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साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य और फिजी

 

संपूर्ण विश्व को सभ्य बनाने का श्रेय भारत वर्ष को ही जाता है, ये बात वेद-पुराणों से सिद्ध हो चुकी है। 

“एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मनः। 
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन पृथिव्यां सर्वमानवः॥1

भारत वर्ष से ही समग्र विश्व में ज्ञान का दीपक प्रकाशित हुआ है। यह बात भगवान ‘मनु’ ने ही उपर्युक्त श्लोक में कही है। गुरूकुल में ऋषि-मुनियों द्वारा शिक्षा प्रदान होती थी। क्रमशःसमय के साथ हमने देखा कि महाभारत का घमासान युद्ध हुआ, जो संसार की सर्वाधिक महत्पूर्ण घटना रही, वही महाभारत का युद्ध भारत के पतन का कारण माना जाता रहा। जो मानवों का युद्ध नहीं अपितु मानवीय आदर्शों का युद्ध था। यही भारतीयों की प्रवासी शृंखला की भूमिका थी। 

प्रवासियों का जन्म इसी महाभारत युद्ध की देन है। युद्ध की विभीषिका ने हमसे कई श्रेष्ठ और प्रभावशाली महापुरुष छीन लिये और शेष लोगो ने अपना जीवन विदेशो में व्यतीत करना अधिक सुरक्षित और श्रेयस्कर समझा। 

श्री बनारसी दास चतुर्वेदी के अनुसार विश्व का सर्व प्रथम प्रवासी व्यक्ति ‘मनु’ को माना जाता है। वेद एवं साहित्य के अनुसार सर्व प्रथम मनु महाराज ने प्रवास कर मिस्र देश में निवास किया था। मनु सृष्टि के आदि पुरुष तो थे ही प्रवासी शृंखला के भी प्रथम पुरुष रहे। 

 

सांस्कृतिक परिदृश्यः

इसी घटना से देखे तो ब्रिटिश संसद के दास-व्यापार, व्यापार उन्मूलन अधिनियम सन् 1807 के अनुसार उस पर प्रतिबंध लादा गया। इसी के फलस्वरूप इंग्लैंड का अनुसरण करते हुए अन्य देशों जैसे डेनमार्क, अमरिका, फ़्राँस, स्पेन आदि ने इस प्रथा को समाप्त घोषित कर दिया, परन्तु गुप्त रूप से यह व्यापार सक्रिय रहा। 1834 को दासता उन्मूलन अधिनियम बन गया। बाग़ान मालिकों की क्षति के लिए 20000 लाख मिलियन पाउंड की राशि हर्जाने के रूप में प्रदान की गई। भूमिपतियों और अँग्रेज़ शासकों को मज़दूरों का अभाव खटकने लगा। उन्हें सस्ते और परिश्रमी मज़दूरों की आवश्यकता थी, तो प्रारंभ हुई कुली प्रथा। जो आज तक चल रही है। इसी प्रथा के तहत भारतीयों को विश्व के कोने-कोने में भेजा गया जिसका अंत एक शतक बाद हुआ। “5 मई 1879 को 481 भारतीय मज़दूरों को लेकर जहाज़ लेवनीदास फिजी के समुद्र तट लेबुका पर लगा। ये सारे मज़दूर शर्तबंद की प्रथा के तहत फिजी आए थे। फिजी में ऊख की खेती के लिए मज़दूरों की अति आवश्यकता थी। भारत के आरकाटियां द्वारा इन लोगों को बहला-फुसलाकर, प्रलोभन देकर भेज दिया जाता था। क्रमशः भारत से 63 हज़ार भारतियों को इस प्रकार भेजा गया था। इस प्रथा को गिरमिट प्रथा कहा जाता रहा जो 1879 से 1916 तक रही। यह प्रथा बंद होने पर 25 हज़ार भारतीय ही स्वदेश लौटे बाक़ी के तो किसी न किसी स्तर के काम में लगकर यहीं रह गए। इसमें अधिकांश बिहार, उत्तर प्रदेश एवं दक्षिण भारत के थे।”2

