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लौकी

 

स्कूल की छुट्टी की घंटी बजी।

बच्चों की उन्मुक्त भीड़ गेट की ओर दौड़ पड़ी, जैसे आज़ादी का कोई छोटा-सा उत्सव हो। शिक्षकगण अपनी किताबें और थकान समेटते हुए स्कूल से पढ़ाकर बाहर निकले। मनोहर उस स्कूल में हिंदी पढ़ाते थे, उनके कंधों पर उम्र और ज़िम्मेदारियों का बोझ साफ़ झलकता था। वे जैसे ही स्कूल से बाहर आए, स्कूल के प्यून शंभू ने अपनी पुरानी, गर्मजोशी भरी मुस्कान के साथ एक ताज़ी लौकी उनके हाथ में थमाई, “मास्टर जी, ये देखो! अपनी छत की बेल की लौकी–ताज़ी, हरी, सौंधी। सोचा, आपके घर की रसोई में काम आएगी। मैडम ख़ुश होंगी।”

लौकी को छूते ही मनोहर के चेहरे पर एक क्षणिक चमक उभरी, जैसे कोई पुरानी, धुँधली याद हल्के से जागी हो। “अरे शंभू, कितनी बढ़िया है! मेरी माँ ऐसी ही लौकी से हलवा बनाती थीं। शुक्रिया भाई।” उनकी आवाज़ में एक पुरानी गर्माहट थी, जो अब कम ही सुनाई देती थी।

छुट्टी होते ही स्कूल की पुरानी, खटारा बस चल पड़ी। ज़्यादातर स्टॉफ़ उसी से स्कूल आता-जाता था। जैसे ही मनोहर बस में चढ़े तो स्टॉफ़ में लौकी चर्चा का विषय बन गई। एक साथी शिक्षक ने कहा, “मनोहर जी, इससे रायता बनवाइए, गर्मी में ठंडक देगा।” दूसरा बोला, “नहीं, लौकी के कोफ़्ते! मेरी माँ बनाती थीं, स्वाद आज भी जीभ पर है।” तीसरा हँसते हुए बोला, “लौकी का हलवा, बस वही बनेगा। मनोहर जी, आज तो दावत है!” 

मनोहर ने एक शांत मुस्कान छोड़ दी। उनके मन में एक छोटी-सी उम्मीद जगी—शायद आज सुधा कुछ नया बनाए। मन ऊब जाता है एक ही खाना खाते-खाते! 

घर पहुँचते ही, मनोहर ने उत्साह से आवाज़ लगाई, “सुधा, देखो क्या लाया हूँ!!” 

हॉल में सुधा सोफ़े पर बैठी मोबाइल में डूबी, उँगलियाँ स्क्रीन पर बिना रुके सरका रही थी। बच्चे अपने कमरों में थे—बेटा अपने टेबलेट पर कुछ काम कर रहा था और बेटी स्कूल का कोई क्राफ़्ट बनाने में मशग़ूल थी। मनोहर ने लौकी को हवा में उठाकर सुधा को दिखाया, “शंभू ने दी है—ताज़ी लौकी। छूकर देखो, कितनी मुलायम, कितनी सौंधी! आज कुछ स्पेशल बनाओ?” 

सुधा ने नज़र उठाए बिना, ठंडे स्वर में कहा, “हाँ, ठीक है। फ़्रिज में रख दो। मैं अभी बिज़ी हूँ।” 

मनोहर का उत्साह ठंडा पड़ गया। वह कुछ देर सुधा की बग़ल में ख़ामोश बैठा रहा, फिर एक अन्तिम कोशिश करते हुए बोला, “सुधा, याद है न, पहले तुम कितने शौक़ से नई-नई चीज़ें बनाती थीं? लौकी की सब्ज़ी, कोफ़्ते, हलवा!!

“बच्चे दौड़-दौड़ कर पूछते थे, ’मम्मी, आज क्या बना है?’ 

“आज क्यों न कुछ नया ट्राई करें? मैं तुम्हारी मदद करूँगा।” 

सुधा ने मोबाइल की स्क्रीन से नज़र हटा ली, लेकिन उसकी ब्राइटनेस अभी भी आँखों में चमक रही थी . . . लाल-लाल! 

वह मनोहर पर बिगड़ते हुए बोली “मनोहर, ये रोज़-रोज़ खाने-पीने की बातें क्यों करते हो? तुम्हें क्या लगता है, मैं दिन भर मोबाइल में घुसी रहती हूँ? 

“क्या घर सँभालना इतना आसान है? 

“कपड़े, झाड़ू, पोंछा, बरतन, बच्चों की शिकायतें!! 

“और ऊपर से तुम आकर ये लेक्चर झाड़ना शुरू कर देते हो! लौकी लाए हो, तो फ़्रिज में रख दो। मैं देख लूँगी। 

“और हाँ, मोबाइल को लेकर ये ताने मत मारा करो! यही तो एक साथी है जो इस वीरान से मेरा साथ देता है।” 

मनोहर चुप हो गया। उनकी आवाज़ में जो उम्मीद थी, वो कहीं गहरे में दब गई। उसने फ़्रिज का दरवाज़ा खोला। लेकिन वहाँ का मंज़र देखकर उनका दिल और भारी हो गया। अंदर सब्ज़ियों का एक ठंडा क़ब्रिस्तान मौजूद था—जिसमें पुरानी लौकी, तोरी, भिंडी, परवल, हरी मिर्चें और न जाने कितनी सब्ज़ियाँ दफ़न करने की गुज़ारिश कर रही थीं। कुछ सड़ चुकी थीं, कुछ सूखकर बेजान हो गई थीं। गंध ऐसी थी, जैसे समय ने इन सब्ज़ियों को भुला दिया हो। 

