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लिव-इन

नवम्बर का महीना . . . तराई में बसे गाँव ‘मेघढ़ जुआना’ में ठण्ड बढ़ चली थी। यह मौसम ख़रगोश की फ़सल का था। सर्दी भर इलाक़े में जंगली ख़रगोशों का शिकार धड़ल्ले से होता था। इस समय रात के ग्यारह बज रहे थे। रैबिट मीट एक्सपोर्ट कम्पनी “ज़ायक़ा अल्टीमेट” के मालिक, शिकारी फत्ते सिंह, इन्ना मल, घन्नू गरासिया और दलपत डूंगरी अपने फ़ार्म हाउस पर खाना खा रहे थे। 

फत्ते सिंह बोला, “मसाला मुयाल करी और चावल खाके देख गधे! भेजा घूम जाएगा।” 

इन्ना मल दारू की बोतल ग्लास में ख़ाली करते हुए बोला, “बेक्ड रैबिट के आगे अपन को कुछ नईं जमता यार!” 

‘रम’ के साथ ‘ख़रगोश लहसुन दम’ खाकर टुन्न हो चुके थे घन्नू गरासिया और दलपत डूंगरी खाट पर लगभग औंध चुके थे। 

इन्ना मल भी सुरूर में था। वो उँगलियाँ चाटते बोला, “काले ख़रगोश का मांस इतना सवादी होता है कि सपने भी उतने ही लाजवाब और चटपटे आते हैं।” 

घन्नू टुन्न था, बिलकुल बुत्त! पर इन्ना मल की इस बात पर वो मूड में आकर बोल पड़ा, “यार फत्ते जब पेट में काले खरगोस का मांस डाला है तो बिस्तर में भी किसी नरम मुलायम खरगोस का इंतज़ाम कर उस्ताद! रोज़ की तेरी सूखी–सूखी चाकरी अपन से ना होए है।” 

“अब ऐसे खरगोस का इन्तेजाम ‘जायका अल्टीमेट’ के फ़ारम हाउस पर न हो तो हमारे सिकारी होने पर लानत होगी राजा घन्नू गरासिया! फुल ऐस कर लो हमाए राज में,” फत्ते ने आँख मारते हुए कहा। 

“ओए होए कित्ते खरगोस लाए हो फत्ते भाई?” 

“अभी तो एक ही है फिलहाल मगर है एकदम झकास! भेजा फ्राई टाइप यार।” 

“खरगोस एक और हम चार?” दलपत ने दाँत निपोरते हुए पूछा। 

“तो क्या हुआ? चारोंं यार बारी-बारी से डुर्र-डप डुर्र-डप कर लेंगे . . .” इन्ना मल का आगे का वाक्य यारों के ठहाकों में डूब गया। 

आज छुट्टी का दिन था, कल से जंगल में शिकार की क़वायद फिर शुरू होनी थी। पर आज की रात पूरी अपनी थी। फ़ार्म हाउस की पिछली कोठरी में शिकारी फत्ते सिंह, इन्ना मल, घन्नू गरासिया और दलपत डूंगरी ने बारी-बारी जी भर डुर्र-डप किया और खर्राटे मार के सोये। बिस्तर के इस नर्म ख़रगोश के शिकार का एडवेंचर और संतुष्टि जंगली ख़रगोश के शिकार से किसी मामले में कम न थे। 

अगली सुबह उठते ही इन्ना, घन्नू और दलपत तीनों ने फत्ते से पूछा, “उस्ताद यह ‘डुर्र-डप खरगोस’ उड़ाया कैसे और इहाँ लाए कैसे?” 

फत्ते गाली बकते हुए बोला, “कुत्तो आम खाने से मतलब रखो, पेड़ गिनने से नई! रात गयी बात गयी। अब काम पे लगो! आडर समय से न भेज पाए तो हम सबकी बैण्ड बज जाएगी।” 

फत्ते की घुड़की में दम था। मीट प्रोसेसिंग में चारोंं दोस्त जुट पड़े। ऑर्डर पूरा होने तक हाड़ तोड़ मेहनत चालू। साल भर की कमाई इन्हीं सर्दियों में होती है, साल भर की मेहनत भी। 

यह फ़ार्म हाउस गाँव से दूर था। बिलकुल एकांत। जंगल से सटा। पूरा जंगल लम्बी तिपतिया घास से ढका हुआ जहाँ ‘जैकवेबिट्स’ काले ख़रगोशों की भरमार थी जिनका मांस, लाजवाब स्वाद और ज़ीरो कोलेस्ट्रोल होने के कारण पाँच सितारा होटलों में बेहद माँग में था विशेषकर समुद्र किनारे बसे शहरों में। 

