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हाईवे 401

धीमी गति से रेंगती कार को जैसे ही वह हरा बोर्ड दिखा “एग्ज़िट 401 ईस्ट”, वह हल्का मोड़ लेकर तेज़ गति से दौड़ने लगी। चिन्मय ने कौतूहल से पूछा- “अच्छा, तो अब हम हाईवे पर जा रहे हैं। यह वही है न जो तुम्हारे बेडरूम की खिड़की से दिखाई देता है। इसी का नाम है हाईवे चार सौ एक?” 

“हाँ, लेकिन इसे हाईवे चार सौ एक नहीं, हाईवे फोर हंड्रेड वन भी नहीं, हाईवे फोर-ओ-वन कहते हैं।”

“फोर-ओ-वन! शब्दों की हेराफेरी से जो नयापन आता है वह अलग ही छाप छोड़ता है। तुम्हारा रोज़ यहाँ से निकलना होता है क्या?”

“हाँ, लगभग रोज़। कार से नहीं तो बस से, शटल से। यहाँ उपस्थिति दर्ज होती ही है। यह मुख्य, तेज़ रास्ता है, कई अन्य रास्तों से जुड़ा हुआ।”

चिन्मय को कार से टोरंटो घुमा रहा था मैं। हम दोनों बचपन से लेकर अमेरिका आने तक साथ थे पर कैनेडा में आकर अलग-अलग राज्यों में बस गए थे। चिन्मय पहली बार आया था टोरंटो। कोरोना काल में लंबे अंतराल के बाद डोमेस्टिक उड़ानें चालू हुई थीं। ऑफ़िस ने एक ज़रूरी असाइन्मेंट के साथ भेजा था उसे। शहर के बारे में जानने, देखने की उत्सुकता से अधिक मेरे साथ समय गुज़ारने की उसे ख़ुशी थी।

काफ़ी कुछ खुलने लगा था। लॉकडाउन के लगभग ढाई महीनों के बाद हाईवे पर गाड़ी चलाते हुए कुछ अजीब सा लग रहा था मुझे। हालाँकि पिछले तीन महीनों से नज़रें गड़ाए था इस पर। अपने घर की खिड़की से, पेड़ों के झुरमुट के पीछे तीन-चार गाड़ियों की आती–जाती क़तार लगातार दिखाई देती थी। सोचता, इतने लोग बाहर जाकर काम कर रहे हैं। मैं व पत्नी सेजल दोनों घर से ही काम करते रहे। यही आभास होता रहा कि शायद हम दोनों की दो कारें ही कम हुई होंगी। शेष लोगों की उपस्थिति दर्ज हो रही थी या नहीं किन्तु हाईवे 401 की व्यस्तता कम न हुई। सेजल भी यहीं से राहत पाती- “केतु, कोविड 19 की इस अनजानी दहशत को कम करने वाला यही एकमात्र ऐसा दृश्य है जिस पर दौड़ती गाड़ियाँ आँखों से ओझल होते हुए कहती हैं कि घबराने की कोई बात नहीं है।” और हाईवे 401 देखते हुए, घर से काम करते हम पति-पत्नी एक-दूसरे को इसी तरह दिलासा देते रहते। 

