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ऑफ़िस का बाबू

 

बड़े सी अलमारी में फ़ाइलों को पलटते हुए ऑफ़िस के बाबू ने मूलचन्द को देखकर ग़ुस्से में डाँटा, गोया वह उसका देनदार हो, “देखते नहीं, मैं काम कर रहा हूँ? जाओ एक घण्टे बाद आना।”

टेबल के एक तरफ़ बड़ा-सा अँग्रेज़ के ज़माने की अलमारी थी, वहीं बग़ल में एक लकड़ी की कुर्सी थी जिसपर गद्दे लगे थे उसके ऊपर एक सफ़ेद साफ़ तौलिया डाला हुआ था। छत से सरकारी पंखा लटक रहा था, जो अपनी गति और स्थिति से सरकारी ऑफ़िस के कार्यों से अवगत करा रहा था। टेबल के दूसरे तरफ़ मूलचन्द दीनता के साथ खड़ा था। उसके दायीं ओर दोनों कोनों में लाल कपड़ों से बँधा हुआ फ़ाइलों का बड़ा-बड़ा गट्ठर था। बायीं ओर एक लकड़ी के छोटे टेबल पर पानी का मटका रखा हुआ था। बाबू के बड़े टेबल के नीचे एक छोटा कूड़ेदान था, जिसमें कूड़े से अधिक पीक थी। 

मूलचन्द बिना कुछ बोले चुपचाप वहाँ से चला गया। सुबह से तीसरे दफ़े डाँट पड़ी है। वह सात बजे सुबह से आकर ही दफ़्तर के सामने पार्क वाली बेंच पर बैठा था। तब ऑफ़िस सुनसान था। पक्षी पार्क में फुदक रही थी। दो-चार कुत्ते लेटे हुए थे। धीरे-धीरे लोगों का आना शुरू हुआ, शांत-स्वच्छंद, मनोरम वातावरण की जगह कोलाहलमय शोर होने लगा। लोग पान और गुटका खाकर जगह-जगह थूकने लगे। दस बजे चपरासी आया और सभी कमरों का ताला खोला। मूलचन्द ने चपरासी के पास जाकर धीरे से पूछा, “कमरा नम्बर दस का साहब कब तक आयेंगे?” 

चपरासी पान चबाते हुए मन ही मन तीर चलाकर बोला, “ग्यारह बजे तक आ जाते हैं, कभी-कभार लेट-सबेर भी हो जाता है। क्या काम है?” 

“पी.एफ. का पैसा निकालना है। फार्म भरकर दिये तीन महीना हो गया। अभी तक पैसा नहीं आया। लड़की की शादी करनी है। दिन सर पर चढ़ा जा रहा है।” 

चपरासी पीक थूक कर शिष्टता से बोला, “आप बहुत सीधे लगते हैं। एक पते की बात आपको बता देता हूँ। इस पूरे ऑफिस में एक-दो बाबुओं को छोड़ दिया जाए तो ऐसा कोई नहीं है जो बिना चढ़ावा के सीधी मुँह बात भी करें। हाँ, कोई पैरवी है तो काम बन सकता है। यहाँ हर कोई पैसा लेकर काम करा देने का दावा करता है। बहुत लोगों का पैसा भी गया और काम भी नहीं हो पाया। आप ऐसे लोगों से सावधान रहिएगा। मेरा काम था बताना सो आपको बता दिया।”

मूलचन्द मायूस हो गया उसके जेब में मात्र सौ रुपये थे। जो तनख़्वाह मिलती थी वह महीना-दिन के लिए काफ़ी न थी। वह और उसकी अर्द्धांगिनी कितना जतन करते की कुछ बचत कर लिया जाए किन्तु लाख यत्न के बाद भी महीना पूरे होने से पहले हाथ ख़ाली हो जाता था। सब ख़रीद के ही तो खाना है, ऊपर से लड़कों की पढ़ाई, दवा-दारू, कपड़ा-लत्ता, नाते-रिश्तेदार, एक पैसा हाथ में नहीं रहता। बाहर वाले यही सोचते हैं, यह नौकरी कर रहा है। इसके पास बहुत पैसा होगा। नौकरी के नाम पर माँगने वाले भी बहुत निकल आते हैं। महीना भी अंतिम चल रहा है। 

मूलचन्द को निराश होते देख, चपरासी सीधे मुद्दे की बात बोला, “पाँच सौ लाइये, आज का आज आपका काम करा दूँ। पैसे देकर जाइये, कल बैंक में जाकर अपना खाता जाँच करा लेना। आपके काम का जिम्मा मैं लेता हूँ।”