भारतीयों के स्थायी रूप से फिजी में बस जाने के बाद धार्मिक प्रचार हेतु तथा फिजी से आकर्षित होकर कई साधु, संत, धर्म प्रचारक, सैलानी, नेता और व्यापारी भी आते रहे। यह गिरमिट काल से ही शुरू हो चूका था। जिनमें थे दीनबंधु रेवरेंड, सी.एफ़ एन्ड्रूज़, डॉ. मणीलाल गाँधी का नाम उल्लेखनीय है। यहाँ आकर इन लोगों ने पीड़ित प्रवासी भारतीयों की बहुत सेवा की। 

संसार का सबसे बड़ा प्रशान्त महासागर जो पृथ्वी के तीन चौथाई हिस्से में अपना साम्राज्य जमाये हुए है। इसके दक्षिण-पश्चिम दिशा में छोटे-मोटे कई द्वीप हैं। ये सारे द्वीप इस महासागर में कमल की भाँति खिले हुए हैं। इन्हीं में से एक द्वीप का नाम है फिजी। यह विषुवृत्तीय रेखा के 22 दक्षिण और 15 अक्षांतर के समानान्तर, 177 पश्चिम देशान्तर के मध्याह्न ग्रीनविच के 175 पूर्व के मध्याह्न में स्थित है। इसके बीच आनेवाला सारा द्वीप समूह फिजी उपनिवेश के अंतर्गत आता है। 

फिजी का सबसे बड़ा द्वीप वीतीलेवू है। वेनुआलेवू, तेवयूनी, कंदाबू, रंबी, बंगा, कोरो आदि अनेक छोटे द्वीप भी है। फिजी द्वीप समूह तीन प्रकार से निर्मित है 1. ज्वालामुखी के विस्फोट से।2. मूंगे की चट्टानों से। 3. चूने के पत्थरों से। इसीलिए व्यापारियों की दृष्टि से आकर्षण का केंद्र है। फिजी के पर्वत अति रमणीय, मोहक, जंगल काष्ट से भरे पड़े है विशेषतः चंदन से। 

फिजी का मौसम सदाबहार है, न तेज़ धूप है न कड़ाके की ठंड है, वसंत और ग्रीष्म दो ऋतुओं की प्रचुरता है। यहाँ के मौसम गिरगिट की तरह कभी भी रंग बदलता है। फिजी की राजधानी सूवा में साल भर वर्षा होती रहती है। अतः सूवा को यहाँ का चेरापूंजी कहा जाता है। यहाँ पर आम तौरपर मकान टीले पर बने होते हैं। तूफ़ानों का आगमन फिजी के लिए दुर्दिन होते है। महासागर अतिक्रमण करके नगर के घरों में पहुँच जाता है और गलियों में मछलियाँ तैरने लगती हैं। विनाशलीला के दृश्यों को प्रस्तुत करनेवाला समुद्र तट मनोरम और रमणीय है। हाँ चीनी के साथ-साथ यहाँ चावल की भी मिलें है। फिजी भी भारत की तरह कृषि प्रधान देश है। गन्ना, नारियल, अदरक और तम्बाकू प्रमुख फ़सल हैं। चावल इधर का मुख्य अनाज है, जिसे प्रवासी भारतीय किसान ही उपजाते हैं। फिजी की ज़मीन में तांबा, लोहा, एल्युमिनियम, फास्फेट, मैंगनीज़ आदि खनिज पाए जाते हैं। 1940 से फिजी में हवाई सेवा नियमित रूप से होने लगी है। 

सांप्रत समय में फिजी एक बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक देश है, जिनमें तीन प्रमुख धाराएँ है। मूल जनधारा काईबीती जाति है जिसमें भारतीयता भरी पड़ी है, पर मूल का पता नहीं है। वे अति सरल स्वभावी, स्नेहिल, मैत्रीपूर्ण एवं आतिथ्य सत्कार करनेवाले हैं। विशेषता यह है कि वे लोग वर्तमान में ही जीते हैं भविष्य की चिंता नहीं करते। दूसरी जनधारा भारतीयों की है। फिजी के प्रवासियों में गंभीरता है, काम करने की सजगता है, उनके कार्य सोद्देश्य होते हैं। आज प्रवासियों के पास अपना घर, गाड़ी, आधुनिक संसाधन सब कुछ है। 

