अपनी मातृभाषा को छोड़कर हिंदी को अपनी साहित्यिक कर्मभूमि बनाया। एक ही रचनाकार पर एक से अधिक भाषाओं की दावेदारी भी इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण है। विद्यापति और मीरा इस के सटीक उदाहरण हैं। विद्यापति हिंदी के आदिकालीन कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं, मैथिल-कोकिल हैं और बांग्लाभाषी उनके साहित्य पर अपनी दावेदारी भी रखते रहे हैं। विद्यापति की पदावली के अनुकरण पर बांगला की ब्रजबुली में अनेक कवियों ने विद्यापति नाम से पद रचना की है। मीरा हिंदी कृष्णभक्ति साहित्य की प्रतिष्ठित कवयित्री हैं और गुजराती भाषा की भी उतनी ही सगी हैं। उनके पदों के राजस्थानी और गुजराती दोनों रूप भी मिलते हैं और उनके नाम से अनेक अलग-अलग पद दोनों भाषाओं के साहित्य और लोक में प्रचलित हैं। चैतन्य ने जितना बंगाल के लोकमानस और साहित्य को प्रभावित किया उससे कहीं अधिक उड़िया समाज और साहित्य को आंदोलित किया। केरल के सांस्कृतिक जन नायक नारायण गुरु संस्कृत, मलयालम और तमिल भाषा में समान रूप से सिद्धहस्त थे। उनकी रचनाएँ तीनों भाषाओं में उपलब्ध हैं। 

विभिन्न धार्मिक-दार्शनिक आन्दोलन भी एक भाषा की क़ैद में नहीं रहे। जैन-बौद्ध धर्म के सिद्धांतों और आचार संहिताओं पर आधारित साहित्य भी किसी एक प्रान्त, समुदाय या भाषा तक सिमटा नहीं रहा। जैन प्रबंध काव्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिंदी, गुजराती, कन्नड़ आदि विविध भाषाओं की थाती बने। शैव दर्शन पर आधारित साहित्य तमिल, तेलुगु, कन्नड़, कश्मीरी, आदि भाषाओं में रचित है। वैष्णव साहित्य का प्रसार तो सभी भारतीय भाषाओं में दृष्टव्य है। निर्गुण संतों की वाणी मराठी, गुजराती, हिंदी, पंजाबी सभी भाषाओं में गूँजी है। सिद्ध और नाथ साहित्य असमिया, बांगला, उड़िया, हिंदी, मराठी में उद्भाषित है। सूफियों की प्रेम गाथाएँ पंजाबी, हिंदी में सामान रूप से मुखरित हुई हैं। वेदों-उपनिषदों का दर्शन, रामायण, महाभारत, भागवत आदि पुराण तथा संस्कृत के अभिजात्य साहित्य ने तो सभी भाषाओं को समान रूप से प्रभावित किया है। 

इस प्रकार प्रत्येक भारतीय रचनाकार अपनी भाषिक सीमाओं का सदैव अतिक्रमण करता हुआ सृजनरत रहा है और एक ही साहित्यिक रिक्थ से अनुप्राणित है। अत: यह धारणा स्वतः ही खारिज़ हो जाती है कि अलग-अलग भाषाओं में रचित होने के कारण एक भारतीय साहित्य की अवधारणा अस्वाभाविक या अवास्तविक है। 

