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कुसुम की उम्मीद

 

छत्तीसगढ़ के छोटे से गाँव में कुसुम नाम की आदिवासी कन्या रहती थी। कुसुम की उम्र चौदह साल थी और परिवार में वह सबसे बड़ी थी। गाँव के चारों ओर घना जंगल था, जहाँ उसका परिवार पीढ़ियों से रहता आया था। पिता मज़दूरी करते थे और माँ लकड़ी बीन कर घर चलाती थी। कुसुम शुरू से पढ़ाई में तेज़ थी, लेकिन उसके रास्ते में चुनौतियाँ पहाड़ जैसी थीं। 

कुसुम का गाँव दूर-दराज़ पहाड़ियों के बीच था। वहाँ जाने के लिए पक्की सड़क नहीं थी, बरसात में रास्ता कीचड़ से भर जाता। गाँव में सिर्फ़ पाँचवीं तक का सरकारी स्कूल था, जिसमें जर्जर भवन, टूटी कुर्सियाँ और सिर्फ़ एक शिक्षक था, जो सप्ताह में कई बार अनुपस्थित रहते। सबसे गंभीर समस्या थी—शौचालय की कमी। लड़कियों के लिए निजी जगह न होने से, कई किशोरियाँ स्कूल छोड़ देतीं। कुसुम की सबसे क़रीबी मित्र सीमा भी शौचालय न होने के कारण छठी के बाद पढ़ाई छोड़ घर बैठ गई थी। 

कुसुम के पिता अक्सर बीमार रहते, इसलिए बचपन से ही उसका कंधा घर की ज़िम्मेदारियों में जुड़ गया। उसे रोज़ लकड़ी बीननी और छोटे भाई-बहनों का ध्यान रखना पड़ता। कुसुम की माँ कहती, “हमारे हालात ऐसे हैं कि पढ़ाई-लिखाई का शौक़ पालना तो आसान है, पर पेट पालना मुश्किल।” लेकिन कुसुम के मन में जिज्ञासा थी—वह कुछ अलग करना चाहती थी। 

कुसुम की प्राथमिक भाषा ‘गोंडी’ थी, जबकि स्कूल का माध्यम हिन्दी था। पहले दिन पढ़ाई में वह घबरा गई; शिक्षक उसकी भाषा नहीं समझते थे और किताबें भी उसके लिए उलझन भरी थीं। गाँव के कई अभिभावक सोचते—लड़कियाँ हैं, उन्हें शिक्षा की क्या ज़रूरत? —पर कुसुम की ज़िद इन मान्यताओं से भिड़ती रही। 

सरकार ने आदिवासी कन्या शिक्षा परिसर, छात्रावास, छात्रवृत्ति जैसे कई कार्यक्रमों की घोषणा कर रखी थी। लेकिन इन सुविधाओं तक पहुँच आसान नहीं थी: चयन प्रक्रिया जटिल थी, काग़ज़ी कार्रवाई गाँव वालों को समझ नहीं आती। गाँव के कई स्कूलों में शिक्षक की नियुक्ति सिर्फ़ काग़ज़ों पर ही थी, असल में पढ़ाई नहीं होती थी। नज़दीकी छात्रावास तो बना था, मगर उनमें पर्याप्त पानी, सुरक्षा और भोजन की व्यवस्था जैसी बुनियादी ज़रूरतें अधूरी थीं। 

एक दिन गाँव के बाहर से ‘कन्या शिक्षा अभियान’ के तहत कुछ अधिकारी आए। उन्होंने लड़की को आगे पढ़ाने का वादा किया और उसे सरकारी छात्रावास में दाख़िला देने को कहा। लेकिन कुसुम की माँ को डर था—‘हमारी बच्ची दूर रहेगी तो उसकी रक्षा कौन करेगा?’ आस-पास की कई बालिकाएँ शिक्षा में छेड़छाड़, असुरक्षा, या स्कूल में यौन शोषण जैसी समस्याओं के कारण पढ़ाई छोड़ चुकी थीं। सामाजिक सुरक्षा का भरोसा गाँव की लड़कियों को नहीं था। 

कुसुम ने काफ़ी समझाया, “माँ, अगर मुझे मौक़ा मिले तो मैं अपने गाँव में स्कूल चला सकती हूँ, बाक़ी बच्चियों को भी पढ़ा सकती हूँ।” कुछ ग्राम पंचायत सदस्यों ने भी उसका साथ दिया। उनकी मदद से कुसुम को 6वीं तक की पढ़ाई छात्रावास में जारी रखने का मौक़ा मिला। 

छात्रावास में रहना आसान नहीं था—खाने की गुणवत्ता ख़राब, कई बार दूरभाष की सुविधा विफल, और घर की याद हर वक़्त सताती। लेकिन कुसुम पढ़ाई के साथ-साथ आस-पास की अन्य लड़कियों को भी पढ़ाने लगी। उसने ‘गोंडी’ से ‘हिन्दी’ शब्दों की सूची बनाई ताकि दूसरी आदिवासी बच्चियों की मुश्किलें कम हो सकें। 

कुछ सालों बाद, कुसुम ने आठवीं पास की। उसके गाँव में जब पंचायत की बैठक हुई, तो वहाँ की लड़कियाँ पहली बार किताब-कॉपी लेकर आईं। कुसुम ने बताया—“हमारा सफ़र कठिन है, लेकिन असंभव नहीं। अगर हम सब मिलकर कोशिश करें, तो हालात बदल सकते हैं।” उसकी कहानी धीरे-धीरे अन्य गाँवों तक पहुँची। 

अब गाँव में कई परिवार अपनी बेटियों को आगे पढ़ाने लगे। पंचायत ने मिलकर स्कूल के लिए शौचालय बनवाया, और स्थानीय शिक्षक की नियुक्ति की कोशिशें शुरू कर दीं। राज्य के शिक्षा विभाग ने भी गाँव की सक्रियता देखकर वहाँ विकास योजनाएँ भेजीं। 

कुसुम की कहानी उन लाखों आदिवासी कन्याओं की प्रतिबिंब है, जिनके सामने सामाजिक, आर्थिक, भाषाई और प्रशासनिक अड़चनें हैं। लेकिन एक बच्ची के जज़्बे ने पूरे गाँव की सोच बदल दी। शिक्षा न सिर्फ़ नौकरी पाने का ज़रिया है, बल्कि सम्मान, सुरक्षा और आत्मनिर्भरता की राह है। 

आज भी आदिवासी बच्चियाँ स्कूल छोड़ने, बाल विवाह, ग़रीबी, असमानता, और सामाजिक सुरक्षा की जटिल समस्याओं का सामना करती हैं। लेकिन कुसुम की तरह अगर परिवार, समाज और प्रशासन साथ चलें, तो यह सौंधापन उम्मीदों की बारिश बन सकता है। 

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