प्रकृति की गोद
कथा साहित्य | कहानी डोली शाह1 Apr 2024 (अंक: 250, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
अंग्रेज़ी लिबास, गोरा बदन, पतली कमर, बड़े-बड़े स्तन, वो गुलाबी गाल, आँखों पर काला चश्मा, हाथों में बड़ा-सा मोबाइल देखते ही शहरों की चकाचौंध का एहसास दिलाता।
बचपन से ही माता-पिता की लाड़ली सोनू की एक इच्छा पर सब कुछ उपलब्ध हो जाता। चाहे वह एक पौधे की बात कहे या खाने-पीने तथा उसकी ज़रूरत की वस्तुएँ . . .। लेकिन हाँ, वह बचपन से ही प्रकृति प्रेमी रही, अपना छोड़, दूसरों की क़द्र करना उसके शरीर में रक्त की तरह दौड़ता था। एक छोटे-से पौधे के पास भी वह खड़ी हो जाती तो घंटों सवालों में उलझी रहती। पके पत्तों से लेकर गमले तक को भी इस क़द्र चमका कर रखती मानो सेज सजा रही हो।
अचानक सोनू की नानी, लीला देवी की माँ की कुछ तबीयत बिगड़ने की सूचना मिली। सोनू का ग्रीष्मावकाश देख दोनों वहाँ चल दिए। चारों ओर से बाँस की झाड़ियों के बीच छुक-छुक करती रेलगाड़ी, इक्का-दुक्का बाँस फूस की झोंपड़ियाँ, ऊँची-ऊँची पर्वतों की चोटियाँ, वह बड़े-बड़े तालाब पूरे रास्ते का नज़ारा देखते ही बन रहा था। सोनू पूरी तरह उसी में रम गई थी।
घर पहुँच कर नानी की परी सोनू हर चीज़ का लुत्फ़ उठाती। वह प्रकृति के सवालों में उलझ कर रह जाती। हर किसी के साथ उसका अपनेपन का व्यवहार बड़ा ही सुखद अनुभव देता।
अगले दिन सोनू प्रातः भ्रमण हेतु प्रकृति का आनंद उठाने निकली। लंबी-लंबी झाड़ियों के बीच बिल्कुल सन्नाटा, कोहरे की वह धुँध, दूर-दूर तक लाइलहाते धान के खेत, पहरा देता वह पुतला तो आँख मिचौली खेलता आग का गोला, पूरी प्रकृति-मानो अपने आप से हँसी ठहाके कर रही हो। उसमें पक्षियों का कलरव क्या अद्भुत दृश्य बनता। इतने में सोनू की नज़र दूर खड़े तालाब के किनारे एक युवा पर पड़ी। समीप आने वह पल भर तो यूँ ही निहारती रही, फिर बोली, “आप यहाँ खड़े होकर इस बाँस के सहारे क्या कर रहे हैं”
दो पल युवक मौन रहा। सोनू निहारती रही। इतने में धागे के सहारे एक मछली उड़ कर निकली। सोनू अवाक् हो बोली, “वाह मछली!”
“हाँ मछली, कभी देखा नहीं क्या?”
“देखा है मंडियों में!”
“अच्छा, कहाँ रहती हो, इससे पहले कभी देखा नहीं तुम्हें?”
“हाँ, मेरा नाम सोनू है, मैं कल ही मामा के घर आई हूँ।“
“कहाँ रहती हो, कौन हैं तुम्हारे मामा?”
“शिवमंगल शर्मा नाम है उनका।“
” अच्छा!”
“आपका नाम?”
“सूरज।“
“वाह, लेकिन आप इतनी सुबह-सुबह मछलियाँ क्यों पकड़ रहे हैं?”
सूरज मौन रहा।
“आपको ठंड नहीं लग रही, आपने तो गर्म कपड़े भी नहीं पहने!”
“नहीं, वो सुबह से काम के चक्कर में यूँ ही निकल आया।”
इतने में एक और मछली देख वह बोली, ”आप कैसे पकड़ते हैं, मुझे भी सिखा दीजिए।”
सूरज दंग हो कर बोला, “अच्छा, फिर कभी!”
इतना सुन सोनू भी चल पड़ी। घर आकर वह माँ से प्रकृति की सुंदरता की तारीफ़ करते ना थकी।
अगली सुबह वह बड़े चाव से प्रातः भ्रमण के लिए पुनः निकली। चलते-चलते उसकी नज़र सूरज पर पड़ते ही ख़ुशी से फूले न समाई। वह जोश भरे शब्दों में बोली, “गुड मॉर्निंग।”
“वेरी गुड मॉर्निंग!“
“कब आए आप?”
“जस्ट . . . अभी-अभी ही आया हूँ।”
“अच्छा! आज तो मुझे सिखा ही दीजिए।”
“ओके तुम डोर के अंतिम सिरे पर नज़रें लगा कर रखना।”
“जी-जी,” सोनू भी देखती रही, “आप हर रोज़ मछली पकड़ने आते हैं?”
