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कम्बख़्त एक फोन . . .

रोज़ की भाँति उस दिन की सुबह भी उगते सूरज के साथ ढेर सारे कामों की फ़ेहरिस्त ले आई थी। कामों को निपटाते-निपटाते निधि की नज़र घड़ी के काँटे में उलझ जाती थी और हाथ दोगुना गति से काम में जुट जाते थे। आजकल की स्त्रियाँ बड़ी अजीब उलझन में फँस गई हैं। नौकरी-वौकरी कर कमा रही हैं लेकिन घर के कामों से मुक्त नहीं हो पा रही हैं।‘नहीं हो पा रही है‘ क्या होना नहीं चाह रही हैं। एक अदद सर्टिफ़िकेट कि देखो, घर और नौकरी दोनों कितनी अच्छी तरह सँभाल रही हैं। हैट्स टू हर . . . सुपरवुमन सिंड्रोम! निधि सोच रही थी, ’मैं भी ग्रसित हूँ क्या सुपरवुमन सिंड्रोम से? और नहीं तो क्या? तभी न दोनों हाथ घर के काम निपटा रहे हैं और दिमाग़ दफ़्तर की फ़ायलों में उलझा हुआ है‘ निधि का आत्मसंवाद मोबाइल की घंटी के साथ टूटा। हाय, सुबह-सुबह काम की इस भागम-भाग में मोबाइल की घंटी से ज़्यादा ग़ुस्सा कोई नहीं दिला सकता। ‘छोड़ो फोन को . . . बजने दो‘ मन ने सलाह दी। बुद्धि कह उठी, ’ग़लत बात! हो सकता कोइ ज़रूरी फोन हो। ना ना, इस समय फोन नहीं उठाया जा सकता। कितने काम पड़े हैं। पतिदेव को तो दफ़्तर रवाना कर दिया पर बच्चों को स्कूल भेजना है, उनके टिफ़िन, अपना भी तो लंच बॉक्स पर पहले यह साफ़-सफ़ाई, जूठे बर्तनों का अंबार . . . न जाने कामवाली बाई कब आयेगी और आये ही न तो? इस अंबार से भी दो हाथ करने पड़ेंगे . . .’

ट्रिंग ट्रिंग . . . फोन लगातार बज रहा था . . . अनवरत . . . बिना रुके। कोई कितना अनदेखा-अनसुना करे। निधि ने उकताकर मोबाइल स्क्रीन पर नज़र डाली। ‘हाय, यह तो पुणे से फोन है। एस.टी.डी.कोड शून्य दो शून्य। मोबाइल के इस ज़माने में लैंडलाइन ज़िंदा है मतलब . . .’

निधि पल भर में दस साल पीछे चली गई जब पुणे में रहती थी। माना कि कोई पक्की नौकरी नहीं थी। संघर्ष के दिन थे पर वाह, पुणे के दिन भी क्या दिन थे। आदि एक साल का था . . . तुतलाकर बोलता . . . अभी-अभी तो चलना सीख रहा था और अल्पा तो जन्मी ही नहीं थी। अस्थाई नौकरी . . . ज़्यादा काम . . . ज़्यादा समर्पण . . . वेतन कम लेकिन ख़ुशी बहुत। आदि को सँभालना कितना मुश्किल था। मिसेज़ पाटील, मिसेज़ गाँधी, मिसेज़ दीवान, मिसेज़ डेविड कितने सारे पड़ोसी थे सोसाइटी में . . . सब आदि के अभिभावक बन गए थे। आदि कभी इस घर में तो कभी उस घर में पाया जाता। यहाँ इंदौर में सब कुछ है पर वो मज़ा जाता रहा। निधि का मन पुणे में खो गया। फोन की घंटी लगातार बज रही थी। ‘ओह, हो सकता है मिसेज़ पाटील बोल रही हों या मिसेज़ गाँधी या मिसेज़ पारीख . . . पारीख ने कहा था कि उनकी प्रियंका की शादी में वे निधि को ज़रूर बुलायेंगी। हो सकता है मिसेज़ गाँधी की चित्रा की ही शादी तय हुई हो . . . यदि बुलावा आया तो चाहे जो हो, वह पुणे जायेगी ज़रूर।‘

