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कुछ यूँ हुआ उस रात

 

उस रात तिलोत्तमा के मोबाइल की बजती घंटी ने गहराते हुए सन्नाटे के साथ-साथ, उसके मन की शान्ति को भी भंग कर दिया। कुछ देर पहले ही उसकी आँख लगी थी। पल भर को तो उसे समझ ही नहीं आया कि मोबाइल की घंटी सच में बज रही है या वह कोई सपना देख रही है। उसने उनींदी आँखों से देखा . . . रात का एक बज चुका था। 

तिलोत्तमा ने अनमने ढंग से बेड-साइड पर रखे हुए अपने मोबाइल को उठाकर हैलो कहने का प्रयास किया ही था कि उसे एक लड़की की आवाज़ सुनाई दी। फोन करने वाली लड़की शायद कुछ जल्दी में थी। तभी उसने बिना प्रतीक्षा किये बोलना शुरू कर दिया। 

“मम्मा! मम्मा! आप प्लीज़, मुझ से बात कीजिये। कुछ हो गया है मुझे। मेरे पेट का निचला हिस्सा फोड़े की तरह दुःख रहा है। अभी कुछ सफ़ेद-सफ़ेद गाढ़ा-सा भी निकला है। आप सुन रही हो न मम्मा . . . आपकी बेटी को बहुत घबराहट हो रही है। नींद भी नहीं आ रही। मेरे पेट में होने वाला तेज़ दर्द धीरे-धीरे सब जगह फैलता जा रहा है . . . मैं ठीक से साँस भी नहीं ले पा रही हूँ। कुछ घुटन-सी महसूस हो रही है।” 

तिलोत्तमा को उसकी गहराती हुई आवाज़ सुनकर ख़ुद के भीतर एक अजीब-सा हौल महसूस हुआ। उसे लगा कहीं उसके अपने ही पेट में तो दर्द नहीं हो रहा। उसके दाएँ हाथ में मोबाइल था। अनजाने में ही बायाँ हाथ भी रजाई से शरीर को कवर करने के चक्कर में ख़ुद-ब-ख़ुद बाहर आ गया था। भरी सर्दी में उसके दोनों हाथ काफ़ी ठंडे हो गए। जैसे ही उसके बाएँ हाथ ने पेट पर स्पर्श किया, एक झुरझुरी-सी ने भीतर दौड़कर उसे चौकन्ना कर दिया। 

तिलोत्तमा को बोलने वाली लड़की की उम्र पंद्रह-सोलह साल की बच्ची जैसी लग रही थी। लड़की का लड़खड़ाते हुए बोलना, उसकी भी साँसों की रफ़्तार को घटा-बढ़ाकर असंयत करने लगा। उसका बी पी भी कुछ समय से बढ़ा हुआ चल रहा था। फोन की आवाज़ के साथ तिलोत्तमा का झटके से उठना, उसकी धड़कनें और बढ़ा गया। असमंजस की स्थिति में उसने ख़ुद से प्रश्न किया . . . 

इस वक़्त किसका फ़ोन हो सकता है? कौन उसे मम्मा पुकारकर अपनी बातें बता रहा है? कहीं उसकी बेटी भव्या ने कोई भयावह सपना तो नहीं देख लिया, और वो घबरा गई हो? . . . बेटी का ख़्याल आते ही तिलोत्तमा को अपनी साँस हलक़ में अटकी हुई महसूस हुई। उसने तेज़ी से उठकर बेटी के कमरे में पहुँचना चाहा। इससे पहले कि वह ऐसा कुछ कर पाती, फोन पर एक बार फिर आवाज़ सुनाई देने लगी . . . 