एक शताब्दी बाद प्रवासी भारतीय अपने घर के भारतीय वातावरण को सुरक्षित रखने में समर्थ रहे हैं। प्रवासी भारतीय अपने साथ भारत का धर्म एवं संस्कृति लाये है। तुलसीदास की रामायण, हनुमानचालीसा, गीता, सुंन्दरकाण्ड जो सम्पत्ति के रूप में लाये है। फिजी में किसी भी कार्यक्रम में ॐ वर्ण का चिह्न बना रहता है, जो प्रवासी भारतीयों की भारतीयता का प्रतीक है। रामायण यज्ञ करते समय सामूहिक रूप से जयघोष किया जाता है:

“सत्य सनातन धर्म की जय, सब देवी-देवताओं की जय
रामायण महारानी की जय, भारतमाता की जय॥”3

अपने देश से इतनी दूर होकर भी ये अपनी माता के कितने निकट हैं इसका यह भाव-प्रमाण है। 

भारत की संस्कृति विशाल है जिसे भारतीय विदेशों में जाकर गौरवान्वित करते हैं। इन सब में अपनत्व की भावना है, दलितों को ठुकराना ये लोग नहीं जानते। यही कारण है कि प्रवासी भारतीय सफलता की सीढ़ी लाँघते चले जा रहे हैं। फिजी की खालसा कॉलेज के प्रिसीपल जे.एस. कँवल के अनुसार—जहाँ तक हो सका इन्होंने अपनी संस्कृति को सँभालकर रखा है। अपने धर्मों को जीवित रखने के लिए इन लोगों ने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा बना लिए हैं। इन लोगों के जीवन में मिलावट और मक्कारी नहीं आये है। खेतों की ठंडी हवा और हरियाली इनके हृदय और बुद्धि को तरोताज़ा रखती है। 

प्रवासी भारतीय कृषक वर्ग कठोर परिश्रम करके अपने परिवार का वहन करता है और अपने देश की उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। फिजी में प्रवासी भारतीय अनेक धर्मों, जातियों और संप्रदायों के है, कितु भारत छोड़ने के बाद जहाज़ी यात्रा के कारण इनके धर्मों का समन्वय हो गया है। श्री भगवानसिंह के अनुसार— “मूल मानव धर्म की विभिन्न शाखाओं में जो कट्टरता के काँटे थे वे इस जीवन संघर्ष की रगड़ से टूटकर कुछ तो समुद्र में ही झड़ गए थे और बाक़ी यहाँ आकर गिर गए।”4

फिजी में एक सनातनधर्म प्रतिनिधि सभा भी है। “नसीन” में एक ऋषिकुल भी है, नाम से आभास होता है कि वहाँ वाल्मीकि और लव-कुश का प्रशिक्षण भी होता होगा। इसीसे भारतीयता जीवंत हो उठती है। 1904 में फिजी में आर्यसमाज की भी स्थापना हुई है। आर्यसमाज द्वारा निर्मित मंदिर और सभाभवन भी है। सूवा में प्रवासी मुसलमानों की मस्जिद अपनी अद्वितीय सुंदरता लिए हुए है। शिया, सुन्नी, अहमदिया आदि जाति के लोग यहाँ है। 

फिजी में त्यौहार और मेलों की तो मानो बाढ़ ही लगी रहती है। इन प्रवासियों में भारतीय आत्मा बसी रहती है, अतः दीवाली, दशहरा, होली राखी, ईद, मुहर्रम आदि धूमधाम से मनाये जाते हैं। दीपावली फिजी का राष्ट्रीय पर्व है। दीपावली अपने दीपों की लड़ियों में प्रवासियों के लिए सौंदर्य, उत्साह, और हर्ष पिरोकर लाती है। 

फिजी में 10 अक्तूबर को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। 

धार्मिक मर्यादा के अनुसार मृत्यु के पश्चात श्राद्ध और भण्डारा आदि भी होता है। उत्साह से शादी-ब्याह भी मनाते हैं, बड़ी ख़ुशी की बात यह है कि दहेज़प्रथा तनिक भी यहाँ नहीं है। हल्दी लगाने की प्रथा भी भारत के जैसी ही है। झूमर गाना भी यहाँ लोकप्रिय है:

“नाचे हो काला भँवरा कलस पर, 
तुम्हार हम ज्योना बनाये, 
ज्योना न जेव कलस पर, 
नाचे हो काला भँवरा कलस पर॥”5

इनके लोकगीत मधु की तरह मीठे होते हैं। प्रवासी भारतीयों में बिरहा, बिदेसिया, सोहर, भजन, आदि अधिक लोकप्रिय हैं। इन सभी गीतों में भारतीय जीवन की झलक देखने को मिलती है। फिजी भारतीयता से ओत-प्रोत है। आज यह द्वीप खुली हवा में साँस ले रहा है केवल भारतीय परिश्रम के बल पर ही। फिजी की संपन्नता में प्रवासियों का रक्त है, गन्नों की फ़सलों में श्रम, औद्योगिक उत्पादनों में कौशल है, व्यापार की उन्नति में युक्ति है जो सर्वोपरि है। 

हमने अवगाहन के संग क्षेत्रीय, भौगोलिक, मौसमीय, सांस्कृतिक पक्षों को देखा जिससे फिजी की रंगत-संगत का पता चलता है। फिजी की संस्कृति में पूर्व में काईबीती जन संख्या ही नज़र आई है परन्तु उनमें भी भारतीयता अधिक दृष्टिगत हुई और दूसरा वाक़ई में वे फिजी के हैं? इनके मूल के विषय में कोई ठोस प्रमाण नहीं है। तुरंत बाद हमने देखा की शर्तबंदी मज़दूर भारतीयों को लाया गया, तो बेशक जन्मजात संस्कृति तो इस उक्ति की भाँति प्राण जाय अरु बचन न जाई, के हवाले से इन गिरमिटियों के साथ आई और आज भी यथावत संस्कार, रीति, रस्म और धर्म सबका आचरण शुद्ध रूप से होता हुआ हम देख रहे हैं। 

 

साहित्यिक परिदृश्यः

हिंदी साहित्य का फिजी में क्रमबद्ध रूप से कहीं कुछ नहीं मिलता, न ही बना हुआ है। इस धरती पर प्रवासी भारतीयों का आगमन 15 मई 1879 में हुआ। ये लोग अनपढ़ थे और ज़्यादा भाषाएँ जानते भी नहीं थे, केवल अपनी मातृभाषा बोलते और उसीमें ही परस्पर व्यवहार किया करते थे। अतः 1916 तक के समय को हम हिंदी का प्ररंभिक काल कह सकते हैं। इस समय में साहित्यिक रचना तो न के बराबर ही रही। सिर्फ़ और सिर्फ़ धार्मिक ग्रंथों की पंक्तियाँ और लोक गीत ही उनकी साहित्यिक विरासत थे। 

फिजी में हिंदी की कोई ऐसी पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई जिसमें फिजी के हिंदी साहित्य के उद्भव और विकास के बारे में कोई ठोस जानकारी प्राप्त हो सके। फिर भी फिजी में हिंदी साहित्य के निर्माण की दिशा में काम तो अवश्य हुआ है।

 

पद्य साहित्यः 

फिजी में पद्य साहित्य का उद्भव कब हुआ यह कहना कठिन है। यहाँ कविता की बहुलता के उपरांत भी ऐसा कोई साधन उपलब्ध नहीं है कि इसका प्रकाशन हो सके। हाँ, यहाँ के समाचार पत्रों में तथा विशेषांकों में प्रायः कविताएँ प्रकाशित होती रहती थीं। 

फिजी में गये हुए भारतीय मज़दूर अधिकतर बिहार और उत्तर प्रदेश के थे, उनकी बोली भोजपुरी थी। उन लोगों के साथ पशुओं जैसा व्यवहार किया जाता था, कोलंबर द्वारा उनकी पिटाई की जाती थी, पूरे दिन की कड़ी मेहनत के बाद जब थके-हारे घर आते तो अपनी बोली में जो भी याद आता उसे गुनगुनाने लगते थे। ये लोग पढ़े-लिखे तो थे नहीं कि शुद्ध भाषा में गाते, देखिए उसका एक उदाहरण:

“काम में टूट मरे हो रामा, फिर भी झिड़की लगाये रे बिदेसिया, 
खून पसीने से सींचे हम बगिया, बैठै बैठा हुक्म चलाये रे बिदेसिया।”6 

इन लोगों के रहने की व्यवस्था अच्छी नहीं थी। उन्हें जो कोठरी दी जाती थी उसीमें रहना, नहाना, खाना पकाना आदि करना पड़ता था, एक कोठरी में तीन लोग रहते थे। एक दिन किसी कवि दिल मज़दूर को गीत याद आ गया, उसने एक डिब्बा उठाया बजाते हुए गाना गाने लगे:

“सब सुखवान सी.एस.आर. की कोठरियाँ। 
 छह फुट चौड़ी आट फुट लम्बी
उसी में धरी है कमाने की कुदरिया
उसी में सिल और उसी में चूल्हा
उसी में धरी है जलाने की लकरियाँ
उसी में महल और उसी में दो महला
उसी में बनी है सोने की अटरिया।”

श्री काशीराम कुमुद फिजी के जाने-माने कवि एवं लेखक हैं, “प्रतिज्ञा” कविता में फिजी के लिए, देश को समृद्ध करने के लिए, यहाँ के देशवासियों ने जो जी-जान लगा दिए थे उसकी ललकार है:

“हम फिजी माँ के लाल नवल, कर उन्नति सफल दिखा देंगे, 
इस स्वर्गभूमि को मिलजुल के, जग का सिरताज बना देंगे, 
विहरेगी फिजी वसुंधरा, लखकर बच्चों की ख़ुशहाली
माँ! कुमुद तुम्हारा आँचल को, लहरा कर के दिखला देंगे।”8

वह दौर था जब कविता संकलन प्रकाशित नहीं हो पाता था अपितु पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानी, लघुकथा आदि प्रकाशित होते थे। ज्ञानीदास की कविता “फिजी के वीर” में भारत के सपूतों को संबोधित करते हुए कहा है:

“मत हमें एक बालक समझो, हम है फिजी के वीर, 
भारत का ख़ून है हम में, फिजी में जनम लिये है, 
है कर्त्तव्य हमारा जिस देश में पले हुए है, 
अवसर मिला चला देंगे अभिमन्यु जैसा तीर, हम हैं . . .”9

फिजी के प्रति श्रद्धा से कवि ओत-प्रोत है। उन लोगों को अपने देश के प्रति गर्व है। ये मेरा फिजी में कवयित्री श्रीमती सुकलेश बली ने लिखा है:

“फिजी प्रशान्त का स्वर्ग कहलाता, 
रंग रंग के फूल खिलाता। 
सबको मिलकर रहना सिखाता, 
विभिन्न जाति और धर्म मिलाता। 
 ये मेरा फिजी, प्यारा फिजी।”10

फिजी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं में सारे रसों का गुंफन मिलता है। पर हाँ, हास्यरस को उजागर करनेवाली रचनाएँ कम ही या न के बराबर हैं, मुक्त छंद का प्रचलन अधिक नज़र आता है। देश प्रेम की भावना, तीज-त्यौहार आदि के महत्त्व को वर्णित किया गया है। छंदोबद्ध कविता का सृजन भी कम नहीं हुआ। फिजी में हिंदी कविता ने अपना एक अलग स्थान बनाया है। अब तो कविता संकलन भी प्रकाशित होने लगे हैं। 1947 में पंडित प्रतापचंद्र शर्मा का संग्रह “प्रवास भजनमंडली” के नाम से प्रकाशित हुआ था। 

केवल कवि ही नहीं थे अपितु कवियत्रियाँ भी रचनाओं के माध्यम से नारी उत्थान, समस्याएँ और पुराणों के प्रतीकों द्वारा समाजोत्थान का कार्य करती थीं। उनकी रचनाएँ सशक्त रही हैं। सरोजिनी आशा हैरिस का काव्य संग्रह है “आपके लिए”, 1993 का प्रकाशन है। इनकी कविताएँ फिजी रेडियो से भी प्रसारित की जाती थीं। नारी दिवस के उपलक्ष्य में नारी की महानता को दर्शाती उनकी कविता देखिए:

“तू प्रियतमा, माँ और बहना तू, नारी हर घर की गहना तू, 
सुख-दुःख की गंगा-यमुना तू, हर शीतल मन की भावना तू, 
भरती है गोद माँ कहलाती है, अर्दाँगिनी बन पति का साथ निभाती है, 
अल्हड़ बेटी तू सारे घर को रिझाती है, भाई के सुमधुर अरमानों का साधना तू।”11

 

गद्य साहित्यः

गद्य साहित्य में निबंध कहानी, उपन्यास आदि के मिले-जुले रूप मिलते हैं। फिजी में सर्वप्रथम तोताराम सनाढ्य की पुस्तक “फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष” प्रकाशित हुई थी। इसमें प्रवासी भारतीयों की इस द्वीप में क्या स्थिति थी का चित्रण है। जो सत्य घटनाओं पर आधारित है, इसे तोतातराम की आत्मकथा भी कह सकरते हैं। 

अयोध्या प्रसाद ने “किसान संघ का इतिहास” दो भागों में लिखा, जिसमें फिजी के किसानों की समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है। श्री विवेकानंदजी शर्मा ने प्रथम कृति के रूप में “प्रशांत की लहरें” रचना का दो भागों में लेखन किया है। इस पुस्तक के सम्बन्ध में कवि दिनकरजी का कहना रहा:

“बृहत् हिन्दी साहित्य के विकास में यह पुस्तक कड़ी का काम देती है।”12

इसकी कहानियाँ बाल साहित्य से संबंधित है, जिसे फिजी का प्रथम बाल साहित्य की पुस्तक कह सकते हैं। 

फिजी में भारतीय उच्चायुक्त रहे श्री भगवान सिंह ने “फिजी” नामक ही एक पुस्तक रची, जिसमें पूरे फिजी को यथावत्‌ पाठकों के सामने खड़ा कर दिया है। इसकी भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण है। 

श्री जोगेन्द्र सिंह कँवल को फिजी के गद्य साहित्य का अनुपम रत्न कहा जाता है। इनकी रचनाएँ सुंदर, सरल एवं ज्ञानवर्धक होती हैं। प्रथम रचना है “मेरे देश मेरे लोग”, इसमें फिजी वासियों के त्यौहार, रीत-रस्म, भाषा, धर्म आदि का विस्तृत विवेचन भी है। प्रवाहपूर्ण भाषा में उत्तम कृति है। इस पुस्तक की भूमिका में वे ख़ुद लिखते हैं:

“भिन्नताओं एवं विविधताओं के होते हुए भी यहाँ आधारभूत एकता दृष्टिगोचर होती है। श्री कँवल ने अपनी 
 पुस्तक में यहाँ की भिन्न-भिन्न जातियाँ, उनकी संस्कृतियों, उनके धर्मों, रीति-रिवाज़ों, मेलों, तीज-त्यौहारों 
 और उत्सवों तथा उनकी भाषा और साहित्य का संक्षिप्त विवरण दिया है, साथ ही उन्होंने फिजी की 
 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में नवनिर्माण की विभिन्न योजनाओं पर कुछ प्रकाश डालते हुए फिजी के उज्जवल 
 भविष्य के सपने सँजोये हैं।”
13

इन्होंने ‘सवेरा’ उपन्यास की रचना करके फिजी के हिन्दी साहित्य को समृद्ध कर दिया है, जिनका कथानक सत्यघटना पर आधारित है, कहीं कड़ियों को जोड़ने के लिए कल्पना का पुट जोड़ा है। इसकी शैली में लेखक की पंजाबीयत छलकती है। 

हिन्दी पत्रकारिता की तरफ़ निगाह डालें तो हिंदी पत्र का प्रारंभ डॉ. मणीलाल द्वारा 1913 में संपादित पत्र “सेटलर” से माना जाता है। पं, शिवदत्त शर्मा इसके कार्यकारी थे। इसे फिजी का प्रथम हिन्दी पत्र कह सकते हैं। 

