अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

रामलीला

गाँव में बड़ी चहल-पहल थी। आखिर होती भी क्यूँ न, एक लम्बे अरसे बाद फिर रामलीला का आयोजन हो रहा था। बीस बरस पहले हर अगहन-पूस के महीने में इस गाँव में रामलीला हुआ करती थी।

मुझे अब भी रामलीला का हर एक दृश्य ज्यों का त्यों याद है। अपार जनसमूह से लाला की बगिया खचाखच भर जाती थी। ऐसा लगता था की गाँव का बच्चा-बच्चा सारे काम-काज छोड़कर जमा हो गया था। रामायण की आरती के साथ रामलीला के कार्यक्रम का शुभारम्भ होता था। आरती सबके सामने ले जाना तो हर तरह से मुश्किल था। हम लोग बारी-बारी मंच के पास जाकर आरती ले लेते और पाँच, दस, बीस पैसे डाल देते थे। फिर हम लोग तल्लीन होके रामकथा देखते भी, सुनते भी। इतनी तल्लीनता होती थी कि पूस की सर्द रात भी हम लोगों के सामने घुटने टेक देती थी। आधी रात के बाद रामलीला का समापन हो जाता। लोग अपने-अपने घरों में राम-नाम लेके सो जाते। फिर दिन भर अपना काम निबटाते और रात में रामलीला देखते ही सारी थकान मिट जाती। ऐसी होती थी रामलीला!

फिर न लाला जी रहे, न उनके बाल-बच्चों ने इसमें दिलचस्पी ली। न गाँव वालों को फ़ुर्सत मिली और न फिर रामलीला हुई।

आज एक-बार फिर रामलीला का उत्साह हर बूढ़े, नौजवान और बच्चे में देखने लायक था। नौजवानों में ख़ास तौर पर। कारण ये था कि इन्होंने ही घर-घर जाकर, हाथ-पाँव जोड़कर चन्दा इकठ्ठा किया था।

धीरे-धीरे रामलीला मंडली हमारे गाँव में पधार चुकी थी। ये बात क़ाबिले गौर थी कि इस बार मंडली में पुरुषों के साथ लड़कियाँ एवं महिलाएँ भी थीं। इससे पहले मंडली में सिर्फ़ पुरुष ही हुआ करते थे। स्त्री जैसे सीता, कैकयी आदि के पात्र भी उन्हें निभाना पड़ता था। हालाँकि उनकी तरफ़ से कोई कसर नहीं छोड़ी जाती थी, इसके बावजूद भी उनका चरित्र उतना असरदार नहीं बन पाता था। ज़ाहिर था कि ये महिलाएँ इन्हीं स्त्री-पात्रों के लिए थी।

सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। रामलीला का समय आ चुका था। शाम अँधेरे में तब्दील हो गई थी। इस बार अपेक्षाकृत ज़्यादा ठंडक पड़ रही थी। पूरे मैदान में पुआल डाल दिया गया था।

धीरे-धीरे पर्दा उठा। सारे कलाकार मंच पर दिखे। ऐसा पहले भी हुआ करता था, जब रामायण की आरती होने वाली होती थी। सभी कलाकारों ने बारी-बारी से अपना परिचय दिया। पर्दा गिरा। मैं समझ गया कि अब रामायण की आरती होने वाली है। कि तभी-

“अब आपके सामने अपने जलवे बिखेरने आ रहीं हैं, रामकली।”

पर्दे के पीछे से आ रही इस आवाज़ के साथ ही किसी फ़िल्मी गाने की धुन बजने लगी। पल भर में पर्दा उठा और रामकली मंच पर ‘बिन पानी के मछली’ की तरह तड़पती हुई दिखीं।

मुझे रामलीला का ये मंज़र बड़ा अजीबोगरीब लगा। मैंने लोगों की मनोस्थिति भाँपने के लिए इधर-उधर नज़रें दौड़ाई। ज़्यादा ठंडक होने की वज़ह से भीड़ उम्मीद से काफ़ी कम थी। सभी के हाव-भाव यही बता रहे थे कि सब कुछ सामान्य व स्वाभाविक था।

रामकली गई फिर चम्पाकली आई, फिर मुन्नीबाई और फिर राजरानी। इतने लटके-झटकों के बाद रामायण की आरती हुई और फिर रामलीला का कार्यक्रम शुरू हुआ।

वही रामकली, जो कुछ देर पहले मंच पर झूम रहीं थी, साक्षात् सीता के रूप में सामने खड़ी थी। लाख कोशिशों के बावजूद मुझे उस शांति-स्वरूपा सीता में थिरकती रामकली नज़र आ रही थी। इससे पहले सीता के रूप में पुरुषों को देखकर भी मेरा मन भक्ति-भाव से भर उठता था। जैसे-तैसे रामलीला के पाठ का समापन हुआ। एक बार फिर उसी रामकली को मंच पर बुलाने की गुज़ारिश लोगों ने की।

मुझे रामलीला के ये बदले तेवर बेचैन कर रहे थे। घर आने के बाद काफ़ी देर तक मैं सो न सका था।

अगला दिन बीता। फिर रामलीला का वक़्त हो चुका था। मैंने थोड़ा देर से जाने का मन बनाया। इसके दो कारण थे- एक तो ज़्यादा भीड़-भाड़ न होने की वज़ह से जगह मिलने की कोई दिक्कत न थी। दूसरा, मुझे रामलीला के मंच पर वो फूहड़ नाच अच्छा न लगा था। कल के वक़्त से तक़रीबन एक घंटा बाद मैं रामलीला मैदान की ओर रवाना हुआ। वहाँ पहुँचकर मैंने कल से भी अजीब मंज़र देखा।

पूरा मैदान लोगों से खचाखच भरा था। रामकली मंच पर थिरक रही थी। कुछ लोग तालियों एवं गालियों से हौसला-अफ़जाई कर रहे थे तो कुछ रुपये-पैसे दिखाकर अपनी फरमाइशें पूरी करवा रहे थे। पूरा माहौल बदला सा लग रहा था। और मैं, बैठने की जगह न मिल पाने की वज़ह से खड़े-खड़े ही रामलीला के अगले पाठ का इंतज़ार कर रहा था।

काफ़ी रात बीत जाने पर भी अभी रामायण की आरती तक न हो पाई थी। दो-चार लोग, जो लगभग मेरे हमउम्र थे, इसके लिए शोर-शराबा कर रहे थे। मगर उस अपार जन-समुद्र में दो-चार बूँदों के हलचल से क्या फ़र्क पड़ सकता था! तभी पर्दे के पीछे से आवाज़ गूँजी-

“बेहद अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि रात अधिक व्यतीत हो जाने के कारण आज का रामलीला-पाठ संभव न हो सकेगा। आप लोग रामकली के नगमों का लुत्फ़ उठाइए।”

मैं उलटे पाँव वापस लौट पड़ा। ऐसा था बीस साल बाद रामलीला का मंज़र। जहाँ सब कुछ बदल चुका था, बस एक नहीं बदला था तो वो ‘रामलीला’ का नाम।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं