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दलित साहित्य में अस्तित्व बनाम अस्मिता की बहस 

 

दलित साहित्य में अस्तित्व और अस्मिता का मुद्दा विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण रहा है। यहाँ अस्तित्व का प्रश्न अस्तित्ववादियों की तरह कोई आंतरिक परिघटना नहीं हैं। यह अस्तित्ववादी आत्मपीड़ा, आत्मनिर्वासन, एकाकीपन, निरर्थकता बोध का संकट नहीं, बल्कि भूख, ग़रीबी, बीमारी, बेगारी, जातिगत उत्पीड़न के क्रूर भौतिक यथार्थ से निर्मित बाह्य संकट है। जिसका दरिद्र-दलित प्रत्यक्ष भोक्ता है; यानी सीधे तौर पर यहाँ अस्तित्व का प्रश्न जीवन को बचाए रखने का संकट है। अस्तित्व के बर-अक्स अस्मिता का संकट मान-सम्मान और पहचान का संकट है; जिसे लेकर शिक्षित दलित विशेष रूप से सचेत दिखता है। ऐसे में देखने वाली बात यह है कि दलित साहित्य में और ख़ासकर आत्मकथा साहित्य में, अस्तित्व और अस्मिता के संकट को कैसे बयाँ किया गया है? क्या दोनों की मौजूदगी रचना में आद्यंत इकसार होती है या फिर समय और स्थिति में बदलाव के साथ इनकी प्राथमिकता में भी हेर-फेर होता है? इसके साथ ही लेख में अस्तित्व के मूल प्रश्नों का समाधान किए बिना, अस्मिता हासिल करने के सवाल को भी जाँचा गया है और साथ ही दलित-अस्मिता के अंतर्विरोध को भी उजागर करने का प्रयास किया गया है। 

दलित आत्मकथाओं के अध्ययन के दौरान देखा जा सकता है कि लेखक के अतीत का ‘स्व’ दलित समुदाय के ‘हम’ के साथ इस तरह अंतरंग रूप से जुड़ा रहता है कि लेखक ‘मैं’ और समाज के ‘हम’ दोनों एकमेक प्रतीत होते हैं। दोनों की समस्याएँ व मुद्दे एक जैसे होते हैं। जातीय भेदभाव, भूख, अभाव, ग़रीबी, बीमारी, बेगारी से त्रस्त दलित के लिए अस्तित्व का सवाल प्राथमिक होता है। अस्तित्व का संकट व्यक्ति के लिए नैतिक-अनैतिक, झूठ-सच, खाद्य-अखाद्य के भेद को महत्त्वहीन बना देता है। अभाव और ग़रीबी के कारण भूख मिटाने की चिंता एक दरिद्र-दलित के लिए सर्वोपरि रही है। यह ऐसी चिंता है जो दिन निकलने से लेकर दिन ढलने तक बनी रहती है। सुबह के भोजन का बंदोबस्त हुआ, तो शाम के भोजन की चिंता और शाम के भोजन का बंदोबस्त हुआ तो अगले दिन की चिंता। यानी हैण्ड-टू-माउथ की स्थिति बनी रहती है, “रात खाते तो सुबह भूखे और सुबह खाते तो शाम भूखे रहना होता था।”1 भूख का सवाल प्रत्यक्ष रूप से अस्तित्व के होने या न होने का सवाल है। भूख मिटाने के लिए जूठन बटोरना, गोबरहा गेहूँ व मुर्दारी खाना सामान्य घटना रही हैं, “बारात के खाना खा चुकने पर जूठी पत्तले उन टोकरों में डाल दी जाती थी, जिन्हें घर ले जाकर वे जूठन इकट्ठी कर लेते थे . . .। जूठन चटकारे लेकर खाई जाती थी।”2 

जूठन बटोरने का वृत्तांत समाज में व्याप्त ग़ैर-बराबरी दिखाता है। एक समुदाय के पास अत्यधिक खाद्य पदार्थ हैं, जिसे पेट भरने के बाद वह फेंक देता है। जबकि, दूसरे समुदाय के पास खाद्य पदार्थों का ऐसा संकट है कि फेंके हुए जूठन से पेट भरने को मजबूर है। यह जूठन दलितों को आसानी से मिल जाए ऐसा नहीं है। इसके लिए उन्हें कुत्तों, सूअरों से मुक़ाबला करना पड़ता है, “भंगी जल्दी से जल्दी जानवरों से बचाकर इस जूठन सामग्री को एकत्रित करने में व्यस्त रहते थे।”3 यह तथाकथित सभ्य समाज का बहुसंख्यक दलितों के साथ किया गया असभ्य मज़ाक़ है, जिस वजह से उनका जीवन पशुवत् हो गया है। पशुओं को खाना या चारा जहाँ कहीं मिले, जिस अवस्था (कूड़े-करकट में या साफ़ स्थान पर) में मिले, वह उसे खाकर पेट भर लेता है। उसकी दिनचर्या भोजन की तलाश से शुरू होकर पेट भरने या भूखा रहने से ख़त्म होती है। वहीं दरिद्र-दलितों को अपना भोजन गंदे स्थानों पर पड़े जूठन या गोबरा गेहूँ के रूप में भी जुटाना पड़ता रहा है। दरिद्र-दलित की दिनचर्या भी खाने के बंदोबस्त करने से शुरू होकर अगले दिन की चिंता के साथ ख़त्म होती है। यद्यपि पशुओं को विवेकहीन और मनुष्य को विवेकशील माना गया है; लेकिन भूख की कटार विवेक पर ऐसा प्रहार करती है कि उसके लिए खाद्य-अखाद्य का भेद गौण हो जाता है। जीवन व अस्तित्व को बचाए रखने लिए माता प्रसाद ने गोबरहा गेहूँ की रोटी भी खायी है। बैल द्वारा खायी गयी गेहूँ जब गोबर में निकलती है, उसी को गोबरहा गेहूँ कहा जाता है। माता प्रसाद लिखते हैं, “बचपन में गोबरहा अन्न की रोटी भी खाना पड़ा था।”4 