मनोहर को याद आया—ये सब्ज़ियाँ वह पिछले दिनों लाया था, हर बार एक नई उम्मीद के साथ। ‘सुधा, आज ये बनाओ,’ कहकर। 

लेकिन हर बार वही जवाब—‘जो है, खा लो।’ और खाने में वही आलू की सूखी सब्ज़ी—बिना स्वाद, बिना आत्मा के।

मनोहर ने लौकी को उस ढेर में रखा, जैसे किसी मृत परंपरा को दफ़न कर रहे हों। दरवाज़ा बंद किया, और भीतर कुछ टूटने की आवाज़ सुनाई दी—शायद उसका धैर्य, शायद उसकी उम्मीद।

रात को खाना परोसा गया—वही आलू की सब्ज़ी, रोटी और चावल। मनोहर चुपचाप बच्चों के साथ खाता रहा। सुधा पास में बैठी थी, मोबाइल पर किसी वीडियो में खोई, हँस रही थी।

मनोहर धीमी और भारी आवाज़ में कहा, “सुधा, तुम्हें याद है, पहले हम रात को बैठकर कितनी बातें करते थे? तुम खाने की तारीफ़ सुनकर हँसती थीं। बच्चे कितना शोर मचाते थे। अब?

“अब ये घर बस एक इमारत है। खाना बस पेट भरने का बहाना। क्या तुम्हें सचमुच नहीं दिखता कि हम सब कुछ खो रहे हैं?”

सुधा ने मोबाइल नीचे रखा, लेकिन उसकी आँखों में नरमी की जगह कड़वाहट थी। “मनोहर, तुम हमेशा मुझे दोषी ठहराते हो। क्या मैं इंसान नहीं? मेरी भी थकान है, मेरी भी ज़िंदगी है। तुम स्कूल में बच्चों को पढ़ाकर मन बहला लेते हो, लेकिन यहाँ क्या?

“यहाँ मैं बस एक नौकरानी हूँ तुम लोगों के लिए। खाना, घर, बच्चे–बस यही मेरी दुनिया है?

“मोबाइल मेरा एकमात्र साथी है, जहाँ मैं थोड़ा जी लेती हूँ। और तुम्हें पुराने दिन चाहिएँ?

“अगर तुम्हें वाक़ई पुराने दिन चाहिएँ तो वापस लाओ वो सुधा, जो तुम्हारी हर बात मानती थी। मैं अब वो नहीं हूँ।”

मनोहर की आँखें नम हो गईं, “सुधा, मैं तुम्हें बदलने को नहीं कह रहा। मैं बस उस अपनेपन को ढूँढ़ रहा हूँ, जो कभी इस घर में था।

“एक ताज़ी लौकी, जिसे प्यार से पकाना—क्या ये इतना मुश्किल है? क्या हम अपने बच्चों को यही सिखाएँगे—कि रिश्ते बस आदत बनकर रह जाते हैं?”

सुधा ने एक ठंडी साँस छोड़ते हुए कहा, “रिश्ते?

“रिश्ते दोनों तरफ़ से निभते हैं, मनोहर।

“तुम्हें अपनापन चाहिए, लेकिन क्या तुमने कभी पूछा कि मुझे क्या चाहिए? नहीं!

“क्योंकि तुम्हें बस अपनी लौकी चाहिए!!”

वह उठी और मोबाइल हाथ में लिए अपने कमरे में चली गई।

मनोहर थाली में बचे हुए आलू को देखता रहा। अचानक फ़्रिज से एक हल्की ‘टिक’ की आवाज़ आई—शायद कोई पुरानी सब्ज़ी गिर रही थी। या शायद वो ताज़ी लौकी, जो ठंडी हवा में अपनी सौंधी ख़ुश्बू खो रही थी, ठीक वैसे ही जैसे मनोहर की उम्मीदें, धीरे-धीरे सड़ रही थीं।

अगली सुबह, मनोहर ऑफ़िस के लिए और बच्चे स्कूल के लिए अपना-अपना टिफ़िन लेकर निकल गए।

दोपहर, लंच की घंटी ने भूख का शंखनाद किया। मनोहर ने बड़े उत्साह से बैग से लंचबॉक्स निकाला, तभी स्टॉफ़ के एक साथी ने मनोहर से कहा, “आज तो भाभीजी ने ज़रूर ही लौकी के कोफ्ते बनाए होंगे?”

मनोहर ने झेंपते हुए टिफ़िन को खोलकर देखा। टिफ़िन में वही आलू की सूखी सब्ज़ी और रोटियाँ रखी हुई थीं। मनोहर की आँखें डबडबा आईं। उसने ख़ुद को सँभालते हुए अपने साथी से कहा “आज तुम्हारी भाभी की तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए उसने जल्दबाज़ी में कोफ़्ते नहीं बनाए।”

वह चुपचाप खाना खाने लगा लेकिन लौकी अभी भी उसके दिमाग़ में घूम रही थी क्योंकि वह जानता था कि यह लौकी और सब्ज़ियों की भाँति जल्दी ही उस ठंडे क़ब्रिस्तान का हिस्सा बन जाएगी, जैसे उनके रिश्ते की बची-खुची गर्माहट!!

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