जंगली ख़रगोश, सूर्यास्त और सूर्योदय के समय सर्वाधिक सक्रिय होते हैं। इनके शिकार के लिए यही समय मुफ़ीद होता है। लेकिन इसे अंजाम देने के लिए साँझ से लगा कर पूरी रात लगना पड़ता है। घोंसले ढूँढ़ना, अधिकतम ट्रैफ़िक एरिया को चिह्नित कर जाल लगाना, चारा रखना, घूम-घूम कर जंगल रौंदने के शोर से शिकार को डराना, जैसे काम करते रात चुटकियों में कट जाती। अब पूरे सीज़न रात भर जागना दुष्कर था अतः पाली बाँधी गयी। 

पहली पाली साँझ से रात बारह तक फत्ते सिंह और इन्ना मल करते और रात बारह से भोर छह बजे तक दूसरी पाली में घन्नू और दलपत लगते। 

फ़ार्म हाउस की पिछली कोठरी में डुर्र-डप की भी पाली बँध गयी। साँझ से आधी रात तक घन्नू और दलपत की डुर्र-डप, आधी रात से भोर तक फत्ते सिंह और इन्ना मल की डुर्र-डप . . . दिन में भी इच्छानुसार जब-तब डुर्र-डप डुर्र-डप . . . दिन रात का सर्कल अब फ़ुल था। रात-रात जाग कर शिकार का काम अब नीरस न था। 

जंगल में केवल शिकार ही नहीं होता था। लोग यहाँ अलग-अलग उद्देश्य से आते। कोई लकड़ी के लिए, कोई पत्तों के लिए, कोई फोटोग्राफी के लिए तो कोई एडवेंचर के लिए। ‘धरती के फूल’, ‘फूटा’ और ‘कटरुआ’ नामक देसी मशरूम भी इस जंगल में उगते थे जिन्हें तोड़ कर गाँव की महिलाएँ हाट में बेचती थीं। 

बावन वर्षीय आदिवासी महिला जूरनी बाई बहुत परेशान थी। उसकी छब्बीस वर्षीय बेटी सुकेसी पिछले पाँच दिनों से घर नहीं लौटी थी। जूरनी, उसकी बेटी सुकेसी और नातिन झम्मा, एक साथ धरती के फूल तोड़ने जंगल में गयी थीं। जूरनी और झम्मा तल्लीनता से धरती के फूल चुन रही थीं कि सुकेसी झरने के किनारे-किनारे पगडंडी पर कब आगे बढ़ ओझल हो गयी पता ही नहीं चला। काफ़ी देर तक सुकेसी के न लौटने पर जूरनी को चिंता हुई तो झम्मा ने समझाते हुए कहा, “झरने के पल्ली तरफ धरती के फूल के साथ-साथ फूटा और कटरुआ भी मिल जाते हैं इसीलिए माई उधर ही निकली होगी।” 

जूरनी को झम्मा की बात ठीक लगी। उसने झम्मा से कहा, “हाँ फूटा और कटरुआ, धरती के फूल के मुकाबले हाट में महँगे बिक जाते है इसी लिए सुकेसी आगे बढ़ गयी होगी। पर बता के तो जाना था उसे। आगे कितना सुनसान है, बाघ का भी खतरा बना रहता है।” 

“तुम चिंता न करो नानी। माई आ जाएगी।” 

झम्मा की आश्वस्ति जूरनी को भली लगी। वो फिर से धरती के फूल तोड़ने में लग गयी। लेकिन सुकेसी न आयी। शाम पाँच बजे के बाद जंगल में रुकना वैसे भी ठीक नहीं सो जूरनी अपनी नातिन झम्मा को लेकर घर लौट आयी। झम्मा भी अब दस बरस की तो हो ही गयी है। शरीर भी भरने लगा है। 

“लड़कियाँ तो खर पतवार की तरह जाने कब बढ़ जाती हैं पता ही नहीं चलता,” जूरनी मन ही मन बड़बड़ाई। 

नौ दिन बाद भी सुकेसी न लौटी तो जूरनी रपट लिखाने थाने पहुँची। दरोग़ा सोने मुंडा उसकी अपनी ही बिरादरी का था सो तुरंत रिपोर्ट लिखी और मदद का वादा किया। 

उस दिन सुबह का क़रीब पाँच बज रहे होंगे। पहली पाली की ड्यूटी कर गहरी नींद सो रहे फत्ते और इन्ना मल की आँख, ताबड़तोड़ दरवाज़ा पीटने की आवाज़ से खुली। रात का नशा अभी पूरी तरह उतरा नहीं था फिर भी दोनों को किसी अनहोनी की आहट साफ़ समझ आयी। घन्नू और दलपत तो सुबह सात-आठ बजे के पहले जंगल से लौटते नहीं हैं। फिर इस समय कौन है? कहीं कोई रेड तो नहीं पड़ी है? दरवाज़ा पीटने की आवाज़ लगातार आती देख, इन्ना मल ने तहमद पहनते हुए दरवाज़ा खोला। सामने दरोग़ा सोने मुंडा और तीन कांस्टेबल खड़े थे। 

