कालिमा
कथा साहित्य | कहानी डॉ. वन्दना मिश्र15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
(कथा-संग्रह “अहम सवाल” में संगृहीत)
“अलख निरंजन . . .
“अलख . . . निरंजन तुम्हारे परिवार पर काल की छाया मँडरा रही है माई जी! आठ-दस दिन के भीतर ही अपार धन . . . जन की क्षति के नक्षत्र हैं।
“तुम्हारे घर पर माँ बताओ। जे औसारे की कालिमा हटाओ . . . कहीं देर न हो जाए।” साधु को आता देख आटा . . . दाल लेकर आई . . . जगत बाई ने साधु के शब्द सुने तो जड़वत खड़ी रह गई जगत बाई!
मुँह के बोल ना फूट सके साधु पीछे हट गया, “नहीं! माई . . . नहीं! मैं यह आटा-दाल नहीं ले सकता। मैं भोजन करूँगा, तुम्हारे हाथ का लेकिन अभी नहीं। तुम्हारे घर की कालिमा हटाकर मंदिर में भोग लगाकर प्रसाद पाऊँगा . . . जय भैरव . . . देव . . .!”
साधु तो कह कर चला गया, किन्तु बूढ़ी जगत माई के मन में छोड़ गया ढेर सारे उलझते सवाल। उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें। अनेक लकीरें बनने बिगड़ने लगीं। मन अंतर्द्वंद्वों में फँस गया। ‘नहीं! नहीं! सब बकवास है!’ . . . फिर सोचती . . . ‘साधु संतों को किसी से क्या लेना-देना, जो उसने भाँपा तो सचेत कर दिया।’
दादाजी निरबिया को गये छह वर्ष हो गए . . .
छह बेटों और चार बेटियों का भरा-पूरा परिवार छोड़ गए थे निरबिया दाद जी।
दो बेटों और एक बेटी का विवाह भी इन्हीं छह सालों में किया था बूढ़ी जगत माई ने। बाक़ी, सब निपटा कर गए थे दाद जी।
लड़के समझदार और आज्ञाकारी हैं . . .! बहुएँ कुलीन और संस्कारित! यही तो जगत बाई की सबसे बड़ी पूँजी है।
यूँ . . . तो भरे घर में चार बरतन हों तो खनकते ही हैं, पर सजते सब एक आलमारी में ही हैं। आटा-चूल्हा भी एक ही चल रहा था। माई की बात आशीर्वाद समझ सब बच्चे प्रसाद-सा ग्रहण करते। छह वर्ष कैसे बीत गए पता ही नहीं चल सका किसी को? आठ पोता-पोती भी बढ़ गए परिवार में।
गाँव का समृद्ध और संपन्न परिवार होने के साथ-साथ गाँव का आदर्श भी था निरबिया परिवार।
बहनों की शादी ब्याह में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी! मजाल कि किसी चीज़ की कमी रह जाए और माँ को लगे कि दाद जी नहीं तो बेटी को फ़लाँ चीज़ की कमी रह गई। फिर सभी बेटे अपने बाज़ुओं में भी दम रखते थे।
छोटे बेटे की शादी में पाँचों बहुओं ने बढ़ती गहने लाद दिए थे। बूढ़ी माँ, ने भी अपनी लाड़ली छोटी बहू को दो अतकारे चूड़ा बनवाए थे। छहों बहुएँ स्वर्ण मूर्ति-सी लगती थीं। अच्छा खाता-पीता मस्त-मौला परिवार था। एक बिजली की कमी थी गाँव में, सो जनरेटर ले रखा था। रात भर घन-घनाते स्वर में दादाजी की अटारी आलोकित रहती थी। पिछले साल जब गाँव में बिजली आई सो ट्रॉली भरकर सब उठा लाया था बड़ा बेटा रमेश शहर से। टीवी, फ़्रिज, कूलर यहाँ तक कि ए.सी., वाशिंग मशीन और कम्प्यूटर भी। अब त़ो गाँव नाही और मुंबई में अंतर नहीं रह गया था घर वालों को।
सबके पास अपने मोबाइल फोन ब्लूटूथ, वाई फाई कनेक्ट करने डोंगल तक ले रखा था।
