अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

शिवानन्द-सौन्दर्यम्

 

दीर्घकाल तक निःसन्तान होने के कारण अत्यन्त दुःखी रहने वाले कोसलेन्द्र शर्मा—जो एक महान् शिवभक्त एवं उत्तर-भारतीय ब्राह्मण थे—ने अपने कुलगुरु की प्रेरणा से द्वादश ज्योतिर्लिंगों की सकाम यात्रा का मन बनाया। किन्तु जब वे श्रीशैलम्-मल्लिकार्जुन पहुँचे, तब उन्हें एक तेजस्वी एवं तपःपूत दण्डी संन्यासी के दर्शन हुए। उनकी कृपा से, ‘शिवानन्दलहरी’ की एक दैनिक आवृत्ति एवं पुत्रप्राप्ति के एक अमोघ मन्त्र के साथ-साथ, उसी आन्ध्रदेश में स्थापित हो जाने का निर्देश कोसलेन्द्र को प्राप्त हुआ। अतः वे सपरिवार ज़िला कुर्नूल में आकर स्थापित हो गए। गुरुप्रोक्त विधि से उनका जप-अनुष्ठान चलता रहा और कालक्रम से उन्हें पुत्रलाभ भी हुआ। ‘शिवानन्दलहरी’ का प्रसाद समझकर शिवभक्त पिता ने अपने उस नवजात शिशु का नाम ‘शिवानन्द’ (उपाख्य शिवा) ही रख दिया। 

लगभग 22-23 वर्षों के बाद; वही शिवा, अपने जन्मदिवस के उपलक्ष्य में, अपने दो क्षेत्रीय—दाक्षिणात्य मित्रों (माधव एवं लोकेश) के साथ श्रीशैलम् से 2-4 कि.मी. दूर सघन वन के मध्य निवास करने वाले महादेव के शुभाशीष लेने हेतु पहुँचा। भले ही शिवा के पिता कई वर्षों पूर्व दिवंगत हो चुके थे, किन्तु माता के संस्कारों ने उस दक्षिण-देशवासी हिन्दीभाषी नवयुवक को अतीव सुशील एवं भक्तिमान् बना दिया था। सघन वृक्षों से सुरक्षित पालधारा-पंचधारा नामक शैव क्षेत्र भी कम सौभाग्यशाली नहीं था। कारण कि कभी वह सनातनधर्म के महान् उद्धारक—भगवत्पाद श्रीशंकराचार्य की चरणरज से कृतकृत्य हो चुका था। अपनी दिग्विजय-यात्रा के क्रम में उस क्षेत्र में प्रवास करने वाले जगद्गुरु ने इसी झरने के जल से अभिषिक्त होने वाले शिवलिंग की सन्निधि में ही ‘शिवानन्दलहरी’ की रचना की थी। इसीलिए अपनी पितृपरम्परा से प्राप्त उक्त स्तोत्र एवं उसकी इस प्राकट्य-स्थली के प्रति शिवा की अतिशय श्रद्धा स्वाभाविक थी। प्राकृत जलधारा एवं शिवा की मनोगत भक्तिधारा—दोनों से अभिषिक्त हुए महादेव मानो अपने भक्त से अत्यन्त सन्तुष्ट थे। अतएव उन्होंने शिवा की जीवनधारा को एक नवीन दिशा देने का मन बनाया। 

महादेवजी के दर्शनों से अवकाश पा चुके तीनों मित्र अब सघन वन में एकान्तवास करने के इच्छुक थे। इसलिए वे उल्लासपूर्वक पैदल चलकर प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द लेते रहे। दिनभर नभोमार्ग पर चलकर थक चुके विश्रामाभिलाषी सूर्यदेव जब सन्ध्या के आँचल में छिपने ही वाले थे, तब पातालगंगा (कृष्णा नदी) के जंगल में इन तीनों मित्रों ने रात्रिनिवास के लिए अपना तम्बू गाड़ दिया। शिवा प्रकृतिप्रेमी तो था ही, पर अपने पारिवारिक संस्कारों तथा निजी उपासना-पद्धति के कारण अत्यधिक अन्तर्मुखी एवं एकान्तप्रेमी भी था। कई वर्षों के अभ्यास से ध्यानयोग में उसकी अबाध गति हो चुकी थी और वह नित्य-नियम पर बहुत दृढ़ था। इसलिए अपने ध्यान का समय जानकर उसने अपने दोनों मित्रों से कुछ देर का एकान्त माँगा। ‘हाँ-हाँ! जावो बाबाजी! तुम्हारा भिक्षा मैं ले आएगा’, हँसते हुए तेलुगूभाषी लोकेश ने अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में उसको छेड़ने का प्रयास किया। परन्तु शिवा कहाँ बुरा मानने वाला था? वह तो चल पड़ा अपनी मस्ती में। तम्बू से कुछ दूरी पर, जहाँ कोई अन्य ध्वनि उसके मानसिक शान्ति की बाधक नहीं बन रही थी, वहीं वह एक चट्टान पर जा बैठा। कुछ दूर जलती आग थी; जिसके पास विलासमुद्रा में उसके दोनों मित्र भोजन पका रहे थे। आकाश में नक्षत्रबिन्दुओं से आच्छादित नीलकमल-सदृश पूर्ण चन्द्रमा सहसा अपेक्षित आध्यात्मिक वातावरण का संचारक बन गया; जिससे उस नवयुवक को ध्यानस्थ होने के लिए अधिक यत्न नहीं करना पड़ा। 

लगभग एक घंटे बाद, “भोजन तैयार है, जाओ शिवा को बुला लाओ,” माधव ने कहा। लोकेश शिवा को बुलाने हेतु निकल पड़ा और उसके विनोदी मन ने शान्त अन्धकारमय वातावरण में नेत्र मूँदे शिवा को डराने का संकल्प लिया। दबे पाँव वह शिवा के पास पहुँचकर अपनी अभिलाषा को पूरा करने ही वाला था कि . . . “माधव! माधव!! जल्दी आवो हो!” . . . घबड़ाकर ऐसा चिल्लाने हेतु लोकेश विवश हो गया। माधव तुरन्त दौड़ा आया, “क्या हुआ?” प्रत्युत्तर तो नहीं मिल सका, पर अन्धकार में पत्तों की खड़खड़ाट ने उसको कुछ आशंकित कर दिया। तभी माधव ने अर्धमूर्च्छित अवस्था में शिवा को भूमि पर गिरा हुआ पाया; जिसको घबड़ाया हुआ लोकेश उठाने का प्रयास कर रहा था। दोनों मित्र प्रयत्नपूर्वक शिवा को ले आए और कुछ क्षणों बाद मित्र सचेत हो गया। हालाँकि वह सामान्य नहीं लग रहा था, बारम्बार पूछने पर भी कुछ बोला नहीं। तब दोनों मित्रों ने प्रयासपूर्वक उसको भोजन दिया और उसको विश्राम करने हेतु प्रेरित किया। थोड़ी ही देर में रात्रिकालिक शान्ति में वे तीनों निद्रानिमग्न हो गए। 

यथासमय सुबह हुई और कुछ पक्षियों की चहचहाहट से अपने बड़े-से तम्बू में बीचों-बीच बाईं करवट में सोया लोकेश जाग उठा। माधव अपनी विचित्र मुद्रा में पेट के बल पड़ा था, पर जैसे ही घूमकर देखा तो शिवा नहीं दिखा। एक क्षण के लिए तो उसकी प्राणवायु स्तम्भित हो गई, “अहो! ये कहाँ गया जी?” पर थोड़ी दृष्टि घुमाकर देखा, तो तम्बू के बाहर ही शिवा बैठा दिखा; श्रान्त, विचाराधीन, दक्षिण-दिशा को देखते हुए तिनकों को हाथ में लेकर तोड़ता हुआ। लोकेश ने अपने हाथ से सोए हुए माधव को बलात् उठाया और अभी वह कुछ बोल ही पाता कि शिवा को लक्षित कर दिया। माधव एक प्रबुद्ध एवं सम्भ्रान्त व्यक्तित्व का धनी था। और वह लोकेश के समान विश्वविद्यालय के समय से नहीं, अपितु बाल्यकाल से ही शिवा का सर्वाधिक इष्टमित्र था। इसलिए दोनों के पारस्परिक वाग्व्यवहार ने उन्हें एक-दूसरे की भाषाओं एवं परम्पराओं से अवगत होने का पर्याप्त सुअवसर दिया था। फलतः प्रत्येक दृष्टिकोण से माधव शिवा के अत्यन्त सन्निकट था। इसलिए ‘तुम चुपचाप नदी में स्नान करने चले जाओ, इसको मैं देखता हूँ’ कहकर उसने लोकेश को भेज दिया। कुछ बड़बड़ाता हुआ लोकेश तो चला गया। हालाँकि शिवा ने उसको जाते हुए देखा, किन्तु उसमें कोई रुचि नहीं ली। वह तब भी कुछ शिथिल लग रहा था। माधव ने शिवा के पास बैठकर उससे उसकी चिन्ता के कारण को पूछा। 

कुछ ही क्षणों के अन्तराल में अपने मित्र द्वारा बारम्बार पूछे जा रहे प्रश्नों को सुनकर शिवा अपने मित्र के हृदय से लगकर किसी निर्मल-मनस्क शिशु के समान फूट-फूटकर रोने लगा। सहसा . . . ‘वह मुझे आज भी नहीं छोड़ रही है माधव! मेरी सहायता करो, मुझे बचाओ’, माधव ने इस आर्त्त वचन को सुना। वह अपने रोते हुए मित्र को हृदय से लगाए उसकी पीठ पर हाथ फेरता रहा। कुछ देर बाद . . . “मैं बहुत लम्बे समय से इस पीड़ा को सहन कर रहा हूँ। पहले लगता था कि यह मेरा भ्रममात्र है। मैंने इस बार अपने जन्मदिवस पर पालधारा घूमने की योजना बनाई थी कि कदाचित् मैं इस मनोवेदना से उभर सकूँगा। परन्तु नहीं! ऐसा नहीं हुआ!” . . . माधव के हाथों को अपने माथे से लगाकर रोता हुआ शिवा बोलता रहा। कुछ क्षणों तक तो माधव मानो मूर्ति ही बना रहा। अपने मित्र को सान्त्वना देने के अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प नहीं था। किन्तु लोकेश के लौटने तक उसने परिस्थिति को नियन्त्रित करने हेतु शिवा को यह वचन दिया कि वह उसकी पूरी समस्या को विस्तरशः समझकर उसका निवारण करने हेतु प्रस्तुत रहेगा। बातों-ही-बातों में परिस्थिति सामान्य हो गई। यथासमय वे तीनों समीपवर्ती कृष्णा नदी में स्नान-आदि से निवृत्त हुए और अपनी गाड़ी से कुर्नूल-स्थित अपने निवास को लौट आए। 

अगले दिन प्रातः शिवा के घर की घंटी बजी। उसकी विधवा माँ—जानकी मन्दिर जाने को तैयार थी। द्वार खोलते ही माधव ने माताजी के चरणों का श्रद्धापूर्वक स्पर्श किया और उनका कुशल-क्षेम जानकर शिवा के विषय में पूछा। “बेटे! ऊपर चले जाओ, मैं बाहर से ताला लगाकर थोड़ी देर बाद मन्दिर से लौटूँगी,” हाथों में मालाझोली लिए वह भद्र महिला मन्दिर के लिए निकल पड़ी। माधव ने सीढ़ी चढ़कर प्रथम तल पर शिवा के कक्ष में प्रवेश किया। शिवा अपने स्नानागार में था और उसका पूरा कक्ष अस्त-व्यस्त था। सर्वत्र पुस्तकें बिखरीं हुईं थीं। दस-फुट आकार के उस कक्ष में एक ओर पर्दे से ढकी एक खिड़की। दूसरी ओर दीवार पर अपने इष्टदेव—ध्यानमुद्रास्थ भगवान् शिव की एक सुन्दर छवि; जिसके समक्ष भूमि पर ध्यान करने हेतु कम्बल का एक आसन बिछा था। उसी की पार्श्ववर्ती दीवार पर दक्षिणदेशी होते हुए भी क्षेत्रीय स्तर पर हिन्दी-साहित्य के एकमात्र उदन्त विद्वान् एवं नवोदित कवि—शिवा का अभिनन्दन करते हुए राज्यपाल का एक चित्र तथा उनके द्वारा प्रदत्त एक आधिकारिक प्रशस्तिपत्र भी लगा हुआ था। अपने मित्र की उपलब्धि को प्रेमपूर्वक निहारने वाले माधव ने सहसा स्नानागार का द्वार खुलने की आवाज़ सुनी। पीछे मुड़कर देखा, तो अर्धनिद्रानिद्रित शिवा—जो अपने गीले बालों को कपड़े से पोंछ रहा था, वह—खड़ा दिखाई दिया मैत्रीभाव में उसने पेयजल की एक बोतल माधव की ओर फेंकी। 

“अब बोल! क्या है तेरी समस्या?” 

“रहने दे! तू कुछ नहीं कर सकता।” 

“भाई! तू बोलकर तो देख।”

“तो सुन! कुछ महीनों से मुझे कुछ विचित्र अनुभूतियाँ होतीं हैं। कभी-कभी मेरे ध्यान में मुझे एक भयंकर दृश्य दिखता है। घने अन्धकार में किसी वन में सफ़ेद कपड़े पहनी एक लड़की का भागता हुआ साया; जो कहीं अन्धेरे में खो जाता है और फिर उसके चीखने-चिल्लाने की बहुत भयंकर आवाज़ें आती हैं।”

शिवा के इस अप्रत्याशित वक्तव्य को सुनकर बिस्तर पर बैठा माधव मौन हो गया। वास्तव में उसके पास कोई समाधान नहीं था, उसने बैठने के लिए दीवार का सहारा लिया। किन्तु जैसे ही उसने साथ में रखा तकिया उठाया, तो उसके नीचे से एक लड़की का चित्र निकल आया। “अरे! ये तो सौन्दर्या है न?” उसने हँसकर पूछा। शिवा उसकी ओर पीठ करके खड़ा था, इतना सुनते ही उसकी ओर भागा और उससे चित्र माँगने लगा। 

“ये तो अपने ही साथ पढ़ती थी। वही है न?” माधव ने व्यंग्यपूर्वक पूछा। 

“हाँ! तू फोटो दे बस!” ग़ुस्से में शिवा बोला। परन्तु थोड़ी देर की खींचतान के बाद शिवा चुपचाप बैठ गया। भाँड़ा तो फूट ही चुका था। 

“आजकल सौन्दर्या कहाँ है?” गम्भीर स्वर में शिवा ने माधव को पूछा। 

“जहाँ तक मुझे पता है, दसवीं पूरी होते ही न जाने क्यों वह अपने परिवार के साथ किसी दूसरे शहर में स्थापित हो गई थी। पता लगाना होगा,” उसने उत्तर दिया। 

कुछ क्षणों के मौन के बाद शिवा प्रमुदित होकर बोल पड़ा, “मुझे उससे मिलना है, क्या तुम कोई उपाय कर सकते हो?” 