मूलचन्द दृढ़ता से, “मेरे पास सिर्फ़ सौ रुपये है, वह भी रास्ते का ख़र्च, अभी तक मैंने कुछ खाया भी नहीं। मेरी सेलरी कितनी है यह आपसे छिपी नहीं है।”

चपरासी दाँतों से पान को पीसते हुए, “तो आपका काम होने से रहा। उससे अधिक का जूता घिस जाएगा। आने-जाने का खर्च अलग से, समय की बर्बादी अलग।” वह बड़बड़ाते हुए तबोली के दुकान की तरफ़ चला। 

मूलचन्द उसी बेंच पर जाकर बैठ गया। झाड़ू लगाने वाले आये। एक-एक कमरे की, बरामदे में, गलियारे में झाड़ू लगाये। कमरों में बड़े-बड़े लकड़ी के पुराने दरवाज़े लगे थे। जो रीठ के काले हो गये थे। चौखट घिस के चिकना हो गया था, जिसे देखने से ही पूर्व और वर्तमान के क़ैफ़ियत का अंदाज़ा लग रहा था। उसके चिकनाहट में हज़ारों घिसे हुए जूतों की चीख छिपी हुई थी। यहाँ आने वाला हर व्यक्ति अपनी छोटी-बड़ी समस्याएँ लेकर आता। समस्याएँ बहुत बड़ी नहीं होने पर भी यहाँ के बाबुओं में तिल का ताड़ बना देने की अद्भुत कला थी। वे उन समस्याओं को ऐसे पेश करते कि सामने वाला परेशान हो जाता और इतने कठिन कार्य के लिए कुछ-न-कुछ लक्ष्मी का चढ़ावा चढ़ा जाता। 

साढ़े दस बजने लगे। एक-एक कर बाबू लोग आने लगे। ऑफ़िस में हलचल शुरू हो गयी थी। मूलचन्द भूखा बैठा रहा। खाना नहीं खाया, सोचा पहले जिस काम के लिए आया हूँ वो हो जाए। बाद में खाकर ख़ुशी-ख़ुशी गाँव के लिए निकल जाऊँगा। ग्यारह बजने लगे। मूलचन्द की उत्सुकता और भय बढ़ता जा रहा था। बाबू से अपनी समस्या कैसे बताऊँगा कि वह जल्द मेरा काम कर देगा। इसके लिए तरह-तरह के मनसूबे बाँधने लगा। पिछली दो बार की तरह कहीं इस बार भी निराश न लौटना पड़े। बिटिया की शादी को एक महीना और बचा है। सारा दारो-मदार इसी के ऊपर है। लेन-देन का सारा सामान ख़रीदना है। दहेज़ के भी दो लाख देने बाक़ी हैं, समधी जी कई बार इशारा कर चुके हैं। प्रत्येक माह तनख़्वाह मिलती है और महीना के अंत होने से पहले ही ख़त्म भी हो जाती है। पता ही नहीं चलता पैसा जाता कहाँ है! आने का पता चलता है पर जाने का; कहीं कोई सुराग़ ही नहीं मिलता। यह दहेज़ भी बहुत बुरी चीज़ है। मैं अपने लड़के की शादी में दहेज़ न लूँगा। चाहे कुछ भी हो जाए। इन्हीं विचारों में साढ़े ग्यारह हो गए। टेबल नम्बर दस पर बाबू आकर बैठ गये। उनके आते ही वह जाकर खड़ा हो गया। माथे पर केसर का तिलक लगाए, मुँह में पान दबाए, हाथों की आठ अंगुलियों में सोने की अँगूठी, गले में सोने की मोटी चेन, कानों में कुंडल, झुर्रिदार छोटी मूँछे, बालों पर कंघी घुमाते हुए उसपर ऐसे दृष्टि से देखा, मानों वह उनका कोई बड़ा शत्रु हो। डाँट कर बोले, “आते सिर पर सवार हो गये। जाओ, एक घण्टा बाद आना।” मूलचन्द बिना कुछ बोले आकर उसी बेंच पर बैठ गया। चपरासी उसे देखकर ऐसे ख़ुश हुआ मानों माँगी मुराद पूरी हो गयी। 