मुझे लगता है कि यह मेरे लिये मात्र हाईवे नहीं है। मैं इसका एक हिस्सा हूँ। इसकी लंबाई का एक छोटा, बित्ता भर टुकड़ा। रोज़ के सफ़र ने इसके चप्पे-चप्पे से परिचय करा दिया है। इसकी भूख है– गाड़ियों की गड़गड़ाहट और पहियों का स्पर्श। शहर की जान है यह। इसकी धड़कनों की गति एक सौ बीस किलोमीटर की रफ़्तार पर ही रहती है। हालाँकि सौ की लिमिट है पर हर गाड़ी एक सौ बीस की गति पर ही चलती है। मानो सौ पर बीस परसेंट टिप का रिवाज़ निभा रहे हों। डर तो तब लगता है जब यह थम जाता है। यह थमा यानि कोई बड़ा एक्सीडेंट हुआ। इसके अलावा कोई कारण नहीं है इसके थमने का। इसका ग़ुस्सा तब देखते ही बनता है जब धड़-धड़ करती गाड़ियाँ एक दूसरे से टकराकर भड़ाम-भड़ाम, धड़ाम-धड़ाम का मिला-जुला शोर पैदा कर देती हैं। इसे आदमी की इस दौड़ से नफ़रत है। अपनी देह को ख़ून से रँगा देखकर क्रोध में घंटों बंद हो जाता है। जब तक ये भयानक लम्हे बीतें, फिर से भागमभाग शुरू हो जाती है। आदमी ऐसा प्राणी है जो अपनी ज़िद के चलते किसी की नहीं सुनता। अपने लोगों की नहीं सुनता तो इस डामर-कंक्रीट के बेजान रास्ते की क्यों सुनने लगा। 

“इतना ट्रैफ़िक होने से तो इसे मरम्मत की बहुत ज़रूरत पड़ती होगी,” चिन्मय ने सवाल किया तो मेरी तंद्रा टूटी। 

“बहुत, मरम्मत का काम चलता ही रहता है। एक खरोंच भी आए इसके शरीर पर तो तंत्र इसके उपचार के लिये तत्काल पहुँच जाता है। रोज़ रात ग्यारह बजे से काम शुरू हो जाता है, अलग-अलग जगहों पर।”

“हाँ, दिन में तो कर नहीं पाते होंगे, इतना व्यस्त रहता है।” आसपास चलती कई गाड़ियों पर निगाह डालते चिन्मय ने कहा- “बहुत दिनों के बाद हम इस तरह साथ घूम रहे हैं, है न केतु।”

“हाँ, कई दिनों से प्रतीक्षा थी तुम्हारे आने की।”

“काम ही ऐसा है हम लोगों का कि लाइफ़ में थोड़ा चेंज तो चाहिए।”

“आईटी ने हमें बहुत दिया है चिनू।”

“हाँ, बहुत कुछ, एक ऐसी भाषा दी जो हमारी पहचान है। आज की पहली ज़रूरत है कम्प्यूटर की भाषा।”

“बिलकुल, और इस भाषा से हम कभी जड़ नहीं होते। निरंतर बदलाव के लिये तत्पर रहो तो ठीक वरना बैठ जाओ घर। याद है, हमारे साथ के कई लोगों की नौकरी गयी। वे सब अमेरिका से वापस भारत लौट गए।” ये यादें वहाँ ले जाती हैं, जब सही समय पर हम दोनों दोस्तों ने कैनेडा आने का फैसला लिया था।

“हम जैसे आईटी के लोग प्रोग्रामिंग में उलझे रहते हैं तो लोगों को लगता है कि हम लोग एक्सपर्ट हैं कम्प्यूटर के,” मुस्कुराते हुए चिन्मय ने वह दृश्य खींच दिया जब आँखें स्क्रीन पर जमा रहतीं पर हल नहीं मिलता।

“यह कोई नहीं देखता कि घंटों उलझे रहते हैं एक ग़लत क्लिक से निपटने के लिये।” मैं मुस्कुरा दिया। मशीनी मुस्कान नहीं, मशीनों की दी गयी मुस्कान। यह उन क्षणों की वास्तविकता थी जब उलझते जाते थे उस क्लिक में।

चिन्मय हँस दिया, “बिल्कुल, एक ग़लत क्लिक से एक सही क्लिक की तलाश का लंबा रास्ता पार करने में दम निकल जाता है।”