माधव आश्चर्यान्वित दृष्टि से शिवा को घूरता जा रहा था। 

“हम लोग आठवीं कक्षा में थे, बस! तभी उससे प्रेम हो गया,” शिवा अपने हार्द भाव को अभिव्यक्त करने लगा, “गौर वर्ण, शुद्ध धवल दन्तपंक्ति, घने लम्बे बाल, मर्यादित स्वभाव, मितभाषण और मन्दस्मित मुख . . . सौम्यता की प्रतिमूर्ति, कभी-कभी चश्मा लगा लेती थी वह। उसका ‘सौन्दर्या’ नाम चरितार्थ था। भाई माधव! भले ही विधाता ने मेरे माथे पर उससे बात करने का बहुत अल्प संयोग लिखा। किन्तु जितनी बातें हुईं; वे आज तक उसको अपने मन में बनाए रखने हेतु पर्याप्त हैं। वह बहुत बुद्धिमती और सरल स्वभाव वाली थी। कभी-कभी गणित के कुछ प्रश्नों का समाधान पूछने के बहाने मैं उसके पास चला जाता था। उसने कभी मना नहीं किया, बल्कि हर बार वह मेरी सहायता करती थी। किन्तु मेरे किसी आचरण से कहीं वह मुझपर कुपित न हो जाए और संवाद के इस सुअवसर से भी मुझे हाथ न धोना पड़ जाए—यह सोचकर मैं कभी अपने हृदय की कोई बात उससे नहीं कह सका। मुझे . . .”

‘धड़ामऽऽऽ’ . . . इसी बीच खिड़की के पर्दे से कोई व्यक्ति कमरे में कूद पड़ा। माधव और शिवा घबड़ा गए तथा सहसा सावधान हो गए। यदि उस आगन्तुक के परिचित स्वर ने उन्हें सहज न किया होता, तो सम्भव था कि चोर समझे जाने से वह उन दोनों के हाथों पिट जाता। झपटकर पीठ के बल गिरे और पर्दे में लिपटे उस व्यक्ति पर चौकन्ने माधव ने अपना अंगद-जैसा पाँव जमा दिया और मार पड़ने से पहले ही वह व्यक्ति चिल्ला उठा, “मैं है भाई . . . लोकेश! लोकेश!!” लोकेश के ग्रह-नक्षत्र उस दिन मन्द नहीं थे, इसलिए वह बच गया। कुछ उसकी टूटी-फूटी हिन्दी . . . जो सभी को हँसा देती थी। और फिर कहीं फँस जाने पर उसके भोलेपन के नाटक का तो कहना ही क्या। अपने इस आश्चर्यजनक आगमन के विषय में पूछे जाने पर बहुत भोला बनकर लोकेश ने अपनी उसी टूटी-फूटी हिन्दी में उत्तर दिया, “शिवा का बाइक नीचे खड़ा था, ऊपर खिड़की खुला था; पर गेट बन्द थी। मैं कूदकर ऊपर आ गई . . .”सामने भूमि पर जा बैठे शिवा के गम्भीर मुखमण्डल को देखकर फिर बोला, “. . . इसको क्या हुई?” 

माधव ने लोकेश को सावधान किया और पुनः शिवा से परिप्रश्न आरम्भ किया, “परन्तु आज सहसा सौन्दर्या से मिलने की इच्छा कहाँ से जागी?” लोकेश ने अपनी शरारती हँसी और तिरछी नज़र से शिवा को छेड़ने का प्रयास किया, किन्तु माधव ने उसको रोक लिया।

“उफ़्फ़! ये बचपन का प्यार . . .” लोकेश अकस्मात् विनोदपूर्वक बोल पड़ा; जिसपर माधव ने उसके सिर पर ज़ोर का चाँटा जड़ दिया। शिवा से रुका नहीं गया और उसने अपने पास रखे गिलास के सारे पानी को लोकेश के ऊपर ग़ुस्से में उड़ेल दिया। लोकेश पाषाणवत् स्थिर हो गया। उसे भय था कि अब कुछ भी कहा, तो आज पिटाई सुनिश्चित थी। किन्तु सहसा बोला, “भाई! कुछ उपाय करो। मुझे किसी तरह एक बार सौन्दर्या से मिलवा दो . . . “ उसने दोहराया, “मेरे भय मुझे कुछ कहने से सदैव रोका और एक दिन जब मैंने उससे बात करने का मन बनाया, तो वह कहीं दूर चली गई। कुछ भी करके मुझे केवल एक बार उससे मिलवा दो। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है।” दोनों विवश मित्रों ने उसको आश्वासन दिया और वे तीनों भोजन करने हेतु नीचे आ गए। 

अगले दिन; शिवा नियमानुसार एक क्षेत्रीय सिविल-कोचिंग सेन्टर में हिन्दी के अध्यापन में तल्लीन था। अनेक विद्यार्थी बैठे थे उसकी कक्षा में। तभी . . . ‘मिल गए! मिल गए! . . . ’ का शोर करते-करते लोकेश उस कक्षा में अपने लोकविश्रुत आश्चर्यजनक ढंग से प्रविष्ट हुआ और उत्साह में शिवा को अपने दोनों हाथों में उठाकर वह नाचने लगा। अपने विद्यार्थियों के समक्ष शिवा कुछ लज्जित हो गया और उसने चिड़चिड़ाते हुए लोकेश को कक्षा से बाहर निकाल दिया। अपमानित-सा हुआ, किन्तु हृदय से बुरा न मानता हुआ, भोला लोकेश चुपचाप कक्षा से बाहर आया, जहाँ काला चश्मा पहने माधव धूप में अपनी बाइक पर बैठा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, “मैंने तो कहा था, मत जा! अब आ गया स्वाद? . . . ढक्कन!”

लगभग आधे घंटे बाद शिवा बाहर चाय की दुकान पर पहुँचा, जहाँ उसके दोनों मित्र प्रतीक्षारत थे। लोकेश पुनः उत्साह में आ गया, किन्तु डाँट के भय से पहले ही रुक गया। 

“सौन्दर्या का पता चल गया . . . ,” माधव के इस सौहार्दपूर्ण वचन को सुनते ही उदास शिवा की आँखों में चमक आ गई और वह अतीव प्रसन्न हो गया। “वह अभी काकीनाडा में है, वहाँ की जवाहरलाल नेहरू टैक्नोलोजिकल यूनिवर्सिटी से एम.टैक. कर रही है।” 

प्रमुदित शिवा बोल पड़ा, “माधव भाई की जय हो।” 

तभी चिड़चिड़े लोकेश ने कहा, “फ़ेसबुक की जय कहो न!” 

“मतलब?” तब माधव ने पूरा वृत्तान्त सुनाया कि कैसे फ़ेसबुक के माध्यम से उसकी बात माया नामक एक लड़की से हुई; जो स्कूल में उन दोनों के साथ पढ़ती थी और सौन्दर्या की बहुत अच्छी मित्र भी। स्कूल के बाद भी माया सौन्दर्या के सम्पर्क में रही, तब अपने अग्रिम अध्ययन हेतु सौन्दर्या ने उसको काकीनाडा ही बुलवा लिया था। 

बस! फिर क्या था? काकीनाडा जाने की योजना बन गई। शिवा की ममेरी बहन—सुभगा भी वहाँ के पिठापुरम्-राजा गवर्नमेंट कॉलेज में पढ़ती थी। और काकीनाडा में ही ‘दक्षिणकाशी’ के नाम से प्रसिद्ध—दक्षरामस्वामी मन्दिर भी था। कुछ लोगों की यह मान्यता है कि उसी स्थान पर वीरभद्र ने दक्ष का संहार किया था। अतः अपनी माता के समक्ष इन दोनों बातों का बहाना बनाकर शिवा और उसके मित्र बस से काकीनाडा पहुँच गए। रातभर की यात्रा करके वे सुबह-सुबह रामचन्द्र-लॉज पहुँचे। वहाँ भी लोकेश-लीला का प्रसारण हुआ। ऑटो से उतरते ही लघुशंका के वेग में वह शौचालय को अविलम्ब खोजने लगा। किन्तु थोड़ी ही देर में सब कुछ व्यवस्थित हो गया। स्नान-बालभोग-आदि से सब निवृत्त हुए और शिवा ने माधव को माया से बात करने हेतु प्रेरित किया। सुभगा को भी तभी सूचना दे दी गई। हालाँकि वह अपनी कक्षाओं के बाद अपनी एक सहेली के साथ दोपहर में अपने भाइयों को मिलने पहुँची। सभी लोग उसके आगमन से बहुत प्रसन्न थे। लोकेश ने उसकी सहेली से कुछ प्रेमपूर्वक बात करने का प्रयास किया; जो पहले ही झटके में निष्फल हो गया। वह मन्दभागी बहुत देर तक एक कोने में चुपचाप बैठा रहा। तभी माधव को माया का फोन आया। बात पूरी करके उसने आकर चुपचाप शिवा के कान में यह कहा कि सौन्दर्या ने अगली शाम 8:00 बजे शिवा को अपने विश्वविद्यालय के निकटवर्ती क्रीमस्टोन कैफ़े में बुलाया है। पहचान के लिए माधव ने शिवा का एक चित्र और सम्पर्कसूत्र भी अग्रेसरित कर दिया; जिसके उपलक्ष्य में सौन्दर्या का सम्पर्कसूत्र भी प्राप्त हो गया। 

बस! शिवा की प्रसन्नता का कोई पारावार न था। उसने उपलब्ध सम्पर्कसूत्र द्वारा व्हाट्स-एप्प पर सौन्दर्या का चित्र, जिसमें वह चश्मा लगाए एवं अतीव प्रसन्नमुद्रा में अपने हाथों में एक ख़रगोश को पकड़े किसी उद्यान में खेल रही थी, को देखा और वह नाचने लगा। उसने सौन्दर्या को एक अभिवादनात्मक सन्देश भेज दिया। किन्तु अगले ही क्षण वह सुभगा को देखकर पुनः सावधान हो गया। ‘यहाँ कुछ और ही पक रहा है’—यह सोचकर सुभगा भी बहुत देर तक वहाँ नहीं रुकी और अपराह्न-भोजन को पूर्ण करके वह अपनी सहेली के साथ छात्रावास के लिए निकल पड़ी। किन्तु जल्दी-जल्दी में उसकी एक महत्त्वपूर्ण पाठ्यपुस्तक वहीं छूट गई। 

‘आज विधाता मेरे साथ हैं’—यही सोचकर शिवा ने अपने मित्रों के साथ दक्षिणकाशी मन्दिर में अपने आराध्य महादेवजी के दर्शनों का मन बनाया। सूर्य भी अस्तंगत हो रहे थे। तभी प्रलयंकर गौरीपति शंकर की एक अद्भुत छटा का दर्शन हुआ। पुजारी सभी को भस्म का बिन्दुमात्र तिलक लगा रहे थे। किन्तु शिवा की बारी आने पर उसने पुजारी को विनयपूर्वक उसके ललाट पर पूर्ण त्रिपुण्ड्र लगाने हेतु प्रार्थना की। पुजारी अत्यधिक सन्तुष्ट हो गए। वस्तुतः उपासकों की प्रसन्नता में उपास्य की प्रसन्नता झलकती है। तो इस प्रकार; महादेवजी की कृपा मिली, किन्तु मन्दिर-परिसर में एक स्थान पर ‘अन्नक्षेत्रम्’ लिखा देखकर लोकेश की सोई जठराग्नि पुनः जाग गई और वह बिना किसी की बात सुने सीधे उसी दिशा में किसी अचूक बाण के समान चल पड़ा। 

अकेला ध्यानयोगाभ्यासी शिवा मन्दिर के एक उद्यान में स्थित एक पाषाणमय आसन पर जा बैठा; जहाँ से मन्दिर का मुख्य भवन एवं नन्दीश्वर अत्यन्त स्पष्ट दिख रहे थे। सगुण महादेव की सन्निधि में निर्गुण की ध्यानधारा का विकास हुआ ही था कि कुछ ही क्षणों में पुनः . . . वही बीभत्स दृश्य ध्यान में स्फुरित हुआ। वही अन्धकारमय जंगल में विनाशकारी अग्नि, किसी अबला की दुर्भाग्यपूर्ण चिल्लाहट, . . . और फिर सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार . . . पसीने में लथपथ शिवा ने घबड़ाकर अपनी आँखें खोल लीं। कुछ और तो समझ नहीं आया, किन्तु असहज शिवा ने लगभग 30-40 क़दम दूर एक वयोवृद्ध तेजस्वी दण्डी संन्यासी को बैठे देखा। अपनी मन्दस्मित के साथ उन मौनी संन्यासी ने शिवा को बहुत आत्मीयता से इशारा करके अपने पास बुलाया। जैसे ही शिवा उनके पास पहुँचा और उनके श्रीचरणों में साष्टांग प्रणत हुआ, महात्माजी ने अपनी झोली में से एक लाल रंग की पोथी निकाली . . . श्रीमद्भगवद्गीता। कुछ पन्ने उलटकर उन्होंने एक रेखांकित श्लोक को शिवा के सामने खोलकर रख दिया: ‘मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि। अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि’ अर्थात् मुझ—परमात्मा में चित्त लगाकर तू मेरी कृपा से सभी विघ्नों को पार कर सकेगा और यदि तू अहंकार में मेरी बात को नहीं सुनेगा, तो तेरा पतन हो जाएगा (18.58)। शिवा कुछ समझ नहीं पाया। अस्तु!  