खेती किसानी के सभी अत्याधुनिक उपकरणों से लैस निरबिया परिवार सामाजिक आन-बान का हिस्सा तो थे ही, प्रसिद्ध राजनीतिक पार्टियों में भी अच्छा ख़ासा दख़ल रखते थे। इसीलिए दो-चार पद भी परिवार के बेटे बहुओं के पास सुरक्षित थे। ब्लॉक, जनपद, ज़िला परिषद से लेकर ग्राम पंचायत तक के सदस्यों से अलंकृत यह परिवार अपने रुतबे में चार चाँद लगा ही रहा था, परिवार के शाही ख़र्च भी पूरते जाते थे।
पद कोई भी हो सील ठप्पा बड़े भैया की ही जेब में रहता था। तभी तो रमेश की पत्नी के चुनाव जीतने पर गाँव वालों ने रमेश को फूल मालाओं से लाद दिया था। उनकी विजयी पत्नी नौकरानियों के साथ रोटी-पानी में लगी रही। हालाँकि यह नहीं की विचार नहीं आया, यह विजय जश्न उसके हिस्से का है, पर यह मौन स्वीकृति भारतीय समय समाज का संस्कारित अंग थी।
अभी कुछ एक दिन ही तो हुए थे कि साधु महाराज के वाक्य जगत बाई को खाए जाते से लगते थे। उसका चैन छिन गया ना जाने साधु बाबा को कौन सी छाया नज़र आई उसके आँगन में . . . भगवान भला करे . . . यह साधु महात्मा बड़े . . . अंतर्यामी होते हैं। हे भगवान! कुशल रखना . . . क्या करूँ . . .
‘शान्ति पाठ कराना पड़ेगा . . .’
‘अवश्य! . . . अवश्य! शान्ति पाठ होगा! शान्ति पाठ ही होगा! मेरे जीते जी। कोई छाया नहीं मँडराएगी मेरे परिवार पर . . .
‘पैसा तो हाथ का मेल है . . . कुछ ऊँचा नीचा हो गया तो . . . रमेश से बात करनी ही पड़ेगी,’ माँ मन ही मन बुदबुदा रही थी।
घड़ी का काँटा आठ बजा रहा था। माँ की आँखें द्वार से हटती नहीं रही थी। रमेश अब तक आया नहीं। माँ के कानों में साधु के शब्द फिर घूमने लगे थे।
“काल की छाया मँडरा . . . रही है माई . . . आठ दिन के भीतर अनिष्ट होने से बचा . . . माई शान्ति पाठ करा माई!”
जगत माई किसी अनहोनी की आशंका से फिर सिहर उठी। और भीतर बाहर हो रमेश के आने का इंतज़ार करती राम सुमरने लगी!
“हे ब्रह्मा विष्णु महेश सूर्य शशि मंगल। भाव बाधा हर दो . . . हे बुध! गुरु, भृगु, राहु, केतु, शनि सब दुख अनिष्ट शांत कर दो!”
दोहराने-तिहराने लगी। ध्यान टूटते ही उसे साधु महाराज खड़े दिखते . . . उनके शब्द . . . गूँजने लगते—माई जी! . . . शान्ति पाठ कराओ . . . छाया मँडरा रही है . . . अनिष्ट से बचाओ माई। नौ, दस, ग्यारह बज गये बूढ़ी जगत बाई बड़े बेटे के कमरे तक जा पहुँची . . . रमेश सो चुका था . . . धीरे से हिलाया, “र मे श रमेश बे टा उठ बेटा!”
रमेश चौंक उठा। माँ का कमरे में आना वह भी इस वक़्त बिल्कुल अप्रत्याशित था। उसके मन में चिंता की लकीरें तेज़ी से बनने बिगड़ने लगीं। चिंता के कई सवाल-जवाब यकायक उभर आए। वह फटी आँखों से माँ को देखे जा रहा था और माँ उसे।
माँ की आँखों से आँसू ढुलकने लगे।
रमेश माँ के आँसू देख किसी बड़ी घटना का अनुमान लगा आवेशित हो बोला, “क्या हुआ माँ . . . क्या बात है . . . आप रो रही है!”
“बेटा एक साधु महाराज आए हैं घर पर काल की छाया मँडरा आ रही है . . . शान्ति पाठ कराओ! आठ दिन के अंदर कोई अनिष्ट होने वाला है। रमेश बेटा बचाओ घर को!”
“अरे! आप भी कहाँ के साधु-वाधु की बातों में आ गई माँ! मैं तो डर ही गया था अपनी माँ को इतना घबराया देखकर। यह तो साले लुटेरे होते हैं। देखता हूँ कौन है कमबख़्त? कौन सी काल की छाया मँडरा रही है . . .
