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नार्वे का प्रवासी हिंदी डायरी लेखन: जीवन के विविध आयाम 

 

डायरी: अर्थ एवं स्वरूप

डायरी शब्द की उत्पत्ति लैटिन के ‘Diarum’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ ‘Die’ अर्थात ‘Day’ दैनिक भत्ता। डायरी के इस शब्द से यह ज्ञात होता है कि यह दैनिक कार्य या दिनचर्या से संबंधित है। इसे संस्कृत में दैनिकवृत पुस्तक या दिन पत्रिका भी कहा जाता है।

डायरी लेखन:

मनुष्य के समस्त भावों, मानसिक वेगों, अनुभूति, विचारों को अभिव्यक्त करने का सशक्त माध्यम साहित्य है। लेखक अपने विचार विभिन्न विधाओं में जैसे उपन्यास, नाटक, कहानी आदि में लिखते हैं वही डायरी लेखन कहलाता है।

कहा जाता है कि डायरी विधा का प्रादुर्भाव पाश्चात्य साहित्य से हुआ है। जब व्यक्ति तथा उसकी अंतरंग अनुभूतियों को साहित्य में स्थान मिलना आरंभ हुआ तो डायरी का प्रचलन तेज़ी से बढ़ा जो अब तक चल रहा है। डायरी में लेखक जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का ही वर्णन नहीं करता अपितु उससे घटित होने वाली मानसिक प्रतिक्रियाओं का भी उल्लेख करता है।

वैसे तो डायरी एक निजी संपत्ति मानी जाती है, जो किसी व्यक्ति की अपनी मानसिक सृष्टि और उसका अंतर्दर्शन है परंतु व्यापक दृष्टि में डायरी भी प्रकाश में आकर साधारणीकृत हो जाने के कारण साहित्य जगत की संपत्ति बन जाती है।

डायरी एक अर्थ-बहुल साहित्य विधा है। यह व्यक्ति को अपन मन में आए विचारों, भावनाओं, जागरण आदि को पन्नों पर लिखने के लिए स्वतंत्रता प्रदान करता है। इसी के आधार पर निर्विवाद रूप से डायरी के कुछ तत्वों को रेखांकित किया जा सकता है।

डायरी के तत्व:

इस विधा का निर्माण विशिष्ट और व्यक्तिगत तत्वों से होता है। प्रत्येक लेखक अपने अनुरूप भिन्न-भिन्न शैली में डायरी लिखता है। यह उनकी विवशता भी है क्योंकि कुल मिलाकर यह माध्यम व्यक्ति मन की सार्वजनिक अभिव्यक्ति भी है। इस स्तर पर कुछ प्रमुख तत्व सामने आते हैं:

1. वैयक्तिकता:

ऐसी अनुभूतियाँ जो नग्न यथार्थ को स्पर्श करती हुई चलती हैं तथा जिसे व्यक्त करना संभव नहीं होता, वह डायरी में समाहित हो जाता है। डायरी के माध्यम से लेखक की दृष्टि, इच्छाएँ, कमियाँ, संभावनाएँ, उपलब्धियाँ, पसंद नापसंद आदि बातें प्रत्यक्ष या सांकेतिक रूप से उभर कर सामने आती हैं।

2. भावाभिव्यक्ति:

स्वयं के हृदय के गूढ़तम भाव इस में अभिव्यक्त होते हैं। लेखक की मनःस्थिति एवं परिस्थितियों के अनुरूप जो भी महत्व का घटित हो, अनुभव हो, उसका उल्लेख डायरी में लेखक करता है। अतः डायरी में व्यक्ति का अंतःरूप प्रकट होता है।

3. तिथिक्रम:

डायरी का मूल अर्थ तिथि देकर प्रतिक्रिया व्यक्त करना है। डायरी लिखने से पूर्व दिनांक, माह व वर्ष लिखकर व्यवस्थित ढंग से उसे पुस्तिका में उतारा जाता है, परंतु यह अनिवार्य तत्व नहीं माना जा सकता। यदि डायरी तिथि एवं आंकड़ों तक ही सीमित रह जाए तो वह साहित्य नहीं इतिहास का विषय बन जाएगी।

4. तात्कालिक प्रतिक्रिया:

डायरी लेखन का एक महत्वपूर्ण तत्व तात्कालिकता भी है। डायरी का मूल उद्देश्य यही है कि जैसे ही मन को कुछ प्रभावित करे उसे तत्काल ही काग़ज़ पर उतार दिया जाए नहीं तो समय के साथ वह आवेग शांत होता जाता है और प्रतिक्रिया उस रूप में उभर कर नहीं आती जिस रूप में वह लेखक के मस्तिष्क में उभरती है।

5. अनियमित लेखन:

रोज़ डायरी लिखना एक आदर्श हो सकता है, परंतु एक सर्जक-कलाकार के लिए रोज़ लिखना न तो संभव है, न ही उपादेय। रोज़ लिखने के लिए लिखी जाने वाली डायरी में रोज़मर्रा की ज़िंदगी या दिनचर्या को प्रस्तुत करना होता है जैसे- रोज़ का खाना पीना, सोना-उठना जैसे सामान्य दिनचर्या का उल्लेख ही होता है। लेखक उन सभी परिवार की घटनाओं को भी वर्णित करता है जिनका प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर पड़ता है।

6. परिवेशांकन:

अपने आस-पास के समाज को देख उसे डायरी में उतारना, वातावरण आदि परिवेशांकन कहा जाता है। डायरी अपने युग और समकालीन परिवेश की पहचान का सूक्ष्म माध्यम है। डायरी लेखन में विभिन्न कलाओं, स्थलों का विवरण देते हुए पारिवारिक परिस्थितियाँ, सामजिक, राजनैतिक आदि बातों को भी बताते चलते हैं।

7. आत्मविश्लेषण:

डायरी में लेखक अपने जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का ही वर्णन नहीं करता अपितु जीवन में घटित घटनाओं के मानसिक प्रतिक्रियाओं का भी वर्णन करता है। डायरी का मुख्य उद्देश्य लेखक का आत्मविश्लेषण ही होता है।

8. वास्तविकता: 
डायरी में लेखक अपना दिल खोल कर लिखता है। छोटी, बड़ी, गुप्त और प्रकट सभी बातों को लिखना ही वास्तविकता है।

9. छिपाव का भाव:

कई ऐसी बातें होती हैं जो डायरी में व्यक्त नहीं कर पाते, तो कई ऐसी बातें होती हैं जो लिखकर सबके सामने प्रकट नहीं कर पाते। ऐसी डायरी को लिखते वक़्त मनुष्य में एक भय, एक छिपाव का भाव विद्यमान रहता ही है।

10. सृजन का नेपथ्य:

डायरी, लेखक के जीवन व व्यक्तित्व के प्रत्येक अंश को छूती है। किसी भी रचना के बनने की प्रक्रिया उसके पीछे का मानसिक संघर्ष भी डायरी के पन्नों में उतर आते हैं। एक सर्जक के सृजन कार्य की रूपरेखा डायरी में स्पष्ट रूप में देखी जा सकती है।

11. पुनरावर्तन: भाव-विचारों का पुनरावर्तन भी डायरी में होता है।

12. अधूरापन: कई बार लिखते-लिखते भाव बदल जाते हैं वह अधूरापन की ओर चले जाता है।

13. निज दृष्टि: स्थूल जीवन, बाह्य घटनाओं को अपनी दृष्टि से लिखना।

14. भाषा शैली: इस पर कोई पाबंदी नहीं होती। वे अपनी इच्छा से लिख सकते हैं।


प्रवासी साहित्यकार डॉ. प्रवीण झा का डायरी लेखन: ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’      

‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ प्रवीण कुमार झा द्वारा लिखा डायरी लेखन है जिसमें उन्होंने अपने अनुभव को मुक्त प्रवाह के रूप में लिखा है। ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ संसार के सबसे ख़ुशहाल कहे जाने वाले देश नार्वे का वर्णन है। इस डायरी में लेखक ने हमें ऐसी कई बातें बताई हैं जो भारत और नार्वे की संस्कृति को जोड़ती हैं। नार्वे के बारे में बताते हुए लेखक ने कई ऐसी जानकारियाँ पाठकों के सामने रखी हैं जो भारत के इतिहास और नार्वे की वर्तमान प्रणाली या जीवन शैलियों को दर्शाता है। ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ एक प्रवास संस्मरण है जिसमें वह भारत में रहते समय नार्वे की तरफ अपना रुख़ बदलने की ख़्वाहिश को बताते हुए अपनी आपबीती को इस किताब में समेटने का सुंदर और अच्छा प्रयास किया है। जिससे हम नार्वे न जा पाने के बाद भी उसके नज़दीक रहने का एहसास कर पाते हैं। उनका कहना है कि जब प्रवास हो तो नज़रिया बदल जाता है, और कुछ हद तक हम उस संस्कृति के ही अंग हो जाते हैं। लेखक बड़े सुंदर ढंग से आर्यों की परंपरागत  क़िस्से सुनाते हुए चलते हैं और उसे मोतियों की डोर में डालते हुए माला का रूप देते रहे हैं। 

‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ आम लोगों को नार्वे जैसे ख़ुशहाल देश के करीब ले जाता है। प्रवीण झा जी इसमें वहाँ की संस्कृति, वातावरण, आर्थिक स्थिति, बच्चों की सोच, लोकतंत्र, चिरंजीवी होने का रहस्य, प्रकृति से मृत्यु, प्रलय और शांति, कल्चर, समानता, कठिन डगर से निकलना, मीडिया, विदेशीपन आदि को 17 भागों में बाँट उसे अपनी डायरी में सजाया है। यह डायरी प्रवीण जी के आँखों देखी का सुन्दर चित्रण भी कहा जा सकता है। जब कोई आम मानव जगह के बारे में सुनाता है तो उसे देखने और समझने की लालसा सबके दिलों में जगाता है पर हर कोई उस लालसा को पूरा नहीं कर पाता। 

प्रवीण झा ने अपनी कल्पना की उड़ान को पूरा कर उसे हकीकत का रूप दे स्वयं ही नहीं हर उत्सुक मानव की उत्सुकता को शांत करने में भी मदद की है। आर्यों के रोज़मर्रा के क़िस्से सुनाते हुए नए रहस्यों को पिरोते हुए चलते हैं, जिनसे समाज में सकारात्मक बदलाव आ सके। उन्होंने यह दर्शाने का कार्य किया भी किया है कि कैसे कोई भी देश अपनी बेहतरी और ख़ुशहाली को जनमानस तक पहुँचा सकता है या यह सिर्फ कल्पना में ही होता है। स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक समानता क्या कोई लोकतांत्रिक सरकार अपने राज्य को देने में सक्षम हो सकता है? क्या मीडिया स्वतंत्र होती है? क्या अमीरी-ग़रीबी का भेदभाव सचमुच मिट सकता है? क्या यह सब होना आसान है या नहीं और अगर हाँ तो कैसे ? इन सब का जवाब हमें इस पुस्तक से जानने को मिलेगा। 

यह पुस्तक प्रवीण झा के अनुभव की सोशल मीडिया में प्रवाहित ‘अजूबा नार्वे’ लेखों का भी योगदान है जो कई अख़बारों में भी छपते रहे हैं पर उनमें कई बातें जो अधूरी रह गई या गुम हो गई थी, उन्हें इस पुस्तक में पूरा किया गया है।

विविध आयाम:

1. भारत एवं नार्वे की त्योहारों में अंतर क्या है ?

प्रवीण झा के ‘ख़ुशहाली के पंचनामा’ धुरी से ध्रुव तक की यात्रा वृतांत एक घटना रही है। जब प्रवीण झा पहली बार नार्वे की धरती पर उतरे तो उनको नार्वे मानव रहित टापू-सा महसूस हुआ। “जैसे गाँव में सब किसी गब्बर सिंह के भय से छुप कर बैठे हों”।1 नार्वे  के लोगों का रहन-सहन, पहनावा-ओढ़ावा, तीज-त्यौहार मनाने का ढंग आदि पर उनका विशेष ध्यान एवं आकर्षण रहा। संस्कृति और सभ्यता भारत की तुलना में नार्वे की अजीबो-ग़रीब-सी प्रतीत हुई। भारत अनेकता में एकता का देश है। सर्व धर्म प्रार्थना, सर्व धर्म त्यौहार आदि हमारे भारत की ख़ूबी हैं। नार्वे जैसे राष्ट्र में त्यौहार ग्रामीण शहरों में जाकर एक ही स्थान पर मिलकर मनाने की रही है। वहाँ अमीर-ग़रीब, बड़ा छोटा के भेदभाव के बग़ैर सब मिलकर एक ही स्थान में त्यौहार को मनाने की परंपरा को अपनाते आ रहे हैं। नार्वे की विशेषता एवं गंभीरता ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ है। नाख़ुश की बात किसी में नहीं होती। अपने सुख या दुख को एक समान मान मस्त मौला की ज़िंदगी नार्वेवासियों की देन रही है।

2. बच्चों का महत्व

नार्वे में लोग खुली सोच के हैं पर फिर भी वे बच्चों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे नहीं रहते। चाहे वे पुरुष हो या स्त्री हो हर कोई अपनी इच्छा या कामना के साथ साथी बदलते रहते हैं पर वे एक प्रेमी से दूसरे प्रेमी के पास जाने पर अपने बच्चे हों या उसके सबको अपना लेते हैं। दोनों बच्चों के प्रति अपना प्यार एक समान बाँटते हैं। प्रवीण झा कहते हैं कि “कौन अपना और कौन पराया? यह नार्वे है। यहाँ कुछ बच्चे मेरे, कुछ तुम्हारे और कुछ हमारे।”2 यही ज़्यादातर नार्वे के लोगों का जवाब रहता है। यहाँ भी प्रेम विवाह किया जाता है जो ‘इनर सर्कल’ कहलाता है। इस विवाह के लिए मंजूरी परिवार वालों से लेने के लिए लड़के को कई परीक्षाओं को पास करना होता है। यह परीक्षा महाभारत के स्वयंवर से कम नहीं होती। लड़के को ससुराल वालों के ‘इनर सर्कल’ अग्नि परीक्षा से पहले पश्चिमी इलाक़े के पहाड़ों पर ले जाकर वाष्प स्नान कराते हैं। वह भी सारे परिवार के हट्टे-कट्टे पुरुषों के साथ। बाद में ठंडी नदी में छलाँग मारने को कहते हैं। तभी वे  परीक्षा में सफल हो पाते हैं।

3. आर्य की खोज

नार्वे में रह रहे सामी जाति के लोग आर्यों के समान ही माने जाते हैं। “इनकी नाक चपटी होती है, कुछ चेहरे पर लालिमा और काले रेशमी बाल होते हैं। मूल संप्रदाय पूरे विश्व में कुछ ऐसे ही होते हैं। चाहे अमेरिका के ‘रेड इंडियन’ हों या ऑस्ट्रेलिया के मूल ‘एबॉरिजिन्स  या इंडियंस’।”3 सारे एक ही श्रेणी के लगते हैं। ये सारे मूल आदिवासी भारतीय महाद्वीप से ही हज़ारों साल पहले गए थे यह भी मानना है। सामी जाति के लोग शहरों से दूर जंगलों में या शांत जगहों में पाए जाते हैं। इनका ज्ञान और जानकारी शहरों में रहने वाले लोगों से बढ़कर होती है। न टीवी, न रेडियो होने के बावजूद भी इनको सारे संसार की ख़बर होती है। यही इनकी ख़ासियत है।