लॉज पहुँचते-पहुँचते रात हो गई और इसी बीच सौन्दर्या का प्रत्युत्तर आया। फिर क्या था! शिवा तो प्रसन्नता के मारे उछलने लगा। ‘अब ये उछलेंगा ही’ कहकर थका-हारा लोकेश अपनी शय्या पर जा गिरा और सो गया। किन्तु प्रमुदित शिवा की नींद उड़ चुकी थी। सौन्दर्या से उसका एक अल्पकालिक सन्देशात्मक संवाद हुआ, मानो सौन्दर्या से मिलन का उसका स्वप्न साकार ही हो गया हो। मित्र तो पहले ही सो चुके थे, पर प्रसन्नचित्त से सौन्दर्या से हुई अपनी बाल्यकालीन भेंटों का सुखद स्मरण करते-करते न जाने कब; वह भी निद्रा-समाधि में लीन हो गया। दो-तीन घंटे तो सुखपूर्वक व्यतीत हो गए, किन्तु ब्रह्ममुहूर्त आते-आते पुनः वह भयावह दृश्य शिवा के स्वप्न में दृष्टिगोचर हुआ। स्वप्नगत अन्धकारमय वन और किसी लड़की की चीख . . . पसीने में लथपथ शिवा डरकर उठ बैठा। नींद उचाट हो चुकी थी, मन घबड़ा रहा था; कुछ समझ नहीं आया। घड़ी में देखा तो लगभग 4:30 बजे थे। फिर उसी किंकर्तव्यविमूढ़ता ने शिवा को आलिंगित कर लिया। थोड़ा पानी पीकर उसने पुनः सोने का प्रयास किया। निद्रा और चिन्ता एक-दूसरे की सौत हैं, एक स्थान पर दोनों कभी नहीं रह सकतीं। तो भी ‘हर हर शंकर! जय जय शंकर!’ का मानसिक जप व्यग्रचित्त शिवा की निद्रागत बाधाओं को दूर करने का सफल उपाय बना। 

अगली प्रातः . . . रात्रि की घटना से अनभिज्ञ एवं अपनी मस्ती में सोया हुआ माधव लोकेश के द्वारा विनोदपूर्वक फेंके गए तकिए से यकायक जाग उठा और कुपित होकर उसको मारने के लिए दौड़ा। शयनकक्ष में शोर-गुल्ला मच रहा था, किन्तु शिवा की नींद तब टूटी जब उसका फोन बजा। 

‘सुभगा! इतनी सुबह?’ उसने अर्धनिद्रित अवस्था में ही आश्चर्यपूर्वक नाम पढ़कर फोन उठाया, “हम्म्! क्या हुआ?” 

“भैया! मेरी एक पुस्तक आपके यहाँ छूट गई है। क्या आप उसको लौटाने के लिए मेरे महाविद्यालय आ सकते हैं?” 

“हाँ आ जाऊँगा दो-तीन घंटे तक, वहीं मिलता हूँ।” . . . कहकर निद्रानिमग्न शिवा ने फोन काटा और वह फिर सो गया। एक घंटे बाद माधव ने हड़बड़ी में उसको उठाया, “शिवा! शिवा!! मुझे कुर्नूल लौटना होगा भाई! मेरे पिताजी का फोन आया है। कुछ अपरिहार्य कार्य है। उठ जल्दी!” उसी समय लोकेश ने हँसते-हँसते शिवा के कान में अंगुली घुमाकर गुदगुदाना आरम्भ किया; जिससे उखड़कर शिवा बरस पड़ा, “इस नमूने को भी अपने साथ ले जा फिर!” बेचारे भोले लोकेश का मुँह फूल गया और वह भी अपना सामान बाँधने लगा, “मैं तो बस मज़ाक़ कर रहे थे” . . . उसकी वही लोकचर्चित हिन्दी। 

यथासमय लोकेश और माधव लौट गए। शिवा स्नान-आदि से निवृत्त होकर अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा। अब वह काकीनाडा में अकेला था, इसलिए लोगों से पूछते-पूछते उसके गन्तव्य—राजा राममोहन राय रोड को जाने वाली एक बस में बैठ गया। नींद तो पूरी हुई नहीं थी, इसलिए बस में ही आँख लग गई। किन्तु दुर्भाग्य! अचानक झटका लगा और न जाने कैसे वह अपने साथ वाली सीट पर बैठी एक नवविवाहिता युवती से टकरा गया। उस युवती की आँखों से अंगारे बरसने लगे और उसने तेलुगू में न जाने क्या-क्या सुना दिया। शिवा से अनिच्छावश ऐसा हो गया था, इसलिए उसने बारम्बार विनयपूर्वक क्षमा माँगी। सहयात्रियों ने अपनी-अपनी रुचि-वैचित्र्य के अनुसार अपनी भूमिका का निर्वाह किया, किन्तु कुछ ही क्षणों में सब शान्त हो गया। किन्तु वास्तविक समस्या का सूत्रपात तो अभी हुआ था। वस्तुतः शिवा से कुछ दूरी पर माया—जिसको शिवा ने नहीं देखा, परन्तु माधव द्वारा पूर्वप्रेषित चित्र के द्वारा जो शिवा को पहचान चुकी थी—बैठी हुई थी। उसने इस समग्र दृश्य को देखकर अपने मन में एक पूर्वाग्रह बना लिया। एक क्षण में ही उसने यह निष्कर्ष निकाल लिया कि शिवा ने जान-बूझकर ऐसा किया है। माया मौन होकर बैठी रही और कुछ ही देर में शिवा अपने गन्तव्य पर पहुँच गया। 

खिन्नमनस्क शिवा ने महाविद्यालय के द्वार पर खड़े होकर सुभगा को फोन करके अपने आगमन की सूचना दी। बहन भी अपने भाई के आने से बहुत प्रसन्न थी, इसलिए अत्यन्त उल्लासपूर्वक उसको लेने के लिए अपने सहपाठियों के साथ पहुँची। बड़े प्रेम से उसने शिवा का स्वागत किया और सभी से मिलवाया। बातचीत होते-होते सुभगा के पाठ्यक्रमगत ऐच्छिक विषय—हिन्दी के प्रो. गोविन्द वसिष्ठ महाविद्यालय में प्रवेश कर रहे थे। वे एक प्रबुद्ध, गुणग्राही एवं विद्वान् व्यक्ति थे तथा महाविद्यालय के हिन्दी-विभागाध्यक्ष भी थे। उनका अभिवादन करके सुभगा ने उनके समक्ष हँसते हुए शिवा को हिन्दी का एक विद्वान् बतलाकर प्रस्तुत किया और दोनों का पारस्परिक परिचय करवाया। इस तेलुगूभाषी देश में अपना कोई सजातीय मिला, ऐसा सोचकर प्रो. वसिष्ठ प्रमुदित हुए और उत्साहपूर्वक वे शिवा को अपने कक्ष में ले गए। सौभाग्यवश एक अल्पकालिक वार्ता से ही वे शिवा की प्रतिभा से प्रभावित हो गए। 

“बेटे! क्या तुम कुछ लिखते भी हो?” उन्होंने वात्सल्यभाव से पूछा। 

संकोचवश सकारात्मक उत्तर प्राप्त हुआ; जिसके पीछे-पीछे एक प्रतिप्रश्न चला आया, “कहीं कुछ छपा है?” 

“नहीं! अब तक नहीं।”

“अच्छा है! मैं एक मार्ग सुझाता हूँ . . .” ऐसा कहकर एक काग़ज़ पर उन्होंने कुछ लिखा और शिवा को थमाते हुए बोले, “साहित्यकुंज नामक एक अन्तर्जाल पुट है, उसके सम्पादक श्रीमान् सुमन कुमार घई मेरे घनिष्ठ मित्र हैं। यह उनका सम्पर्क-विवरण है। मेरा सन्दर्भ देते हुए उन्हें अपनी एक रचना भेजो। प्रकाशन का श्रीगणेश करो बन्धु!”

शिवा बहुत प्रसन्न हो गया और उसने प्रो. वसिष्ठ के चरणों का श्रद्धाभाव से स्पर्श किया। अपनी व्यस्त दिनचर्या के चलते प्रोफ़ेसर साहब के पास भी समय का संकोच था, अतः उन्होंने अनिच्छापूर्वक शिवा को विदा किया। 

प्रत्येक वस्तु का निर्माता अपनी कृति से सन्तुष्ट एवं प्रफुल्लित रहता है। वह यह भी चाहता है कि लोग भी उसकी उस कृति के प्रशंसक बनें। किसी कवि या लेखक की भी यही मनोदशा होती है। अतः लोक में अपनी कृति को प्रकाशित होते देखना वस्तुतः प्रत्येक रचयिता के सौभाग्य का विज्ञापनप्राय होता है। इसी बात से शिवा भी आह्लादित हो रहा था। सौन्दर्या के मिलने से पूर्व ही उसके जीवन में ऐसे सकारात्मक क्षणों का आगमन उसके मन में ऐसे सात्त्विक भावों को उदित करने लगा कि वह (सौन्दर्या) ही उसके सौभाग्य का द्वार है। यह उसके सात्त्विक प्रेम का एक अपूर्व विज्ञापन था, तथापि कहीं-न-कहीं एक सन्देह भी मन में बैठा हुआ था। अन्ततः एक दीर्घ कालावधि के बाद आज सौन्दर्या से भेंट होने वाली थी। इसीलिए ‘महादेवं विना का गतिः’—ऐसा सोचकर शिवा भक्तिवश दक्षिणकाशी में शिवजी के दर्शनार्थ पहुँचा। सूर्यास्त होने में सम्भवतः एक-डेढ़ घंटा शेष था। दर्शनार्थी शिवभक्तों की भीड़ में भी पुजारी उसको पहचान गए और प्रेमपूर्वक उसके मस्तक पर उन्होंने भस्म का त्रिपुण्ड्र लगा दिया। आज का त्रिपुण्ड्र किसी विजयतिलक से कम तो नहीं लग रहा था। 

शिवा गर्भगृह से बाहर निकलने लगा, तो उसकी दृष्टि एक दूरस्थ आसन पर बैठे उन मौनी साधु पर पड़ी। वे भी उसको देखकर मुस्कुराने लगे, मानो कोई चिरपरिचित सामने आ गया हो। श्रद्धावश शिवा उनके समक्ष गया और हाथ में लाल पोथी लिए बैठे सन्त को उसने दण्डवत् प्रणाम किया। फिर अपने जेब में हाथ डालकर कुछ दक्षिणा निकाली और वृद्ध संन्यासी के चरणों में रखने लगा। किन्तु निरपेक्ष परिव्राजक तो भगवान् से भी कुछ नहीं चाहते। अतः मौनी बाबा ने अंगुली के इशारे से शिवा को पैसा उठा लेने को कहा और उसके कन्धे पर हाथ रखकर उसको पुनः अपनी पोथी खोलकर एक रेखांकित श्लोक पढ़वाया: ‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति। कौन्तेय प्रतिजानीहि न में भक्तः प्रणश्यति’ अर्थात् मेरा भक्त तत्काल धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहने वाली शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कौन्तेय (अर्जुन)! तुम प्रतिज्ञा करो कि मेरे भक्त का कभी विनाश (पतन) नहीं होता (9.31)। 

आज भी शिवा कुछ समझ नहीं पाया, उसके मस्तिष्क पर तो कोई अन्य बात सवार थी। ‘रोज़ किताब खोलकर श्लोक दिखलाना बाबाजी का स्वभाव है’—यह सोचकर वह स्वामीजी के चरणों में पुनः झुका और उसने जाने की आज्ञा माँगी। निश्चित ही वह भावी उथल-पुथल से अपरिचित था। किन्तु जैसे ही वह 10-20 क़दम चला, स्वामीजी ने ताली बजाकर उसका ध्यान पुनः आकृष्ट किया और पीछे मुड़कर देखने पर उन्होंने शिवमन्दिर के शिखर की ओर इंगित किया। ‘सभी परिस्थितियों में परमेश्वर ही जीव के एकमात्र सहायक होते हैं, अतः उनका विस्मरण मत करना’—कदाचित् यही समझाना उन सन्त को अभीष्ट था। किन्तु शिवा समझा कि वे मुझे अपने अभिलषित कार्य में सफल होने हेतु शिवजी को पुनः प्रणाम करके जाने हेतु प्रेरित कर रहे हैं। इसलिए सायंपूजा के घंटानाद एवं शंखध्वनि के आरम्भ होते-होते वह जल्दी-जल्दी में महादेवजी को नमस्कार करके चल पड़ा। 

अब सायं 8:00 बज चुके थे। क्रीमस्टोन कैफ़े में सौन्दर्या के विचारों में डूबे शिवा का धैर्य लगभग अपनी मर्यादा का अतिक्रमण करने वाला था। अनेक वर्षों पूर्व साक्षात् देखी गई वह छवि आज पुनः दृष्टिगत होने वाली थी—इस उल्लास ने उसको सँभाल रखा था। उसी समय शिवा का स्वप्न आधिकारिक परिधान में आवृत हुई एक गौर मूर्ति के रूप में वहाँ प्रादुर्भूत हुआ। मन्दस्मित सौन्दर्या . . . बँधे केश, आँखों पर चश्मा, गले में एक आई-डी, कन्धे पर एक पर्स, मुखमण्डल पर एक अपूर्व सौम्यता लिए . . . धीरे-धीरे दूर से आती दिखी। शिष्टाचारवश शिवा तत्काल खड़ा हो गया और उसने अतीव विनम्रता के साथ सौन्दर्या का अभिनन्दन किया। इस चिरप्रतीक्षित भेंट का उपक्रम अत्यन्त औपचारिक था, दोनों ने हाथ तक नहीं मिलाया। किन्तु थोड़ी ही देर में सौन्दर्या एकदम घुलमिल गई। शिवा ने ऐसा अनुमान किया कि प्रमुदित स्वभाव की धनी होते हुए भी उसमें कुछ अपरिपक्वता थी। 

कुछ ही देर में परिजनों का कुशल-क्षेम पूछ्ने के बाद, शिवा ने सौन्दर्या से उसकी नौकरी-विषयक परिप्रश्न किया।

“कुछ ही दिनों पहले मुझे एक विदेशी कम्पनी में इंटर्नशिप प्राप्त हुई है, वृत्तिका 50,000रुपये है। सम्भवतः यह नौकरी पक्की यथाशीघ्र हो जाएगी, तब मुझे पन्द्रह लाख रुपये वेतन मिलेगा,” बहुत उत्साहपूर्वक सौन्दर्या ने प्रत्युत्तर दिया। 

उसके उत्साहपूर्ण शब्दों में अहम्मन्यता की कुछ गन्ध भी थी; जिन्हें सुनते ही शिवा को साँप सूँघ गया। एक क्षण के लिए वह घबड़ा गया और उसके मौन से सौन्दर्या को अपने अग्रिम प्रश्न के लिए उद्वेलित कर दिया। “तुम आजकल क्या कर रहे हो?” 