फिर भी आप कह रही हैं—काल की छाया मँडरा रही है, आपने ही तो सिखाया है: किसी के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। आज आपको क्या हुआ माँ!”
“नहीं! बेटा नहीं! मैं अब और खोना नहीं चाहती . . . दाद जी के वक़्त भी ऐसी-वैसी अनहोनी घट रही थी . . . शान्ति पाठ तो कराना ही होगा . . . हम ज़रूर कराएँगे . . . शान्ति पाठ . . . बेटा ज़रूर!”
“शान्ति पाठ! . . . व्यर्थ में माँ . . . हज़ारों का ख़र्च फ़ुज़ूलख़र्ची . . . वह भी व्यर्थ आडम्बरों में . . . जिसका कोई मतलब नहीं! माँ!”
लेकिन माँ का मन तो किसी अनहोनी की आशंका से भर उठा था। उसे तो हरदम साधु के वाक्य जीना दुश्वार किए थे। जब भी अकेली होती उसके सामने आँखों के सामने साधु . . . साधु दिखाई देता ‘अनहोनी से बचा माई काल की छाया मँडरा रही है . . . शान्ति पाठ करा माई!’
वह भरसक टालने का प्रयास करती किन्तु, साधु शब्द उसके कलेजे को चीर डालते थे और वह टूट जाती और टूट जाती उसकी दृढ़ता। मन पर हावी हो जाती उसकी कमज़ोर धर्मभीरुता . . . वह सिहर उठती . . . मात्र आठ दिन . . .
मन को पुनः अंतर्द्वंद्वों ने घेर लिया . . . निर्णयात्मक स्वर में कह दिया— “शान्ति पाठ होगा”!
माँ की ज़िद के आगे कुछ ना बोल सका रमेश . . . और साधु के पास बड़े मंदिर जा पहुँचा, “पाय लागूँ महाराज . . . मैं रमेश निरबिया . . . महाराज! क्या बात है . . . कैसी छाया . . .?”
साधु ने अपना मत पुष्ट करते हुए कहा, “बेटा! अच्छा है समय रहते चेत जाओ . . . यज्ञ आहुति कराओ। वक़्त की नज़ाकत समझो। शान्ति पाठ कराओ . . . किसी विद्वान पंडित से!”
विद्वान पंडित . . . गाँव में दीना पंडित जी ही एकमात्र पंडित है। उन्हें चाहे विद्वान समझो, चाहे सामान्य। सत्यनारायण की कथा हर अमावस-पूनम वही करते हैं। गाँव के शादी-ब्याह वही कराते हैं। बस काम चलता रहता है।
“क्यों न महाराज आप ही यह कार्य अपने शुभ कर-कमलों से कीजिए . . .”
“लेकिन, मैं तुम्हें लगातार समय नहीं दे पाऊँगा। आरती-पूजा-रचा दीना से करवा लेना . . . पाठ मैं करता रहूँगा . . . मेरा तो धर्म ही साधु है जिसका कोई ठिकाना नहीं होता मुझे आसपास के गाँव का भ्रमण करना है . . . गुरु का आदेश है जहाँ बुलावा आएगा चल देना होगा . . .”
“पंडित जी आठ दिन का शान्ति पाठ करा दीजिए . . . फिर यज्ञ चलता रहेगा . . . माँ हार्ट पेशेंट है . . .” रमेश ने भी रिरियाते हुए कहा . . . उसने दोनों हाथ जोड़ दिए . . . फिर ज़ोर देते हुए कहा था, “शान्ति पाठ ज़रूर करा दीजिए महाराज।”
तीर निशाने पर लगा था . . . साधु ने एहसान जताती मुद्रा में कहा, “सवा लाख जाप! महामृत्युंजय का पाठ हवन कराना होगा जो तुम्हारे घर पर आच्छादित काल की छाया से तुम्हारे परिवार का रक्षा कवच बनेगा . . . फिर तांत्रिक यज्ञ होगा!”
“ठीक है . . . महाराज पूजन सामग्री की लिस्ट बना दीजिए। ताकि, कल से ही यज्ञ शुरू किया जा सके महाराज . . .!”