“मम्मा . . .! आप मुझे सुन रही हैं न? मैं कहीं मरने वाली तो नहीं हूँ? मैं मरने से पहले आपसे ढेर-सी बातें करना चाहती हूँ, क्योंकि मरने के बाद, सिर्फ़ बातें ही तो रह जाती हैं। मुझे भी तो आपसे कितनी सारी बातें करनी थी,” कुछ देर की चुप्पी के बाद अचानक आवाज़ आई . . . “प्लीज़! आप फोन मत रख देना।” फिर कुछ समय के लिये ख़ामोशी छा गई। 

बच्ची के साथ चल रही बातों का सिलसिला तिलोत्तमा के दिमाग़ में बार-बार अपनी बेटी का ही ख़्याल ला रहा था। क्यों भव्या उसके पास नहीं आ रही? . . . क्यों वह फोन करके बातें कर रही है? . . . जबकि दोनों एक ही घर में हैं। 

तिलोत्तमा ने न जाने कितनी बार अपने विचारों को झटककर पुनः सोचने के लिए संयत किया और घड़ी की ओर फिर से देखा। लड़की की बातें सुनते हुए पाँच-सात मिनट गुज़र चुके थे। 

तिलोत्तमा अब अपने विचारों को समय से जोड़कर सुलझाने की कोशिश करने लगी थी। साढ़े ग्यारह बजे ही उसकी बेटी अपने कमरे में सोने गई थी। डिनर के बाद काफ़ी देर तक माँ-बेटी हँसी-ठट्टा करती रही थीं। भव्या के पास स्कूल-कॉलेज की न जाने कितनी बातें सुनाने के लिए होती थीं। अगर भव्या को कोई परेशानी होती तो वह साझा ज़रूर करती। उनके घर में कोई बंदिश नहीं थी। फिर यह क्या हो रहा है ? . . . आने वाले फोन पर बच्ची का संबोधन मम्मा होने से तिलोत्तमा असमंजस की स्थिति में आ गई थी। 

तिलोत्तमा ने फोन हाथ में लिये-लिये ही अपने पैर रज़ाई से बाहर निकाल लिए, ताकि चप्पल पहनकर बात करते हुए बेटी के कमरे तक पहुँच सके। उसके अंदर गहराता हुआ डर फोन काटने नहीं दे रहा था। वह बेटी को सही-सलामत देखकर निश्चिंत हो जाना चाहती थी। इंतज़ार का एक-एक पल बहुत भारी पड़ रहा था। साथ ही वह फोन पर भी बात करते रहना चाहती थी, ताकि संवाद न टूटे। तिलोत्तमा ने दोनों के बीच छाई हुई ख़ामोशी को तोड़ते हुए पूछा, “भव्या! क्या हुआ है तुम्हें? . . . तुम ठीक तो हो बेटा! . . . क्यों इतनी घबराई हुई हो? मैं बस आ ही रही हूँ तुम्हारे पास . . . बिल्कुल परेशान मत होना।” 

उसने शायद तिलोत्तमा की कही हुई बातों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। वह अपनी बात कहे जा रही थी, “मम्मा! आप सिर्फ़ बातें करती रहो। . . . अगर आप मेरे पास आओगी तो मैं भाग जाऊँगी। . . . फिर कभी लौटकर वापस नहीं आऊँगी।” 

अनायास बेटी के भागने वाली बात सुनकर तिलोत्तमा को भरी सर्दी में भी पसीना आ गया। उसका दिल धौंकनी की तरह ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसने फिर से अपने पैर रजाई में वापस खींच लिए और अपने माथे के पसीने को पोंछते हुए कहा, “कहाँ भागकर जाओगी बेटा? . . . कहीं नहीं जाना है। अपना घर छोड़कर कोई जाता है क्या? मैं एक मिनट में आती हूँ।” 

तिलोत्तमा ने अब पुनः रजाई से पैर निकालकर चप्पल पहनने का सोचा। बग़ैर विलंब किए वह अपनी बेटी के कमरे में पहुँचना चाहती थी। तभी फोन पर आवाज़ आई, “आप प्लीज़ . . . मेरे पास मत आना। . . . मैं नंगू हूँ . . . मैंने नीचे कुछ भी नहीं पहना हुआ है। मेरे कपड़े गंदे हो गए थे। मैंने अपने कपड़े उतारकर डस्ट्बिन में डाल दिए हैं। मैं नहीं चाहती हूँ कि आप मुझे ऐसे देखो। आप परेशान हो जाओगी। मुझे बहुत डर लग रहा है। . . . मेरे साथ यह क्या हो रहा है मम्मा?” 