“मैं? . . . मैं एक हिन्दी प्रशिक्षक हूँ, नौकरी खोज रहा हूँ। जल्द ही मिल जाएगी . . .,” इन्हीं शब्दों के साथ शिवा पुनः विचाराधीन हो गया। उसका ललाट पसीने से भीग रहा था, वह सौन्दर्या से नज़रें नहीं मिला पा रहा था। यह सब सौन्दर्या ने तो नहीं देखा; क्योंकि वह तो किसी अन्य ही गाड़ी में सवार थी। इसलिए बिना कुछ जाने-बूझे वह प्रमुदित मन से इधर-उधर की बातें करती रही। किन्तु ‘मुझे एक विदेशी कम्पनी में इंटर्नशिप प्राप्त हुई है, वृत्तिका 50,000 रुपये। सम्भव है कि यह नौकरी यथाशीघ्र पक्की हो जाएगी, तब मुझे पन्द्रह लाख रुपये वेतन मिलेगा’ . . . सौन्दर्या के इन शब्दों ने शिवा के हृदय में बारम्बार गूँजकर एक तूफ़ान खड़ा कर दिया। 

‘मेरे जीवन में अस्थिरता होने पर क्यों वह मुझ-जैसे एक क्षुद्र व्यक्ति को पसन्द करेगी? मुझमें ऐसी कोई योग्यता नहीं; जिससे यह मेरी ओर आकृष्ट हो सके . . .’—यह सोचते-सोचते ही मानो बाह्य जगत् के साथ कुछ देर तक उसका सम्पर्क टूट गया। 

उसी समय, “क्या हुआ? क्या तुम ठीक हो?” सौन्दर्या ने कौतुकवश शिवा के बाएँ हाथ को छूकर पूछ लिया। किन्तु . . . स्वस्थ तो क्या होता? सौन्दर्या के स्पर्शमात्र ने शिवा की चेतना को जाग्रत् में ही उस बीभत्स दृश्य का दर्शन करवा दिया। फिर वही अन्धकारमय जंगल में विनाशकारी अग्नि, किसी अबला की दुर्भाग्यपूर्ण चिल्लाहट, फिर सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार। शिवा पुनः असहज हो गया। अकस्मात् पसीने में लथपथ शिवा ने बहुत अपनी आँखों को बन्द रखते हुए बलपूर्वक सौन्दर्या का हाथ पकड़ लिया। इस अनपेक्षित व्यवहार ने सौन्दर्या को अत्यन्त असहज कर दिया। अतः, शिवा के सहज होने के कुछ क्षणों बाद ही, वह शिष्टाचारवश अनुज्ञा लेकर, बिना कॉफ़ी पिए ही वहाँ से चल पड़ी। किंकर्तव्यविमूढ़ शिवा कुछ कह या कर न सका। वहाँ से लेकर अपने घर पहुँचने तक सौन्दर्या शिवा के इस विचित्र व्यवहार के कारण का अनुसन्धान करती रही। कारण कि उसने छात्रदशा में जिस शिवा को देखा था, आज उसके सर्वथा विपरीत शिवा का साक्षात्कार उसको हुआ था। छात्रदशा का शिवा संकोचवश कभी कन्याओं से संवाद नहीं करता था, स्पर्श करना तो दूर की बात। किन्तु आज की भेंट में सीधे हाथ पकड़ लेना . . . कुछ समझ नहीं आया। इसी दुविधा में वह सो गई। 

अगली प्रातः का आरम्भ शिवा के एक व्हाट्सैप्प-सन्देश से हुआ। सौन्दर्या ने उठते ही पाया कि शिवा ने उसकी असहजता के विषय में जिज्ञासा व्यक्त की थी। साथ ही; यदि वह उस असहजता का कारण था, तो उसके लिए वह क्षमाप्रार्थी है—ऐसा एक सन्देश भी उसने लिखा। सौन्दर्या ने इन शब्दों को पढ़कर अत्यन्त सीमित एवं औपचारिक शब्दों में प्रत्युत्तर दिया। किन्तु कार्यालय पहुँचने की त्वरा ही इस संकोच का एकमात्र कारण नहीं थी। वहीं; दो दिनों के बाद—रविवार प्रातः, उदास शिवा भी अपनी जन्मभूमि को लौट आया। सौन्दर्या के विचलित होने के मूल में उसकी कौन-सी अनुचित क्रिया कारण थी—इसको वह नहीं समझ पा रहा था। एकान्त में बैठे-बैठे वह उन बीभत्स दृश्यों पर विचार करने लगा। किन्तु सौन्दर्या से उसकी विगत भेंट ने एक कार्य तो अवश्य किया . . . सौन्दर्या के प्रति उसके मनोगत अनुराग को सौगुना बढ़ा दिया। इसलिए अपने छत पर लेटे-लेटे वह आकाश में सौन्दर्या की छवि की कल्पना करने लगा। कभी बोलती हुई, कभी हँसती हुई, कभी अपने बालों को बाँधती हुई . . . बस! इसी में वह निमग्न हो गया। उसने मन बनाया कि मुझे सौन्दर्या को सीधे फोन करना चाहिए। फिर उसने सोचा कि कहीं पुनः वह रुष्ट न हो जाए। इसलिए सौन्दर्या को सम्पर्क न करके उसने माधव को फोन करके मध्याह्न-भोजन पर आमन्त्रित किया। 

यथासमय प्रेमपूर्वक भोजन करते-करते शिवा अपने मित्र माधव को सौन्दर्या के साथ हुए अपने प्रथम साक्षात्कार का विवरण देने लगा। किन्तु, अपने फोन में सौन्दर्या का सन्देश दिखलाते एवं अपनी बात का उपसंहार करते हुए उसने बहुत दुःखी होकर कहा, “मित्र! मुझे कुछ समझ नहीं आया। न जाने मैंने ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया; जिससे वह विचलित हो गई।” कुछ क्षण चिन्तन करने के बाद माधव ने उसको यह परामर्श दिया कि वह प्रतिदिन सौन्दर्या को एक सुप्रभात-सन्देश भेजना आरम्भ कर दे। तदतिरिक्त कोई वार्ता नहीं होनी चाहिए; ताकि संवाद का अत्यल्प किन्तु स्थायी मार्ग तो खुला रहे। शिवा मान गया और उसने इस प्रयोग का आरम्भ किया। कुछ दिनों तक एक विशिष्ट क्रम चला। शिवा के सन्देश के उपलक्ष्य में सौन्दर्या प्रतिदिन एक-दो शब्द ही लिखती थी; किन्तु वह भी लगभग दस-बारह घंटे के अन्तराल में। यद्यपि यह शिवा से संवाद में उसकी अरुचि का स्पष्ट द्योतक था, तथापि शिवा ने आशा नहीं छोड़ी। यूँ ही उसके प्रयास चलते रहे। 

इसी क्रम में; एक शाम अपने मन्दप्रकाश वाले कक्ष में विद्यमान ध्यानस्थ शिवजी के समक्ष बैठे शिवा ने, अपने ध्यान से उपरत होकर, सौन्दर्या को सन्देश भेजने के लिए अपना फोन उठाया। व्हाट्स-एप्प खोलते ही उसने सौन्दर्या के एक नवीन चित्र को देखा। इस बार उसके सुभग देह पर एक पारम्परिक साड़ी सुशोभित थी। और उसके सुन्दर एवं सौम्यतम मुखमण्डल के विषय में तो क्या कहना? कदाचित् वह किसी के विवाह में सम्मिलित हुई थी। किन्तु उसको ऐसे परिधान में देखकर शिवा विचलित हो गया। मन में ऐसी आशंका उठने लगी कि कहीं स्वयं सौन्दर्या का ही विवाह सुनिश्चित हो गया, तो मेरा क्या होगा? ‘शिव! शिव!! शिव!!!” कहते-कहते उसने बहुत संकोचवश सौन्दर्या को एक शुभरात्रि-सन्देश भेजा और वह सोने का प्रयास करने लगा। 

उधर शिवा का सन्देश पढ़ चुकी सौन्दर्या अगली सुबह आठ बजे ही कुछ विचलित हृदय के साथ अपने कार्यालय पहुँची; जहाँ माया ने उसका स्वागत किया। सौन्दर्या के मुख पर असन्तोष के भाव देखकर उससे रहा नहीं गया और उसने कुशल-क्षेम के साथ-साथ सौन्दर्या की असहजता का कारण पूछा। तभी सौन्दर्या ने बताया कि वह शिवा के प्रतिदिन आने वाले अवांछित सन्देशों से कुपित है। बस! माया को अपने मायाजाल के विस्तार का अवकाश मिल गया। उस दीर्घसूत्री कन्या ने अपने एकपक्षीय दृष्टिकोण से कुछ दिनों पूर्व घटित बस वाला संस्मरण दो-चार बातें जोड़कर साथ सुनाया। माया के वाक्चातुर्य ने एक ही क्षण में सौन्दर्या के चिन्तन की दिशा को बदल दिया। फलतः उसके हृदय में शिवा की एक नकारात्मक छवि बन गई। किन्तु . . . स्मरण रहे; कालभगवान् सर्वथा अलंघ्यशासन हैं, संयोगों के प्रयोग में उन-जैसा पारंगत सर्वत्र दुर्लभ है। दुर्दैववश उसी समय सौन्दर्या के फोन पर शिवा का एक सुप्रभात-सन्देश आ गया; जिससे वह अत्यधिक रुष्ट हो गई। हालाँकि उसको अपने रोष को अभिव्यक्त करने का अवकाश नहीं मिला; क्योंकि उसी समय कार्यालय में एक पुष्ट देह का धनी नवयुवक प्रविष्ट हुआ . . . अभिनव; वहाँ कार्यरत सभी लोगों का प्रमुख (बॉस)। सभी लोग उसका अभिनन्दन करने लगे। जब से सौन्दर्या उस कार्यालय से जुड़ी थी, तभी से वह अभिनव की ओर आकृष्ट थी। भर्तृहरिनाथ का वचन अकाट्य है: ‘कन्या वरयते रूपम्’, तथापि प्रतिदिन की भाँति, अभिनव ने उसके आकर्षण को जान-बूझकर न भाँप सकने का अभिनय किया और अपने मार्ग में आने वाले सभी लोगों से शिष्टाचारवश मिलता हुआ वह अपने कक्ष में जा पहुँचा। 

मोहित सौन्दर्या ने अपनी सहेली माया के समक्ष उल्लासपूर्वक अभिनव का गुणगान आरम्भ कर दिया। “एक लड़की को क्या चाहिए? ऐसा ही एक जीवनसाथी . . .” उसने कहा। किन्तु आगे वह कुछ कह ही पाती कि एक अन्य सहकर्मी ने उसके हाथ में एक फ़ाइल देते हुए उसको अभिनव के कक्ष में हस्ताक्षर करवाने का निर्देश दिया। सौन्दर्या इस सुअवसर को कथमपि छोड़ नहीं सकती थी, अतः वह द्रुतगति से दौड़ी और उसने अभिनव का द्वार खटखटाया। 

“आइए!” भीतर से आवाज़ आई, “अच्छा! आप हैं . . . कहिए,” प्रमुदितमुद्रा में अभिनव ने प्रश्न किया। 

अपने प्रति इस सौहार्द को देखकर सौन्दर्या का आकर्षणज्वर अत्यधिक बढ़ गया और उसने अत्यन्त सीमित शब्दों में फ़ाइल पर अभिनव के हस्ताक्षर माँगे। हस्ताक्षर तो हो गए, अतः सौन्दर्या ने पुनः संकोचवश अभिनव से पूछा, “सर! यदि आज शाम आपके पास समय हो, तो क्या हम कॉफ़ी पीने चल सकते हैं?” 

कामकामी व्यक्ति तो अवसर खोजता ही है। किन्तु दम्भी का यह भी स्वभाव होता है कि वह एकाएक किसी कार्य के लिए तैयार नहीं होता। इसलिए सौन्दर्या को साथ ले जाने की अभीप्सा रखने वाला अभिनव—पहले तो व्यस्तता का बहाना बनाने लगा, किन्तु सौन्दर्या के भोलेपन में उसको अपनी अभीष्टसिद्धि का कुछ अवसर दिखा; अतः वह—मान गया। फिर क्या था . . . सौन्दर्या ने बाहर आकर आह्लादपूर्वक माया को सारा वृत्तान्त सुनाया और वह शाम की प्रतीक्षा करने लगी। 

अन्ततः उसका मनोवांछित अवसर आया। कैफ़े ब्लॉकबस्टर में दोनों लोग यथासमय मिले। जब अभिनव ने सौन्दर्या के घर-परिवार-आदि के विषय में औपचारिक प्रश्न किया, तो उसको ज्ञात हुआ कि सौन्दर्या की माता तो उसके बाल्यकाल में ही चल बसी थी। तभी पिता अपने दोनों बच्चों के साथ काकीनाडा में स्थापित हो गए। उन्होंने बहुत परिश्रमपूर्वक सौन्दर्या की पढ़ाई पूरी करवाई। वे एक हृदयरोगी थे, जबकि उसका छोटा भाई अभी दसवीं कक्षा का विद्यार्थी था। परिवार की आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ तो नहीं थी। “मुझे ही सब कुछ देखना पड़ता है,” सौन्दर्या ने गम्भीर हो सिर झुकाकर कहा। तब अभिनव ने उसके प्रति अपनी सहानुभूति व्यक्त की और सहज ही भोली सौन्दर्या ने उसके प्रति मित्रता का प्रस्ताव रखा। अग्रिम कुछ ही क्षणों में सामान्य परिचय घनिष्ठता में बदल गया और दोनों प्रेमपूर्वक भोजन करने लगे। 

लगभग दो घंटों की सुखद भेंट-वार्ता के बाद अभिनव ने अपनी गाड़ी से सौन्दर्या को उसके घर के बाहर छोड़ा। तंग गलियों में दो कक्ष वाला एक छोटा-सा मकान, चारों ओर भीड़भाड़ . . . सर्वथा मध्यमवर्गीय परिवेश का एक साधारण उदाहरण। सौन्दर्या को देखकर यह अनुमान लगाना कठिन था कि उसकी आर्थिक स्थिति वस्तुतः इतनी ख़राब होगी। गाड़ी से निकलने से पूर्व सौन्दर्या ने अपने हार्द भाव को संकेततः अभिव्यक्त करने की इच्छा से अपने नए मित्र का सकृत् आलिंगन किया। किन्तु चतुर अभिनव ने इसमें अवसर खोजा और अकस्मात् ही सौन्दर्या के गाल को चूम लिया। फिर क्या था? . . . भोली सौन्दर्या तो भावविभोर हो गई। विडम्बना यह थी कि अभिनव के वास्तविक चरित्र से उसका परिचय अभी तक नहीं हुआ था। एकपक्षीय प्रेम के समुद्र में आकण्ठ-निमग्न सौन्दर्या मुस्कुराते एवं लजाते हुए अपने घर को चली गई। उसकी आँखों में प्रेम स्पष्ट दिख रहा था। वह बारम्बार पीछे मुड़-मुड़कर देखती रही और उसके घर में प्रविष्ट हो जाने तक अभिनव भी अपनी गाड़ी में बैठा उसको देखता रहा। ‘मौज के लिए क्या बुरी है?’, उसने अपनी दुरभिसन्धि को एक कपटपूर्ण हँसी के साथ अभिव्यक्त किया। वहीं दूसरी ओर; मनोराज्य की सीढ़ी चढ़ने वाली सौन्दर्या को इस धरती पर ही स्वर्ग का अनुभव होने लगा। अत्यन्त आह्लादपूर्वक उसने अपने पिता के लिए भोजन बनाया तथा अन्य गृहकार्यों को यथाशीघ्र सम्पादित किया। प्रमुदित मन से वह अपने कक्ष में जैसे ही पहुँची, तभी उसके फोन पर शिवा का शुभरात्रि-सन्देश आ गया। बस! पड़ गया रंग में भंग . . . कुपित होकर उसने तत्काल शिवा को व्हाट्सैप्प पर ब्लॉक कर दिया। 