भारतीय साहित्य की परिकल्पना को रूपायित करते हुए दूसरा प्रश्न यह उभरता है कि क्या किसी एक भाषा को प्रतिनिधि भाषा मानकर उसके साहित्य को भारतीय साहित्य कहा जा सकता है? इसका स्पष्ट और निर्द्वंद्व उत्तर है ‘नहीं’। किसी भी एक भाषा के साहित्य को भारतीय साहित्य के रूप में स्वीकार करना न केवल बाक़ी भाषाओं के साथ अन्याय करना है बल्कि भारतीयता की भावना के विरुद्ध भी है। पाश्चात्य विद्वानों ने पहले पहल जब भारतीय साहित्य पर अनुसंधान प्रारम्भ किया तो केवल संस्कृत और कुछ अंशों में पालि और प्राकृत साहित्य को ही आधार बनाकर भारतीय साहित्य का विवेचन किया। सर्वप्रथम मॉरिस विंटरनित्स ने जर्मन भाषा में ‘भारतीय साहित्य का इतिहास’ प्रस्तुत किया जिसके अंतर्गत वैदिक साहित्य, महाकाव्य, पुराण, तंत्र, बौद्ध एवं जैन साहित्य, तथा लौकिक संस्कृत साहित्य का विश्लेषण किया। अल्ब्रैख्त (आलब्रेख) वेबर द्वारा जर्मन भाषा में लिखा भारतीय साहित्य का इतिहास ‘द हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन लिटरेचर’ (1852) संस्कृत के साथ-साथ भारतीय आर्य भाषा के साहित्य पर भी दृष्टि डालता है मगर उसकी परिधि भी वैदिक और लौकिक संस्कृत साहित्य के मध्यकाल तक ही सीमित रही है। मैक्समूलर द्वारा सन 1859 में प्रणीत ‘ए हिस्ट्री ऑफ़ एन्शेंट संस्कृत लिटरेचर’ फ्रेज़र का ‘भारत का साहित्यिक इतिहास’, लुई रेनो का फ्रांसीसी भाषा में रचित ‘भारतीय साहित्य’ तथा हरबर्ट गोविन का ‘भारतीय साहित्य का इतिहास’ भी नाम से भारतीय साहित्य होने पर भी केवल संस्कृत, पाली, प्राकृत तथा मध्यकाल तक की कुछ साहित्य सामग्री का ही विवेचन करते हैं। उनके अवदान की हम उपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि भारतीय साहित्य को विश्व पटल पर रेखांकित करने की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण पहल थी। लेकिन उनके द्वारा किया गया अध्ययन भारतीय साहित्य के केवल एक सीमित पक्ष का ही उद्घाटन कर पाया। इन पाश्चात्य विद्वानों ने न तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम भाषाओं के समृद्ध साहित्य पर दृष्टि डाली और न बांगला, मराठी आदि आधुनिक आर्य भाषाओं के साहित्य को परखा। जबकि संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य के समानांतर या उनके बाद रचा गया हर भारतीय भाषा का साहित्य गुण और परिमाण में सम धरातल पर स्थित है, गौरवपूर्ण है और समग्रता में ही भारतीय साहित्य कहलाने का अधिकारी है। डॉ. प्रदीप श्रीधर के शब्दों में कहें तो, “‘भारतीय साहित्य’ अर्थात्‌ ‘सर्व भारतीय साहित्य’ वास्तविक अर्थ में एक ऐसी इकाई है, जो भारत की विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य को समेटते हुए, उसमें निहित अनेकता में एकता को लेकर चलता है। सभी भाषाओं के साहित्य के परस्पर सम्बन्ध का अन्वेषण करते हुए भारतीय जीवन की अनेकता में अंतर्व्याप्त एकता की अभिव्यक्ति करता है।”3 
अवधारणा के स्तर पर भारतीय साहित्य के एकत्व को स्थापित कर लेने पर भी भारतीय साहित्य का इतिहास लेखन स्वयं में चुनौती भरा कार्य है। सबसे पहली चुनौती है इस साहित्य का अपरिमित विस्तार। भारत जैसे विशाल देश में जहाँ दशाधिक समृद्ध भाषाओं में सहस्राधिक वर्षों से अनवरत साहित्य सृजन चल रहा हो, उस समस्त साहित्य का अवगाहन करना ही अगम्य लक्ष्य सिद्ध होता है। इस विशालता के कारण भारतीय साहित्य का इतिहास लेखन प्राय: एकांगी रहा है। भारतीय इतिहास के नाम पर या तो प्राचीन भाषाओं—संस्कृत, पालि, प्राकृत का ही विवरणात्मक परिचय दिया गया है या फिर अलग-अलग भारतीय भाषाओं के अपने साहित्य के इतिहास लिखे गए हैं। बीसवीं शताब्दी में हम हर भारतीय भाषा के इतिहास पर दर्जनों पुस्तकों का उल्लेख कर सकते हैं, जिनमें भाषा विशेष के विविध कालों का विभाजन और उनमें मौजूद प्रवृत्तियों का व्यापक लेखा-जोखा है। लेकिन ये इतिहास भाषा विशेष की सीमाओं में आबद्ध हैं और अन्य भाषाओं के समानांतर साहित्य के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव की चर्चा नहीं करते। इन विभिन्न प्रांतीय भाषाओं में रचित इतिहासों को या उनके संगठित रूप को हम भारतीय साहित्य का इतिहास नहीं कह सकते। 