“हक़ीक़त यह भी है कि जो इंसान कम्प्यूटर को लिख-पढ़ सकता है, वह हर मूर्त-अमूर्त चीज़ को तेज़ी से पढ़ सकता है। हाईवे फोर-ओ-वन को ही लो, मैं इसके इतने क़रीब हूँ कि मुझे लगता है कि यह मुझसे लगातार कुछ कहता है। मीलों तेज़ गति की रफ़्तार में इसकी आवाज़ को भी पढ़ने-सुनने लगा हूँ। डामर, कंक्रीट से बने, असंख्य मोड़ वाले रास्ते के बहाव की भाषा से मैं भली-भाँति परिचित हूँ।”

चिन्मय मुस्कुराते हुए केतन को देख रहा था जो अपनी कार की गति के साथ ही अपनी बातों की गति को भी बनाए हुए था।

“सच कहूँ चिनू, मेरे लिये यह सिर्फ़ रास्ता ही नहीं, जीवन का एक अटूट भाग है जो मेरे अंदर धड़कता है। इस पर गाड़ी चलाते हुए मैंने अपनी गति पर नियंत्रण रखने का गुर सीखा है। यह बार-बार आगाह करता है– दौड़ोगे तो औंधे मुँह गिरोगे।”

“तुम ज़रा भी नहीं बदले केतु, आज भी वैसी ही दार्शनिक बातें करते हो।”

मैं खुलकर हँसता हूँ। सोचता हूँ क्या कभी कोई बदल सकता है। शहर छोड़ दे, देश छोड़ दे, बाहरी दुनिया बदल ले पर भीतर की दुनिया कैसे बदल सकता है। वही तो अपनी एक दुनिया है जिसमें जब चाहो गोते लगाकर आ जाओ। इतने वर्षों बाद भी इस हाइवे की गति के साथ दौड़ता हूँ तो लगता है कि माँ साथ होतीं तो ऐसी सर्र से चलती गाड़ी के लिये ज़रूर कहतीं- “पेट का पानी भी न हिले”। मेरा “स्मूथ राइड” कहना माँ की उस आवाज़ की सरलता को कभी नहीं छू पाता। वर्षों बीत गए माँ को गए। माँ नहीं हैं पर वह आवाज़ है मेरे भीतर। माँ की कही हुई कई बातों का विकल्प आज तक नहीं ढूँढ़ पाया मैं। सालों बाद भी उनके रचे बेटे के सिस्टम में वैसी की वैसी सेव्ड हैं। जब-तब वे आवाज़ें फुसफुसा कर चली जाती हैं। फिर चाहे मैं हाइवे पर दौड़ रहा होऊँ या कम्प्यूटर प्रोग्राम की उलझनों में सिर पर हाथ रखे सोच रहा होऊँ। कुछ समझ में नहीं आ रहा होता है और तभी न जाने कहाँ से एक आवाज़ आती है - “माथो मती फोड़, चल आ, रोटी खई ले।” तब उठना ही पड़ता है। खाना खाकर लौटता हूँ तो सब कुछ मेरे बस में हो जाता है।

चिन्मय की चुप्पी देख मैंने मौन तोड़ा- “हर तरह की गाड़ियों का शोरूम है जैसे यहाँ।” 

“हाँ, वही देख रहा था मैं। छोटी-से छोटी, महँगी से महँगी, नैम ब्रांड लग्ज़री कारें, एसयूवी, ट्रक, बसें, टूरिस्ट बसें, स्कूल बसें, माल ढोते, गाड़ियाँ ढोते ट्रेकर सब कुछ।” हर लेन को ग़ौर से देखता हुआ चिन्मय गाड़ियों की कई क़िस्में उस सूची में जोड़ता जा रहा था।  

साथ चल रही कार ड्रायवर के अधपहने मास्क से याद आया मुझे- “अब देखो, मास्क हमारी ज़रूरत बन गया है।” 

“हाँ, कार में, दरवाज़े के पास, हर जगह एक-एक रखा हुआ है ताकि कभी बग़ैर के मास्क के न निकलें।”