अगली सुबह ज़िला कुर्नूल में असमय वर्षा सम्भावित थी। आकाश में सघन मेघमण्डल दिखाई दिया, मानो भगवान् भुवनभास्कर का प्रकाश लुप्तप्राय था। शिवा के जीवन में भी सहसा आशा-प्रकाश का लोप हो गया था। यथासमय उठकर जैसे ही उसने अपना फोन उठाया, तो उसको व्हाट्सैप्प में सौन्दर्या का चित्र नहीं दिखा। ऊपर के प्राण ऊपर और नीचे के नीचे ही रह गए, ‘कहीं उसने मुझे ब्लॉक तो नहीं कर दिया’, शिवा ने सोचा। किन्तु उसके पास कोई पुष्टि नहीं थी। बहुत देर तक कुछ विचार करके उसने पुनः सौन्दर्या को एक सुप्रभात-सन्देश भेजने का साहस किया। किन्तु आश्चर्य! दो घंटों तक वह सन्देश सौन्दर्या के प्रति प्रेषित न हो सका। शिवा की सभी आशंकाएँ समूल सिद्ध हुईं, ‘उसने मुझे ब्लॉक कर दिया। अब मैं क्या करूँ? उस तक पहुँचने के मेरे सभी मार्ग बन्द हो गए। मैंने अपनी मूर्खताओं से उसको दुःखी कर दिया। अब वह मुझे कभी नहीं मिलेगी . . . ’ इत्यादि बातों को सोच-सोचकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। 

शिवा के करुण क्रन्दन को सुनकर उसकी माँ जानकी ऊपर आ गईं। यह पहली बार था, जब उन्होंने शिवा को इतना विचलित देखा था। घबड़ाई माँ को कुछ समझ नहीं आया, तो उन्होंने तुरन्त माधव को फोन करके बुला लिया। लोकेश को अपने साथ लिए माधव कुछ ही देर में बाइक से शिवा के घर पहुँचा और दौड़कर ऊपर कक्ष में आ गया। उसने पाया कि उसका मित्र अत्यन्त दुःखित मन से फूट-फूटकर रो रहा है। वृद्धा माँ स्वयं भी रोते-रोते उसको चुप करवाने का निष्फल प्रयास कर रही है। माधव ने रोती हुईं माताजी को सान्त्वना दी और लोकेश उन्हें सँभालते हुए नीच ले गया। माँ के जाते ही शिवा माधव की गोद में सिर रखे फूट-फूटकर रोने लगा, “भाई! सब ख़त्म हो गया।” 

दो क्षण के लिए माधव स्तम्भित हो गया, किन्तु स्थिरचित्त होकर उसने वस्तुस्थिति का संज्ञान लिया। 

“मेरे विचार में अब तुझे पुनः प्रयास नहीं करना चाहिए भाई! जब वह तुझसे कोई सम्पर्क रखने की इच्छुक नहीं है, तो क्यों तू अपना समय बर्बाद करता है?” उसने गम्भीर स्वर में शिवा को समझाया। 

शिवा के दोनों कपोल आँसुओं से भरे हुए थे; जिन्हें पोंछकर वह यकायक स्थिर हो गया, “बिलकुल! अब समय बर्बाद नहीं होगा। माधव! मेरी एक सहायता करो, एक बार माया से बात करके सौन्दर्या से मेरी पुनः एक भेंट करवा दो। पक्का! फिर कभी मैं उसके जीवन में बाधक नहीं बनूँगा। इसलिए केवल एक बार . . . वैसे भी मुझे क्षमायाचना का एक अवसर तो मिलना ही चाहिए।”

अब माधव दुविधा में पड़ गया, ‘ये दो क्षण पूर्व तक बिलख-बिलखकर रो रहा था, और अचानक इतना गम्भीर हो गया; एकदम रोना बन्द . . . यह लक्षण ठीक नहीं है। यदि अभी नहीं सँभाला, तो निश्चित यह लम्बे समय के लिए अवसाद में आ जाएगा। उचित यही है कि सौन्दर्या से इसकी एक भेंट का प्रबन्ध किया जाए। सम्भव है कि सौन्दर्या इसको खरी-खोटी सुना दे; ताकि उससे इसका मोहभंग हो जाए और धीरे-धीरे यह ठीक मार्ग पर आ जाए . . .।’ 

“क्या सोच रहे हो?” शिवा ने ज़ोर से हाथ हिलाकर पूछा। 

“कुछ नहीं! मैं कुछ करता हूँ,” ऐसा बोलकर माधव ने अपनी जेब से फोन निकाला। माताजी को नीचे बैठाकर लोकेश भी लौट चुका था। उसको शिवा के पास छोड़कर स्वयं माधव छत पर गया और उसने माया को सम्पर्क करके, शिवा की मनोदशा से अवगत करवाते हुए, सौन्दर्या से एक अन्तिम भेंट का प्रबन्ध करवाने की सहायता माँगी। 

“ठीक है! मैं प्रयास करती हूँ, किन्तु कोई वचन नहीं देती। यथासमय सूचित करूँगी, तुम चिन्ता मत करो,” माया ने आश्वासन दिया। 

माधव और लोकेश तो शिवा को स्वस्थ करके अपने घर को लौट गए, किन्तु वहाँ माया ने पुनः अपने मायाजाल का विस्तार किया। वह सीधे सौन्दर्या के पास पहुँची। सौन्दर्या अपने कम्प्यूटर में पुरुषों की घड़ियाँ देखने में व्यस्त थी। पूछने पर उसने माया को बताया कि अग्रिम शनिवार को अभिनव का जन्मदिन है और वह उसको एक अच्छी-सी घड़ी भेंट करना चाहती है। बस! माया ने अवसर का लाभ उठाया और माधव के फोन तथा शिवा की मनोदशा से सौन्दर्या को अवगत करवा दिया। सौन्दर्या तो पहले ही शिवा पर कुपित थी। इसलिए ‘मैं उस मूर्ख लड़के पर अपने समय का अपव्यय नहीं करूँगी, तू जो चाहे सो कर’, उसने कहा। किन्तु माया ने उसके अपरिपक्व मस्तिष्क का अपने आनन्द के लिए प्रयोग करने हेतु उसको समझाया, “अभिनव के जन्मदिन की पार्टी से ठीक आधे घंटे पहले तू शिवा को वहाँ बुलवा ले। शिवा से तेरी सामान्य वार्ता होते-होते अभिनव वहाँ पहुँच जाएगा। यदि शिवा बुद्धिमान् होगा, तो स्वयं ही वहाँ से लौट जाएगा। अथवा यदि वह कुछ अवांछित प्रतिक्रिया दे, तो अपने ढंग से उससे निपटते हुए उसको तिरस्कृत करके वहाँ से भगा देना। काँटा हमेशा के लिए साफ़ . . .” उसने भड़काया। कालभगवान् क्या, कब, कैसे और किसके समक्ष कैसी परिस्थिति उपस्थित कर दें; यह कोई नहीं जानता। सौन्दर्या को माया की युक्ति समीचीन लगी। उसने माया के द्वारा शिवा को शनिवार सायं 6:30 बजे क्रीमस्टोन कैफ़े बुलवाया। 

वहीं दूसरी ओर; शिवा के जीवन में उथल-पुथल मची हुई थी। वह ऊपर से अपनी ध्यान-लेखन-अध्यापन-आदि दैनन्दिन क्रियाओं में व्यस्त अवश्य दिखता था, किन्तु हृदय से बहुत अशान्त था। उसके मन में नकारात्मक विचारों का तूफ़ान आया हुआ था। यथासमय माधव के माध्यम से उसको सौन्दर्या का निर्देश प्राप्त हुआ, किन्तु वह स्वयं को विपन्न अनुभव कर रहा था। सब ओर से ठोकर खाने वाले बड़े-से-बड़े नास्तिक भी ईश्वर के प्रति प्रपन्न होते देखे जाते हैं। विपत्ति कुछ भी करवा सकती है। किन्तु शिवा तो एक महान् आस्तिक था, अतः उपर्युक्त समाचार प्राप्त होते ही वह कुर्नूल-स्थित यागन्तीस्वामी (उमामहेश्वर) के मन्दिर जा पहुँचा। यह स्थान महर्षि अगस्त्य के तपोमय तेजःपुंज से आज भी उद्दीप्त हो रहा है। शिव-पार्वती दाम्पत्यसुख के प्रदाता हैं, अतः शिवा ने उन दोनों के दर्शनकर सौन्दर्या को पत्नीरूप में प्राप्त करने की अभिलाषा व्यक्त की। किन्तु उसका मन अशान्त था, इसलिए वह मन्दिर-प्रांगण में विद्यमान सरोवर के एक तट पर जाकर बैठ गया। 

सहसा वर्षा आरम्भ हो गई और वातावरण शीतल एवं मनोभावन हो गया। तभी शिवा ने अपने समक्ष—सरोवर के दूसरी ओर छत के नीचे वर्षा से बचने हेतु खड़े हुए एक नवविवाहित दम्पत्ति को देखा। पत्नी के दोनों हाथों में पूजा की थाली थी और सहसा चलते-चलते उस नवपरिणीता वधू को ऐसा भ्रम हुआ कि मेरी पायल कुछ ढीली पड़ गई है। तभी पति ने प्रेमपूर्वक घुटने के बल बैठकर अपनी पत्नी की पायल को ठीक कर दिया। वह युगल अतीव आह्लादपूर्वक एक-दूसरे की आँखों में देखकर मुस्कुराते रहे। तभी मोहवश शिवा को ऐसा मनोराज्य दिखाई पड़ा कि मानो स्वयं वह ही सौन्दर्या के साथ खड़े होकर वहाँ मुस्कुरा रहा है और उसकी पायल को ठीक कर रहा है। इस मनोराज्य के मधुर समुद्र में आकण्ठ निमग्न हुआ शिवा बहुत देर तक वहाँ स्तम्भित बैठे-बैठे शान्त भाव से आँसू बहाता रहा। 

वर्षा कब थम गई, यह पता ही नहीं चला। चेतना भी तब आई, जब किसी वृद्धा माता ने आकर उसके सिर पर हाथ रखा और उसको प्रसादरूप में भगवतीजी के सिन्दूर की एक पुड़िया दे दी। बहरहाल . . . शिवा ने अपने आपको सँभाला और वह मन्दिर-परिसर की परिक्रमा करने लगा। स्वयं को स्थिर करने के लिए वह इधर-उधर दृष्टि घुमाने लगा, कि कथंचित् उसका मन स्थिर हो जाए। तभी उसकी दृष्टि मन्दिर की दीवारों पर क्रमशः अंकित कुछ श्लोकों पर पड़ी। वे सभी श्रीमद्भगवद्गीता से चयनित थे; जो ससन्दर्भ वहाँ लिखे थे। अतः गीता-शब्द को देखते ही शिवा को संयोगवश काकीनाडा के दक्षिणकाशी मन्दिर वाले मौनी संन्यासी का पुण्यस्मरण हो आया। फिर वह उन श्लोकों को क्रमशः पढ़ने लगा: ‘सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि’ अर्थात् जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान करके फिर युद्ध में लग जा; क्योंकि इससे तू पाप को प्राप्त नहीं होगा। (2.38) . . . ‘योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते’ अर्थात् हे धनंजय! आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि एवं असिद्धि में समभाव होकर, योग में स्थित होकर, तू कर्म कर। यह समभाव ही योग कहलाता है (2.48) . . . ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि’ अर्थात् कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है; फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु मत बनो, न ही अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति होवे (2.47)। 

इन श्लोकों को देखते ही शिवा के मस्तिष्क में सकारात्मक तरंग दौड़ने लगीं। उसने इन श्लोकों को अपने लिए भगवान् की प्रेरणा ही समझा और वह पुनः सौन्दर्या की प्राप्ति हेतु उद्यत हुआ। यथाशीघ्र फोन करके माधव को उसने बुलवा लिया तथा उसने आकर शिवा की दूसरी काकीनाडा-यात्रा का सारा प्रबन्ध कर दिया। ध्यानस्थ भगवान् शिवजी का एक छोटा-सा चित्र शिवा अपने बैग में सुरक्षित रख लिया और प्रस्थान से पूर्व अपनी माँ के आशीर्वाद लेने पहुँचा। 

“माँ! मैं किसी बहुत विशिष्ट कार्य के लिए काकीनाडा जा रहा हूँ। आपके आशीर्वाद के बिना कुछ भी सफल नहीं हो सकता। इसलिए मेरी कार्यसिद्धि हेतु आशीर्वाद दो,” उसने घुटने के बल झुककर अपनी माँ को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हुए कहा। 

बेटा किसी बहुत बड़े कार्य के लिए जा रहा है, इसलिए पहली बार इतनी गम्भीरता से और वह भी इस प्रकार घुटने के बल झुककर प्रणाम कर रहा है; यह सोचकर माता ने भी भावुकता से मार्ग के लिए भोजन के साथ-साथ अपने आशीर्वाद दिए। 

द्वार पर माधव बाइक लिए तैयार खड़ा था। 

“अब तू बिलकुल इधर-उधर की मत सोच। जो बोलना है, सीधे शब्दों में बोल देना। यह तुम्हारा अन्तिम अवसर है . . .,” माधव ने अपनी बातों से गम्भीर शिवा का बस-अड्डे तक का पूरा रास्ता निकाल दिया और उसको सकुशल काकीनाडा की बस में बैठा दिया। 

शनिवार का वह सूर्योदय शिवा के जीवन में अप्रत्याशित परिवर्तनों का सूचक था। अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त का संरक्षण—यही प्रत्येक प्राणी की अभिलाषा होती है; और उक्त दोनों ईश्वरकृपा के अधीन हैं। अतः सुबह रामचन्द्र-लॉज पहुँचकर शिवा ने सबसे पहले भगवान् महादेवजी के दर्शन का मन बनाया। स्नान-आदि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर वह दिन के पूर्वार्ध में ही दक्षिणकाशी-मन्दिर पहुँच गया। विद्वान् वैदिक ब्राह्मण शतरुद्रिय के मन्त्रों से शिवजी का जलाभिषेक कर रहे थे और मन्दिर-परिसर में दूर से ही शिवा उस अर्चन का दर्शन करता रहा। ‘प्रभो! आपसे कुछ नहीं छिपा। यदि मेरे मन में उस (सौन्दर्या) के प्रति वासनाभाव नहीं, अपितु विशुद्ध प्रेम है; तो मेरी प्रार्थना को स्वीकार करो। मेरे जीवन में उसके शुभागमन को मैं आपका कृपाप्रसाद ही समझूँगा’, वह ऐसी मन-ही-मन बोलने लगा। कदाचित् उसकी इस प्रार्थना में कुछ सैद्धान्तिक दोष था; जिसने महादेवजी को उसके साथ कुछ लीला करने का अवकाश दे दिया। अभिषेक पूर्ण होते ही पुजारी ने प्रसाद को सभी भक्तों में वितरित किया। 