’ओ हलो, पहले फोन तो उठा लो, लगी ख़्वाब बुनने। और सुनो, जिस किसी का भी हो, सबका हालचाल पूछ लेना।’ दस साल पुराने परिचित, पर ऐसा लग रहा है मानों कल ही बिछड़े हों। संबंधों की गरमाहट यूँ सालों साल कैसे बनी रहती है? लगा था, बात पुरानी हो गई लेकिन मोबाइल की एक घंटी ने कितनी धुँधलाती यादों को ऐसे ताज़ा कर दिया मानों कल की बात हो। निधि ने लपककर फोन उठा लिया। वह सोच रही थी, जो भी दूसरी ओर से बोल रहा हो उसे पुणे और पुणेवालों का हालचाल किस अंदाज़ में पूछेगी? लेकिन वह कुछ पूछे इससे पहले ही, उसके प्रथम ‘हलो‘ के साथ दूसरे सिरे से संवाद शुरू भी हो गया।

“पहचाना? डॉ.सक्सेना बोल रहा हूँ। आपके पड़ोसी, डॉक्टर, डॉक्टर सक्सेना . . . सुनीता का पति . . . सुनील-अनील का पापा . . . मैं सक्सेना, डॉक्टर सक्सेना . . . याद आया?”

निधि की आँखों के सामने एक हाथ, एक पैर से अपाहिज डॉक्टर सक्सेना तैर गए। अक़्सर सोसाइटी वालों को उनसे बड़ी कोफ़्त होती थी क्योंकि चार सीढ़ियाँ चढ़ने में वे पूरा एक घंटा लगाते थे और राह रोककर सुस्ताते थे सो अलग। दायाँ हाथ और दायाँ पैर बुरी तरह से लाचार। निधि को सुबह-सुबह उनके ‘ओम्म्म्म‘ की ज़ोरदार गूँज ने कई बार ग़ुस्सा दिलाया था। लेकिन किरायेदार मात्र होने की अपनी स्थिति को वह भूल नहीं सकती थी अतः डॉक्टर साहब को ‘गों गों‘-सी ‘ओम‘ की ध्वनि वह सह जाती थी। वैसे डॉक्टर साहब और उनकी पत्नी बुरे लोग नहीं थे। पर काम से काम रखनेवाली निधि ही उनसे ज़्यादा घुलमिल न सकी थी। वे इतना निकट रहते थे कि दो फ़्लैटों के बीच एक दीवार मात्र थी सो उस घर का सारा झगड़ानुमा वार्तालाप सुनना निधि की मजबूरी थी। अच्छे पड़ोसी की भाँति वह इतनी जानकारी रखती थी कि वे ज़िले के मशहूर डॉक्टर हुआ करते थे लेकिन एक भयानक एक्सीडेंट ने उनका जीवन नर्क बना दिया। महीनों मौत से जूझने के बाद सदा के लिए अपाहिज होकर वे घर लौटे थे। साल-छह महीने बिस्तर पर सड़ने के बाद वे उठने के क़ाबिल हुए थे। फिर योग, प्राणायाम, फिजिओथेरेपी और जाने क्या-क्या आज़माकर पैर घसीट-घसीटकर ही सही, चलने-फिरने लगे थे। हाथ लेकिन सदा ही छाती से लगा रहता। वह न कभी सीधा हुआ न ही उसमें प्राण आए। उस घर का ख़र्च कैसे चलता, निधि कभी समझ न पाई। शायद भाभीजी पिको-फ़ाल लगाकर कुछ रुपये जुटा लेतीं। कभी किसी को बड़ियाँ, अचार, पापड़ बना देतीं तो कभी उनके मायके से मामूली मदद मिल जाती। निधि ने ख़ुद कई बार अपनी साड़ियों में उनसे फ़ाल लगवाये। उनसे गर्मियों में अचार-बड़ियाँ बनवाई थीं। आज वही डॉक्टर साहब सालों बाद उससे बात कर रहे थे।

“हलो . . . हलो,” डॉक्टर साहब बिना थके पुकार रहे थे। निधि मानों अतीत से वर्तमान में आई।

“हलो . . . मैं डॉक्टर सक्सेना . . . सक्सेना . . . सुनीता का पति . . . सुनील-अनील का पापा . . . सक्सेना . . . पहचाना? याद आया?” वे बार-बार दोहराने लगे।

“क्या बात कर रहे हैं डॉक्टर साहब? आपको कोई भूल सकता है?” निधि ने गद्‌गद् होकर कहा।

“कहाँ जी, मैं भी कोई याद रखने लायक़ इंसान हूँ?”