विभिन्न लेखकों के जीवन के यह अंश दलित समाज की दरिद्रता और परिणामस्वरूप अस्तित्व पर मँडराते संकट को दिखाते हैं। दरिद्रता की ऐसी स्थिति कि दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ न हो। दरअसल, यह दरिद्रता दलित जातियों के अतिशय आर्थिक शोषण और जातीय-समाज संरचना के परिणामस्वरूप रही है। समाज में निचले पायदान पर होने के कारण दलितों को बहुत कम पैसों या कम अनाज के बदले उच्च जातियों के यहाँ बँधुआ मज़दूर की तरह काम करना होता था। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि “घर में सभी कोई न कोई काम करते थे। फिर भी दो जून की रोटी ठीक ढंग से नहीं चल पाती थी . . .। ऊपर रात-बेरात बेगार करनी पड़ती। बेगार के बदले में कोई पैसा या अनाज नहीं मिलता था।”5 जातिवादी समाज में बेगारी करवाना उच्च जातियों का अरोधित अधिकार रहा है। जिसका विरोध उन्हें बरदाश्त नहीं; और ऐसा करने पर ज़मींदारों के लैठत और सरकारी पुलिसिया तंत्र दबंगों के हित संरक्षण में दलित-वंचित समुदाय के उत्पीड़न को तैयार रहता है। 

दलित आत्मकथाएँ शोषणपूर्ण जाति-व्यवस्था व दरिद्रता की कहानी कहती हुई प्रतीत होती है। श्यौराज सिंह, सूरजपाल चौहान, ओमप्रकाश वाल्मीकि व अन्य दलित आत्मकथाकारों के परिजन व आस-पड़ोस के लोग ग़रीबी के कारण भूख व कुपोषण-जनित बीमारियों से असमय मौत का शिकार बनते हैं। यहाँ अभाव, ग़रीबी, बीमारी और भूख दलित अस्तित्व के लिए बड़ी चुनौती है। लेकिन, इन आत्मकथाओं में अस्तित्व का संकट लेखक के अतीत के ‘स्व’ तक सीमित दिखता है। अस्तित्व का यह संकट लेखक के वर्तमान ‘स्व’ में दिखाई नहीं देता है। लेखक के वर्तमान जीवन में वह कौन-से बदलाव हैं कि अतीत में अस्तित्व को महत्त्व देने वाला लेखक समकाल में अस्मिता को अधिक महत्त्व देने लगता है? और अस्मिता को ही दलित की प्राथमिकता मानने लगता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि “दलित अस्मिता का सवाल ज़रूरी है। जो दलित की प्राथमिकताओं में है।”6 रूपनारायण सोनकर तो दलित अस्मिता को साहित्य की आत्मा बतलाते हैं। उनका कहना है, “दलित साहित्य की आत्मा दलित अस्मिता ही है। दलित अस्मिता और चेतना के ही कारण दलित साहित्य का अस्तित्व है।”7 

ऐसा क्यों होता है कि लेखक के अतीत के ‘स्व’ में जातीय शोषण व दरिद्रता की समस्या जातिवादी समाज-संरचना व शोषणपूर्ण कार्य-संबंधों के भौतिकवादी कारकों में निहित दिखती है, वहीं समकाल के ‘स्व’ में जातिवाद के कारक मुख्य रूप से सांस्कृतिक और मानसिक बन जाते हैं? और क्यों वर्तमान लेखक जाति और जातिवाद के खात्मे, सामाजिक बदलाव लाने व शोषणपूर्ण स्थितियों-परिस्थितियों को ख़त्म करने के बजाय मानसिकता बदलने व सांस्कृतिक पहलू के स्तर पर बदलाव लाने की बात कहता नज़र आता है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ कहते हैं, “मेरा मत है कि दलित लेखकों को जाति तोड़ने के प्रश्न पर अभी अधिक ऊर्जा नहीं खपानी चाहिए।”8 कुछ ऐसे ही विचारों का पोषण दलित चिंतक डॉ. धर्मवीर भी करते हैं, “आपने कैसे मान लिया कि मैं जाति तोड़ने की बात कर रहा हूँ।”9 इस तरह के विचारों से यह लेखक जाति-मुक्त समाज के बजाए जातिगत-हिस्सेदारी की पैरवी करते हैं। हिस्स्सेदारी का यह विचार राजनीति से साहित्य के भीतर आयात हुआ है। दलित राजनीति के उभार के दौर में ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ जैसे नारों और अपनी जाति को मज़बूत करने के विचारों को प्रचारित किया गया। कांशीराम प्रथम ‘अंतर्राष्ट्रीय दलित सम्मलेन’, अक्टूबर 1998, में कहते हैं कि मेरा यह मानना है कि जब तक हम जातिविहीन समाज की स्थापना करने में सफल नहीं हो जाते, तब तक जाति का उपयोग करना होगा अगर ब्राह्मण जाति का उपयोग अपने फ़ायदे के लिए कर सकते है, तो मैं उसका इस्तेमाल अपने समाज के हित में क्यों नहीं कर सकता।10 यानी दलितों का यह शिक्षित और मध्यमवर्गीय हिस्सा जातीय समाज-संरचना के ख़िलाफ़ प्रत्यक्ष संघर्ष में उतरने के बजाय जातिगत लाभों को हासिल करके, जाति-व्यवस्था को सवर्णों के लिए अलाभकर बना देने के माध्यम से अपना संघर्ष जारी रखना चाहता है। 

दलित चिन्तक चंद्रभान प्रसाद जाति व जातिगत उत्पीड़न को ख़त्म करने का एक अनूठा फ़ॉर्मूला ही रच देते हैं। वह मानते हैं कि कुछ लोग आगे बढ़ेंगे तो वह सबके भले के लिए काम करेंगे। वह दलित अभिजात वर्ग की उत्पत्ति को जातिवाद से मुक्ति का पर्याय बताते है। चंद्रभान प्रसाद अपने लेख ‘बौद्धिकता के अंकुर अभिजात वर्ग’ में लिखते हैं, “हमें यह परिस्थितियाँ पैदा करनी होगी, जहाँ भारत के हर प्रमुख शहर में ऐसे सैंकड़ों दलित परिवार उभर जाएँ, जिनके घर के गेट पर एक दरबान खड़ा हो, जिनके पास टोयटा रेंज की कारें हों, कुछ एक के पास मर्क भी हो। ऐसे दलित पति, जिनकी पत्नियाँ आउट-गोइंग के लिए आज़ाद हो, पति को जानलेवा मानसिक परेशानी न हो, जो स्वयं ऐसे दलित माहौल में हो, जहाँ मेहमान दलित महिलाएँ लूज़ ब्लाउज पहनने में स्वयं सहज महसूस कर सकें, जहाँ दलित दम्पत्ति बच्चों के वैवाहिक निर्णय से ख़फ़ा न हों। दलितों में इस तरह के अभिजात वर्ग के उदय के साथ ही बिगुल बजेगा उस दलित मुक्ति का, जिसके केन्द्र में होंगे वे दलित जिन्हें दो-जून का भोजन नहीं मिलता, जिसके बच्चे अक्षर से वंचित है, यही है कुंजी भारत में एक सिविल सोसायटी अभ्युदय की भी।”11 