समग्रता में भारतीय साहित्य को प्रस्तुत करने का प्रयास बीसवीं शताब्दी में अनेक भारतीय भाषाओं के विद्वानों द्वारा किया गया है। प्रसिद्ध भाषाविद डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने ‘आधुनिक भारत की भाषाएँ और साहित्य’ शीर्षक से भारत की चौदह आधुनिक भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य पर सामग्री प्रस्तुत की। डॉ. नगेन्द्र ने ‘भारतीय वाङ्मय’ नाम से भारतीय भाषाओं के साहित्य पर पुस्तक का संपादन किया। कृष्ण कृपलानी की पुस्तक ‘आधुनिक भारतीय साहित्य: एक विहंगम दृष्टि’, प्रो. गोकक द्वारा सम्पादित ‘आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य’ तथा ‘भारतीय साहित्य की अवधारणा’, सुजीव मुखर्जी की ‘भारत के साहित्यिक इतिहास की दिशा में’ शिशिर कुमार दास की ‘भारतीय साहित्य का इतिहास’, इन्द्रनाथ चौधुरी की ‘तुलनात्मक साहित्य भारतीय परिप्रेक्ष्य’, डॉ. नगेन्द्र सम्पादित ‘भारतीय साहित्य का समेकित इतिहास’, मूलचंद गौतम सम्पादित ‘भारतीय साहित्य’, के. सच्चिदानंदन की ‘भारतीय साहित्य: स्थापनाएँ और प्रस्तावनाएँ’ राजेंद्र मिश्र की ‘भारतीय साहित्य की अवधारणा’, डॉ. प्रदीप श्रीधर की ‘भारतीय साहित्य: अध्ययन की नई दिशाएँ’, डॉ. सियाराम तिवारी सम्पादित ‘भारतीय साहित्य की पहचान’, आदि अनेक पुस्तकों में भारतीय साहित्य की अवधारणा को स्थापित किया गया है और उसके अंतर्गत सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के साहित्य की प्रवृत्तियों का समन्वित रूप से आकलन और विवेचन किया गया है। फ़ादर कामिल बुल्के का शोधपरक ग्रन्थ ‘रामकथा’, प्रभाकर श्रोत्रिय की रचना ‘भारत में महाभारत’, भागीरथ मिश्र द्वारा सम्पादित ‘रामकथा: विविध आयाम’, डॉ. नगेन्द्र सम्पादित ‘भारतीय महाकाव्य’ तथा ‘भारतीय कृष्णकाव्य और सूरदास’ आदि ग्रंथों ने भारतीय साहित्य के मूल स्वरों को पहचानने का स्तुत्य प्रयास किया है। विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन की प्रवृत्ति भी इन दिनों अग्रसर हुई है, जिनके माध्यम से अलग-अलग भाषाओं के बीच अंतर्संबंधों पर प्रकाश पड़ा है। 

दूसरी चुनौती है, भारतीय साहित्य की अवधारणा से उत्पन्न यह चिंता कि इससे भारत की विविध भाषाओं में रचित साहित्य के स्वतन्त्र अस्तित्व की उपेक्षा होगी या उसके महत्त्व को कमतर आँके जाने का ख़तरा रहेगा। इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि सभी भाषाओं में रचित साहित्य न केवल समेकित रूप से भारतीय साहित्य के स्वरूप का निर्धारण और उसका गौरव वृद्धि ही करता है बल्कि स्वयं भी उससे प्राण पाता है। यह एकतरफ़ा व्यापार नहीं है। आदान-प्रदान की यह परंपरा आदि युग से ही भारतीय भाषाओं के बीच रही है। सभी एक दूसरे को सींचती रही है, भाव, विचार, चिंतन, दर्शन सभी स्तरों पर भारतीय भाषाओं का साहित्य अन्योन्याश्रित रहा है। विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य की सापेक्षता इतनी गहरी और परस्पर सम्बद्ध है कि डॉ. रामविलास शर्मा जैसे सुधी विद्वान किसी भी भाषा के साहित्य का विवेचन अखिल भारतीय परिप्रेक्ष में ही करना उचित समझते हैं। उनके शब्दों में—“इस परिप्रेक्ष्य के बिना हम किसी एक भाषा के साहित्य का विवेचन कर ही नहीं सकते। जैसे आर्य या द्रविड़ भाषाओं का विकास दोनों परिवारों को अलग रखने से समझ में नहीं आ सकता, वैसे ही किसी एक भाषा का साहित्य दूसरी भाषाओं के साहित्य को जाने बिना समझ में नहीं आ सकता अर्थात्‌ वैज्ञानिक दृष्टि से उसका इतिहास नहीं लिखा जा सकता। जो आर्य परिवार की भाषाएँ हैं, उनमें रचा हुआ साहित्य तो सम्बद्ध इकाई है ही, जो द्रविड़ भाषाएँ हैं, उनमें रचा हुआ साहित्य भी आर्य भाषाओं से निर्मित साहित्य से सुदृढ़ रूप में संबद्ध है।”4