मूलचन्द टाई, प्रेस किये हुए साफ़-सुथरे कपड़े, चमचमाते जूतेे पहने लोगों को ऑफ़िस में आते-जाते देखते हुए सोच रहा था—कुछ भी हो एक घण्टे से पहले ही जाऊँगा, बाबुओं के पास कई काम होते हैं, भूल जाते हैं। पहले जाऊँगा तो जल्दी कर के निपटा देंगे। बैठा रहूँगा तो बैठे ही रह जाऊँगा। यही न होगा कि डाँटेंगे, डाँटें मगर काम तो हो जाएगा। कई लोग का उनके टेबल के पास भीड़ लगा है, मगर वे रईस लोग लगते हैं। भला उनका काम न होगा तो किसका होगा? परेशान होने के लिए हम ग़रीब लोग हैं। उन लोगों का काम हो रहा है। एक-एक कर जा रहे हैं, जब सभी चले जाएँगे तो मैं जाऊँगा। डाँटेंगे तो कोई सुनने वाला तो न रहेगा। एक घण्टा होने वाला भी है। मगर कोई-न-कोई आते रहता है। एक गया नहीं कि दूसरा आ टपकता है। उठ के अब कहाँ चल दिये? तीन-चार लोग भी हैं साथ में, सब बातें करते हुए हँसते जा रहे हैं। यहाँ जान अटकी है। बिटिया की शादी कैसे होगी इन लोगों को हँसी सूझ रही है। ये तो सड़क के उस पार जाने लगे। अच्छा, तो ये चाय की दुकान पर जा पहुँचे। एक घण्टा भी नहीं हुआ कि चाय पीने चल दिये। यहाँ तो ड्यूटी में खाना तक खाने का समय नहीं मिलता, पानी पीना मुहाल हो जाता है। अच्छा अब समझ में आया, चाय तो बहाना है, लेन-देन करने यहाँ आते हैं। सब कुछ न कुछ पैसे निकालकर बाबू को दे रहे हैं। वह गिन कर जेब में रख रहा है। तभी कहूँ शहर में ज़मीन, बड़ा-सा घर, दो-दो गाड़ी, बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाई, राजसी ठाठ सब कैसे सम्भव हो पाता है। यहाँ तो परिवार चलाना मुश्किल हो रहा है। 

बाबू ज्यों ही दुबारा अपनी कुर्सी पर आकर बैठे, हिम्मत करके दबे पाँव सकुचाते हुए मूलचन्द दरवाज़े के पास जाकर एक तरफ़ खड़ा हो गया। वह काग़ज़ पर क़लम चलाते हुए बोले, “अभी यह फ़ाइल पूरा करके बड़े बाबू को पहुँचाना है। जाओ, एक घण्टे बाद आना।” बाबू के सामने चाहकर भी कुछ न बोल सका। वह फिर आकर वही बैठ गया और सोचने लगा—इन लोगों को भी बहुत काम रहता है। जितने कर्मचारी हैं सबका काम देखना होता है। सबकी अलग-अलग तरह की समस्याएँ होती हैं। सबकी बातें सुनना, उनके समस्याओं का निपटारा करना सहज काम नहीं है। सहसा उसने देखा उसके सामने से ऑफिस के बाबू निकले और उसी चाय की दुकान पर जाकर चाय पीने लगे। अभी एक घण्टे पहले ही तो पीये थे। भला पीएँगे क्यों नहीं! यही तो रईसों की पहचान है। जो चाय न पीये, पान न खाये, दारू न पीये उसे रईस मंडली में हेय समझा जाता है। चाय पीकर, और पान खाकर बीस मिनट बाद उधर से लौटे। मूलचन्द ने सोचा, ‘अभी तो कह रहे थे, इस फाइल को जल्दी करके बड़े बाबू को देना है। इधर मटरगस्ती करते फिर रहे हैं।’ वह आकर अपने कुर्सी पर बैठ गये थे। कई कर्मचारी अपनी समस्या लेकर उनके पास पहुँचे थे। यह ज़िले का मुख्यालय ऑफ़िस था। छोटे–बड़े कई बाबू यहाँ बैठते थे। मूलचन्द सामने पार्क के फूलों को देख रहा था। तभी उसके सामने उसका एक सहकर्मी आकर खड़ा हो गया। बड़ी-बड़ी मूछों के नीचे मुँह में पान दबाये हुए था। 

अरे मुरारी इधर कहाँ आ निकले?”