फत्ते सिंह ने तपाक से हाथ मिलाते हुए कहा, “अरे साहब आप! आपने काहे को कस्ट करा? हमें बुलवा भेजते। सर के बल हम दौड़ते आते साहब।” 

इन्ना मल ने तुरंत ही कुर्सियाँ लाकर सामने रख दी।

“बैठ जाइए साहब। हम चाय बनवाते हैं।” 

“जूरनी कथरिया की लौंडिया को तुम लोग जानते हो?” दरोग़ा ने गरजती आवाज़ में पूछा। 

“हाँ साहेब कई बार देखा है। अब गाँव में कौन नहीं जानता एक दूजे को . . . पर इससे आगे कुछ नहीं जानते हम साहेब,” इन्नामल घबरा चुका था। 

“जूरनी कथरिया की लड़की सुकेसी पिछले हफ्ते से गायब है। वो जंगल में धरती के फूल चुनने गयी थी अपने परिवार के संग पर जाने कहाँ गायब हो गयी लौंडिया।” 

“यह तो बड़ा बुरा हुआ दरोगा जी। हो सकता है बाघ खा गया हो या अजगर निगल गया हो लौंडिया को साहेब बरना कहाँ बिला जाती साढ़े पाँच फुट की औरत?” इन्ना मल बोला। 

“जिस बाघ ने सुकेसी को खाया है या जिस अजगर ने उसे निगला है उसी की तलाश में तो हम आए हैं तुम्हारे फार्म हाउस पर,” व्यंग्य से दरोग़ा सोने मुंडा ने जवाब दिया। 

फत्ते और इन्ना को माजरा समझते देर न लगी। उनको पता था कि इस केस का रास्ता सीधा फ़ार्म हाउस की पीछे वाली कोठरी से जुड़ रहा था। पर वो सब ठहरे पुराने घाघ। कोई पहली बार तो यह सब किया नहीं जो डर लगता। उन्हें पता थे पुलिस, कचहरी, थाना के बारीक़ से बारीक़ कील-काँटे। 

सामने मेज़ पर लज़ीज़ नाश्ता लग चुका था। ख़रगोश के नरम मांस के मसालेदार सैंडविचों की गन्ध दरोग़ा और उसके कान्सटेबलों के नथुनों में घुसी तो आवाज़ की सख़्ती में अंतर आया। ऊपर से वोदका से भरे गिलास! . . . कौन न डोल जाए सुबह-सुबह की इस दावत पर! 

दरोग़ा मुंडा ने झूठे ग़ुस्से से कहा, “अरे हम लोग ड्यूटी पर आए है अपनी खातिरदारी कराने नहीं!” 

फत्ते पुराना खिलाड़ी था। वोदका के ग्लास हाथ में पकड़ाते हुए बोला, “अरे साहब ये तो थोड़ा बहुत जबान तर करने का इंतजाम है। इत्ती दूर से सुबह सुबह आए हैं तो थोड़ी राहत पा जाएँगे आप सब। फिर आराम से इन्क्वायरी करिए।” 

वोदका ने वाजिब असर दिखाया। फत्ते ने गरम लोहे पर चोट करते हुए दरोग़ा जी को पीछे वाली कोठरी बेख़ौफ़ दिखाई। दरोग़ा अंदर गए। 

डुर्र-डप डुर्र-डप डुर्र-डप डुर्र-डप 

कांस्टेबल भी किसी से कम थोड़े ही थे। 

कांस्टेबल-1 

डुर्र-डप

कांस्टेबल-2

डुर्र-डप

कांस्टेबल-3

डुर्र-डप

सब फ़ारिग़ हुए। अब कोई इन्क्वायरी न बची थी। जूरनी कथरिया से कह दिया गया कि पुलिस उसकी बेटी को ढूँढ़ने की पूरी कोशिश कर रही है। दरोग़ा सोने मुंडा चूँकि उसकी अपनी बिरादरी का था इसलिए जूरनी कथरिया ने उस पर विश्वास किया। 

जंगल से काले ख़रगोश पकड़े जाते रहे। फ़ार्म हाउस की पिछली कोठरी तीन महीने तक रोज़ आबाद होती रही। एक दिन घन्नू गरासिया कोठरी में गया और तुरंत ही बाहर आ गया। दलपत ने उसकी तरफ़ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा। 