4. स्वावलंबी लोग

नार्वे के उत्तर से दक्षिण की ओर घूम कर आएँगे तो वहाँ हर घर एक से नज़र आएँगे। “यह बताना भी कठिन होता है कि किस मकान में धन्ना सेठ रहता है और किस मकान में रंक।”4 सब कुछ एक जैसा चाहे घर की दीवारें हो या आकार, रंग। किसी के मन में जुदा ख़ूबसूरत आशियाँ बनाने की होड़ नहीं होती। यह एक समाजवादी दुनिया है जहाँ हर किसी के सर पर छत ज़रूर होती है। किसी प्रकार का अंतर नहीं होता। नॉर्वेजियन बाग़वानी में उस्ताद होता है। यहाँ हर किसी के पास अपना बाग़ान होता है जिसका सारा काम वे स्वयं करते हैं। बीज लगाना हो या बाग़ सँवारना सभी। अपने घरों को रंगना और सजाने का काम भी ख़ुद ही करते हैं। कोई नौकर या मदद के लिए किसी को नहीं बुलाते। लकड़ी के घर होने के कारण उसे बार-बार सँवारना भी पड़ता है।

5. नॉर्वे में बच्चों का अस्तित्व

नार्वे में ज़्यादातर जन्म ‘नॉर्मल डिलीवरी’ से ही होते हैं और यह एक मिडवाइफ़ करती है। वहाँ ज़्यादातर औरतों ने कभी स्त्री-रोग विशेषज्ञ को देखा ही नहीं है। नॉर्वे की स्कूल बच्चों के लिए मौज-मस्ती और उत्सव के बराबर है। यहाँ शिक्षक भी छात्रों के साथ कई खेल खेलते हैं और बर्फ़ की मूर्तियाँ भी बनाते हैं। खुली हवा में पढ़ना यहाँ की परंपरा है जिसे हर विद्यालयों में लागू किया जाता है चाहे कितनी भी ठंड हो या बर्फ़ गिरती हो पर नियम नहीं बदलते। इसका कारण है उनको हर तरह से सशक्त बनाना चाहे मौसम की मार हो या जीवन की। इससे बच्चों में सशक्त जीवन शैली आ जाती है जो वहाँ के लिए आवश्यक है। यहाँ क़ानून है कि “आप ख़ुद को दूसरों से ज्ञानी, स्मार्ट, बेहतर या अमीर ना समझें, आप किसी की कमज़ोरी पर ना हँसे।”5

6. ख़ुशनुमा माहौल एवं लोग

नार्वे अजीब देश है यहाँ लंच 11 बजे दिन में करते हैं और डिनर 5-6 बजे शाम को। इनका लंच ठंडा होता है यानी ब्रेड और कुछ मांस के पैकेट बंद स्लाइस। और डिनर गर्म होता है जिसको वे भरपेट खाते हैं। यही यहाँ की जीवन शैली है। ये ज़्यादातर कच्ची सब्जी ज़रूर खाते हैं। यहाँ मालिक हो या नौकर हर कोई खाने के समय एक साथ बैठकर मिलकर खाते हैं। यहाँ सभी की कमाई खुली किताब है जिसे हर कोई ऑनलाइन देख सकता है। यहाँ हर शुक्रवार को ‘वीकेंड टुल्ल’ मनाया जाता है जो यहाँ की संस्कृति का हिस्सा है। नार्वे के लोगों की औसत आयु अस्सी वर्ष से अधिक रहती है। यहाँ के लोगों का चिरंजीवी बनने का राज़ ख़ुश रहना, तंदुरुस्त रहना आदि माना जाता है।