बच्ची की आवाज़ में घुला हुआ भय तिलोत्तमा को भी भयभीत करने लगा था। तिलोत्तमा के हाथ-पाँव भय से ठंडे होने लगे थे। 

“तुम नंगू हो . . . कोई बात नहीं बेटा। कोई भी निर्णय लेने से पहले एक बार आकर, मुझ से बातें करो।” 

तिलोत्तमा अब लगभग गिड़गिड़ा ही पड़ी थी। बेटी की सलामती की चिंता ने उसे गिड़गिड़ाने पर मजबूर कर दिया था। तिलोत्तमा को डर खाए जा रहा था, बेटी कहीं कोई ग़लत निर्णय न ले ले। जैसे ही तिलोत्तमा ने वापस हैलो कहा, फोन कट चुका था। अब तिलोत्तमा के दिल और दिमाग़ पर बुरे-बुरे ख़्याल क़ब्ज़ा करने लगे। तभी तिलोत्तमा के मन में विचार उठा . . . कहीं भव्या ने कोई नशा तो नहीं कर लिया? उसके बात करने के अंदाज़ से लग रहा था कि वह नशे में है। 

कुछ पलों बाद मोबाइल की घंटी दोबारा बजने से तिलोत्तमा के विचारों की शृंखला टूटी . . . फोन उठाते ही बच्ची की आवाज़ आई, “आपने फोन क्यों काट दिया था? आप मुझे छोड़कर क्यों चली गईं? आपने क्यों नहीं सोचा . . . आपकी बेटी आपके बिना कैसे रहेगी? . . . मुझे अपने कमरे में बहुत डर लगता है मम्मा। कहीं मैं भी आप की तरह ख़ुद को ख़त्म न कर लूँ।” 

“पर बेटा! मैं तो ज़िंदा हूँ . . . तुम मुझसे ही तो बात कर रही हो। . . . कुछ नहीं होगा तुम्हें।” 

तिलोत्तमा को बच्ची की बातों ने फ़िलहाल पूरी तरह पगला दिया था। इसी उधेड़-बुन में तिलोत्तमा अपने पास रखी बोतल का पूरा पानी गटक चुकी थी। अब उसकी नींद पूरी तरह उड़ गई थी। वह अपने बिस्तर पर ही तकिये की टेक लगाकर बैठ गई। न तो बच्ची फोन रख रही थी . . . न ही तिलोत्तमा को फोन रखने दे रही थी। न ही वह बेटी के कमरे तक पहुँच पा रही थी। 

ख़ौफ़ में होने से फोन पर आने वाली आवाज़ उसे बिल्कुल भव्या की आवाज़-सी ही लग रही थी। उसके दिल और दिमाग़ में अजब-सी जंग छिड़ी हुई थी। दिल फोन वाली बच्ची को बेटी समझ रहा था, और दिमाग़ इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था। फिर तिलोत्तमा ने मन ही मन तय कर लिया कि यह उसकी अपनी बेटी नहीं हो सकती। उसने बच्ची से पूछा, “तुम क्यों इतनी परेशान हो? तुमने कोई नशा किया है क्या? तुम्हारे माँ-पापा कहाँ हैं? किस क्लास में पढ़ती हो?” 

बच्ची ने तिलोत्तमा की किसी भी बात का पूरा जवाब नहीं दिया। 

“मेरे मम्मा और पापा? आपको नहीं पता कि आपकी बेटी नवीं कक्षा में आ गई है। जब आप मुझे कोचिंग के लिए कोटा छोड़ने आई थीं, मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मैं आपके बग़ैर नहीं रहना चाहती थी मम्मा। पर आपकी ज़िद थी . . . मैं अपना करियर बनाऊँ। जल्दी ही सेटल हो जाऊँ। यहाँ आने के बाद मेरा एक दोस्त बन गया था। वह कोटा में पिछले तीन सालों से मेडिकल की तैयारी कर रहा है। उसने मेरी बहुत मदद की। मैंने उसे आप दोनों के झगड़ों के बारे में भी बता दिया। जब आप दोनों आपसी झगड़ों में मेरे से भी बात करना छोड़ देते थे। मेरा मन बहुत दु:खता था। मैं बहुत रोती थी, रात-रात भर सो नहीं पाती थी।” 

कुछ देर के लिये वह रुकी, और दोबारा अपनी बात कहने लगी। 

“एक दूसरे पर लगाया हुआ आपका हर थप्पड़, मेरे गाल पर लगता था। मैं सारी-सारी रात अपने बदन पर आप दोनों की हाथापाई को महसूस करती थी। सॉरी मम्मा . . . मुझे किसी अनजान को अपने घर की बातें नहीं बतानी चाहिए थीं। आप ही बताइए मैं अपनी बातें उसे न बताती तो किसे बताती? पर यह सब आपको कैसे पता होगा? तीन महीने पहले आपने तो . . . कोई अपनी बेटी को अकेला छोड़कर जाता है क्या?” 

एक लंबी चुप्पी के बाद उसने अपनी बात पूरी की, “मम्मा! आपको पता है . . . मेरे दोस्त ने मेरे साथ ज़बरदस्ती . . . शायद उसी वजह से . . .” अपनी बात फिर से अधूरी छोड़कर वह चुप हो गई। 

बच्ची की आवाज़ की लड़खड़ाहट तिलोत्तमा को भीतर ही भीतर बेचैन कर रही थी। उसकी बातों के सिरे उलटे-सीधे थे। बच्ची का अटक-अटक कर टुकड़ों में अपनी बातें बताना या दोहराव करना, उसके नशे में होने को पुख़्ता कर रहा था। 

कैशोर्य अवस्था में होने वाले परिवर्तनों ने उसे परेशान कर दिया था। घर के माहौल से चोटिल बच्ची ने भटककर कुछ ज़्यादा ही नशा कर लिया था। तभी वह अपनी समस्याएँ घर के लोगों की बजाए अनजान लोगों से साझा कर रही थी। तिलोत्तमा के लिए बच्ची अभी भी एक रहस्य थी। तिलोत्तमा ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “अपनी बातें खुलकर कहो बेटा। मम्मा कहा है न मुझे।” अब शायद उसने तिलोत्तमा की बात सुनी थी। तभी वह बोली, “पर आप कैसे सुन पाओगी मेरी बात? तीन महीने पहले आपने . . .। आपने पापा की रिवाल्वर से ख़ुद को गोली क्यों मार ली थी? आपने अपनी बेटी का नहीं सोचा? पापा आपको प्यार नहीं करते थे, पर मैं तो करती थी। आपके जाते ही पापा ने दूसरी . . .। हम दोनों ही पापा के जीवन में काँटा थे मम्मा। तभी तो दूसरी शादी करने के बाद वह मुझसे कभी मिलने नहीं आए।” 

अचानक फोन फिर से कट गया। नशे की हालत में बच्ची से शायद फोन बार-बार ग़लती से कट रहा था। कुछ पल बाद ही वापस फोन की घंटी बजते ही तिलोत्तमा ने जैसे ही फ़ोन उठाया तो बच्ची की आवाज़ आई, “मम्मा! प्लीज़ आप मुझे सुला दो न। पिछले पाँच दिनों से मैं सोई नहीं हूँ। वह मेरा दोस्त है न . . . उसने मुझे कुछ गोलियाँ दी थीं, ताकि मैं सो सकूँ। आज जब एक गोली खाने के बाद भी मुझे नींद नहीं आई तो मैंने एक साथ दो गोली और खा ली। मुझे बहुत घबराहट हो रही है। अगर मैं गोलियाँ नहीं खाती तो आपकी ही तरह कुछ कर लेती।” 

फिर एक लंबी साँस लेकर वह आगे बोली . . . 