दरअसल, यह विचार आर्थिक रूप से संपन्न हो चुके उन दलित लेखकों और चिंतकों के है जो जाति व परम्परागत काम-संबंधों से मुक्त हो चुके है, जो शहरों की मध्यवर्गीय कॉलोनियों में, मध्यवर्गीय जीवन शैली से जीने के आदी है, जो बड़े दफ़्तरों में अधिकारी हैं या सरकारी कर्मचारी हैं, जिनके पास रोटी कमाने के बढ़िया स्थायी साधन व नौकरियाँ हैं, जिनके पास बैंक बैलेन्स है और जो तमाम शारीरिक शोषण से मुक्त हैं। संभवतः यही वजह है कि इनका साहित्य मध्यवर्गीय चेतना और मध्यवर्गीय पीड़ा (मानसिक पीड़ा) को अधिक शब्दबद्ध करता है। बकौल जवरीमल्ल पारख, “आमतौर पर लेखक समुदाय मध्यमवर्ग से ही आते हैं . . .। दलित समाज का यह बुद्धिजीवी वर्ग भी मध्यवर्ग से आया है और इसलिए इसमें मध्यवर्गीय चेतना के प्रभाव का होना अत्यंत स्वाभाविक है।”12 

दलित आत्मकथाओं में ऐसे बहुतेरे प्रसंग आए हैं जहाँ क्रमश: मध्यवर्ग बनते या मध्यवर्ग का हिस्सा बन चुके, लेखक को दलित पहचान के कारण अपमानित होना पड़ा है। उसे मध्यवर्गीय महल्लों से लेकर सरकारी कार्यालयों में पसरे जातिवादी माहौल का सामना करना पड़ा है। यही नहीं जाति उसके प्रेम-संबंधों के विच्छेद का कारण भी रही है। दलित लेखक समाज में अवस्थित जातिवादी स्थितियों से जूझता हुआ आगे बढ़ता है; सरकारी कार्यालयों में अधिकारी से लेकर, प्रो.फ़ेसर, कुलपति व राज्यपाल के पद तक पहुँचता है। मगर, उसकी शिकायत रही है कि क़ाबिल बनने और उच्च पदों पर पहुँचने के बाद भी उन्हें सवर्णों से सम्मान नहीं मिल रहा है, उन्हें योग्य नहीं समझा जा रहा है, उन्हें सवर्णों द्वारा अपमानित और प्रताड़ित किया जा रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि तबादले के बाद देहरादून फ़ैक्ट्री में ज्वाइन करने की स्थिति के बारे में लिखते हैं, “मेरी जाति के किसी व्यक्ति को इस पद पर देखने के वे अभ्यस्त ही नहीं थे। ऊपर से ‘वाल्मीकि’ उपनाम उनके गले ही नहीं उतर रहा था।”13 

सूरजपाल चौहान दफ़्तर में जातिवादी व्यवहार करने वाले के। सी। मल्होत्रा, श्रीमती रमा शर्मा, गंगा शरण शर्मा, जे. जे. झाला आदि का विस्तार से वर्णन करते है। के. सी. शर्मा लेखक पर चीखते हुए कहता है “इस भारत सरकार का बेड़ा ग़र्क़ हो, पता नहीं कहाँ-कहाँ से ऑफ़िस में चूहड़े चमार भर लिए हैं।”14 महाविद्यालय में अध्यापक का पद ग्रहण करने पर प्रो. श्यामलाल को जातीय व्यवहार का शिकार होना पड़ा, “यह ख़बर कि महाविद्यालय में एक भंगी ने प्राध्यापक का पद ग्रहण किया है, आग की तरह सम्पूर्ण शहर में फैल गई। यहाँ भी मेरा जन्म से भंगी होना मेरे लिए पर्याप्त दुखदायी हुआ।”15 

दलित आत्मकथाकारों को कार्यालयों से लेकर मध्यवर्गीय रिहायशी इलाक़ों में भी जातीय अनुभवों से दो चार होना पड़ा है। उन्हें किराए पर कमरा लेने में भी जातिगत अपमान सहना पड़ता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं, “जाति के कारण मुझे किराये का मकान नहीं मिल पा रहा है।”16 नवेंदु महर्षि लिखते हैं, “सवर्ण जाति के लोग अवर्ण जाति के किसी आदमी को कमरा किराए पर नहीं देते हैं। यह मेरा अपना कई बार का अनुभव है।”17 इसी तरह सुशीला टाकभौर भी बताती हैं कि “किराये का मकान ढूँढ़ते समय हमें हर जगह अपनी जाति बताना पड़ा . . . कई बार इस तरह की बातों से शर्मिंदा होना पड़ा था।”18 जाति के कारण तुलसीराम को भी छात्र जीवन में बनारस प्रवास के दौरान दसियों बार कमरा बदलना पड़ा था। 

यहाँ समस्या मान-सम्मान की है। उच्च-जातीय मध्यमवर्ग के बीच स्वीकृति और पहचान की है। दलित लेखक इस समस्या की भौतिकवादी नज़रिये से वृहद् सामाजिक-आर्थिक पड़ताल नहीं करता बल्कि वह इस समस्या को मानसिक और सांस्कृतिक समस्या के रूप में चिह्नित करके, इसकी एक अमूर्त व्याख्या प्रस्तुत करता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं, “काफी कुछ बदल गया था लेकिन जो नहीं बदला था, वह थी—लोगों की मानसकिता, जो उसी पुराने ढर्रे पर चल रही थी।”19 कमरा न मिलने पर वह मकान मालिकों को मानसिक रूप से बीमार बताते हुए जातिवाद की समस्या को विशुद्ध दिमाग़ी समस्या घोषित कर देते हैं, “मुझे ऐसे संकीर्ण और बीमार लोगों के साथ नहीं रहना है।”20 सूरजपाल चौहान भी जाति की समस्या को सम्मान और मानसकिता से जोड़कर देखते हैं, “कुत्ते, बिल्लियों और जंगली जानवरों की पूजा करने वाले हिन्दू दलितों के विषय में संकीर्ण मानसिकता क्यों पाले हैं?”21 इसी तरह सुशीला टाकभौरे लिखती हैं, “वर्णवादी-जातिवादी मानसिकता के लोग हमको कभी समानता की नज़र से नहीं देख पाये।”22 और “जाति-व्यवस्था जनमानस में बहुत गहराई से अपनी जड़े जमाकर बैठी हैं। इंसान के जीवन में जैसे जाति ही सब कुछ है, बाक़ी और कुछ भी नहीं।”23 