प्रसाद लेकर शिवा ज्यों ही बाहर निकला, त्यों ही उसकी दृष्टि उन्हीं वृद्ध मौनी दण्डी संन्यासी पर पड़ी; जिन्हें वह पहले भी दो बार मिल चुका था। आज वे मन्दिर के एक कोने में कुछ विलक्षण मुद्रा में बैठे हुए दिखाई पड़े। आँखों पर मोटा चश्मा, हाथ में एक लाल रंग की पोथी और पास में उनका दण्ड एवं झोली सुशोभित थे। ‘अहो! यह बहुत अच्छा हुआ। इस शहर में मुझे सबसे पहले मिलने वाले लोगों में ये एक हैं। आज इनका आशीर्वाद लेकर मैं जाऊँगा। निश्चित ही से आज शाम सौन्दर्या से मेरी निर्णायक बात होगी और मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं परिस्थिति को अपने अनुकूल कर लूँगा’, उसने सोचा। तुरन्त ही शिवा ने जाकर उन दण्डी स्वामीजी के श्रीचरणों में साष्टांग प्रणाम निवेदित करते हुए ‘ओं नमो नारायणाय’ कहा। तभी . . . अत्यन्त गम्भीर मुखाकृति के साथ मौनी बाबा ने अपने हाथ के इशारे द्वारा शिवा से लेखनी माँगी और उसके द्वारा अपनी गीता की पोथी में एक श्लोकार्ध को रेखांकित करके शिवा के हाथ में थमा दिया। वहाँ अंकित था: ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ अर्थात् कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है; फल में कभी नहीं (2.47)। ‘आश्चर्य! यह तो वही श्लोक था; जो मैंने यागन्ती स्वामी के मन्दिर की दीवार पर उत्कीर्ण देखा था’, शिवा को स्मरण हो आया। वह जब तक सावधान होता, तब तक दण्डी स्वामी तो कहीं जा चुके थे। केवल उनकी झोली ही वहाँ रखी थी। शिवा कुछ घबड़ा गया। आशीर्वाद तो मिला नहीं, मन में आशंका और खड़ी हो गई। ‘इस श्लोक का मैं क्या अर्थ समझूँ? . . .’ बस! यही सोचते-सोचते शिवा ने उस गीता की पोथी को अपने माथे से लगाकर बाबाजी की झोली पर रख दिया और उस झोली को ही साक्षात् संन्यासी महाराज समझकर वह श्रद्धावश प्रणिपात करके सौन्दर्या से मिलने हेतु चल पड़ा। 

आतुरतावश शिवा नियत समय से आधा घंटा पूर्व अर्थात् 6 बजे ही कैफ़े क्रीमस्टोन पहुँच गया। एकान्त में बैठे-बैठे वह मन-ही-मन यह अभ्यास करने लगा कि उसको सौन्दर्या से कैसे बात करनी है। किन्तु लगभग 6:45 बजे सौन्दर्या कैफ़े में प्रविष्ट होते ही शिवा के सारे अभ्यास धूल-धूसरित हो गए। उसके शरीर में कँपकँपी मचने लगी। अभिनव के जन्मदिन के उपलक्ष्य में आज सौन्दर्या भी कुछ विलक्षण मुद्रा में थी। किंचित् अल्पाकार पाश्चात्य परिधान, कुछ अधिक मेकअप, कन्धे पर एक काला पर्स और आज आँखों पर चश्मे के स्थान पर सिर पर एक सनग्लासेस . . . शिवा के लिए सौन्दर्या का यह रूप सर्वथा अकल्पनीय था। बहुत कठिनाई से उसने स्वयं को धीरज दिया तथा सौन्दर्या के आते ही खड़े होकर उसका अभिवादनपूर्वक स्वागत किया। वह भी कुछ अधिक नहीं बोली, बस! अपने सीमित शब्दों में एक सीधा उत्तर देकर वह चुपचाप बैठ गई। 

दो क्षणों तक वह शिवा को गम्भीरता से देखती रही, किन्तु शिवा उससे नज़रें नहीं मिला पा रहा था। तब उसने बहुत बेबाक ढंग से शिवा के पुनः आने का प्रयोजन पूछा। 

“वो, वो . . . मैं तुमसे माफ़ी माँगना चाहता हूँ . . .,” शिवा ने बहुत धैर्यपूर्वक एक असम्भावित उत्तर दिया, “उस दिन मुझसे ऐसी क्या त्रुटि हुई, यह मैं समझ नहीं पाया। पर तुम्हारे इस प्रकार मुझसे रुष्ट हो जाने का स्पष्ट आशय यही है कि मैंने कुछ ऐसा अवश्य किया है; जिससे तुम असहज हो गई। इसलिए मैं तुमसे उस दिन के लिए मेरी दुश्चेष्टा हेतु क्षमायाचना करता हूँ। उस दिन मेरे मन में क्या चल रहा था, यह मैं तुम्हें खुलकर नहीं बता सकता। सौन्दर्या! मेरी विवशता को समझो . . .” अचानक शिवा भावुक हो गया, उसकी आँखों में नमी आ गई, “. . . अपने मन में मेरे प्रति कोई गाँठ मत रखना। अगर हो सके, तो उस दिन की मेरी भूल के लिए मुझे क्षमा कर देना।” . . . कुछ क्षणों तक सन्नाटा छा गया। सौन्दर्या के मन में शिवा की ऐसी भावुक छवि एवं वचनों की कल्पना दूर-दूर तक भी नहीं थी। तत्क्षण वह आश्वस्त हो गई कि निश्चय ही शिवा ने असावधानी में उसका हाथ पकड़ा था। अतः “शिवा! तुम अपने मन में ऐसी बात मत रखो। असल में उस दिन मैं ही बहुत परेशान थी। कुछ दिनों से मेरे घर में एक समस्या चल थी। इसलिए उस दिन मुझे सिरदर्द हुआ और मैं बहुत असहज होकर अपने घर चली गई। उसी परेशानी के चलते मैंने कहीं और का ग़ुस्सा तुम पर उतारते हुए तुम्हें ब्लॉक कर दिया . . .,” उसने प्रेमपूर्वक एक मन्द मुस्कान के साथ यह उत्तर दिया, “. . . पर तुम बिलकुल चिन्ता मत करो! मैं तुमसे रुष्ट नहीं हूँ।”

इन्हीं शब्दों के साथ सौन्दर्या ने बात सँभाल ली और शिवा भी किसी भोले-भाले छोटे बच्चे के समान प्रमुदित हो गया। अब शिवा को लगा कि सौन्दर्या से अपनी बात बनने की सम्भावना शेष है; क्योंकि वह मुझपर कुपित नहीं है। यह सोचकर वह अत्यधिक प्रसन्न हो गया। किन्तु अगले ही क्षणों में उसकी प्रसन्नता अवसन्नता में बदल गई। अभिनव उस कैफ़े में पहुँच गया। अपने प्रेमी को देखते ही सौन्दर्या उल्लासपूर्वक टेबल से इतनी त्वरा में उसकी ओर दौड़ी; मानो कोई नदी समुद्र की ओर बड़े वेग से दौड़ती है। जाते ही सौन्दर्या ने अभिनव का प्रगाढ़ आलिंगन किया; जिसको देखकर शिवा अवाक् रह गया। सौन्दर्या अभिनव का हाथ पकड़कर उसको टेबल तक लेकर आई और उसने शिवा के साथ अपने ‘सबसे अच्छे मित्र’ के रूप में अभिनव का परिचय करवाया। यद्यपि सौन्दर्या द्वारा किया गया अभिनव का वह प्रगाढ़ आलिंगन केवल मित्रता तक सीमित तो नहीं दिखता था, तथापि भोला शिवा अपने मन को झूठा दिलासा देते हुए जैसे-तैसे शान्त बैठा रहा। 

थोड़ी ही देर में वहाँ अभिनव के जन्मदिन का केक आ गया और सौन्दर्या ने मस्ती करते हुए वह केक अभिनव के मुख पर लगा दिया। कुछ देर बाद अभिनव ने सौन्दर्या का एक प्रगाढ़ आलिंगन करके उसकी कमर को गुदगुदाना आरम्भ किया; जिससे सौन्दर्या छोटे बच्चों के समान खिलखिलाकर हँसने लगी। उन दोनों के इस अतिशय रागान्वित व्यवहार को देखकर शिवा बहुत असहज हो गया। ‘अब यहाँ अधिक रुकना कठिन है’, उसको लगा। अतः उसने सौन्दर्या से अनुज्ञा माँगी। सौन्दर्या ने भी शिवा को रुकने अथवा भोजन-आदि करके जाने तक का आग्रह नहीं किया; क्योंकि वह तो अभिनव के सान्निध्य से पहले ही अभिभूत थी। वहाँ शिवा के होने अथवा न होने से उसको कोई अन्तर नहीं पड़ रहा था। इस बात से शिवा बहुत हताश हो गया और और आँखों में कुछ नमी लिए वहाँ से चल पड़ा। 

धीरे-धीरे अपने आँखों से बहने वाली अश्रुधारा के साथ ‘सब कुछ ख़त्म हो गया, कुछ नहीं बचा’, यही सोचते-सोचते शिवा पैदल ही अपने लॉज की ओर लौटने लगा। यागन्ती-मन्दिर में अपने साथ सौन्दर्या की जिस छवि की उसने अपने मनोराज्य में कल्पना की थी, वह बारम्बार उसके मानसपटल पर उभरने लगी। किन्तु शिवा विवेकपूर्वक उसको दबाता रहा। कभी-कभी उसका मन सावधान होकर यह निश्चय करता कि ‘अब रोने से कोई लाभ नहीं! अतीत की छोड़ो, भविष्य का निर्माण करने हेतु अपने वर्तमान में नितरां स्थिर हो जाओ।’ किन्तु थोड़ी ही देर में पुनः सौन्दर्या से मिलन की अन्तिम सम्भावना के विनष्ट हो जाने के गुरुतर दुःख से उसका विवेक बाधित हो गया। वह किंकर्तव्यविमूढ़ होता जा रहा था। सहसा मार्ग में एक छोटा-सा शिवालय दिखा। किन्तु आज शिवा न तो उसके भीतर गया, न ही उसने बाहर खड़े रहकर महादेवजी को प्रणाम किया। बस! वह दो घड़ी तक अपनी निराशा में चूर होकर दूर से ही शिवलिंग को निहारता रहा। ‘प्रभो! क्या मेरा प्रेम एक शिशु के मनोभाव के समान निर्मल नहीं था? फिर क्यों मुझे ऐसा प्रतिफल मिला? . . . ’ उसने मनोवेदना में परिप्लुत होकर सोचा, ‘. . . क्या आप भी मुझसे विमुख हो गए? कम-से-कम मुझे आपसे तो यह आशा नहीं थी।’

चन्द्रमौलीश्वर भला कहाँ कुछ बोलने वाले थे! बारम्बार पोंछे जाने के बाद भी अपनी आँखों से बहने वाले अश्रुओं को सँभालता हुआ शिवा आगे चल पड़ा। कदाचित् यह उसके जीवन का पहला अवसर था कि उसने शिवजी को देखकर भी प्रणाम न किया हो। पर महादेव अकारण-करुणा-वरुणालय हैं। मान-अपमान से सर्वथा मुक्त महेश्वर अपने भक्त का कदापि त्याग नहीं करते। वस्तुतः शिवा अपने इष्ट (शिव) से कहीं अधिक अपने अभीष्ट (सौन्दर्या) को महत्त्व दे रहा था। यही शिवजी के प्रति उसकी प्रार्थना का सैद्धान्तिक दोष था। अतः जो कुछ हुआ, वह शिवा के सुस्थिर भविष्य के लिए सर्वथा आवश्यक था। बहरहाल . . . शिवा पैदल ही रोते-रोते अपने लॉज पहुँच गया और बिना भोजन-ध्यान-आदि किए ही अपने बिस्तर पर गिर गया। काल द्वारा उसकी आज की सम्पूर्ण रात्रि केवल अश्रुधारा में मज्जन करने हेतु सुरक्षित की गई थी। 

अगला सूर्योदय भी इस व्यथा-कथा का प्रस्तावक बना। उस दिन पिठापुरम्-राजा गवर्नमेंट कॉलेज में प्रो. वसिष्ठ अपने विद्यार्थियों के समक्ष ‘शब्दशक्ति’ की गूढ़ व्याख्या कर रहे थे। उन्होंने पाया कि थोड़े-थोड़े अन्तराल में उनकी छात्रा सुभगा बारम्बार अपने फोन को काट रही है। 

“क्या हुआ बेटी? कोई महत्त्वपूर्ण फोन हो, तो तुम उसको स्वीकार कर सकती हो,” उन्होंने वात्सल्यभाव से कहा। 

“नहीं गुरुजी! शिवा भैया बार-बार फोन कर रहे हैं। अधिक विशेष कुछ नहीं लगता।” 

अपने विषय के उस नवोदित विद्वान् का नाम सुनते ही प्रोफ़ेसर साहब प्रमुदित हो गए, “साधु! साधु!! उसको कहो कि काकीनाडा आने पर हमसे मिले; बहुत दिन हो गए। जाओ बेटी! उसका फोन सुन लो।” 

प्रो. वसिष्ठ के निर्देशानुसार सुभगा शिवा से बात करने हेतु चली गई, किन्तु दो ही क्षणों में वह अत्यन्त व्यग्रचित्त से कक्षा में लौटी और उसने प्रोफ़ेसर से वहाँ से जाने हेतु अनुमति माँगी। 

“भैया महाविद्यालय के द्वार पर ही खड़े हैं। वे कुछ व्यथित लग रहे हैं, शायद कोई समस्या है। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। गुरुजी! यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं अभी उनसे मिलने चली जाऊँ?” उसने विनम्र प्रार्थना की। 

“निःसन्देह . . .!” प्रो. वसिष्ठ ने तत्क्षण उत्तर दिया, “यदि मुझसे कोई सहयोग अपेक्षित हो, तो निःसंकोच कहना।”

सुभगा उसी समय महाविद्यालय के द्वार पर पहुँची; जहाँ उसने शिवा को पटरी पर बैठा पाया। सुभगा के पास आते ही शिवा बच्चों के समान फूट-फूटकर रोने लगा तथा अचम्भित सुभगा के द्वारा पूछे जाने पर उसने अपना वृत्तान्त आद्योपान्त कह डाला। सुभगा के आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी, वह केवल मूक होकर खड़ी रही। अभी शिवा अपनी बात कह ही रहा था कि सहसा प्रो. वसिष्ठ भी वहाँ आ गए।

“क्या हुआ बच्चो? . . . अरे शिवा! तुम रो क्यों रहे हो भाई?” उन्होंने चिन्तित होकर पूछा। हिन्दी के पारंगत विद्वान् शिवा के प्रति प्रो. वसिष्ठ के मन में अपार स्नेह एवं सौहार्द था। 

“कुछ नहीं गुरुजी! . . .” सुभगा ने बात सँभालने का प्रयास किया, “भैया के परिवार में अकस्मात् एक आर्थिक संकट आ गया है। वे दुःखी होकर उसी के बारे में मुझे बता रहे हैं। समस्या बड़ी है और सारा उत्तरदायित्व इन्हीं के कन्धों पर है, इसलिए ये परेशान हैं। अब इन्हें यथाशीघ्र अपने आय का स्रोत बनाना होगा।”

प्रो. गोविन्द कुछ क्षणों के लिए मौन हो गए और उन्होंने शिवा से उसका सी.वी. भेजने को कहा, “मैं कहीं-न-कहीं तुम्हारे लिए कुछ प्रयास अवश्य करूँगा। चिन्ता न करो बेटे!”

यहीं से शिवा के जीवन का एक सकारात्मक अध्याय आरम्भ हुआ। कुछ ही दिनों के बाद; प्रो. वसिष्ठ के कृपापूर्ण आश्वासन एवं सहकार से शिवा सुभगा के ही महाविद्यालय में एक अस्थायी प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुआ। उसका संघर्ष सफल हुआ तथा उसकी माता का स्वप्न भी साकार हुआ। यद्यपि अध्यात्म-चिन्तक शिवा अपने आर्थिक पक्ष के प्रति प्रायः उदासीन था, तथापि एक स्थिर आयस्रोत ने उसको अतीव निःशंक बना दिया। वह प्रतिदिन महाविद्यालय में हिन्दी पढ़ाने लगा तथा महाविद्यालयीय परिसर में ही उसको आवास भी प्राप्त हो गया। स्वयं ही भोजन बनाना, ध्यान-लेखन-स्वाध्याय-आदि में लगे रहना, पुस्तकालय में कुछ समय बिताना, शाम को भोजन पकाते-पकाते फोन पर अपनी माँ, माधव और लोकेश से विडियो कॉल पर वार्ता करना उसकी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन चुका था। सौन्दर्या उसके मस्तिष्क में अवश्य थी, किन्तु उसके वियोग में होने वाली वेदना का प्रतिरोध करने हेतु उपर्युक्त विविध क्रियाएँ उसका सहयोग करने लगीं थीं। शिवा के सभी छात्र एवं सहकर्मी उसके ज्ञान-परिश्रम-अध्यापनशैली-अनुभव-आदि से बहुत प्रमुदित थे। प्रो. वसिष्ठ भी हिन्दी-विभाग में अपने उस योग्य उत्तराधिकारी के प्रादुर्भाव एवं विकास से बहुत सन्तुष्ट रहते थे।

वहीं दूसरी ओर; सौन्दर्या का जीवन भी बहुत अच्छा चल रहा था। उसने अपनी आँखों पर अविवेकजनित एकपक्षीय प्रेम की ऐसी पट्टी बाँध रखी थी; जिससे उसको अभिनव का छल दिखना मानो असम्भव लगता था। कुटिल अभिनव अपनी मनोऽभिलाषा को पूर्ण करने की भूमिका बाँधने में बहुत दक्ष था। इसलिए वह सौन्दर्या को बाहर घुमाने, उपहार देने एवं फ़िल्में दिखाने में कभी संकोच नहीं करता था। एक शाम अपनी गाड़ी में लौटते समय उसने सौन्दर्या को मद्यपान करवाने का कुत्सित प्रयास किया। किन्तु संस्कारी सौन्दर्या ने इसको घृणित समझा और अपनी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया। घर पहुँचने से पूर्व ही अभिनव ने मार्ग में कहीं गाड़ी रोककर सौन्दर्या को लुभाने की कामुक चेष्टा की। किन्तु यहाँ भी वह कन्या सावधान रही और उसने कुछ उच्च स्वर में अभिनव को रोकते हुए उसको अपने से दूर रहने हेतु विवश कर दिया। सौन्दर्या यद्यपि अभिनव की इन चेष्टाओं से कुछ असहज हो गई थी, किन्तु वह उसका पूर्णतः प्रतिकार तो नहीं कर सकती थी। यहाँ अभिनव का मन भी सौन्दर्या के प्रति कुछ खट्टा हो गया। तभी उसने निश्चय किया कि वह उचित अवसर पाकर एक बार पुनः प्रयास अवश्य करेगा। और यदि सौन्दर्या अनुकूल न हुई, तो वह उसको सदा-सर्वदा के लिए छोड़ देगा। ऐसा मनोभाव रखकर वह सौन्दर्या के साथ सौहार्द का पूर्ववत् नाटक करने लगा और अग्रिम कुछ दिनों तक सब कुछ सामान्य रहा।

कुछ दिनों बाद शिशिर ऋतु का पदार्पण हुआ। एक दिन दोपहर में अपनी सभी कक्षाओं से निवृत्त होकर शिवा किसी कार्य हेतु कहीं जाने हेतु महाविद्यालय से निकला। पार्किंग में खड़ी अपनी स्कूटी में चाबी लगाते ही सहसा उसके मस्तिष्क में एक ज़ोरदार झटका लगा। इस बार ध्यान में नहीं, अपितु जाग्रत् में ही उस पूर्वदृष्ट बीभत्स दृश्य का आकस्मिक एवं अतिस्पष्ट दर्शन हुआ। शिवा ने देखा कि एक अन्धकारमय भयावह वन में चारों ओर आग लगी हुई है; जिसमें श्वेत वस्त्रों में वह लड़की—जो सौन्दर्या थी—फँसी हुई है। जलते हुए पेड़ उसके आगे-पीछे गिर रहे हैं और वह उनसे बचने का मार्ग खोज  रही है। दौड़त-दौड़ते सहसा एक पत्थर से टकराकर वह बहुत ज़ोर-से गिर जाती है और उसके दाहिने पाँव में आघात लगता है। उस स्थिति में वह आग में घिरकर सब ओर रोती-चिल्लाती देखती है और करुण स्वर में ‘बचाओ! कोई मुझे बचाओ!!’ कहती हुई उस भीषण आग की लपटों में कहीं लुप्त हो जाती है। . . . अब तक जो बीभत्स दृश्य अस्पष्ट रूप से दिखता था, आज शिवा ने एक ही क्षण में उसको स्पष्टतया देख लिया। वह पसीने में लथपथ हो गया और बहुत घबड़ा गया। ‘हे महेश्वर! किसी तरह उसको रोक लो, मैं वहाँ पहुँचता हूँ‘ कहकर उसने तुरन्त अपनी स्कूटी निकाली और वह सौन्दर्या के कार्यालय पहुँच गया।

संयोगवश सौन्दर्या अभी अपने घर के लिए निकली नहीं थी; क्योंकि आज अभिनव कहीं प्रवास पर था। इसलिए सौन्दर्या माया के पास पहुँची, “बहन! आज तू मुझे अपने साथ स्कूटी से ले चल। अभिनव यहाँ नहीं है, आज मैं तेरे साथ घर चलूँगी।” माया ने अभिनव के विषय में सौन्दर्या को छेड़ते हुए प्रसन्नतापूर्वक सहमति व्यक्त की और उसको अपनी स्कूटी पर बैठा लिया। किन्तु जैसे ही वे दोनों पार्किंग से निकलने लगे, उसी समय शिवा ने अपनी स्कूटी आगे लाकर उनकी स्कूटी का मार्ग अवरुद्ध कर दिया। बहुत उच्च स्वर में बड़े अधिकारपूर्वक उसने कहा, “सौन्दर्या! नीचे उतरो, उतरो जल्दी . . .।” 

सौन्दर्या और माया—दोनों ही अचम्भित रह गए। इतने में शिवा उनके पास आ गया और उसने सौन्दर्या का हाथ पकड़कर उसको बलात् स्कूटी से नीचे उतार लिया। “आज तुम माया के साथ नहीं जाओगी। चलो! मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ,” शिवा बहुत उग्रता से बोला। 

किन्तु अगला कोई वाक्य उसके मुख से निकल पाता, उतनी देर में सौन्दर्या ने उसके गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया, “बदतमीज़! तुम समझते क्या हो अपने आप को? मुझे लगा कि उस दिन तुमने जान-बूझकर मेरा हाथ नहीं पकड़ा था, पर आज तो तुमने सभी हदें पार कर दीं। दूर हटो मेरी नज़रों से!” पार्किंग में खड़े इतने लोगों के बीच तिरस्कृत होने पर शिवा एक क्षण के लिए रुक गया। 

इस दृश्य को देखकर माया तो मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई। भावी संकट को ध्यान में रखकर शिवा ने बहुत अपनत्व से सौन्दर्या के हाथ को अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया। वह पुनः उसको मनाने लगा, “मेरी बात को समझने का प्रयास करो। मैं तुम्हें खुलकर कुछ नहीं बतला सकता। इस स्कूटी से तुम्हारा जाना ठीक नहीं होगा। भले ही तुम कभी मुझसे बात न करो, मैं कभी तुम्हें अपना मुँह नहीं दिखाऊँगा। बस! आज के दिन तुम मेरी बात मान लो। तुम मेरे साथ चलो, भले मुझसे बात न करना। मैं तुम्हारे आगे हाथ जोड़ता हूँ।” अपने दोनों हाथ जोड़कर शिवा यकायक सबके देखते-देखते सौन्दर्या के सामने अपने हाथों को बाँधे घुटनों के बल बैठ गया। “मेरी बात मान लो! आज के बाद मेरे शरीर को छूकर निकलने वाली हवा भी तुम तक नहीं आएगी। बस! आज के दिन मेरी बात सुन लो। सिर्फ़ आज की बात है।” किन्तु सौन्दर्या अपनी सुन्दरता, ऐश्वर्य और अभिनव के प्रेम में इतनी मदान्ध हो चुकी थी; कि शिष्टाचार की सभी मर्यादाओं को भुलाकर उसने भूमि पर बैठे शिवा के कन्धे पर चरणप्रहार कर दिया। 

“यू ब्लडी चीप! तेरी हिम्मत कैसे हुई मुझे तंग करने की? मैं तुझे कटवा दूँगी, तेरी औक़ात क्या है मेरे सामने?” इस प्रकार कुपित होकर उसको बुरा-भला कहती हुई सौन्दर्या वहाँ से चल पड़ी। उसने पार्किंग से बाहर निकलकर एक कैब मँगवाई और उसमें बैठकर अपने घर के लिए रवाना हो गई। यहाँ शिवा ने भगवान् शिव का स्मरण किया और अपनी स्कूटी से सौन्दर्या की गाड़ी का कुछ दूर रहकर पीछा किया। ‘हे शिव! मेरे इष्ट देव!! आज आप मुझपर प्रसन्न होइए। आज मेरी उपासना का सारा फल सौन्दर्या को दे दीजिए। मैं आपकी इस कृपा का ऋण कभी नहीं चुका सकूँगा।’

गाड़ी में बैठी सौन्दर्या ने शिवा को अपना पीछा करते हुए देखा, तो उसका क्रोध सातवें आसमान को पार कर गया। शिवा ने जान-बूझकर उसकी ओर तो नहीं देखा, किन्तु वह सौन्दर्या की गाड़ी के आसपास चलता रहा। इससे उसपर सौन्दर्या का कोप प्रतिक्षण बढ़ता रहा। किन्तु घर पहुँचने पर एक विचित्र घटना घटी। तंग गलियों में सौन्दर्या की गाड़ी आगे निकल गई तथा एक ठेले वाले ने शिवा के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। शिवा वहीं रुक गया और उसने क्षुब्ध सौन्दर्या को सकुशल घर में प्रविष्ट होते देखा। इससे उसकी जान में जान आई और वह सौन्दर्या के घर के ठीक सामने अपनी स्कूटी लगाकर वहीं खड़ा हो गया। कुछ देर सोच-विचार करने के बाद शिवा ने सौन्दर्या के निवास के सम्मुख कुछ बड़बड़ाते हुए मुट्ठी बाँधकर तीव्रगति से घूमना आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे सूर्यास्त हो गया। चन्द्रमा उदित हुए और फिर वे भी पश्चिम की ओर अग्रसर थे। जैसे-जैसे रात्रि का अन्धकार सघन हुआ, वैसे-वैसे उस तंग इलाक़े की भीड़ भी छँटने लगी। किन्तु शिवा किसी सजग प्रहरी के समान सौन्दर्या के घर के बाहर कुछ बड़बड़ाते हुए इधर-उधर चक्कर लगाता रहा। उधर अपने पिता और भाई को भोजन करवाकर सौन्दर्या अपने घर का ताला जाँचने हेतु बाहर आई, तो उसने पाया कि शिवा अब भी वहीं टहल रहा है। हालाँकि शिवा ने सौन्दर्या की ओर नहीं देखा; क्योंकि वह तो अब भी एक सुरक्षाकर्मी के समान पूर्ववत् टहलने में व्यग्र था। किन्तु इससे सौन्दर्या के क्रोध एवं असहजता में प्रचुर वृद्धि हुई। वह ज़ोर से अपने घर का द्वार बन्द करके भीतर चली गई। 

रात्रि लगभग तीन बजे के आसपास सौन्दर्या की नींद टूटी, तो वह पानी पीने के लिए रसोई में पहुँची। जाते-जाते उसकी दृष्टि बाहर की ओर पड़ी। उसने पाया कि रात्रि की कठोर ठंड में भी शिवा उसी मुद्रा में तीवग्रति से उसके घर की परिधि में इधर-उधर घूम रहा है। अब वह बहुत विचलित हो गई; क्योंकि शिवा की मंशा उसको स्पष्ट नहीं हो रही थी। उसकी व्याकुलता बढ़ती रही और बारम्बार प्रयास करने पर भी उसको नींद नहीं आई। अन्ततः सूर्योदय के आसपास उसका अलार्म बजने से पूर्व शिवा की स्कूटी की आवाज़ ने उसको उठा दिया। वह तुरन्त उठकर आई और उसने खिड़की से झाँककर देखा। शिवा अपनी स्कूटी पर वहाँ से चला गया। किन्तु शिवा के इस विचित्र व्यवहार से वह घबड़ा गई। उसने सोचा, सम्भवतः शिवा मुझे पुनः मार्ग में कहीं पकड़ेगा या मुझसे सम्पर्क करने का प्रयास करेगा। उसने तत्काल अभिनव को एक औपचारिक ईमेल लिखकर एक दिन का आपातकालिक अवकाश माँगा तथा अपना फोन बन्द करके उस दिन अपने घर से बाहर न निकलने का निश्चय किया। 

