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परिवर्तन एक बयार

सात-सात भाइयों की इकलौती बहन थी प्रीति।

एक कुशाग्र बुद्धि की लड़की थी, और इंजीनियरिंग में उसका कैंपस प्लेसमेंट भी हो चुका था। एक अच्छे पैकेज के साथ।

अपनी पढ़ाई के दौरान ही वो विजातीय रोहित को अपने लिए पसंद कर चुकी थी। और दोनों ही परिवारों को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी।

पुरुष समाज को वो बचपन से ही देखती समझती आई थी। कुछ विचार उसके दिमाग़ में पूरी तरह स्पष्ट थे। शादी में दहेज़ का तो सवाल ही नहीं था, पर उसने अपने माँ-बाप से गहनों के लिए भी मना करते हुए कहा, “उसे गहनों का शौक़ नहीं है, और जो लेना होगा अपनी ही कमाई से ले लेगी।”

गृहस्थी में भी रोहित के लाख समझाने पर भी, ख़र्चे का एक डिब्बा बना दिया था, जिसमें दोनों बराबर से पैसे डालते। कोई भी ख़र्च होने पर उसी से निकाल कर ख़र्च होता।

कम होने पर फिर दोनों ही उसमें डाल देते।

धीरे-धीरे रोहित को भी यही सही लगने लगा।

बाक़ी के पैसों का न वो रोहित से पूछती, और न ही रोहित उसके बैंक एकाउंट के बारे में।

वो स्वयं समर्थ थी, इंवेस्टमेंट्स की भी बाहर के समाज में रहते पूरी जानकारी थी।

कभी-कभी रोहित से सलाह ज़रूर लेती, पर अंतिम निर्णय अपना ही रखती थी।

ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार वो अपने पापा, चाचा, भाई, किसी भी पुरुष को करते देखते आई थी।
ये नहीं कि वो कोई ग़ैर जिम्मेदार या बुरे पुरुष थे।

बस बरसों की आदत थी। पर प्रीति इस बदलाव को लाने के लिए कृत संकल्प थी।

धीरे-धीरे उनके दो बच्चे भी हुए। एक बेटा व एक बेटी। उनकी पढ़ाई, व रहन-सहन के ख़र्चे में भी प्रीति बराबर की हिस्सेदार थी।

कभी ये रोहित को बुरा भी लगता, पर कोई भी परिवर्तन यूँ ही नहीं स्वीकार कर लिया जाता, उसे कुछ प्रारंभिक तकलीफ़ों से गुज़रना ही होता है। और रोहित को भी इस व्यवस्था में सहजता महसूस होने लग गई थी।

पर अभी बहुत से इम्तिहान बाक़ी थे जो प्रीति को देखने थे। पहले उन्होंने एक फ़्लैट लेने का निर्णय लिया। प्रीति को पता था क्या होना है, और वही हुआ। मकान की रजिस्ट्री में रोहित का नाम और नॉमिनी प्रीति।

उसने अपने चेहरे से, हाव भाव से ज़रा भी ज़ाहिर नहीं होने दिया कि उसे ये बात खटकी थी।

उत्तर उसे पता था, “मैं किस के लिए मर-खट के कमाता हूँ, मेरे बाद सब कुछ तो तुम्हीं लोगों का है, आदि आदि . . .

देखा जाए तो इस संदर्भ में स्त्री से अधिक अधिकार विहीन कोई है ही नहीं। सब कुछ उसका, और कुछ नहीं उसका।

ख़ैर! तरक़्क़ी के साथ-साथ, बढ़ती तनख़्वाह के कारण, प्रीति ने एक और फ़्लैट बुक कर दिया क्योंकि अब वो लोन चुकाने में सक्षम हो चुकी थी। इस बार फ़्लैट की रजिस्ट्री प्रीति के नाम थी।

घर जो स्त्री कि सबसे बड़ी सम्पत्ति, वो उसके नाम . . . ये विचार ही आनंददायक था।

कई बार वो अपने पिता, भाई आदि को ये धमकी देते सुन चुकी थी कि निकल जाओ घर से, या जाओ अपने बाप के पास।

पर पिता का घर भी कब . . .

एक और बाधा दूर हो चुकी थी, मानसिक रूप से सशक्त होने के कारण व्यवहार भी दोनों ओर से संतुलित ही था।

इस बीच पिता की मृत्यु का समाचार मिला।

पिता कोई वसीयत नहीं कर गए थे। स्त्री को सम्पति में अधिकार मिल चुका है ये बात सातों भाई भी जानते थे। स्त्रियाँ इस हक़ का भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं, ये भी।

सो कुछ दिनों बाद ही उसके सामने ये काग़ज़ रख दिया गया कि उसे पिता की सम्पत्ति में कोई हिस्सा नहीं चाहिए।

वाक़ई नहीं चाहिए था, सो हस्ताक्षर कर दिया। पर ताज्जुब तब हुआ, जब माँ से भी इस आशय के काग़ज़ पर दस्तखत लिए गए ताकि मकान भाइयों के नाम हो सके।

वाह! क्या त्रासदी थी, जीते जी कुछ नहीं, और मरने के बाद सब तुम्हारा का दावा करने वाले आ के देखते तो सही, कि 24 घंटे खटने वाली स्त्री, पहले पति और फिर किस तरह बेटों के आगे अधिकार विहीन होती रहती है।

उसे अब अगले क़दम की तैयारी करनी थी।

बेटे बेटी की शादी कर चुकी थी, अपने बैंक में उसकी लाखों की बचत थी, मकान अपने नाम था ही।

बाक़ायदा वकील को बुलाकर, अपनी सम्पत्ति के दो हिस्से कराए, बेटे, बेटी के नाम?

जी नहीं, बहू और बेटी के नाम, चल और अचल सम्पत्ति के बराबर हिस्से।

उसे महिला होने के नाते इस परिवर्तन की बयार को तो बहाना ही था। पहल वो कर चुकी थी।

और दृढ़ प्रतिज्ञ थी कि वो हर सर्विस करने वाली महिला के दिमाग़ में ये बात डाल कर ही रहेगी।

बेटों को तो पिता का मिलना ही है। पर स्त्री की सम्पत्ति स्त्रियों को ही मिल कर रहेगी। उन्हें इस दिशा में भी सशक्त बनाकर . . .

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टिप्पणियाँ

दीपिका ग्रोवर 2022/07/15 02:59 PM

बहुत ही विचारणीय कहानी सखी, इस अनोखी विचारधारा का बहुत बहुत आभार।

कृपया टिप्पणी दें

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