“हाँ, वो दरअसल मेरी माँ को ब्लड कैंसर है, डॉक्टर ने उन्हें सिर्फ़ यही मछली उबाल करके खाने को बोला है।”
“अच्छा, घर पर और कौन-कौन है आपके?”
“कोई नहीं, सिर्फ़ इकलौता मैं हूँ बस, पिता रहे नहीं, सारी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ मेरी ही है।”
“फिर तो सारा काम आप ही को करना पड़ता होगा।”
“हाँ, घर की परिस्थितियाँ देख मैं दफ़्तर से हाज़िरी लगाकर ही आ जाता हूँ, बाक़ी सारे काम घर से ही निपटाता हूँ।”
धीरे-धीरे दोनों एक दूसरे से इधर-उधर की बातें करते रहे। जिससे सोनू अब हर दिन प्रातः भ्रमण करने के बहाने ही घंटों सूरज के साथ समय बिताने लगी। दोनों में अपनत्व का एक रिश्ता-सा पनपने लगा।
इतने में एक दिन सोनू ने सूरज की माँ को देखने की इच्छा ज़ाहिर की। सूरज सुनकर अवाक् रह गया लेकिन फिर वह उसे अपने साथ ले गया।
माँ से मिलने वाले आशीर्वचनों ने दोनों को आबाद कर दिया। सोनू के कानों में उनकी बातें कुछ इस तरह गूँज रहीं थी कि दोनों के बीच कुछ ना होते हुए भी होने का एहसास दिला रहा था। जैसे रिश्तों में मधुरता ही डल गई।
सूरज कुछ बोलने को ही था, कि माँ बोली, “कुछ मत बोलो! मेरे बाल ऐसे ही नहीं सफ़ेद हुए।”
सोनू ने इशारे से सूरज को समझाया, “माँ की ख़ुशी यदि इन कल्पनाओं में ही है तो उन्हें कष्ट मत दीजिए। हर माँ की पल-पल की ख़ुशी बच्चों के लिए बहुत मायने रखती है।”
यह बात सूरज के मन-मस्तिष्क घर कर गई। इतनी क़द्र इतनी परवाह . . . वह माँ से घंटों बैठ बातें करती रही। और एक बिस्तर पर लेटे इंसान को प्यार के दो बोल बोलने वाला मिल जाए तो इससे बड़ी ख़ुशक़िस्मती क्या हो सकती है! दोनों के हँसी ठहाके देख सूरज भी कल्पनाओं की दुनिया में गोते लगाने लगा। इतने में जलपान कर सोनू घर से निकलने ही लगी थी कि सूरज ने आभार व्यक्त करते हुए कहा, “माँ की बातों का बुरा मत मानिएगा वह दिमाग़ से कुछ कमज़ोर हो गई हैं। कैंसर की वजह से उनकी स्मरण शक्ति भी बहुत कम हो गई है लेकिन हाँ अभी भी उनका आत्मविश्वास ही उनकी ताक़त है, जो उन्हें हमेशा ख़ुश रखता है।”
“हाँ, यदि मन ख़ुश हो तो शारीरिक कष्ट इतने महसूस नहीं होते। मैं चली अब।”
अब सूरज की रातों की नींद उड़ने लगी। वह मन ही मन सोचता, काश माँ की बातें सच हो जाएँ। उधर सोनू भी कल्पनाओं की दुनिया में माँ के साथ बिताए पलों को अक़्सर स्मरण करती।
क़रीब सप्ताह दस दिन बीत गए। सोनू हर दिन मछली पकड़ने देखने के बहाने घंटों सूरज से बातें करती। वक़्त के साथ ही मछलियों का मारना कुछ ज़्यादा ही जल्दी सुइयों का चलना लगने लगा। दोनों के बीच प्यार की परछाइयाँ कुछ ज़्यादा ही बढ़ने लगीं। दोनों अक़्सर यादों में खोए रहते। लेकिन सोनू का अवकाश ख़त्म होते ही वह वापस चकाचौंध की दुनिया में आ गई। सोनू का हर पल सूरज की यादों की चादर ओढ़ अपने तक ही सिमटी रहना, माँ को बड़ा अटपटा-सा लगता। वह मन ही मन उसका घर बसाने की सोचती लेकिन सोनू अपनी इच्छाओं पर अड़ी रही। वह इंतज़ार करती रही सही वक़्त का . . .