”आप याद रखने की बात करते हैं? आप तो हम लोगों के लिए एक मिसाल हैं। जीवन में जब-जब हताशा महसूस की है, आपको याद किया है आपकी जिजीविषा को याद किया है, सैल्यूट किया है,” निधि सच्ची आत्मीयता से बोल उठी।

“छोड़ो, वह तो बीते दिनों की बात थी। अब वह हौसला कहाँ? कम्बख़्त एक एक्सीडेंट क्या हुआ, मेरी तो ज़िंदगी . . . “

निधि ने बात बदलते हुए पूछा, “डॉक्टर साहब, भाभी जी कैसी हैं? और बच्चे? हम सबको आपकी बड़ी याद आती है।” 

कहते हुए निधि को अफ़सोस हुआ कि उसे मिसेज़ पाटील, मिसेज़ पारीख, मिसेज़ गाँधी, मिसेज़ दिवेकर सब याद आए पर डॉक्टर सक्सेना को उसके मन ने स्मृति के एक कोने में धकेल दिया था। पर निधि बोले जा रही थी, “बड़े ख़ूबसूरत दिन थे डॉक्टर साहब वे। सोसाइटी में हम लोगों को कभी किसी ने यह एहसास नहीं होने दिया कि हम किरायेदार हैं। ख़ास कर आपका परिवार . . . भाभी जी और . . .”

निधि की बात काटकर डॉक्टर साहब कहने लगे, “आप अभी उसी ज़माने में अटकी हैं? किसकी बीवी? किसके बेटे? बेटों को– उन बेटों को जिनको मैंने पैदा किया, यह जानने की फ़ुरसत भी है क्या कि उनका बाप ज़िंदा है या मर गया? उनको अपना लैपटॉप, टैब, मोबाइल मुझसे ज़्यादा प्यारा है। उनका बाप तो निकम्मा है, नाकारा है, एक बोझ है। बस्स। और उनकी माँ तो हर मायने में उनकी माँ है माँ। उसे लगता है, मैं घर की कोई फ़ालतू चीज़ हूँ। हरदम चिल्लाता हूँ। मुझे बोलती है कि सारी ताक़त ज़बान में सिमट आई है इसलिए हरदम चीखता-चिल्लाता हूँ। जैसे वह शांति की मूरत हो। उसे लगता है, मैं मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ता हूँ। महारानी इतनी महान है कि कुछ बोलेगी नहीं पर जताये बिना मानेगी नहीं।”

“नहीं डॉक्टर साहब, भाभी जी से मैंने कभी कोई शिकायत नहीं सुनी। वे कभी कुछ नहीं बोलीं . . .”

“बोलेगी क्यों? क्यों बोलेगी कुछ? बोलेगी तो दुनिया उसे शांत, सहनशील कैसे कहेगी? जानती हो, पहले पिको फ़ाल से ज़्यादा कमाई नहीं होती थी। अब ख़ूब कमाने लगी है। जीवन बीमा और न जाने क्या-क्या कराती है। हाथ में पैसा खेल रहा है। पहले तो भीगी बिल्ली थी पर अब ये पैसा . . . अरे पैसा तो अनपढ़, गूँगे को भी सौ-सौ ज़ुबानें सिखा देता है। आपको पता है, उसके पास दो-दो मोबाइल है और मुझ से बातचीत का हर ज़रिया छीन लेती है। कहती है कि कहीं पर भी फोन लगाकर बकवास करता रहता है। पता है, महीनों तक लैंडलाइन का बिल नहीं भरती। कहती है, बिल अफ़ोर्ड नहीं कर सकती। जब मैं कमाता था तब तुम्हारा हर तरह का बिल अफ़ोर्ड किया कि नहीं मैंने? साले सब मतलबी। सब किया-धरा भूल गए। कम्बख़्त एक एक्सीडेंट क्या हुआ, मैं तो बेकार हो गया। सिर्फ़ ज़ुबान चलती है, हाथ पैर तो गए। मैं निकम्मा ...”

निधि समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे? सामने पड़ा सारा काम, सामने पड़ा पूरा दिन उसके मन को दहशत से भर रहा था। अब दो मिनट भी बात की तो सारे दिन का शेड्यूल बिगड़ जायेगा निधि, उसका मन उसे बरज रहा था। निधि की ख़ामोशी का डॉक्टर साहब ने क्या अर्थ लगाया, क्या पता? यकायक पूछ बैठे, “मैं आपका टाइम तो बरबाद नहीं कर रहा हूँ ना?” निधि को लगा कि बड़ा उपकार जो डॉक्टर साहब को यह समझ में तो आया लेकिन इससे पहले कि वह कुछ कहती, वे फिर शुरू हो गए, “आपको पता है, किसी ज़माने में मैं भी बहुत बिज़ी था। जरा फ़ुरसत नहीं हुआ करती थी मेरे पास। एक के बाद दूसरा ऑपरेशन, फिर तीसरा, चौथा, पाँचवाँ . . . पाँच मिनट की फ़ुरसत के लिए तरसता था। न खाने का होश न सोने का समय . . . बस्स, भागता था और अब यह हाल है कि किसी के सहारे के बिना न एक सीढ़ी चढ़ सकता हूँ न ही उतर सकता हूँ। एक दिन एक बच्चे का सहारा लेकर छत पर गया पर लौटना चाहा तो कोई नहीं। दिन भर तपती धूप में चिल्लाता रहा। कम्बख़्त कोई नहीं आया। सबने सोचा होगा, इसकी तो आदत ही है बड़बड़ाने की। आपको पता है, किसी समय मैं बड़बड़ाते-चिल्लाते मरीज़ों को चुप कराता था . . . कम्बख़्त एक एक्सीडेंट क्या हुआ . . . आपको पता है . . . मैंने बहुत कमाया . . . दुआएँ भी . . . पैसा भी। पर जितना कमाया, यह कम्बख़्त एक्सीडेंट सब निगल गया। अब मेरे पास कुछ नहीं . . . कुछ भी नहीं। पैसा नहीं, लोग नहीं, वो हुनर नहीं और हुनर की वज़ह से पायी दुआएँ भी नहीं। सारी लाइफ़ वेस्ट . . . यू नो आई एम अ लूज़र . . . अ बिग  लूज़र . . . पर आप जानती हैं, कभी किसी ज़माने में मैं एक ग्रेट सर्जन कहलाता था। मेरे लगाये स्टीचेज़ क्या कमाल के हुआ करते थे। जानती हैं आप, स्टीचेज़ लगाना एक आर्ट है– एक कला। यह सिर्फ़ डॉक्टरी नॉलेज से नहीं कमाई जा सकती। लोग कहते थे, मेरे जैसा परफ़ेक्ट डॉक्टर पूरे इलाक़े में नहीं। नब्ज़ देखकर पल में समझ जाता था कि बीमारी क्या है। सिर्फ़ किताबों से यह ज्ञान नहीं मिलता। जिस ज़माने में साइकिल-स्कूटर होना बड़ी बात मानी जाती, उस ज़माने में मैं एम्बेसीडर गाड़ी से घूमता। कम्बख़्त एक एक्सीडेंट क्या हुआ, सब तहस-नहस हो गया।”

डॉक्टर साहब का यह निरा एकालाप सुनकर निधि की तो बोलती बंद हुई। उसे लगने लगा कि यह कॉल उसे नहीं की गई है। वह तो मात्र एक निमित्त है। वे शायद अपने-आप से बात कर रहे थे। दो वाक्यों के बीच साँस लेने भर को जब वे रुके तो संवाद समापन की औपचारिकता निभाते हुए निधि कहने लगी, “डॉक्टर साहब, कभी आप सपरिवार इंदौर आइए। बड़ी अच्छी जगह है। बल्कि पूरा मध्य प्रदेश ही देखने लायक़ है, आपके महाराष्ट्र की ही तरह। मुझे और मेरे परिवार को बहुत अच्छा लगेगा यदि आप लोग आयेंगे।”

वे तुरंत कह उठे, “अजी, मैं तो किसी भी समय आने के लिए तैयार हूँ पर मुझे लायेगा कौन? आपको पता है, मुझे घूमने का बड़ा शौक़ है। अपने पेशंट को कन्याकुमारी के तीन रंगी समुंदर की जानकारी ऐसे देता कि वे भूल जाते कि उन्हें इंजेक्शन लगाया जा रहा है। वाह! कन्याकुमारी का सनराइज़ . . . वह गीली-गीली  रेत . . .” निधि ने किसी तरह उनकी बात काटते हुए कहा, “वाक़ई, कश्मीर टू कन्याकुमारी– भारत बेहद ख़ूबसूरत देश है।” निधि की बात से केवल ‘कश्मीर‘ शब्द उठाते हुए वे कहने लगे, “आपको पता है, दिसंबर में डल लेक पूरी तरह जम जाती है। प्लेन आइसी लैंड– आई.सी.यू. में भी वैसी ही सर्द ख़ामोशी होती है . . . अस्पताल कश्मीर से कम ख़ूबसूरत नहीं होता मैडम जी . . . मैं ही यह ठोक बजाकर बता सकता हूँ क्योंकि मैंने दुनिया देखी है और अस्पताल भी। मैं तो ख़ूब घूमता पर कम्बख़्त एक एक्सीडेंट . . .” अब निधि ने चुप रहना पसंद किया। उसकी चुप्पी शायद वे भाँप गए और बोले, “मैंने शायद आपका बहुत वक़्त ले लिया। अच्छा, अब मैं फोन रखता हूँ। कभी पुणे आना हो तो मिलना ज़रूर। बिना मिले जायेंगी तो दुख होगा मतलब जब कभी पता चलेगा कि आप आई थीं पर मिली नहीं तो दुख होगा।” निधि ने सोचा, थैंक गॉड। आख़िर यह संवाद समाप्त होने जा रहा है लेकिन कहाँ? उस तरफ़ से संवाद जारी रहा।

“आपको पता है, आज आप से मिलकर जाने की बात कर रहा हूँ। पर किसी ज़माने में मुझ से मिलने के लिए एक-एक महीने का वेटिंग हुआ करता था। लोग अपना नंबर आने का इंतज़ार किया करते थे। जिसे मेरा अपॉइंटमेंट मिल जाता, वह ख़ुद को भाग्यशाली समझता था। कम्बख़्त एक एक्सीडेंट क्या हो गया, मैं दूसरों पर निर्भर हो गया। दूसरों की दया का मोहताज़ हो गया। आपको नहीं मालूम . . . आपको कैसे मालूम होगा भला कि . . . कि दूसरों की दया पर जीना कितना बुरा हेाता है . . . कितना बुरा होता है किसी की मेहरबानी पर अपनी ज़िंदगी . . . कम्बख़्त एक एक्सीडेंट ने मुझे मोहताज़ बना दिया . . . मैं, दि ग्रेट डॉक्टर-दूसरों को ज़िंदगी देने वाला . . . उसकी अपनी ज़िंदगी बीवी, बच्चों और ऐसे ही तमाम लोगों की दया पर कट रही है। मैं . . . डॉक्टर सक्सेना दूसरों की भीख और सीख पर जी रहा हूँ। कम्बख़्त जो आता है, जीवन से समझौता करने की सीख देता है। जो है, जैसा है उसी में चुपचाप ख़ुशहाल जीने का राज़ समझाने लगता है। सालों का क्या जाता है, सिर्फ़ ज़बान भर हिलानी है पर यहाँ मेरी तो सिर्फ़ ज़बान ही हिलती है . . . मुझे उसी को सीकर जीने की सलाह दी जाती है। यूँ सीख पाकर जीना कितना मुश्किल है। मैं . . . डॉक्टर सक्सेना . . . लेकिन . . . कम्बख़्त एक एक्सीडेंट . . . आपको पता है, किसी ज़माने में . . .” और फोन कट गया। निधि वाक़ई नहीं समझ पा रही थी कि फोन डॉ. सक्सेना की तरफ से कटा या उसकी तरफ़ से? निधि नहीं समझ पा रही थी कि क्या था उस फोन में जो वह इतनी बेचैन-बोझिल हो गई। क्या था? अपाहिज होने की त्रासदी? मनहूस वर्तमान की कड़कती धूप में गुज़रे ज़माने की छाँव पाने की छटपटाहट? दूसरों पर निर्भर होने का, परावलंबी होने का दर्द? उपेक्षा का दुख? अकेलापन? अजनबीपन? या सिर्फ़ और सिर्फ़ कड़वाहट? निधि का मन-मस्तिष्क सुन्न हो गया। पत्थर बनी निधि एक ही बात बुदबुदा उठी . . . कम्बख़्त एक फोन . . . 
 

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पाण्डेय सरिता 2021/10/20 09:47 PM

गहन संवेदनशील अभिव्यक्ति

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