मगर, क्या मध्यवर्गीय लेखकों की तरह ही दरिद्र-दलित—जो दलित आबादी का बहुसंख्यक है—के लिए भी अस्मिता का सवाल अस्तित्व से पहले आता है? दरिद्र-दलितों की यथार्थ स्थितियों को जानने-समझने व उनके जीवन के प्राथमिक सवालों को जानने के लिए हमने इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों द्वारा जुटाए गए तथ्यों व साक्षात्कार के साथ-साथ, दरिद्र-दलितों द्वारा लिखे आत्मकथ्यों का सहारा लिया है। 

2011 की जनगणना के अनुसार देश की कुल आबादी का लगभग 65 प्रतिशत हिस्सा गाँव में निवास करता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि आधारित और सामाजिक ताना-बाना जाति आधारित रहा है। ऐतिहासिक रूप से देश में भूमि का अत्यधिक संकेन्द्रण उच्च-जातियों के पास रहा है, जिसके कारण दरिद्र-दलितों का उच्च जातियों के लिए खेत-मज़दूरी, साफ़-सफ़ाई, निजी कार्य, पशुओं की देखभाल आदि करना जीविका कमाने का ज़रिया बना। उत्पादन के साधन न होने, आर्थिक रूप से कमज़ोर होने, खेती योग्य भूमि न होने आदि हालातों ने दलितों को जातिवादी शोषण, शारीरिक शोषण, श्रम के दोहन आदि को सहने के लिए विवश किया है। ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ ने अपने अध्ययन में हाथ से मैला ढोने वाले श्रमिकों की वास्तविक स्थिति का पता लगाने की कोशिश की है। अध्ययन में जजमानी कार्यों में लगे श्रमिकों के साक्षात्कार दर्ज किये गये हैं। हाथ से मैला ढोने का काम करने वाले दलित मुख्यतः चुहड़ा, भंगी, रोखी, मेहतर, मलकाना, हलालखोर और लालबेगी जातियों से होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सूखे शौचालयों को साफ़ करने वाली महिलाओं को बहुत कम या कोई नक़द मज़दूरी नहीं मिलती है, बल्कि इसके बजाय बचा हुआ भोजन, फ़सल के दौरान अनाज, त्योहार के समय पुराने कपड़े, जलाऊ लकड़ी आदि दिया जाता है। यह सब दलित श्रमिकों की ज़रूरत के अनुसार नहीं बल्कि मालिकों की इच्छानुसार दिया जाता है। उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के कसेला गाँव में सूखे शौचालयों की सफ़ाई करने वाली महिलाओं को नगद भुगतान नहीं किया जाता है और वे जिस ज़मीन पर रहती हैं, उसके मालिक नहीं हैं। एक महिला मुन्नीदेवी बताती हैं कि “वे (मालिक) पैसे नहीं देते। कभी दो रोटियाँ देते हैं, कभी सिर्फ़ एक। एक घर ने मुझे दो-तीन दिन से कुछ नहीं दिया। इसलिए मैंने वहाँ जाना बंद कर दिया। अगर वे मुझे कुछ नहीं देते हैं, तो मैं क्यों जाऊँ? मैं दो-तीन दिन तक नहीं गयी, तो वे धमकाने आए, “अगर तुम नहीं आई तो हम तुम्हें अपनी ज़मीन पर नहीं जाने देंगे। तुम अपने पशुओं के लिए चारा कहाँ से लाओगी? . . . मैं वापस सफ़ाई करने चली गयी। मुझे करना पड़ा।”24 इसी तरह मध्यप्रदेश की बादामबाई सफ़ाई के काम से जुड़ी गंदगी और बीमारी के बारे में बताती है, “मुझे अपना सिर ढक कर काम करना होता था। बारिश के दिनों में मेरे कपड़े मल से भीग जाते थे। वे सूखते नहीं थे। घर महक जाता था। मुझे चर्म रोग होने लगे और यहाँ तक कि मेरे बाल भी झड़ गए।”25 

दलित खेतिहर मज़दूर अंगूरी (बदला हुआ नाम) बताती है कि ख़ुद के खेत न होने के कारण दूसरे के खेतों में काम करना मजबूरी है। अंगूरी कहती हैं कि “मैं अपनी बेटी को भी कई बार काम पर ले जाती हूँ, ज़्यादा घास देने की एवज़ में मेरे और मेरी बेटी के साथ मालिक शारीरिक शोषण करने की कई बार कोशिश कर चुका है, लेकिन कोई दूसरा काम न होने के चलते हमें वही काम करने पर मजबूर होना पड़ता है।”26 दरिद्र-दलितों के दर्ज यह बयान व साक्षात्कार पुष्टि करते हैं कि आर्थिक दुर्दशा व रोज़गार के वैकल्पिक अवसरों की कमी के कारण दलित आबादी के एक बड़े हिस्से को तमाम अपमान व शोषण के बावजूद अपने भरण-पोषण के लिए ज़मींदारों व उच्च जातियों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे में इनके लिए भूख और आजीविका का प्रश्न, सम्मान से पहले है। 