“मास्क में छिपा चेहरा अब आदी होने लगा है, सिर्फ़ आँखें देखकर पहचान लेने का। सच इतना तैयार होने की, शेव करने भी अब ज़रूरत न रही। लड़कियाँ अपना काफ़ी समय बचाएँगी। इतना मेकअप न करना होगा।” मेरे चेहरे पर शरारत नाचने लगी थी।

“समय और पैसा दोनों बचाएँगी।” 

दोनों अनायास ही हँस पड़े। दो युवकों के बीच बात हो रही हो और लड़कियों का ज़िक्र न हो, ये भला कैसे संभव था! और फिर हम तो बचपन से अपना क्रश एक दूसरे को बताते आ रहे थे।

“अरे यहाँ भी भिखारी,” मोड़ पर सामने खड़े एक व्यक्ति को देखकर चिन्मय बोला। 

“हाँ, एक यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती कि हाईवे में घुसते हुए, निकलते हुए ऐसे कॉर्नरों पर ये खड़े होते हैं। गले पर तख़्ती लगाए भीख माँगते हैं। कभी लिखा होता है, “स्माल चिल्ड्रन, नो फ़ूड” कभी लिखा होता है “होम लेस, नो मनी”। लगता है इनकी रोज़ी-रोटी का जुगाड़ भी हाईवे 401 करता है। न जाने ये भिखारी शान बढ़ाते हैं या कम करते हैं। इस तरह पेट भरने लायक़ मिलता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम। कड़ाके की सर्दी में भी खड़े रहते हैं। न जाने क्यों मुझे इनका यहाँ खड़ा होना चुभता है। मैंने तो कभी कुछ दिया नहीं क्योंकि मुझे मालूम है कि ये अपनी कार यहीं कहीं पार्क करके आए होंगे व खड़ें होंगे भीख माँगने के लिये।”

“और क्या, कुछ देने के लिये भिखारी जैसी शकल तो हो, तख़्ती पर लिखे अक्षरों के अलावा कहीं भिखारी वाला भाव दिखाई नहीं देता। दूर से तख़्ती पर भी दो-चार लकीरें ही दिखती हैं।” चिन्मय की तख़्ती पढ़ने की कोशिश सफल नहीं हो सकी।

मेरी नज़रों के सामने वे कटोरे घूमने लगे- “भिखारी तो हमने ऐसे देखे हैं कि पहले तो उन पर नज़र पड़ना ही न चाहे और पड़ जाए तो फिर बग़ैर कुछ दिए हटना ही न चाहे।”

“इस तरह माँग कर कितने दिन पेट भरा जा सकता है। कौन इस तरह खड़े रह कर भीख के पैसों से गुज़ारा करना चाहेगा।” चिन्मय ने एक नज़र डाल कर हटा ली थी अब।

“हाँ भिखारियों को भी कुछ तो सोचना ही चाहिए। स्टेटस बनाना आना चाहिए। ऐसे भीख माँगे कि देने वाला बस रुक कर दे ही दे। ये लोग बत्ती बदलते ही कारों के पास आकर चक्कर लगाने लगते हैं। हरी बत्ती होते ही वापस जाकर खड़े हो जाते हैं।”

“जैसे मेट्रो में गा-गाकर सबका मनोरंजन करने वाले। वे बैठ कर गाते हैं या बजाते हैं। वहाँ से गुज़रते लोग गाने की धुन पर थोड़ा थिरकते, चंद सिक्के डाल कर ही जाते हैं।” चिन्मय की आँखों में मेट्रो प्लेटफॉर्म के आसपास बैठे वे म्यूज़िशियन तैरने लगे।

“वे मनोरंजन करके पैसे कमाते हैं। कम से कम भीख तो नहीं माँगते।”

चिन्मय मुझसे सहमत न था- “जिस तरह से लोग पैसे डाल कर जाते हैं वह तो भीख ही कही जाएगी।”

“अरे ये तो बेचारे वक़्त के मारे इंसान हैं चिनू। इंसान तो इंसान देश भी तो भीख पर गुज़ारा करते हैं। ऐसे देशों की पूरी एक शृंखला है जो अमेरिका की कृपा पर जी रहे हैं।” 

मेरा दर्शन हिलोरें मारने लगा तो चिन्मय को कुछ और ही याद आ गया- “तुम्हें याद है केतु, हमने भी बचपन में अमेरिका से आए गोल-गोल, बड़े-बड़े बिस्किट खाए थे। वापस अमेरिका में रहकर उनका क़र्ज़ा भी पूरा कर दिया, टैक्स भर-भरकर।”

“हाँ,” हम दोनों ने ठहाका लगाया। 

अब हम हाईवे से बाहर निकल रहे थे। एक बड़ा बोर्ड लगा था, सामने वाले पार्क में फ़्री पेनकेक और कॉफ़ी मिल रही थी। मैंने ख़ुश होकर कहा- “चलो मुफ़्त का माल उड़ाते हैं।”

चिन्मय को कोई एतराज़ नहीं था। घूमने तो निकले ही थे, कहीं भी जाएँ, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यह एक जुलाई की पूर्व तैयारियों में से एक था जब कैनेडा अपना जन्मदिवस मनाते हुए जनता का मुँह मीठा करवाता है। हम दोनों आधे घंटे तक धूप सहन करते पेनकेक की लंबी लाइन में खड़े रहे। सब दूर-दूर खड़े थे, मास्क पहने हुए। हमारा नंबर आने ही वाला था। हाथ में डिस्पोज़ेबल सफ़ेद प्लेट थी। पेनकेक वाला तवे से गरम-गरम पेनकेक उठाकर, मुस्कुराता हुआ हम दोनों की प्लेट में डाल रहा था। मेरे सामने उस तख़्ती वाले का चेहरा उभर आया। उसकी तख़्ती पर कुछ लिखा था और मेरी प्लेट निहायत सफ़ेद थी। 

“यह प्लेट और वह तख़्ती, अंतर सिर्फ़ फोर-ओ-वन की तरह है। अलग-अलग स्टेटस हैं।” 

चिन्मय ने मेरा इशारा तत्काल समझ लिया। वह भी अपनी प्लेट को कुछ वैसे ही देख रहा था। 

“यानी हम भी!” चिन्मय अवाक्‌ था।

“स्टेटस वाले हैं!”

“स्टेटस वाले भिखारी!”

भिखारी शब्द मैंने नहीं जोड़ा, चिन्मय ने जोड़ दिया। वह अपनी बात का ख़ुलासा कर रहा था- “स्टेटस मेंटेन करके रखना पड़ता है। फ़्री नाश्ता हो, या वह तख़्ती, एक ही बात है।” 

“स्टेटस!” हम दोनों हँस रहे थे। 

मेरे सामने प्लेट में रखा पेनकेक इन पलों की ज़रूरत था- “छोड़ो, अभी तो पेनकेक एंजाय करो। कॉफ़ी ठंडी हो रही है।” 

हम दोनों चुस्कियों के साथ ताज़ी हवा का आनंद ले रहे थे। आख़िरी निवाला अभी प्लेट में था कि देखा, कॉर्नर पर खड़ा भीख माँगता वह आदमी अभी-अभी आकर लाइन में लगा था। उसने तख़्ती उतार दी थी व उसके हाथ में अब वही प्लेट थी, कोरी सफ़ेद। 

मैं फिर से हाईवे फोर-ओ-वन की दुनिया में खोने लगा। हर मोड़ पर खड़े भिखारियों की तख़्तियों की क़तार में मेरे सामने रखी यह प्लेट भी जुड़ गयी थी, जिसमें पेनकेक के बचे हुए टुकड़े कुछ अक्षरों को आकार दे रहे थे। 

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