“शर्मा बाबू से जरा काम है। मिल के आ रहा हूँ तो बात करूँगा। नहीं क्या पता उठ के कहीं चला जाए तो घण्टों इंतजार करना पड़ जाएगा।” यह कहकर वह चला गया। क़रीब पाँच मिनट बाद लौटा तो मूलचन्द के बग़ल में बैठते हुए बोला, “अब बताओं मूलचन्द भैया, यहाँ कैसे आये हो? आपका पी.एफ. वाला काम हुआ कि नहीं।”

“कहाँ हुआ भाई एक घण्टा, एक घण्टा करके टरका रहा है। देखिये आज भी होता है कि नहीं।” 

“आप भी न! क्यों नहीं दो-चार सौ रुपये चटा देते हो? ऐसे तो आपको परेशान कर देगा। बिना चढ़ावा के सीधी मुँह बात भी नहीं करता। यहाँ दो-तीन बार भी आ गये तो पाँच सौ का चूना लग जाएगा। ऊपर से परेशानी झेलना, इतनी दूर जाना और आना। मैं तीन सौ देकर जा रहा हूँ, बोला है पाँच दिन के अंदर काम हो जाएगा। आपका तो तीन महीना हो गया न?”

निराश मन से, “हाँ भई, पर मैंने भी ठान लिया है, एक पैसा न दूँगा, चाहे कितना भी दौड़ा ले। पैसे दे देकर हम लोगों ने ही इन लोगों का मन बहका दिया है। सभी लोग उत्कोच देना बंद कर दे तो क्या किसी का काम नहीं करेंगे।”

पान का पीक थूककर अपने ऊपर के आक्षेपों को समझ कर बोला, “करेंगे क्यों नहीं? हाँ, यह हो सकता है कि थोड़ा विलम्ब करें किन्तु काम तो करना ही पड़ेगा। ये लोगा भी देखते हैं कौन कैसा आदमी है। कोई दबंग आदमी आ जाए देखिये सब काम छोड़ के उनका काम करेंगे। कोई पैरवी वाला या कोई नेता या अधिकारी के चमचे आ जाए तो देखो आगे बढ़कर स्वागत भी करेंगे, कुर्सी भी बैठने को देंगे, चाय भी पिलायेंगे और तत्काल उनका काम भी करेंगे। ये केवल हम गरीबों को परेशान करने के लिए बैठे हुए हैं। सभी केवल अपना काम ईमानदारी से करने लग जाए तो किसी को कोई दिक्कत नहीं होगा। खुद तो यहाँ उत्कोच लेते हैं और समझते हैं बाहर मेरा काम निष्पक्षता से हो जाए। उत्कोच नहीं देना है, तो बड़े बाबू से मिल लीजिए। सुना है, ईमानदार, नेकदिल और कड़क हैं। पर इतना याद रखना कि वे लोग भी इन्हीं की सुनते हैं, मेरा और आपका नहीं। सम्भल कर जाना, नहीं तो लेने के देने पड़ जाएँगे। ये बाबू तो सदैव के लिए आपका दुश्मन हो जाएगा। अब मैं चलता हूँ, नहीं गाड़ी छूट जाएगी।”

इन लोगों को घूस लेते शर्म भी नहीं आती। खुलेआम घूस माँगते और लेते हैं। मुझे किसी से पैसे की बात करते बड़ी लज्जा आती है। इसी काम के एवज़ में सरकार से तनख़्वाह लेते हैं। यही सोचते हुए जब चौथे दफ़े गया तो लंच हो गया था। ग्यारह बजे ऑफ़िस आये और दो बजे लंच पर चले गये, बीच में कभी चाय तो कभी पान के लिए आते-जाते रहे। अबकी उसे ग़ुस्सा आ गया। वह बड़े साहब के दफ़्तर में बेधड़क घुस गया। अंदर दो लोग पहले से थे, जिनसे साहब बात कर रहे थे। ये दोनों लोग दो अलग यूनियनों के शाखा मंत्री थे। वह उन्हें अच्छी तरह पहचानता था। हर साल कर्मचारियों के समस्याओं का समाधान करने का आश्वासन देकर चंदा ले जाते हैं। मूलचन्द अपनी फ़रियाद उनके आगे भी रो आया था किन्तु कोई फ़ायदा न हुआ। उसकी इस अभद्रता और उदण्डता पर बड़े साहब ने उसे डाँट लगायी और बाहर ठहरने को कहा। बाहर गेट पर बैठने वाला अर्दली दौड़ते हुए आया और बोला, “मैं ज़रा हटा और आप बिना पूछे घुस पड़े, पूछ तो लेना था कि जाऊँ कि नहीं।”