भारतीय साहित्य की अवधारणा स्थापित करते हुए एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी उठता है कि क्या भारतीय साहित्य विभिन्न भाषाओं में रचित साहित्य का जोड़ भर है? या उसका कोई समेकित स्वरूप उद्घाटित किया जा सकता है? वस्तुत: भारतीय साहित्य की संकल्पना करते हुए यह तथ्य स्पष्ट होना ज़रूरी है कि न तो किसी भारतीय भाषा विशेष को प्रतिनिधि मानकर उसके माध्यम से भारतीय साहित्य का सामान्यीकरण उचित है, न अलग-अलग भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य का जोड़ भर भारतीय साहित्य का स्वरूप निर्धारित करता है। डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में “भारतीय मनीषा की अभिव्यक्ति का नाम भारतीय साहित्य है; और भारतीय मनीषा का अर्थ है भारत के प्रबुद्ध मानस की सामूहिक चेतना-कलेक्टिव कांशसनेस-सहस्राब्दियों से संचित अनुभूतियों और विचारों के नवनीत से जिसका निर्माण हुआ है। यह भारतीय मनीषा ही भारतीय संस्कृति, भारतीय राष्ट्रीयता और भारतीय साहित्य का प्राण-तत्व है।”5

भारतीय साहित्य की अवधारणा को विकसित और पुष्ट करने का अभिप्राय यह नहीं है कि हम अलग-अलग भाषाओं के साहित्य की इयत्ता को धूमिल कर दें या उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाएँ। हमें बहुत सजगता से इस तथ्य को स्वीकार करना होगा कि एक भारतीय साहित्य का अर्थ विविध भाषाओं में रचे गए साहित्य की वैयक्तिकता को नकारना नहीं है। हर भाषा के साहित्य की विशिष्टता को रेखांकित करते और उसे स्वीकारते हुए ही हम इस परिकल्पना के साथ न्याय कर सकते हैं। भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में शैलीगत विभिन्नता की पहचान भारतीय काव्यशास्त्र में भी मौजूद है। वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली रीतियों का विवेचन क्षेत्रीय आधार पर उनकी विशिष्टताओं को रेखांकित करता है। दंडी ने भारत के दो प्रदेशों की दो भिन्न शैलियों का उल्लेख करते हुए ‘उत्प्रेक्षा दाक्षिणात्येषु’ या ‘गौड़ेष्वक्षरडम्बर:’ जैसे पदबंधों द्वारा सूचित किया कि दक्षिण के लोग उत्प्रेक्षा का प्रयोग करते हैं और बंगाल के लोग अतिशयोक्तिपूर्ण शैली का। विषयवस्तु के स्तर पर इस प्रकार की भिन्नता का उल्लेख नहीं मिलता। स्पष्ट है भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में समाज और साहित्य की मूल अंतर्वस्तु एक रही है पर हर भाषा की अपनी प्रादेशिक विशिष्टता, उसकी सांस्कृतिक रूपरेखा के अस्तित्व को भी उपेक्षित करना सम्भव नहीं। सच तो यह है कि भारतीय साहित्य के ताने-बने में विविधता और एकता के विविधवर्णी सूत्र परस्पर सम्बद्ध हैं। उन सूत्रों को न अलगाना आसान है न उनको अनदेखा करना सम्भव है। विविधता के रंगों से चित्रित इस विविधवर्णी साहित्य की रेखाओं को पढ़ते हुए हमें देखना होगा कि सम्पूर्णता में इसकी रंगत कैसी है और इनका आपसी सम्बन्ध किन तूलिकाओं से बना है। 
यहाँ यह तथ्य आश्वस्त करता है कि भारतीय साहित्य की भारतीयता और उसकी बहुलतावादी बनावट के बीच कभी कोई अंतर्विरोध नहीं रहा। स्थानीय परम्पराओं, लोक शैलियों, बोलियों, जीवन-पद्धतियों के प्रभाव से यह साहित्य विविधवर्णी रहा है जो भारतीयता की अपनी विशिष्ट पहचान भी है। डॉ. के. सच्चिदानंदन ने इस तथ्य की पुष्टि की है, “अविच्छेद्य रूप में अपने सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों से एकाकार भारतीय साहित्य मूलत: भारतीय ही है—लिखा चाहे जिस भाषा में गया हो। मूलभूत एकता ने हमारे साहित्यों की मोहक विभिन्नता का गला कभी नहीं घोंटा।” 6

निष्कर्षत: विभिन्न नृजातीय समुदायों का सम्मिश्रण होने, विविध सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक, भाषिक पृष्ठभूमियों से जुड़े होने के बावजूद भारत की सभ्यता, संस्कृति और भारतीय साहित्य के केन्द्रीय सूत्र एक ही तंतु से जुड़े हैं। भूगोल की बहुरूपी बनावट, इतिहास के भिन्न-भिन्न प्रवर्तन, समय के परिवर्तनीय पट पर विविध रंगों रूपों से सुसज्जित भारतीय अस्मिता समग्रत: एक ही बोध से आप्लावित है। निर्मल वर्मा ने इसे ‘एक सभ्यता का समग्रता बोध’ कहा है। उनके शब्दों में—“एक सभ्यता की शैली सिर्फ़ लोगों के आचार-व्यवहार और विश्वासों द्वारा अनुशासित नहीं होती बल्कि उसमें इन व्यवहारों और विश्वासों को एकसूत्रित करने वाला एक केन्द्रीय दर्शन, जीवन-दृष्टि का समग्रता बोध हमेशा मौजूद रहता है जो मनुष्य की जीवन-प्रणाली को परितोषित भी करता है और परिभाषित भी। इस अर्थ में भारत की विभिन्न जातियाँ अपनी सांस्कृतिक विशिष्टताओं के बावजूद एक सामूहिक सभ्यता-बोध के भीतर जीवित रह सकीं हैं।” 7 बहुलता की स्वीकृति और समग्रता का बोध मिलकर ही भारतीयता और भारतीय साहित्य को सही सन्दर्भों में परिभाषित करते है। 

सन्दर्भ:

  1. श्यामाचरण दुबे, भारतीय समाज, (अनुवाद- वंदना मिश्र) भारतीय पुस्तक न्यास, दिल्ली संस्करण-2014,पृष्ठ 1 

  2. देवेन्द्र मिश्र, भारतीय संस्कृति कोश, यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली, संस्करण-2006, भूमिका- xxv 

  3. प्रदीप श्रीधर, भारतीय साहित्य: अध्ययन की नई दिशाएं, पृष्ठ-16 

  4. रामविलास शर्मा, लेख- भारतीय साहित्य के अध्ययन की समस्याएं, पुस्तक- भारतीय साहित्य, संपादक- मूलचंद गौतम, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण- 2009, पृष्ठ- 48 

  5. नगेन्द्र, भारतीय साहित्य का समेकित इतिहास, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली, संस्करण-1989, पृष्ठ- 10 

  6. के. सच्चिदानंदन, भारतीय साहित्य: स्थापनाएं और प्रस्तावनाएं, (अनुवाद-अनामिका), राजकमल प्रकाशन,दिल्ली, पृष्ठ- 40 

  7. निर्मल वर्मा, शताब्दी के ढलते वर्षों में, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, संस्करण-2006, पृष्ठ-163-164 

डॉ. रेखा उप्रेती 
एसोसिएट प्रोफ़ेसर  
हिंदी विभाग 
इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 

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