भूख के संकट से निपटने और आजीविका के लिए दलित आबादी का एक हिस्सा गाँव से शहरों की ओर पलायन करता रहा है। शहरों में जब दरिद्र-दलित निरक्षरता और ग़रीबी के युग्म के साथ आते हैं तो उन्हें जॉब मार्केट में 9 से 5 बजे की सफ़ेद कॉलर वाली नौकरी के बजाय असंगठित क्षेत्रों में फैक्ट्रियों-कारखानों, निर्माण उद्योगों, कोयला खानों आदि में सामान्यतः सुबह 9 से रात में 9 बजे यानी 12 घंटे की नौकरी करनी पड़ती है। असंगठित क्षेत्र में श्रम-क़ानूनों का पालन नहीं होने और ठेकेदारी प्रथा के बढ़ते चलन के कारण श्रमिकों से कम पैसों में अत्यधिक काम करवाया जाता है। दरिद्र-दलित ग्रामीण दमन चक्र से निकलकर शहर की ओर पलायन करते हैं, लेकिन रोज़गार की शोषणकारी परिस्थितियों में वह पुनः नए तरीक़े के दमन का शिकार बनते हैं। जहाँ उनके लिए दमनकारी स्थितियों से बाहर निकलना, न्यूनतम व परिश्रम के अनुसार वेतन हासिल करना, कार्यस्थितियों का बेहतर होना व श्रम क़ानूनों का लागू होना महत्त्वपूर्ण मुद्दे बनते है। दिल्ली के टैंक रोड पर गारमेंट फ़ैक्ट्री में काम करने वाली एक दलित श्रमिक बबली अपनी व्यथा-कथा सुनाते हुए कहती है कि, “अब बच्चों के स्कूल खुल गए हैं। सुबह जल्दी उठकर नाश्ता बना कर बच्चों की टिफ़िन तैयार करके उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ता है। पति सुबह ही ड्यूटी चले जाते हैं। इसलिए बच्चों को मुझे ही स्कूल छोड़ने जाना पड़ता है। फिर फ़ैक्ट्री में जाने के लिए लेट हो जाती हूँ। इसलिए कभी-कभी नाश्ता करने की भी फ़ुर्सत नहीं होती। ऐसे में ग्यारह बजे तक भूख लगने लगती है। पर वहाँ लंच टाइम एक बजे होता है। तो मैं टॉयलेट जाने के बहाने टॉयलेट में नाश्ता करती हूँ . . .। आठ घंटे का तो नाम ही है ड्यूटी तो हमें दस घंटे करनी पड़ती है। मालिक एक-दो घंटे की ओवर टाइम का हिसाब लगा कर तनखा देता है। अब हम पढ़े लिखे तो हैं नहीं। मालिक जो ओवर टाइम का हिसाब लगा देता है वही लेनी होती है। पर मेरे कमाने से परिवार को सहारा मिल जाता है। वर्ना इस आसमान छूती महँगाई में घर का गुज़ारा कैसे चले। मकान मालिक किराया बढ़ाने पर ज़ोर देता है। अब ऐसे में अकेले पति की कमाई में पूरा पड़ता नहीं है। कमरे का किराया। बच्चों के स्कूल का ख़र्च। फिर घर के रोज़मर्रा के ख़र्च। ऐसे में क्या खाएँ क्या बचाएँ। बहुत मुश्किल होता है।”27 कार्यस्थल पर अत्यधिक शोषण, ज़्यादा घंटे काम करवाना, पूरा वेतन न मिलना, मालिक-सुपरवाइजर का क्रूर व अनुचित व्यवहार, यह असंगठित क्षेत्र में कार्यरत कामगारों के रोज़मर्रा का निर्मम यथार्थ है। बबली का नौकरी के दौरान शौचलाय में रोटी खाना, हमारे सभ्य समाज पर कलंक है, जहाँ मानव को मानव होने की स्थिति-परिस्थिति मुहैया नहीं है। रोटी कमाने और अपने अस्तित्व को बचाए रखने की अत्यधिक ज़रूरत दरिद्र-दलितों के लिए तमाम मानवीय गरिमा व सम्मान की आकांक्षा को तिरोहित कर देती है। 

‘इन्टेरोगेटिंग माई चांडाल लाइफ’ का लेखक मनोरंजन व्यापारी दरिद्र-दलित जीवन स्थितियों को जीते हुए ही आत्मकथ्य लेखन में अनुरक्त होता है। उनकी दृष्टि में अस्मिता और सम्मान से पहले रोटी का सवाल आता है। वह लिखते हैं कि “दलित और ग़रीब लोगों की कुल छह समस्याएँ हैं—रोटी, कपड़ा, शिक्षा, चिकित्सा, मकान और सामाजिक सम्मान। दलित समाज के जो नेता हैं, उनका किसी न किसी तरह से पहली पाँच समस्याओं का हल हो चुका है, सिर्फ़ एक बचा हुआ है, वह है सम्मान।”28 इसी क्रम में वह आगे लिखते हैं, “मैं जिस वर्ग का इन्सान हूँ, जिनके लिए मैं उठ खड़ा हुआ, उनको पहले पाँच बुनियादी समस्याओं से आज़ाद करा सकूँगा। अब सबसे पहले वही लड़ाई लड़नी पड़ेगी। रोटी चाहिए, कपड़ा चाहिए, उसके बाद बाक़ी सब।”29 व्यापारी दलित श्रमिकों के श्रम को महत्त्व न दिये जाने और श्रम के शोषण के बार में दुःखी मन से लिखते हैं, “हमारे पैदा होने से पहले ही संसार की सारी सम्पत्ति और संसाधन हड़प लिए गए है। वे हमें कुछ भी देने को तैयार नहीं हैं। वे हमारे आँसुओं, हमारे श्रम को कोई महत्त्व नहीं देते हैं।”30 