“हवन सामग्री, फूल, फल, बेलपत्र, धूप, अगरबत्ती, कपूर, तेल, चंदन, सोपारी, हल्दी कलाबा, नारियल, कलश दीप के साथ साथ दो-दो मीटर लाल पीले वस्त्र बाक़ी श्रद्धा अनुसार संकल्प दान . . . आदि।
“सातों दिन पाठ चलेगा, आठवें दिन पूर्णाहुति होगी . . . घर के सभी सदस्यों को साथ बैठकर पूजन करना होगा। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए . . . पूर्ण श्रद्धा भाव से अलग-अलग दिन विधि के अनुसार ग्रह शान्ति के लिए यह अत्यंत आवश्यक है . . .। सब काम आगे पीछे होते रहेंगे। नौकरों के भरोसे छोड़ दो। वे सब देख लेंगे . . . परन्तु आठ दिन पूरे मनोयोग से . . .”
“जी महाराज!” कह कर रमेश पूजा-पाठ की तैयारी में जुट गया। रमेश के साथ ही घर के सभी सदस्य अपने-अपने ढंग से श्रद्धा भाव से तैयारी करने लगे।
आधी से ज़्यादा तैयारी रात में ही कर ली गई . . . फिर भी माँ को चैन न पड़ा तो चार बजे सुबह से ही बत्तियाँ जला दी गईं। बहुओं को हुंकार लगा दी। सब अपने-अपने कमरे छोड़कर औसारे में आ गईं। अब से आठ दिन बहुएँ ने लड़कों से अलग सोएँगी।
आँगन . . . दरवाज़ा पौर गोबर से लीपे गए। जगमगाती सफ़ेदी से ढिग चढ़ा दी गई।
बड़ी बहू ने झटपट नहा-धोकर उरेन डाल दिया। कलश तैयार किए गए। पूजन मंडप को आम्रपात, और गेंदा की लाल पीली फूल मालाओं, केले के पत्तों से आच्छादित किया गया। आँगन के बीचों-बीच मंडप तले बेदी का निर्माण किया गया। इसके चारों ओर बैठकर पूजन होगा। आसन सजे छह लड़कों की छह आसन, पंडित जी और माँ का एकदम स्वच्छ कंबल का आसन।
मेहमानों को चकाचक चादरी, दरी, फ़र्श बिछाए गए और दूसरी तरफ़ कुछ कुर्सियाँ रखवा दी गईं।
बेटे-बहुओं को गाँठ बाँधने गठजोड़ा, तौलिया, तेल, अगर कपूर सजाया गया। बहुएँ भी सोलह सिंगार कर सज गईं। कुल मिलाकर पूरा उत्सव माहौल निरबिया परिवार में, पूरे वुजूद के साथ मौजूद था।
प्रोग्राम नियत था प्रत्येक दिन के अनुसार . . . सफ़ेद, हरे, लाल, पीले वस्त्र पहनकर पूजन, जिनके पास उचित रंग वस्त्र नहीं थे तो शहर भेजकर मँगा लिए गए। सब फटाफट तैयार हो रहे थे।
ठीक आठ बजे महाराज पधारे और सीधे आसन पर आकर बैठ गए और मंत्रोचार करने लगे:
“ओम अपवित्रा पवित्रोवा सर्ववस्थां गतो पि वा।
यास्मरेत्पुणरीकाक्षं, से वाह्याभ्यन्तर शुचि
ओम पुण्डरीकाक्षं पुनीतु॥”
बीच-बीच में दीना पंडित को निर्देशित करते महाराज पूजन संपन्न कराने लगे:
“मंगलम् भगवान विष्णु, मंगलम् गरुड़ ध्वजा।
मंगलम् पुंडरीकाक्षौ मंगलम् तनो हरि॥”
धीरे-धीरे घर के सभी सदस्य आकर बैठ गए। शहर से माइक मँगा लिया गया। अब तो पूरे गाँव में मंत्रों की अनुगूँज थी। भक्ति से सराबोर ग्रामीण भी पूजन स्थल पर खींचे चले आ रहे थे। सुगंधित द्रव्य, अगर, कपूर से अटा-अटारी, आँगन सब महक उठे।
दोपहर को विश्राम दिया गया। सब ने फलाहार किया। यज्ञ हवन के पश्चात एक बार रात्रि में ही भोजन लेना है चाहे लें अन्यथा फलाहार ही करें। सुबह फिर यज्ञ विधि पर उपस्थित होना है।
पूर्व नियोजित आज तांत्रिक पूजन है। आपके धन ज़ेवरात माया का पूजन होगा। बहुएँ लाल साड़ी में और पुरुष पीले वस्त्रों में उपस्थित हुए।
मंडप तले लाल वस्त्र बिछाया गया। बड़ी-सी परात रखी। घर की सारी माया परात में इठलाने लगी। यहाँ तक की बहुओं ने अपने मंगलसूत्र, अँगूठी, कंगन, सब प्रीतिकर ढंग से पूरी श्रद्धा मान-सम्मान से परात पूजन में चढ़ा दिए।
घृत, दही, दूध से स्नान कराकर शुद्ध जल फिर गंगाजल से धन का स्नान कराया अब रमेश के हाथों उसे लाल वस्त्र में बँधवा कर पूजा के बीचों-बीच रखवा दिया। इसका पूजन पूरे समय चलेगा। साधु महाराज मंत्रोचार करते हुए अचानक तमतमा उठे . . .