मूलचन्द को पश्चाताप होने लगा। नाहक़ ही मैं बड़े साहब के पास चला आया। पूछेंगे तो क्या बताऊँगा? भला वे मुझ जैसे छोटे कर्मचारी की सुनेंगे? सुना है, सबकी मिली-भगत से ही कोई काम होता है। सबका हिस्सा बँधा रहता है। आज डाँट तो सुनूँगा ही, ऐसा ना हो ‘पनीसमेन्ट’ भी दिला दे। यूनियन वाले भी कुछ नहीं करते। ग़रीब आदमी किसके पास फ़रियाद लेकर जाए। सब अपने में ही मस्त हैं। हे ईश्वर! किस आफ़त में जान फँसी। अब तुम्हीं मेरी रक्षा करना। सामान्य कर्मचारियों की भाँति वह भी अधिकारियों और ऊँचे अफ़सरों से डरता था। उसका पाँव काँप रहे थे, मन व्यग्र हो रहा था, गला सूख रहा था। हथेली और तलवे पसीने से तर हो गये थे। 

थोड़ी देर में दोनों आदमी बाहर निकले तो बड़े साहब ने मूलचन्द को बुलाया। वह डरते-डरते रोनी सूरत बनाए अंदर गया। हाथ जोड़कर प्रणाम किया और दीन-हीन भाव से अब तक की सारी कथा कह सुनायी। बाबू ने अर्दली को बुलाकर जयसिंह को बुलाने को कहा। चंद मिनटों में जयसिंह डरते हुए बड़े बाबू के सामने हाज़िर हुआ। वह साहब के स्वभाव से वाक़िफ़ था। 

बड़े साहब घूरते हुए बोले, “तीन महीना हो गया मूलचन्द का फ़ाइल अब तक पुटअप क्यों नहीं हुआ? इसके बाद के कई फ़ाइल मेरे सामने हैं। यह सब क्या चल रहा है?” 

जयसिंह ऊपर-नीचे देखने लगा, उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह ग़रीब चतुर्थवर्गीय कर्मचारी कभी साहब से मेरी शिकायत भी कर सकता है। हकलाते हुए बोला, “वक्त नहीं मिला, काम बहुत हो गया है।”

साहब घुड़के, “इन फ़ाइलों के लिए कैसे समय मिल गया? आज सारा काम छोड़कर पहले इसका काम करो। और हाँ, इसका पाँच सौ रुपया भी लौटा दो, जो काम करने के एवज़ में लिये थे। तुम जानते हो, उत्कोच से मुझे सख़्त नफ़रत है। तुम्हारी नौकरी भी जा सकती है।”

“कब लिया था? ये झूठ बोल रहा है साहब।” 

“पिछले महीने आया था तो नहीं लिये थे? सौ-सौ का पाँच नोट दिया था।” 

यह बात बिल्कुल ग़लत थी। मूलचन्द ने कभी भी रिश्वत नहीं दी थी। किन्तु शुरू में साहब नाराज़ न हो जाए, इसलिए हेकड़ी जमाने कि लिए यह झूठ बोल दिया था। जब एक बार बोल दिया तो पीछे हटना मुश्किल था। सारा बना-बनाया खेल बिगड़ जाता। 

साहब ने जयसिंह की एक न सुनी। इसके पहले भी इस तरह की कई शिकायतें आ चुकी थीं। उन्होंने उसका पाँच सौ रुपया लौटाने और दो घण्टे के अंदर फ़ाइल पुटअप करने को कहा। आइन्दा से ऐसी हरकत के लिए हिदायत दी। 

जयसिंह पाँच सौ रुपया मूलचन्द को देकर निकला तो यही सोच रहा था कि कभी तो फँसोगे तब निपटूँगा। सूद समेत वसूल करूँगा। साहब एक-दो साल में बदली होकर चले जाएँगे। सुबह से आठ सौ आया था। पाँच सौ इसी बेईमान को दे दिया। 

मूलचन्द साहब के कमरे से निकलकर थोड़ी दूर पर स्थित बेंच पर बैठा रहा। उसे डर था जयसिंह मिल गया तो ज़लील करेगा। बेईमान आदमी चाहे हज़ार झूठ बोलकर और बड़ी सफ़ाई से झूठ बोलकर निकल जाए किन्तु एक ईमानदार व्यक्ति के लिए यह उतना सहज नहीं है। आज उसके मन से एक बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी दूर हो गयी थी। वह मन में सोच रहा था अधिकारी बुरा नहीं होता। बिचौलिये जो उनके सम्पर्क में रहते हैं, वे उनका कान भरते रहते हैं। सारा किया-कराया इन्हीं का होता है। ये करते हैं, बदनाम अधिकारी होता है। 

अगले दिन मूलचन्द अपने घर लौट कर पत्नी को यह बात बताई तो दोनों ख़ूब हँसे। हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये। उनकी हँसी बाहर तक सुनाई दे रही थी। इस अभावग्रस्त, दुःख भरी जीवन में जब भी उन्हें हँसने की इच्छा होती यही प्रसंग छेड़ देते। 
 

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