तभी एक दिन सूरज की तबीयत कुछ बिगड़ी। हालात भी कुछ गंभीर हो गए। जाँच करने पर सूरज के शरीर में भी कैंसर की कुछ अंश पाए गये। यह सुन कर सूरज बिल्कुल टूट-सा गया। तन्हाइयों के आँगन में उसके सारे सपने बिखर कर रह गए।
उसकी अपनी ज़िन्दगी भी बोझ लगने लगी। उसके सोने के बाद भी डॉक्टर की कही बातें उसके कानों में गूँजती। सूरज सोनू के फोन की पहली रिंग पर ही उत्तर देने वाला, वही अब लंबे इंतज़ार के बाद भी कुछ बोलने में ज़बान लड़खड़ाने लगी। सूरज का बदलता व्यवहार देख सोनू ख़ुद को रोक न पाई और उसने सूरज के मन की गहराइयों में जानने की कोशिश की, लेकिन सूरज आँख-मिचौली का चादर लिए कुछ भी बताने से इनकार करता रहा।
वक़्त के साथ, बातें करते हुए सोनू ने सूरज की सारी सच्चाई जान ली। यह सुनते ही वह एक तरफ़ जहाँ दुखी हुई वहीं उसकी बातें सुन अवाक् रह गई। तभी सूरज कहने लगा, “हमारे बीच लगाव ज़रूर था लेकिन वह इतना भी नहीं था कि रिश्ता विवाह तक पहुँच सके।”
यह सुन सोनू ख़ुद का रोक न सकी और उसने कड़क स्वर में कहा, “आज मेरी ज़िन्दगी का अंतिम दिन है, यदि मैं तुम्हारी ना हो सकी तो मैं किसी की नहीं होना चाहूँगी। फ़ैसला तुम्हारे हाथों में है।”
“सोनू ज़िद मत करो। मैं एक कैंसर का मरीज़ हूँ। मैं किसी से शादी नहीं कर सकता।”
“क्या, किसने कहा तुम्हें!”
“यही सच है, मैं इसके छोटे-छोटे लक्षणों से वाक़िफ़ हूँ। मुझे एहसास हुआ तो जाँच करने पर पता चला कि मुझे भी . . .”
सोनू ख़ुद से लड़ती हुई बोली, “तो क्या हमारा प्यार इतना हल्का है कि एक छोटी-सी बीमारी उसे शून्य में बदल दे।”
“सोनू! यह छोटी-सी बीमारी नहीं है, न जाने हर वर्ष इससे कितनों की ही जान जाती है। मेरी माँ को ही देखो।”
“सूरज मैं समझ सकती हूँ तुम्हारी हालत . . . तुम अपनी तुलना माँ से क्यों कर रहे हो? माँ की उम्र हो चुकी है, उनका शरीर जर्जर हो चुका है। तुम्हारा तो अभी प्राइमरी स्टेज है तुम पूरी तरह ठीक हो जाओगे और हम 2वीं सदी में जी रहे हैं, यहाँ सब कुछ सम्भव है। मैं बड़े से बड़े डॉक्टर से तुम्हारी जाँच करवाऊँगी। तुम उसकी टेंशन मत लो। भूल जाओ तुम्हें कुछ हुआ भी है। अब सब कुछ मेरी ज़िम्मेदारी! पर मुझे अपने आप से अलग करने की सोचना भी मत! मैं सिर्फ़ तुम्हारी हूँ,” यह कहते हुए उसने अपने दर्द को सीमित कर फोन रख दिया।
सोनू ने यह बात अपने पिता से साझा की और एक अच्छे डॉक्टर से जाँच करवाई, जिससे पता चला कि लंबे वक़्त तक दवाइयों के सेवन से वह बिल्कुल ठीक हो जाएगा। यह सुन सोनू की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा। वहीं सूरज को भी आशा की किरण दिखाई दी। अगले ही दिन सूरज अपनी माँ को लेकर वहाँ पहुँचा। लेकिन काफ़ी लंबे समय से बीमार होने के कारण दवाइयों के बाद भी पूरा ठीक होने की कोई गारंटी नहीं मिली। लेकिन हाँ, सूरज की यह बातें सुन माँ को भयानक बीमारी से लड़ने की शक्ति मिली। अब दोनों के रिश्ते क़ुतुब मीनार की ऊँचाइयाँ छू रहे थे, पर सूरज अक़्सर बात को टाल देता। देखते-ही-देखते सूरज की जाँच बिल्कुल नॉर्मल हो गई। जिससे दोनों के बीच सम्मानजनक रिश्ते की डोर और भी मज़बूत हो गई। एक तरफ़ जहाँ सोनू के माता-पिता को एक असहाय की मदद करने का सुख मिला, वही सूरज की माँ को अपनी पहाड़ जैसी बीमारी भी बालू के कण जैसे लगने लगी।
परिस्थिति को देख सोनू ने पिता से सूरज के साथ विवाह के इच्छा ज़ाहिर की। माता-पिता के लंबे वक़्त से चल रहे अंदेशे को सोनू ने सही कर दिखाया, लेकिन इकलौती बेटी की ख़ुशी देख वह विवाह के लिए भी राज़ी हो गए और सूरज की माँ का दिया हुआ आशीर्वचन पुरोहित के सामने पूरा हो गया। दोनों का विवाह बड़े ही साधारण एवं सम्मानजनक ढंग से संपन्न हो गया। प्रकृति की गोद में हिलोरें लगाते दोनों के रिश्ते गुलाब की तरह महकते रहे और सब कुछ देख माँ की आयु और लंबी होती गई जिससे छोटा-सा परिवार सदा ख़ुश रहने लगा।
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