“अनिष्ट . . . अनिष्ट . . . घोर अनिष्ट!”
घबराए से सब साधु की ओर देखने लगे . . . “माया अपूर्ण है ऐसा नक्षत्र बता रहे हैं . . .”
सब एक दूसरे को देखने लगे। किसी की कोई चीज़ छूटी तो नहीं। बहुएँ अपने नाक-कान टटोलने लगी। साधु ने बीच में ही टोक दिया . . .!
“नहीं मायके की लगती हैं नाक-कान की चीज़ें यह सब पूजन में नहीं लगती . . .”
पीछे से आवाज़ आई, “छोटी बहू मायके में है . . .” माई कह उठी . . . “हाँ महाराज हाँ यही तो बात है . . .”
“तुम लोग क्या उस पर अनिष्ट उतारना चाहते हो . . . क्या ग़ज़ब हो गया, अरे उसे बुलाओ।”
रमेश ने आनन-फ़ानन में नौकर से संदेशा भिजवा . . . दिया। झांसी! छोटी बहू अपने भाई के साथ आ जाए . . . अति शीघ्र!
रात्रि दस बजे तक छोटी बहू भी आ गई। दूसरे दिन उसे भी पूजा में बैठना है। उसके सिर पर ही तो . . . बलाय घूम रही है। सारा ज़ेवर उतारकर जेठ-जी को दे दिया। पूजन स्थल पर बैठ गयी लंबा-सा घूँघट काढ़ कर अगाध श्रद्धा में लीन . . . कृतज्ञ सी।
आज फिर से विधान शुरू एक दिन का विघ्न पड़ा, तो दो घंटे अतिरिक्त पूजन होगा रोज़ाना। शनिवार को पूर्णाहुति फिर रिश्तेदारों को बुलाना चाहते हो तो ठीक है अन्यथा, ब्राह्मण भोज प्रसाद वितरण आदि। साधु महाराज जल्दी में थे इसलिए दीना को विधि-विधान बताकर रमेश को समझा कर चले गए।
“एक दिन उपरांत पूजा स्थल उठा लिया जाए। किन्तु, पोटली पवित्र आसन पर अथवा तिजोरी या किसी देव आसन पर सुरक्षित रख पवित्र होकर दोनों वक़्त पूजा आरती करना। ऊपर से बिना स्पर्श के हम पास ही बीना तक जा रहे हैं। वहाँ भी एक विधान है। भक्त इंतज़ार कर रहा होगा . . .!
“आठवें दिन इसे गंगाजल से पवित्र कर पूजन सामग्री नदी में विसर्जित करना है माया सुरक्षित यथा स्थान कर देना अच्छा मैं कल आकर ही देख लूँगा! तुम! पूजा आरती करते रहना।
“बीच में ज़रूरत लगे तो मोबाइल पर संपर्क करना . . . और मोबाइल ना लगे तो भक्तों के नंबर पर बात कर लेना। वैसे मैं समय पर पहुँच जाऊँगा।”
बहुत दिन से घर पर कोई जश्न नहीं हुआ था। थाल-भोजन भी नहीं हुए थे, इसलिए घर में बड़ा उत्साह था। इसी बहाने सही संबंधों की ताज़गी हो जाती है। घर भर की सलाह से ख़ूब जश्न हुआ। नगर नेवता किया गया। ख़ूब आवभगत हुई। नाते रिश्तेदार जुटे। सब ने मिलकर जी छककर भक्ति का आनंद लिया। पूर्णाहुति की . . . प्रसाद पाया विभूति ग्रहण की माई के पैर छूते सब बढ़ते चले गए।
माई की दुश्चिंता साफ़ हुई। सच्ची श्रद्धा भाव से लड़कों की ससुराल से सौग़ातें आईं तिलक किए और अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार बेटियों-दामादों वस्त्र आदि दिए।
सुबह तक सब विदा हो गए। 8 दिन के श्रम की थकान से सबके चेहरे कुम्हला गए थे। किन्तु माया आरती का ध्यान आते ही सब सुबह श्याम खड़े हो जाते श्रद्धा से। बड़ों का चरण स्पर्श करते सब दैनिक कार्यों में लीन हो जाते हैं।