“कोठरी ख़ाली है।” 

घन्नू का इतना कहना था कि फ़ार्म हाउस पर तूफ़ान आ गया। क्या हुआ, कैसे हुआ, किसकी मदद से हुआ . . . किसी को समझ नहीं आया। हर कोई हैरान था। हर जगह ढूँढ़ मची। यहाँ तक कि जंगल भी खंगाला गया मगर कुछ हाथ न लगा। 

सुकेसी खटिया पर बेसुध पड़ी थी। जूरनी कथरिया अपनी बेटी को विस्फारित आँखों से देख रही थी। वो बेटी से क्या पूछती? लुटी-पिटी काया, नोच-घसोट के निशान, अंदरूनी अंगों से रिसता ख़ून, आँखों के काले घेरे, पीठ-पेट का एक हो जाना, क्या काफ़ी नहीं थे यह बताने को कि बिटिया पर क्या बीती है! 

वो सिहर उठी। उसने बेटी को गले लगाया। दोनों जी भर टूट के रोयीं। जूरनी ने सहारा देकर बेटी को उठाया, उसकी धोती बदलाई, घावों पर लेप धरा, अंदर रखने को पुरानी धोती फाड़ के दी, सिर पर तेल रखा और बड़े प्यार से बोली, “मेथी, कचूर की जड़ और अजवाइन का काढ़ा बनाया है, गरम-गरम पी ले मोड़ी आराम मिलेगा, खून जाना बंद होगा।” 

झम्मा से तिल का तेल गरम करवा के पेडू की नरम हाथों से मालिश की तो सुकेसी फूट-फूट के रोने लगी। हर दिन की दिल दहलाने वाली दास्तान ने जूरनी को ममतामयी माँ से जंगली शेरनी में बदल डाला। वो दनदनाती हुई थाने पहुँची। 

“दरोगा जी सुकेसी लौट आयी घर।” 

“अरे वाह! कहाँ थी? कैसे आयी सुकेसी? किसने ढूँढ़ा उसे? कौन छोड़ गया घर?” दरोग़ा ने थाने में अपना रोज़ वाला अभिनय दोहराया। 

“साहब आप पुलिस होकर ना ढूँढ़ सके उसे। आपकी नाक के निच्चे मोड़ी की कैसी दुर्गत की है बदजातों ने। जान बच्चा के छिपते-छिपाते मोड़ी तीस मील दौड़ के घर आयी है। कीड़े पड़ें करमजलों के।” 

जूरनी ने फत्ते सिंह, इन्ना मल, घन्नू गरासिया और दलपत डूंगरी के ख़िलाफ़, बेटी के साथ तीन महीने तक रोज़ सामूहिक दुष्कर्म करने की नाम-ज़द रिपोर्ट लिखाई। 

दरोग़ा सोने मुंडा ने चैन की साँस ली कि उसका नाम रिपोर्ट में नहीं लिखाया गया है। 

‘शायद सुकेसी मुझे पहचानती न रही होगी।’ वह मन में बुदबुदाया पर ऊपर से बोला, “हम एक बिरादरी के हैं जूरनी अम्मा। जान लगा देंगे तुम्हाई मोड़ी के लिए।” 

जूरनी कथरिया ने दरोग़ा की ओर आभार भाव से देखा। 

चारों आरोपी गिरफ़्तार हुए। मामला अदालत में चला पर यह नहीं सिद्ध हो पाया कि सुकेसी को डरा-धमका के फ़ार्म हाउस पर रखा गया। कोई सबूत ही नहीं था, न कोई गवाही। 

उल्टे आरोपियों ने स्टाम्प पेपर प्रस्तुत किया जिसमें सुकेसी ने स्वीकारा था कि वो अपनी मर्ज़ी से चारों दोस्तों के साथ लिव-इन में रह रही है। काग़ज़ पर बाक़ायदा सुकेसी का अँगूठा लगा था। सुकेसी के नाम से महँगे आभूषण और कपड़ों की ख़रीद की कई सारी रसीदें भी अदालत में प्रस्तुत हुई जिसका भुगतान फत्ते, घन्नू और इन्नामल के क्रेडिट कार्ड से हुआ। अब और क्या चाहिए था? 

यह आसानी से सिद्ध हो गया की सुकेसी लिव-इन में अपनी मर्ज़ी से ख़ुशी-ख़ुशी रह रही थी। अगले दिन अख़बारों की हेडलाइन थी—

“गाँव की औरतें भी लिव-इन की राह पर” 

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2022/11/21 09:27 PM

कितनी दुर्दांत हृदयविदारक घटना जनित कहानी! उफ्फ़....

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