मनोरंजन व्यापारी दलित साहित्य चिन्तक व आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी को दिए एक साक्षात्कार में अपनी दिनचर्या, अपने काम व काम में मौजूद अतिशय शोषण के बारे में बताते हैं, “मेरा दिन शुरू होता है सुबह साढ़े पाँच बजे। मुँह हाथ धोकर एक कप चाय पीकर, अपनी टूटी-फूटी साइकिल लेकर निकल पड़ता हूँ। रोजी रोटी के काम पर। 20-25 मिनट लग जाता है वहाँ पहुँचने में . . .। स्कूल में जहाँ डेढ़ सौ से ऊपर आवासीक बच्चे रहते हैं उनके लिए खाना पकाने की नौकरी करता हूँ। इतने लोगों का दोनों वक़्त का खाना, बरतन माँजना, सबेरे बच्चों को नाश्ता देना, खाना परोसना इन सारे कामों के लिए हम दो लोग हैं। सिर्फ़ दो लोग . . .। चकित हुए न आप! सोचते होंगे की 150 बैल बकरियों का चारा भी दो आदमी नहीं दे सकते तो इतने मनुष्यों का सेवा-जतन कैसे किया जा सकता है? यह काम हम दस-बारह साल से कर रहे हैं। बीच-बीच में यहाँ बाहर के पचास-सौ आदमी आकर रुक जाते हैं तो उनको भी खिलाने-पिलाने की ज़िम्मेदारी हम पर आ जाती है। और, अगर किसी कारणवश हममे से एक को छुट्टी करनी पड़ी तब अकेला आदमी सारा काम करने को मजबूर होता है। बाज़ू में एक कैंटीन है। 53 लोगों को दो टाइम का खाना देने के लिए पाँच कर्मचारी हैं। वहाँ उनका हवाला देने पर हमारे स्कूल का मैनेजमेंट कहता है कि कौन क्या कर रहा है, उससे हमें क्या लेना-देना? यहाँ अगर पाँच-सौ लोग भी खाने वाले हों तो दो से काम करवा लेंगे। कर सकते हो तो करो, नहीं तो दरवाज़ा खुला है। जा सकते हो। साधारण दिन में इन सब कामों का निपटारा होने में 11-12 बज जाता है। इतवार या किसी विशेष दिन दो-ढाई बजे तक चलता है यह कार्यक्रम . . .। फिर मैं घर वापस आता हूँ। नहाधोकर खाना खाता हूँ। हम कितनी भी लम्बी ड्यूटी करें खाना घर ही आकर खाने को मिलेगा। वहाँ का खाना हम खा नहीं सकते। कठोर प्रतिबंध है। बच जाये तो सँभालकर रखो। सड़ जाये तो फेंक दो लेकिन मुँह में मत डालना। इसे नाजायज़ माना जायेगा। चोरी कहा जायेगा। हमारे काम के बदले तनख़्वाह मिलती है। फिर खाना-वाना किस बात का . . .। फिर मैं दूसरी पारी के लिए शाम पाँच-साढ़े पाँच बजे घर से निकलता हूँ . . .। स्कूल के रसोई घर में पहुँचकर चावल, दाल, दो तरह की सब्ज़ी पकाकर रात साढ़े आठ बजे लोगों को खाने को बुलाता हूँ। सबके खाते-पीते साढ़े दस बज जाते हैं। यही मेरी दिनचर्या है।”31 

मनोरंजन व्यापारी की तरह ‘आलो-आँधारि’ की लेखिका बेबी हालदार का जीवन भी एक दरिद्र-दलित का जीवन है। वह जीवन के हर मोड़ पर दरिद्र-दलित होने की मार को झेलती है। भूख और अस्तित्व का संकट अतीत के ‘स्व’ से लेकर वर्तमान ‘स्व’ तक इकसार बना रहता है। अस्तित्व और जीविका के लिए जूझती लेखिका को षष्टि की माँ बरतन माँजने व झाड़ू-चौके का काम करने की सलाह देती है। शुरू में बेबी को यह काम अपने और परिवार के सम्मान के विरुद्ध लगता है। लेखिका लिखती है, “मैं सोच में पड़ गई कि उसकी तरह मैं दूसरों के घरों में कैसे काम कर सकती हूँ। बाबा को पता चलेगा तो वह क्या सोचेंगे और उनके बंधुओं ने कहीं देख सुन लिया तो वह भी क्या सोचेंगे कि उनके हालदार बाबू या हालदार दा की लड़की को क्या-क्या करना पड़ रहा है! षष्टि की माँ को जब मैंने यह बात बताई तो वह बोली, बाप की नाक की चिंता करने जाएगी तो तुझे भूखा मरना पड़ेगा।”32 

पेट और नाक के द्वंद्व में पेट की पीड़ा विजयी होती है और बेबी साफ़-सफ़ाई का काम करने को तैयार हो जाती है, “मैं बाबा के मान-सम्मान का इतना ख़्याल करती हूँ और वह देखने भी नहीं आते कि मैं किस हाल में हूँ, मुझे खाना भी ठीक से जुटता है या नहीं।”33 घरेलू नौकरानी के रूप में बेबी को झाड़ू लगाना, खाने-पीने की व्यवस्था करना, कपड़े-बरतन धोना, मसाला पीसना, सब्ज़ियाँ काटना आदि काम करना था। नौकरानी का काम बेबी का पहला काम था, जो उसके ‘लेखिका’ बेबी बनने के बाद भी जारी रहा। बेबी आत्मकथा में बताती है कि उसके मालिक उससे मशीन की तरह काम लेते थे, “काम करते-करते मैं बेहाल हो जाती। पता नहीं क्यों, काम को लेकर सभी पूरे समय मेरे पीछे पड़े रहते, हरदम काम-काम, यह करो वह करो!”34 

विविध आत्मकथाओं के अंतर्वस्तु विश्लेषण से स्पष्ट है कि एक शिक्षित मध्यवर्गीय लेखक के अतीत के ‘स्व’ में मौजूद अस्तित्व की चिंताएँ उसके वर्तमान ‘स्व’ में अस्मिता चिंता में बदल गई हैं। जबकि एक दरिद्र-दलित व्यक्ति या लेखक की चिंताएँ अतीत से लेकर वर्तमान तक अस्तित्व के संकट को दूर करने से जुड़ी रहती है। दरिद्रता से विमुक्त दलित लेखक अब मध्यवर्ग का हिस्सा हो चुका है। वह मध्यवर्गीय मूल्यों को अपनाता है और बहुसंख्यक दरिद्र-दलितों से अलग अपने को सांस्कृतिक रूप से परिष्कृत दिखाता है। जिसके सम्बन्ध में ब्रिटिश लेखिका साराह बेथ हंट का लिखती हैं कि “गरीबी और ग्रामीण पृष्ठभूमि से जीवन का आरम्भ करने वाले, दलित आत्मकथाकारों ने वर्तमान में मध्यवर्ग में अपना स्थान स्थापित कर लिया है। शहरी मध्यमवर्ग का हिस्सा बन जाने के बाद उन्होंने मध्यवर्गीय आदतों, सांस्कृतिक प्रथाओं और मूल्यों को अपनाना शुरू कर दिया है। वह मध्यवर्गीय मोहल्लो में रहने लगे हैं, उनके पास अपना टीवी है, उनके बच्चे जीन्स पहनते हैं, मैकडोनल्ड जाते हैं और अंग्रेज़ी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं।”35 

दलित लेखक के मध्यवर्ग का हिस्सा बन जाने के बाद वह जातिवाद को महज़ मानसिकता से जोड़कर देखता है। उसे जाति-व्यवस्था अस्तित्व से ज़्यादा अस्मिता व सम्मान के लिए ख़तरा लगती है। सर्वेश कुमार मौर्य का कहना उचित है कि “हमारे समय में प्रमुखता प्राप्त दलित साहित्य भी बुरी तरह मध्यवर्गीय सोच से ग्रस्त दिख रहा है। वह जाति मुक्ति की ऐतिहासिक लड़ाई लड़ने की बजाय जाति सम्मान की ज़िद पर आ गया है। शायद इसीलिए दलित साहित्य के बड़े लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि को यह कहना ठीक लगता है कि दलित सम्मान चाहता है भूखा तो वह सदियों से रहा है। इसका साफ-सीधा अर्थ है कि भूखे पेट का सवाल उनके लिए केंद्र में नहीं है बल्कि सम्मान का सवाल केंद्र में है।”36 

सम्मान की चाहत से मिलता-जुलता तर्क सुशीला टाकभौरे का भी है। उनके लिए मानसिक संताप शारीरिक पीड़ा से अधिक बढ़कर है, “शारीरिक पीड़ा से मानसिक पीड़ा ज़्यादा दुखदायी होती है। मैं मानसिक पीड़ा को भोग रही हूँ। मेरी पीड़ा शिक्षित अछूत की है-जो सम्मान का सपना देखते हैं।”37 मध्यवर्गीय लेखक के लिए यहाँ सम्मान और अस्मिता का सवाल प्राथमिक है, जिसके सम्बन्ध में प्रियंका शाह लिखती है कि “दलित-अस्मिता की सारी जद्दोजेहद शीक्षित मध्यवर्गीय दलितों से जुड़ी हुई है।”38 

अस्तित्व और अस्मिता सम्बन्धी विवेचन से स्पष्ट है कि दरिद्र-दलित के लिए जहाँ अस्तित्व का सवाल महत्त्वपूर्ण है, वहीं शिक्षित मध्यवर्गीय दलित के लिए अस्मिता का सवाल प्राथमिक है। मुद्दों और समस्याओं के भिन्न-भिन्न होने के कारण अब महज़ स्वानुभूति के प्रत्यय के आधार पर ‘मैं’ के द्वारा सामुदायिक ‘हम’ का प्रतिनिधित्व सम्भव नहीं लगता है। जीवन में हुए परिस्थितिजन्य बदलावों और वर्गीय बदलावों के चलते मध्यवर्गीय लेखक का बहुसंख्यक दरिद्र-दलितों से रिश्ता बदल गया है। वह जाति-उत्पीड़न के विविध रूपों को गाँव में, खेतों में, ईंट-भट्टों, चमड़ा उद्योग, सफ़ाई कार्यों व फैक्ट्री-कारखानों आदि कार्य-स्थलों पर नहीं देख पाता, बल्कि वह जातिवाद की मौजूदगी को ड्राइंगरूम, सरकारी दफ़्तरों, मध्यवर्गीय महल्लों व प्रेम-सम्बन्ध के विच्छेद में देखने का आदि हो गया है। 

दरिद्र-दलित चाहे वह ग्रामीण हो या शहरी, जाति की समस्या उसके लिए काम-सम्बन्धों, शारीरिक-आर्थिक शोषण, श्रम के दोहन में निहित है। भूख और शारीरिक शोषण की अपेक्षा सम्मान को महत्त्व देना मध्यवर्गीय लेखकों की चाहत हो सकती है क्योंकि वह उन शोषणकारी स्थितियों से मुक्त हैं, जो भूख और शोषण की जननी हैं। जबकि दरिद्र-दलित वर्तमान शोषणकारी स्थितियों का शिकार है, उसके लिए पेट भरने और शारीरिक शोषण से मुक्त होने का प्रश्न प्राथमिक है, इसलिए उसकी मुक्ति की लड़ाई जाति व आर्थिक शोषण के ख़िलाफ़ व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ती है। वर्गांतरण के बाद लेखक बहुसंख्यक दरिद्र-दलितों के मुद्दों से पलायन करता हुआ, जाति-मुक्ति की लड़ाई को जाति-सम्मान की लड़ाई में परिवर्तित करता हुआ दिखता है। ऐसा करके वह त्याग और प्रतिबद्धता के संघर्षमयी रास्ते को छोड़, ख़ुद को सूट करने वाले एक सुगम रास्ते को अख़्तियार करता है। 

सुगम रास्तों से अस्मिता हासिल नहीं की जा सकती, जातिववादियों कि निगाह में सम्मान नहीं बोया जा सकता, बराबरी का सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिए दुर्गम संघर्षपथ पर अग्रसर होना होगा। जाति-उन्मूलन के अभियान में शामिल होना होगा। आर्थिक ग़ुलामी से मुक्ति का संघर्ष करना होगा। जातीय अहं और ब्राह्मणवाद के लिए खाद पानी मुहैया कराने और इन्हें पुन:सृजित करने वाली पूँजीवादी, नव-उदारवादी नीतियों के ख़िलाफ़ निर्णायक संघर्ष करना होगा, जिसके सम्बन्ध में मुख्यधारा का दलित लेखक और उसका साहित्य प्रायः मौन रहा है। मुख्यधारा के दलित लेखक और साहित्य को चाहिए कि वह दरिद्र-दलितों के मुद्दों का अन्यीकरण न करे और उनके अस्तित्व सम्बन्धी प्रश्नों जैसे भूख, ग़रीबी, बीमारी, बेगारी, शारीरिक-आर्थिक शोषण, शिक्षा के सवालों और उनके संघर्षों को साहित्य और चिंतन के केंद्र में स्थापित करें। दरिद्र-दलित, दलित आबादी का बहुसंख्यक हैं, ऐसे में उनके अस्तित्व के मूल सवालों को सुलझाइए बिना सम्मान और पहचान का सवाल बेजा होगा। 

यही नहीं अस्मिता का विचार एक अंतर्विरोधी स्थिति का निर्माण भी करता है, वह दलित समाज को जातिवाद से मुक्ति की ओर नहीं ले जाता बल्कि वह प्रकारांतर से जातिगत समाज को वैधता देता है। दलित अस्मिता, समाज में दलित और दलित साहित्य की उपस्थिति को अवश्यंभावी बनाती है; यानी समाज में दलित होगा, तभी तो दलित अस्मिता होगी। ऐसे में जब समाज दलित और ग़ैर-दलित में बँटा रहेगा और दलित को दलित बनाए रखने वाली भौतिक परिस्थितियाँ बनी रहेंगी, तब केवल हृदय परिवर्तन और सांस्कृतिक बदलाव के माध्यम से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि ग़ैर-दलित बराबरी और सम्मान की नज़र से दलित को देखें। लेखक यदि वास्तव में सम्मान और पहचान चाहता है तो उसे दलित अस्मिता के नज़रिए में फेरबदल करके अस्तित्व के नज़रिए को केंद्र में लाना होगा। बहुसंख्यक दरिद्र-दलितों के अस्तित्व सम्बन्धी भूख, ग़रीबी, बीमारी आदि के मुद्दे और समस्याएँ सवर्ण ‘अन्य’ के बहुसंख्यक के मुद्दों से सीधे जुड़ते हैं। इन समस्याओं से वास्तविक मुक्ति इनकी साझी गतिविधियों में निहित है। साथ-ही-साथ दलित लेखक को अस्मिता को जातिगत आधार से विमुक्त करके मानवीय-अस्मिता की ओर बढ़ना होगा। इसके लिए उन्हें जातिवाद-ब्रह्मणवाद के अलावा, जातिवादी स्थितियों को पुनरुत्पादित करने वाली पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली के ख़िलाफ़ भी निर्णायक रूप से खड़ा होना होगा। 

संदर्भ:

  1. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, मेरा बचपन मेरे कंधों पर, नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2009, पृष्ठ-27

  2. ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन,  भाग-1, नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2009, पृष्ठ-19

  3. श्यामलाल, एक भंगी कुलपति की अनकही कहानी, नई दिल्ली, यूनिवर्सिटी बुक हाउस, 2011, पृष्ठ-4

  4. माता प्रसाद, झोपड़ी से राजभवन, नई दिल्ली, नमन प्रकाशन, 2002 पृष्ठ-75

  5. ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, भाग-1, नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2009, पृष्ठ-12

  6. बजरंग बिहारी तिवारी, भारतीय दलित साहित्य आन्दोलन और चिंतन, नई दिल्ली, शब्दारंभ, 2015, पृष्ठ-178

  7. डॉ. यशवंत विरोदय, दलित शिखरों के साक्षात्कार, नवभारत प्रकाशन, गाजियाबाद, 2013, पृष्ठ-183

  8. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, अघोषित पाबंदियों के बीच सत्ता विमर्श और दलित, हंस, अगस्त 2004, वर्ष 19, अंक 1, पृष्ठ-13

  9. www.debateonline.in/130412 Date 14/2/15

  10. https://velivada.com/2017/10/28/saheb-kanshi-rams-speech-first-international-dalit-conference-kuala-lumpur/  

  11. चंद्रभान प्रसाद, बौद्धिकता के अंकुर अभिजात वर्ग, हंस, अगस्त 2004, वर्ष 19, अंक 1, पृष्ठ-65

  12. जवरीमल्ल पारख, आधुनिक हिंदी साहित्य: मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन, नई दिल्ली, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2007, पृष्ठ-221

  13. ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, भाग-2, नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-14

  14. सूरजपाल चौहान, संतप्त, नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2007, पृष्ठ-51

  15. श्यामलाल, एक भंगी कुलपति की अनकही कहानी, नई दिल्ली, यूनिवर्सिटी बुक हाउस, 2011, पृष्ठ-52

  16. ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, भाग-2, नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-29

  17. नवेंदु महर्षि, मेरे मन की बाइबिल, नई दिल्ली, मेघा बुक्स, 2007, पृष्ठ-64

  18. सुशीला टाकभौरे, शिकंजे का दर्द, नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2011, पृष्ठ-164,165

  19. ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, भाग-2, नई दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-14

  20. वही, पृष्ठ-28

  21. सूरजपाल चौहान, संतप्त, नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2007, पृष्ठ-58

  22. सुशीला टाकभौरे, शिकंजे का दर्द, नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2011, पृष्ठ-164

  23. वही, पृष्ठ-167

  24. Human Rights Watch, Cleaning Human Waste: “Manual Scavenging”, Caste, and Discrimination in India, august 2014, pp-15

  25. वही, पृष्ठ-11 

  26. ग्रामीण भारत को अपनी पीठ पर ढोती दलित महिला मज़दूरों के लिए नहीं हैं श्रम क़ानून, July, 24,2020  https://www.workersunity.com/dalit/a-study-by-jamia-students-says-dalit-women-farm-laborer-dont-have-labour-law-shield/ accessed on 19 january, 2021

  27. राज वाल्मीकि, ज़रूरी है दलित आदिवासी मज़दूरों के हालात पर भी ग़ौर करना, न्यूज क्लिक, 2022 https://hindi.newsclick.in/May-day-It-is-necessary-to-consider-the-condition-of-Dalit-tribal-workers-also accessed on 15 january, 2023

  28. मनोरंजन व्यापारी, अस्तित्व बनाम अस्मिता, देश-विदेश, दिनांक 14 मार्च, 2019, https://mobile.deshvidesh.net/entries/view/survival-vs-identity  

  29.  वही

  30. Manoranjan Byapari, Interrogating My Chandal Life: An Autobiography of a Dalit, SAGE Publications Pvt Ltd; New Delhi, 2018,pp-73 (अनुवाद हमारा)

  31. बजरंग बिहारी तिवारी, भारतीय दलित साहित्य आन्दोलन और चिंतन, नई दिल्ली, शब्दारंभ, 2015, पृष्ठ-160,161

  32. बेबी हालदार, आलो-आँधारि, पश्चिम बंगाल, रोशनाई प्रकाशन, 2002 पृष्ठ-89,90

  33. वही, पृष्ठ-90

  34. वही, पृष्ठ-111

  35. Sarah Beth Hunt, Hindi Dalit Literature and Politics of Representation, New Delhi, Routledge, 2014, pp-134,135, (अनुवाद हमारा)

  36. सर्वेश कुमार मौर्य (सं.), साहित्य और दलित दृष्टि, नई दिल्ली, स्वराज प्रकाशन, 2015, पृष्ठ-8

  37. सुशीला टाकभौरे, शिकंजे का दर्द, नई दिल्ली, वाणी प्रकाशन, 2011, पृष्ठ-294

  38. प्रियंका शाह, दलित आत्मकथा: अस्मिता के आयाम, कोलकाता, आनंद प्रकाशन, 2017, पृष्ठ-23

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