7. नॉर्वे में काम करने के तौर-तरीक़े

नार्वे में काम करने के तौर-तरीक़े बाक़ी देशों से अलग है। यहाँ काम करने वालों को आत्म संतुष्टि प्राप्त होती है। नार्वे में नौकरी के लिए व्यक्ति विशेष की कोई अहमियत नहीं है। नार्वे यथार्थवादी की धरती है। नौकरी देते वक़्त भी योग्यता से ज़्यादा महत्व अनुभव और क़ाबिलियत पर दिया जाता है। नार्वे में छोटे अधिकारी भी बड़े अधिकारी से काम के विषय में चुनौती दे सकता है। उन्हें हर प्रकार की छूट होती है। उन पर कोई बंधन नहीं होता, वे स्वतंत्र होते हैं। मेहनत की कमाई पर विश्वास रखते हैं। यहाँ एक और परंपरा भी है जिसे ‘रिफ़्लेक्शन नोट’ कहते हैं। इसका मतलब है “आप हर महीने अपनी 100 ग़लतियाँ बताकर ‘बेस्ट एम्पलाई’ कहला सकते हैं, और बस एक ग़लती छुपा कर नौकरी से बाहर।”।6

8. नॉर्वे में मृत्यु प्रकृति परक है

प्रकृति परिवर्तनशील है। परिवर्तन ही उन्नति का लक्षण है। जन्म-मृत्यु प्राकृतिक हैं। मन चंगा तो कठौती में गंगा वाली नीति नार्वे की रही है। बहता पानी निर्मला वाले गुण सर्वत्र रहे हैं। नार्वे के लोगों की आस्था ‘डेथ बाय नेचर’ पर विश्वास है। बर्फ़ीली ज़मीन में पैर रख फिसल जाने पर उनकी आकस्मिक मृत्यु का होना स्वाभाविक है। नार्वे के लोग बात के पक्के हैं। ज़ुबान से निकले हर शब्द को वाक् सत्य या ब्रह्म सत्य के रूप में मान कर चलते हैं। नार्वे में अधिकतर लोग दीर्घ आयु जीवन शान से जीने के बाद ही अंतिम साँस लेते हैं। ये पहाड़ पर चढ़ना, पैदल जाना-आना और पौष्टिक भोजन करना आदि उनका दैनिक कार्य होने के कारण दूसरों पर निर्भर नहीं रहते हैं। यहाँ के लोगों की प्रसिद्ध लोकोक्ति है, “गोर पाँ टूर, आल्दी सूर”। अर्थात आप अगर पहाड़ की चढ़ाई करते रहे, तो आप कभी बीमार नहीं होंगे”।7

9. नार्वे जेंडर न्यूट्रल देश है

नार्वेवासी कला प्रेमी हैं। अपने ख़ाली समय को फ़ालतू की बहस में बिताते नहीं हैं। मौसम अनुकूल अपने आप को बदलने के साथ-साथ अपनी कमाई की व्यवस्था कर लेने में होशियार हैं। यहाँ की नारी सशक्त, सबला, सहधर्मिणी, सहचारनी बन जीने की कला पुरुषों को भी सिखाती है। भारत और नार्वे में अंतर देखा जाए तो यह है कि यहाँ स्त्री पुरुषों पर आवश्यकता से ज़्यादा हक़ जताती है जिससे परेशान पुरुष सरकार से शांति की गुहार लगाना शुरू कर देते हैं और उनसे दूर वृद्ध आश्रम में अपना आश्रय ढूँढ़ लेते हैं। जब स्त्री अपनी ग़लती मानती है और उन्हें मनाती है तभी घर लौटते हैं। “यहाँ प्यार का पंचनामा सुना जाता है और निपटाया जाता है और इसलिए शायद यह देश पूरी तरह जेंडर न्यूट्रल है। सिर्फ़ नारीवाद किसी देश को जेंडर-न्यूट्रल नहीं बना सकता। पाँच प्रतिशत ही सही, पुरुषों के लिए भी व्यवस्था हो”।8 