“मम्मा। मेरे मना करने के बावजूद मेरा दोस्त मुझे कोई पाउडर खिलाता रहता था, कभी कुछ गोलियाँ . . . आप ही बताइये भला किसको बताती यह सब बातें। मुझे लगता है जैसे ही मेरी आँखें बंद होगी, मैं फिर कभी भी नहीं उठूँगी। इसलिए मैं पूरी-पूरी रात आँखें खोल कर पड़ी रहती हूँ।” 

इतनी छोटी बच्ची के नशा करने की बात स्वीकारते ही तिलोत्तमा की आँखें नम हो गई। 

“बेटा! तुम्हें कोई बड़ी बीमारी नहीं है। सब ठीक हो जाएगा। थोड़ी देर सो जाओ।” 

“मैं सो जाऊँगी मम्मा। प्लीज़ आप मेरे साथ रहना . . . आप रहोगी न मेरे साथ?” 

“हाँ बेटा! मैं रहूँगी तुम्हारे साथ। तुमने खाना तो खा लिया था न।” 

“मुझे अपने हॉस्टल का खाना अच्छा नहीं लगता मम्मा। मुझे आपके हाथ का बनाया हुआ खाना बहुत अच्छा लगता था। आप बहुत याद आती हो मम्मा। आपको पता है . . . पिछले तीन दिनों से मैं कोचिंग क्लास में भी नहीं गई।” 

“तुम कोचिंग के लिए क्यों नहीं गयी बेटा? सुनो! अब पाउडर या गोलियाँ मत खाना। मैं तुम्हारे साथ हूँ न।” . . . सिर्फ़ ‘हम्म’ बोलकर बच्ची चुप हो गई। 

लगभग चालीस मिनट की बातचीत के बाद तिलोत्तमा को काफ़ी कुछ समझ आ गया था। बच्ची भी अपनी बातें बताकर शायद हल्की हो गई थी। जब बहुत देर तक कोई आवाज़ या फोन नहीं आया तो तिलोत्तमा को लगा बच्ची सो गई है। 

इसी बीच तिलोत्तमा के लगातार बोलने की आवाज़ें, जब सोई हुई भव्या तक पहुँची, वह अपने कमरे से निकलकर तिलोत्तमा के सामने पहुँच गई। 

“मम्मा! . . . मम्मा क्या हुआ है? इतनी रात को आप हाथ में फोन लिए क्यों बैठी हैं? क्या किसी का फोन आया था?” 

तिलोत्तमा अभी भी बच्ची की बातों में खोई हुई थी। जैसे ही उसने भव्या को देखा, उसके शब्द मुँह में ही गुम हो गए। भव्या को सही सलामत देखकर उसने बिस्तर से उठकर भव्या को कसकर गले लगा लिया और रुआँसी हो आई। 

भव्या ने तिलोत्तमा से पूछा, “आपके चेहरे पर हवाइयाँ क्यों उड़ रही हैं मम्मा? आपकी तबीयत ठीक तो है?” 

अनायास भव्या भी माँ के लिए चिंतित हो उठी थी। तिलोत्तमा ने जैसे ही फोन को वापस कान पर लगाकर हैलो किया; फोन कट चुका था। उसने फोन पर हुई बातें भव्या को बताई। 

“ग़लत नंबर लग गया होगा मम्मा। अब आप भी सो जाइए। पापा भी बाहर गए हुए हैं। अगर आप कहें तो मैं आपके पास ही सो जाती हूँ। आपकी नींद पूरी नहीं हुई तो बी पी बढ़ जाएगा,” भव्या ने प्यार से तिलोत्तमा को कहा। 

“मैं ठीक हूँ बेटा। तुम चिंता मत करो। अपने कमरे में सोने जाओ। तुम्हें कल स्कूल भी जाना है।” 

तिलोत्तमा के कहने से भव्या सोने चली गई मगर तिलोत्तमा के दिलो-दिमाग़ से बच्ची की आवाज़ हट नहीं रही थी। न जाने क्यों उसे बार-बार लग रहा था, बच्ची का फोन एक बार फिर आएगा। बच्ची का मम्मा कह कर बातें करना, सारी रात उसकी नींद में विघ्न डालता रहा। 

जैसे-तैसे पूरी रात और फिर दिन भी निकल गया। सारा दिन उस बच्ची की आवाज़ें तिलोत्तमा के दिमाग़ में गूँजती रहीं। नशे की ओवर-डोज़ होने से बच्ची ने ग़फ़लत में अपनी माँ के नंबर को डायल किया होगा और फोन तिलोत्तमा के नंबर पर लग गया होगा। दिन भर तिलोत्तमा बच्ची की बातों के सिरों को बाँधने की कोशिश में लगी रही। 

अगली शाम तक तिलोत्तमा के पास बच्ची का फोन दोबारा नहीं आया। वह उसके बारे में सोच-सोच कर बैचेन हो उठी और थक-हार कर उसने फोन लगा लिया। 

बच्ची ने फोन उठाते ही खीजते हुए कहा, “कौन बोल रही हैं आप? . . . मेरी नींद ख़राब कर दी आपने।” 

“कल रात तुमसे कई बार बात हुई थी बेटा। तुम बहुत परेशान थी। मैं सवेरे से तुम्हारे लिए चिंतित थी। जब तुम्हारा कोई कॉल नहीं आया तो ख़ुद को लगाने से नहीं रोक पाई,” तिलोत्तमा ने उसकी खीज़ को नज़र-अंदाज़ करते हुए अपनी बात रखी। 

शायद बच्ची कुछ असमंजस की स्थिति में थी। वह काफ़ी देर तक चुप रहने के बाद बोली, “सॉरी आंटी। आपको मेरी वजह से जागना पड़ा। अभी मैंने अपनी कॉल लिस्ट देखी। मैं ठीक हूँ। आपको आइंदा परेशान नहीं करूँगी।” 

“सॉरी कहने की कोई ज़रूरत नहीं है बेटा। मैं तुमसे मिलना चाहूँगी।” 

“पता नहीं कल रात क्या हो गया था? शायद कुछ ज़्यादा ही . . . आई एम सॉरी आंटी!” फिर से उस लड़की ने अपनी बात अधूरी छोड़, थोड़ी देर की चुप्पी के बाद फोन डिस्कनेक्ट कर दिया। 

न जाने कितनी देर तक तिलोत्तमा फोन अपने कान से चिपकाए रही। उसे फोन कटने के बाद दोबारा आने का इंतज़ार था, मगर ऐसा हुआ नहीं। तिलोत्तमा ने कई दिनों तक उस नंबर पर फोन लगाया, मगर हमेशा एक ही मैसेज आता रहा . . . ‘दिस नंबर डज़ नॉट एग्जिस्ट।’

तिलोत्तमा सोच में पड़ गई थी . . . ऐसा कैसे हो सकता है कि जिससे रात भर बातें होती रहीं, उसका कोई वुजूद ही नहीं। कम से कम वह लड़की तो केवल एक टेलिफ़ोन नंबर भर नहीं हो सकती . . .। वह लड़की चाहे अपना फ़ोन हमेशा के लिये बन्द कर दे, मगर तिलोत्तमा के दिल में उसका वुजूद हमेशा बना रहेगा। 

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टिप्पणियाँ

शैली 2024/03/15 10:46 PM

बहुत अच्छी रोचक कहानी आज के परिवारिक विघटन को दर्शाती

Aruna Abhay Sharma 2024/03/06 02:24 PM

आपकी कहानी में एक संवेदनशील माँ का अत्यन्त सुन्दर चित्रण किया गया है।आज की भयावह परिस्थितियों में हर घर में ऐसे ही संवेदनशील व्यक्ति की आवश्यकता है जो किशोरावस्था के बालक-बालिकाओं की कोमल भावनाओं को समझ सके और किसी भी प्रकार के भटकाव,भय और गलत दिशाओं के चुनाव से उन्हें बचा सके।बहुत ही सुन्दर कहानी आपकी, दीदी

विवेक भारती 2024/03/06 01:03 PM

बहुत खूब कहानी बुनने की कला । जो मनो मस्तिष्क को बंधन मे बाध देती है।

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  1. माँ! तुम्हारे लिए
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