आठ दिन हो गए . . . साधु महाराज का कोई अता-पता नहीं। “माया का अंतिम पूजन कर ज़ेवर बहुओं को पहना दें,” रमेश ने कहा। “अच्छी नहीं लगतीं ऐसी।”
माँ ने बड़े प्यार से छोटी को निहारती हुए कहा, “काल की छाया को तो हमने कोसों दूर फेंक दिया . . . रे! किन्तु साधु जी नहीं आया रे अब तक। कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं।”
छोटे का माथा ठनका! रमेश बोला, “हमें उनका संकल्प भी तो देना है उनका धोती-कुर्ता और ₹5001”
छोटा बोले जा रहा था कि हम मूर्ख तो नहीं बन गए . . . भैया।
“नहीं ऐसा नहीं बोलते उसने . . . तो हमारी घर की काली छाया को भगाया है रे।”
बड़ी बहू बोली उठी, “महात्मा जी! पहुँचे हुए संत हैं ज़रूर कुछ जानते थे हमारी छोटी बहू उन्हें कैसे मालूम! अरे! अच्छा हुआ समय पर आ गए। नहीं तो कल की गति कौन ने जानी है . . . रे!”
दो . . . तीन . . . चार दिन बीत गए। रमेश सुबह शाम अगरबत्ती लगाता पोटली को। किन्तु अब तो चिंता की लकीरें बढ़ने लगी . . . बिना पूजन किए . . . पोटरी को कैसे खोलें प्रश्न भयावह सा लगने लगा।
“छोटे! . . . महाराज को फोन लगाना रे,” अति चिंता ग्रस्त रमेश ने कहा।
“भैया! मैं तो कई बार कोशिश कर चुका हूँ। मुझे तो कल से बड़ा अजीब है सा लग रहा है।”
साधु जी को बीना जाकर ढूँढ़ा गया मालूम पड़ा किसी भगत के यहाँ आए थे . . . किन्तु तुरंत चले गए। कहाँ गए किसी को कुछ भी पता नहीं . . . स्थिति जितनी बिगड़ती जा रही थी . . . उतनी साफ़ भी होती जा रही थी। एक दुश्चिंता साधु के प्रति भी थी कि कहीं काल की छाया उन्हें ही तो नहीं निगल गई! मोबाइल बिल्कुल गुमसुम था उनका! निरंतर सन्नाटा सा पसर रहा था . . . अब तो सब की साँसें हलक़ में सी अटक गई थीं।
अचानक फोन की घंटी बज उठी टन टना। टन। ट्रिन। ट्रिन। ट्रिन।
“हैलो! नाही से हाँ! हाँ कौन? रमेश के यहाँ से हाँ कहिए।”
“मैं भोपाल से बोल रहा हूँ गंगाधर - सुना है आपके यहाँ कोई साधु महाराज आए हैं।”
“हाँ कहिए हैलो . . .”
“सुनिए उन्हें रोकिए . . . कैसे भी . . . वह कोई साधु वाधु नहीं! पक्का लुटेरा है! ठग है चोर है . . .! हमारा सब लूट कर चला गया।
“मैं पता लगाता घूम रहा हूँ। उसे पता ना चल सके बस आप किसी तरह उसे रोकिए मैं पुलिस लेकर पहुँचता हूँ,” और खट से फोन रख दिया . . .
रमेश चक्कर खाकर गिर गया . . .! छोटे ने धड़कते दिल से पोटरी उठाई।
काँपते हाथों से धीरे-धीरे खोला! पैरों तले ज़मीन खिसक गई . . .। ज़ोर से दहाड़ा।
“माँ . . .! माँ . . . हम लुट गए . . . बर्बाद हो गए . . .!” पोटली देखा तो कंकर पत्थर थे। सोने गहने के नाम पर कुछ नहीं बचा था। पचास लाख की चपत लग गई . . . घर-भर को मानो! साँप सूँघ गया!
अभी तीन घंटे हुए . . . कि गंगाधर के साथ पुलिस आ चुकी थी! तब तक नक़ली साधु इन सब के अज्ञान की कालिमा के अंधकार में विलुप्त हो गया . . .!
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