10. प्रलय और शांति की साझेदार

प्रलय और शांति प्रकृति के नियमों में एक है। जन्म-मरण, सुख-दुख, उतार-चढ़ाव आदि मानवीय मूल्यों से भरा हुआ विषय है। नार्वे वासियों से स्वच्छता एवं रख-रखाव का पाठ सीखना है। वे बहुत ही साधारण और नाज़ुक वस्तु को भी बहुत ही हिफ़ाज़त से रखते हैं। ‘आग लगे तो खोदे कुआँ’ वाली बात उनमें नहीं है। सतर्क और पूर्व तैयारी के साथ हर समस्या का सामना करने के लिए सदा तैयार रहते हैं। पुरानी चीज़ों को यथासंभव ठीक कर इस्तेमाल करने में लगे रहते हैं। स्वेटर बुनने की कला हर एक में है। जल्दबाज़ी में कोई कार्य नहीं करते, शांति से संतुलित मन से हर काम सोच समझ कर करने के आदी हैं। स्वेटर बुनने की कला तो हर कोई जानता है चाहे स्त्री-पुरुष हो या बच्चे हर कोई यह कला जानते हैं। अगर स्वेटर छोटा हो जाए तो उसे खोलकर दोबारा बुना भी जाता है पर उसे फेंका नहीं जाता। वे प्रलय को देख घबराते नहीं बल्कि उसके पहले ही तैयार रहते हैं उससे उभर  कर दोबारा जीने के लिए। “हम जल से लड़ते नहीं, हम जल से प्रेम करते हैं, उसे जगह देते हैं”।9 यह नार्वेजियन की सोच है।

11. नार्वे में आमदनी बढ़ाने के तरीक़े

नार्वे में आमदनी बढ़ाने का तरीका प्रशंसनीय है। निजी आमदनी बढ़ाने के लिए पति-पत्नी दोनों तत्पर रहते हैं। ये लोग आय स्रोत बढ़ाने में क़ाबिल हैं। नार्वे वासी अपनी अपनी हैसियत व रुचि के आधार पर शिकार करना, जुआ खेलना, मल्लाह बन नदी पार करना तथा मछली पकड़ बेचना आदि इनके मुख्य काम होते हैं। यहाँ सरकार की पाबंदी न होने के कारण हर व्यक्ति यथाशक्ति, यथोचित अपना पेट पालने और परिवार चलाने के लिए सदा समर्पित रहते हैं। नार्वे वासी सुख भोगी खाद्य प्रिय हैं।

12. सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र

सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र का रूप नार्वे में प्रचलित है। स्वच्छता और नैतिक मूल्यों पर सरकार आवश्यक ध्यान देती है। भारत जैसे नार्वे में भी विभिन्न पार्टियाँ हैं। लोकपाल नियम का अनुपालन किया जाता है। ऑनलाइन व्यवस्था, ई सेवा आदि प्रचलन में है। बड़े-बड़े निर्णय जनमत के आधार पर किए जाते हैं। पब्लिक डिबेट यहाँ की विशेषता है। सरकारी कामकाज से असंतुष्ट लोगों को सरकार से प्रश्न करने का पूर्ण अधिकार है। नार्वे समदर्शी है। 

13. स्वाभिमानीपन एवं समदर्शी भावना

नार्वे के लोग स्वाभिमानी हैं। ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं करते हैं। समदर्शी और संतुलित व्यक्तित्व वाले हैं। सुख-दुख को समान मानकर चलने की भावना इनमें रही है। तेल उत्पादन और उसके निर्यात में सदा लगे रहते हैं। नार्वे के आय स्रोत का मुख्य विधान तेल उत्पादन है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ वातावरण में जलाए रखने में सक्षम है। नार्वे में सब एक साथ बैठकर खाते पीते जश्न मनाते हैं। ख़र्च माप तोल कर करते हैं। घूस या रिश्वत देना-लेना गुनाह है। यहाँ शिक्षा सबके लिए अनिवार्य है। नार्वे में प्रवासियों को नार्वे भाषा सीखना अनिवार्य है। 