सर्वाधिक प्रसार पानेवाला कोई पत्र रहा तो वह है “शांति-दूत” जो मई 1935 में श्री गुरूदयाल शर्मा द्वारा प्रारंभ किया गया था। जिसकी वर्तमान संपादिका श्रीमती नीलम कुमार हैं। इस पत्र में राजनीतिक-साहित्यिक दोनों प्रकार की भरपूर सामग्री रहती है। 

1923 में “फिजी समाचार” निकालने का श्रेय श्री बाबूराम सिंह को जाता है। इसमें साहित्यिक सामग्री चित्रों के साथ प्रचुर मात्रा में मिल जाती है। ये पहला हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में प्रकाशित होता था, पर अब साप्ताहिक के रूप में हिंदी में प्रकाशित होने लगा है। 

श्री वी.एल. मोरीस के संपादन में “फिजी संदेश” पत्र प्रकाशित होता था। इस पत्र का संपादकीय अत्यंत प्रभावशाली रहता था। सवाल आपका जवाब हमारे इसका लोकप्रिय स्तंभ हैं। 

इसके अतिरिक्त फिजी में अन्य प्रकाशित होनेवाले पत्र हैं: कासन मित्र, सनातन संदेश, पुस्तकालय, प्रवासिनी, राजदूत विजय, फिजी दिग्दर्शन, जंजाल, मज़दूर आवाज़ आदि। 

कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि विश्व में फिजी ही वह देश है जहाँ हिंदी को संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। फिजी में हिंदी साहित्यकारों और साहित्य की तनिक भी कमी नहीं है। जहाँ क़लम है वहाँ समाज एवं संस्कृति तो उपस्थित होगी ही। आचार्य महावीर प्रसाद जी का कथन है—साहित्य समाज का दर्पण है। जो नितांत सत्य है। किसी देश के किसी समय का वास्तविक चित्र हम कहीं देख सकते हैं तो वह देश के तत्कालीन साहित्य में ही सम्भव है। इसी के अनुसार संवेदना और भाव है तो कला, संस्कृति और साहित्य की त्रिवेणी अवश्य होगी ही। इस द्वीप में श्री कमला प्रसाद मिश्र जी हिंदी के लेखन के लिए जाने जानेवाले और हिंदी के अनन्य सेवक हैं, जिन्हें विश्व हिंदी सम्मेंलन में हिंदी साहित्यकारों के मध्य बहुमान से सम्मानित किया गया है। हम कह सकते हैं कि वर्तमान में हिंदी फिजी की जान है। 


 संदर्भ सूची:

  1. मन्महर्षिप्रणीत स्मृति संदर्भ, अध्याय 2, श्लोक-20, पृष्ठ-14

  2. भगवान सिंहः फिजी, विश्व हिंदी दर्शन, (सं. सरोजिनी महिषी)

  3. भूतलेन की कथा, गिरमिट के अनुभव, पृ. 39

  4. फिजी, पृ.63

  5. जोगेन्द्रसिंह कँवल, मेरा देश मेरे लोग, पृ.74

  6. संपा. जोगेन्द्रसिंह कँवल, फिजी का हिंदी काव्य साहित्य की भूमिका से

  7. जे.एस कँवल, ए हंड्रेड इयर्स ऑफ़ हिंदी इन फिजी, पृ. 38-39 

  8. संपा. जोगेन्द्रसिंह कँवल, फिजी का हिंदी काव्य साहित्य, पृ.159 

  9. संपा. जोगेन्द्रसिंह कँवल, फिजी का हिंदी काव्य साहित्य, पृ.167 

  10. संपा. जोगेन्द्रसिंह कँवल, फिजी का हिंदी काव्य साहित्य, पृ.193

  11. संपा. जोगेन्द्रसिंह कँवल, फिजी का हिंदी काव्य साहित्य, पृ.98

  12. विवेकानंद शर्मा, प्रशांत की लहरें, आशीर्वाद से, पृ.16 

  13. जे.एस. कँवल, मेरा देश मेरे लोग, भूमिका से 


 संपर्क सूत्र: डॉ. नयना डेलीवाला, 15, नीलगगन टावर, नेहरू पार्क, वस्त्रापुर, अहमदाबाद—380015  सचल वाक्: 9016478282, 9327064948

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