14. नॉर्वे एक्शन वाला देश है

नार्वे कर्म प्रधान देश है। कर्मवीर पूजे जाते हैं। कथनी से बढ़कर करने पर विशेष ध्यान देते हैं। समय का मूल्य जानकार पति पत्नी अपने जीवनयापन के लिए कर्मयोगी बने रहते हैं। नार्वे बर्फ़ीला देश है। यहाँ सूर्योदय का दर्शन दुर्लभ है। सुख-दुख को समभाव मानने की प्रवृत्ति होने के कारण रामभरोसे काम करते हैं। प्राकृतिक आपदाओं से बचे रहने की कला हर नार्वेजियन में है। व्यवहारिक ज्ञान के बिना नार्वे में जीना मुश्किल है। ये यंत्रवत काम करते रहते हैं। निजी चिंतन मनन से समस्या का समाधान बख़ूबी ढूँढ़ निकालते हैं। 

15. मीडिया की गुणवत्ता

नार्वे विश्व के पहले पाँच देशों में एक है प्रे’स फ़्रीडम इंडेक्स’ में। “सरकारी प्रेस यहाँ लोकतंत्र के एक सशक्त स्तंभ की भूमिका निभाती है।”10 मीडिया हर व्यक्ति को राष्ट्र चैनलों के लिए प्रायः उपयोग करें या न उन्हें 5 क्रोनर देना अनिवार्य होता है। नार्वे की मीडिया डिजिटल है। 

16. नार्वे में विदेशियों का महत्व

विदेशी की पहचान उसकी जड़ उसके मूल देश से है। वे कहीं से भी आए पर अपनी संस्कृति और सभ्यता को खोये बग़ैर जीवन जिए तो जीवन सार्थक बन जाता है। कमाई के लिए जाति, धर्म, वर्ण आदि खोने की बात ग़लत है। विदेशियों को नार्वेवासी अपने सुख भोगी जीवन को सफल करने में इस्तेमाल करते हैं। समय पर खाने-पीने व सोने का नियम नार्वे वासियों का रहा है परंतु विदेशी अनुभव के आधार पर अपने जीवन को सार्थक बनाए रखने पर लगे रहते हैं। नार्वे में रात को काम करने से दोगुना पैसे मिलते हैं इसलिए विदेशी ही ज़्यादा मिलेंगे। नार्वे की आर्थिक स्थिति में सुधार विदेशियों का परिश्रम ही है। इस प्रकार विदेशियों की ख़ुशहाली का पंचनामा एक विशेष संस्मरण और रेखाचित्र है जिसमें विदेशियों की मनःस्थिति, पहनावा-ओढ़ावा और रहन-सहन की जीवन चर्चा वाली विशेष बातों का उल्लेख हुआ है। विदेशियों के संघर्षमय जीवन का वर्णन डायरी के द्वारा लेखक ने ख़ुशहाली के पंचनामा में दर्ज कर उसे प्रकाश में लाया है। ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ जीवन में घटित विभिन्न अनूठे अनुभवों का अनुभूतिजन्य रेखाचित्र डायरी लेखन को उजागर करने में काम आया है। “आर्य जहाँ से भी आए, जहाँ भी गए, कुछ साथ लाए, कुछ जोड़ते गए। अगर केंचुली उतार आते, तो आर्य न कहलाते, सर्प कहलाते”।11 

डॉ. रेखा.जी 
सहायक प्राध्यापक 
लॉयला कॉलेज (ऑटोनोमस) 
चेन्नई -600034 
ई मेल: sagarrekhasps1984@gmail.Com
Whatsapp: 9445600456

संदर्भ:

  1. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -11 

  2. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -21 

  3. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -34 

  4. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -43

  5. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -59 

  6. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -101

  7. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -105

  8. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -122

  9. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -136

  10. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -175

  11. प्रवीण झा, ‘ख़ुशहाली का पंचनामा’ डायरी, पृष्ठ संख्या -192

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