उसी दिन माधव और लोकेश शिवा की माँ—जानकी को लेकर बिना पूर्व सूचना दिए काकीनाडा में शिवा के नए आवास पर पहुँचे। सभी लोग बहुत प्रसन्न थे। शिवा ने निश्चय किया कि वह स्वयं अपनी माता और मित्रों के लिए भोजन बनाएगा। लोकेश से सब्ज़ी कटवाकर उसने मध्याह्न-भोजन बनाया। सायंकाल वह घर की एक चाबी अपने मित्रों को देकर स्वयं अपनी माँ के साथ दक्षिणकाशी मन्दिर चला गया। वहाँ से लौटते समय बारम्बार उसका फोन बजता रहा, किन्तु स्कूटी पर होने के कारण उसने फोन नहीं उठाया। घर पहुँचते ही उसने देखा, तो पाया कि माधव की पाँच मिस्ड कॉल एवं एक सन्देश था। उसमें लिखा था: ‘यथाशीघ्र अपोलो अस्पताल की इमर्जेन्सी में मिलो!’ अपनी माता को घर पर ही छोड़कर शिवा उसी क्षण अस्पताल के लिए रवाना हो गया। वहीं दूसरी ओर; सौन्दर्या का फोन न लगने के कारण स्वयं अभिनव उसके घर गया और उसको अपने साथ अस्पताल ले आया। 

थोड़ी देर बाद जब शिवा अस्पताल पहुँचा, तो उसने पाया कि रिसेप्शन के पास ही सौन्दर्या, अभिनव, माधव एवं लोकेश खड़े हैं। वे सभी अत्यन्त गम्भीर मुद्रा में एक-दूसरे से बातें कर रहे हैं। सभी के मुखमण्डल पर चिन्ता स्पष्ट परिलक्षित हो रही है। सौन्दर्या को देखते ही शिवा उन सभी से बहुत दूर खड़ा हो गया। उसी समय लोकेश की दृष्टि शिवा पर पड़ी और वह शिवा के पास चला गया। तभी प्रथल तल से माया की माता रोती-चिल्लाती नीचे आई और सौन्दर्या का आलिंगन करके फूट-फूटकर रोने लगी। उनके अन्य परिजन भी वहाँ आ गए और तभी लोकेश के माध्यम से शिवा के यह ज्ञात हुआ कि विगत सायं कार्यालय से लौटते समय माया की एक ट्रक से भीषण टक्कर हो गई है। इस दुर्घटना में उसके दाहिने पाँव की हड्डी चकनाचूर हो चुकी है। उसको अपने पाँव पर चलने में कई वर्ष लग सकते हैं। अब भी उसको होश नहीं आया है, वह आई सी यू में निश्चेष्ट एवं संज्ञाशून्य पड़ी है। सभी से दूर खड़ा शिवा इस दुर्घटना के विषय में सुनकर फूट-फूटकर रोने लगा। लोकेश ने अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में सोचा, “ये क्यों रो रहीं हैं?” और उसने सहानुभूतिवश शिवा के कन्धे पर हाथ रख दिया। किन्तु शिवा रिसेप्शन में लगी शिवजी की छवि को देखकर पश्चात्तापवश आँसू बहाने लगा, “सब मेरी ग़लती है। हे भगवान्! मैं कितना बड़ा स्वार्थी हूँ . . .” 

‘इसको क्या हुई?’ लोकेश ने सोचा। उससे रहा नहीं गया और वह बोल पड़ा, “क्या हुए बाबा? तुम क्यों रोते है?” 

“कुछ नहीं!”

“झूठ मत बोलें! क्या हुई?” 

शिवा उसी समय रिसेप्शन के पास लगी कुर्सी पर जाकर बैठ गया और रोने लगा, “भाई! मैं इतना स्वार्थी कैसे बन गया? मुझमें इतनी भी मानवता नहीं बची। यदि मैं थोड़ा भी बुद्धिपूर्वक सोचता, तो आज सौन्दर्या और माया—दोनों ही सुरक्षित होते। किन्तु मैं तो सिर्फ़ अपने प्यार को बचाने में ही लगा रहा। यह भूल गया कि माया भी तो किसी की बहन-बेटी है।” इसके बाद; शिवा ने आँखों में आँसू भरे लोकेश को पूरा वृत्तान्त सुनाया . . . पातालगंगा में ध्यान करते समय अस्पष्टतया दिखे विचित्र दृश्य की वास्तविकता, सौन्दर्या को बचाने हेतु उसके पास जाकर प्रार्थना करना एवं तिरस्कृत होना, रातभर प्रयासपूर्वक मन्त्रजप करते-करते उसके घर के बाहर रहकर उसकी रक्षा के संकल्प से पहरा देना इत्यादि। यह सुनकर लोकेश की आँखें फटी की फटी रह गईं। शिवा की भाव-भंगिमा ही इसका स्फुट साक्ष्य थी कि वह मिथ्याप्रलाप नहीं कर रहा था। “यदि मैं थोड़ा सावधान हो जाता, तो आज माया भी पूर्ण स्वस्थ होती,” शिवा ने अपनी बात का उपसंहार किया और सिर नीचे झुका लिया। 

थोड़ी देर में माधव वहाँ आ गया और उसने शिवा के कन्धे पर हाथ रखा। उदास शिवा ने सिर तो ऊपर किया, किन्तु ऊपर देखते ही उसकी दृष्टि दूर खड़ी सौन्दर्या पर पड़ गई; जो उसको द्वेषपूर्वक घूर रही थी। शिवा सौन्दर्या के उद्वेग का कारण नहीं बनना चाहता था। अतः वह माधव और लोकेश को वहीं छोड़कर घर के लिए निकल पड़ा। शिवा के जाते ही प्रकुपित सौन्दर्या धीरे-धीरे ताली बजाती हुई उन दोनों मित्रों के पास आई, “वाह! तुम्हारा ये दो कौड़ी का दोस्त लोगों के सामने नम्बर बनाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ता। इसका नाटक देखा? कैसे सबके आगे रो-पीट रहा था। मानना पड़ेगा, तुम्हारा ये चीप दोस्त बहुत बड़ा नौटंकीबाज़ है।” 

सौन्दर्या की इस दुरुक्ति पर माधव तो कुछ नहीं बोला, किन्तु पूरी कहानी में पहली बार लोकेश ने आवेश में आकर अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। 

“ओ मैडम! चीप तो तुम हो। तुम्हें शर्म आनी चाहिए!” वह उच्च स्वर से बोल पड़ा, “जो तुम्हारे नाम पर मन्नतें माँग रहा है, तुम्हें ख़ुश देखने के लिए भगवान् के आगे हाथ-पाँव जोड़ रहा है, इतनी बेइज़्ज़ती सह रहा है, रात-रातभर ठंड में तुम्हारे लिए धक्के खा रहा है और तुम उसको दो कौड़ी का बता रही हो? शेम ऑन यू! तुम्हारे पास दिमाग़ हो, तो ज़रा सोचो! अगर उस दिन उसने तुम्हें न रोका होता, तो तुम्हारे घर के लोग भी यहाँ खड़े रो रहे होते। अरे! उसकी प्रार्थनाओं ने ही तुम्हें तुम्हारे पाँव पर खड़ा रखा है।”

आश्चर्य तो यह था कि आवेश में लोकेश के मुख से पहली बार सर्वथा शुद्ध हिन्दी निकली थी। माधव और सौन्दर्या—दोनों को ही लोकेश के उपर्युक्त वचनों ने स्तम्भित कर दिया। किन्तु एक के लिए वे आश्चर्य के विषय थे और दूसरे के लिए मनःपरिवर्तन के। लोकेश तो आवेश में बाहर चला गया; और उसको रोकने के लिए माधव भी उसके पीछे-पीछे निकल पड़ा। किन्तु सौन्दर्या के हाथ-पाँव ठण्डे पड़ गए, उसका कण्ठ अवरुद्ध हो गया। वह अभिनव के साथ उसकी गाड़ी में घर के लिए निकल पड़ी। किन्तु अचम्भे के कारण उसकी आवाज़ नहीं निकल रही थी। ‘तुम्हारे पास दिमाग़ हो, तो ज़रा सोचो! अगर उस दिन उसने तुम्हें न रोका होता, तो तुम्हारे घर के लोग भी यहाँ खड़े रो रहे होते . . . ’—लोकेश के ये शब्द उसके कानों में गूँजने लगे। गाड़ी के ए.सी. में भी वह पसीने से लथपथ हो रही थी। तब अभिनव की दृष्टि उसकी इस असहजता पर पड़ी। उसने सोचा कि माया की दुर्घटना से यह अवसन्न हो चुकी है। इसलिए सौन्दर्या को सामान्य करने हेतु उसने एक सुनसान रास्ते पर गाड़ी रोकी और उसको सहज करने का प्रयत्न करने लगा। किन्तु काले सूट में ग़ौर वर्ण की सुन्दर सौन्दर्या के भोले मुखमुण्डल को देखकर वह उसपर मोहित हो गया और उसने सौन्दर्या का प्रगाढ़ आलिंगन कर लिया। थोड़ी देर में वह सौन्दर्या को बलात् चूमने हेतु उद्यत हुआ। किन्तु बारम्बार स्वयं को बचाते हुए सौन्दर्या ने अन्ततः आवेश में आकर अभिनव को थप्पड़ मार दिया। एक क्षण के लिए गाड़ी में सन्नाटा छा गया और फिर, “दफ़ा हो जाओ यहाँ से। कल से मेरे यहाँ काम पर मत आना। यू आर फ़ायर्ड!”

अब सौन्दर्या घबड़ा गई। उसने रोते-रोते अभिनव से क्षमा माँगी और कहा कि मैं शादी से पहले इन सबके लिए प्रस्तुत नहीं हूँ। 

“शादी? तुझसे? तेरा दिमाग़ ठिकाने पर है। तेरी औक़ात क्या है मेरे सामने? तू सिर्फ़ यूज़ एंड थ्रो मैटिरीयल है . . . यू ब्लडी बिच! दूर हो जा मेरी नज़र से।” 

सौन्दर्या रोती-चिल्लाती रही, किन्तु अभिनव ने उसकी एक न सुनी और उसको अपमानित करके गाड़ी से उतार दिया। अभिनव तो चला गया, किन्तु उस सुनसान मार्ग पर सौन्दर्या ठगी-सी खड़ी रही। जब उसको कुछ समझ नहीं आया, तब उसने माधव को फोन किया, “भाई! क्या तुम मेरी मदद के लिए आ सकते हो?” उसने रोते-रोते याचना की। 

“तुम कहाँ हो? अभी अपनी लोकेशन मुझे भेजो, मैं वहाँ आ रहा हूँ।” 

लोकेश को बिना बताए उसको अस्पताल में छोड़कर माधव, कुछ ही क्षणों में अपनी गाड़ी से वहाँ पहुँच गया; जहाँ उसने सौन्दर्या को अपने घुटनों पर सिर रखकर मुख नीचे करके पटरी पर बैठी पाया। माधव को देखकर वह बिलखकर रोने लगी। बहुत बार पूछने पर भी उसके मुख से एक शब्द नहीं निकला। बस! आँसू बहते रहे और शीशे से सिर टिकाए वह एक उदास प्रतिमा बनकर बैठी रही। 

घर के बाहर पहुँच जाने पर माधव ने पुनः उससे वस्तुस्थिति जाननी चाही। इस बार वह चुप न रह सकी और छोटे बच्चे की भाँति बिलख-बिलखकर रोने लगी। उसने माधव को सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया और डैशबोर्ड पर अपना सिर रखकर फिर रोने लगी। माधव ने एक गहरी साँस छोड़ी और गम्भीर स्वर में उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, “बहन! इस समय मैं सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूँ: जो हुआ, उसको एक बुरा सपना समझकर भूल जाओ। भविष्य को ठीक करने के लिए पहले वर्तमान को सुधारने की कोशिश करो। हमलोग कल बैठकर तुम्हारे लिए अग्रिम योजना बनाएँगे। अब रात बहुत हो चुकी है, तुम जाकर विश्राम करो।” ऐसा कहकर उसने सौन्दर्या को सकुशल उसके घर भेज दिया और स्वयं लोकेश को लेने अस्पताल चला गया। 

अगले दिन सुबह दस बजे . . . उदास सौन्दर्या अपनी रसोई में खाना पका रही थी। तभी उसके फोन पर माधव का सन्देश आया, “बहन! माया को होश आ गया है। डॉक्टर ने कहा है कि हमलोग उससे मिल सकते हैं। बारह बजे मिलने का समय है। तुम यथासमय वहाँ पहुँच जाओ, मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा।” 

“ठीक है भाई!” लिखकर सौन्दर्या ने अपने घर का काम यथाशीघ्र पूरा किया और अपने पिताजी से आज्ञा लेकर वह अस्पताल पहुँची। माधव द्वार पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, वह उसको आई.सी.यू. के द्वार पर छोड़कर स्वयं नीचे आ गया। माया को बिस्तर पर पड़ा देखकर सौन्दर्या अपनी अश्रुधारा को रोक न सकी, दूर खड़ी-खड़ी रोने लगी। सिसकने की उस आवाज़ ने माया की आँखें खोल दीं, “कौन?” उसने पूछा। तब सौन्दर्या उसके समीप आई और उसका हाथ पकड़ लिया। 

“क्या अभिनव सर भी आएँ हैं?” माया के इस प्रश्न को सुनकर सौन्दर्या फूट-फूटकर रोने लगी और उसने विगत रात्रि का सारा वृत्तान्त माया को सुनाया। उसने यह भी स्वीकार किया कि शिवा को अपमानित करके उसने बहुत बड़ा अपराध कर दिया है, उसको ऐसा नहीं करना चाहिए था। 

यह सुनकर माया ने भी एक सत्य कहने का साहस किया। नेत्रकोण से अश्रु की एक पतली धारा बहाते हुए वह बोल पड़ी, “मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ, पर मेरी बात सुनकर तुम ग़ुस्सा मत होना। मैंने शिवा के बारे में तुमसे बात करते समय उसकी कुछ ज़्यादा ही बुराई कर दी। मैं तुम्हें एक सत्य घटना बतलाती हूँ। जब हम लोग विद्यालय में थे, तब मैं शिवा को बहुत पसन्द करती थी। मुझे वह बहुत अच्छा लगता था, पर वह लड़कियों से कम बात करता था। इसलिए उसको कुछ कहने का साहस नहीं कर पाई। एक दिन, अपने मन को स्थिर करके जब मैंने उससे बात करने का साहस किया, तो मुझे अनुभव हुआ कि वह दूर से तुम्हें ही देख रहा था। मुझे लगा, कदाचित् वह तुमसे प्रेम करता है। तब मैंने अपनी बातों में उसको घुमाते हुए उससे पूछ लिया, ‘क्या तुम सौन्दर्या से शादी करोगे?’ 

“‘हाँ! बिलकुल!’ उसने उत्तर दिया, किन्तु यकायक वह झेंप गया और उठ भागा। चूँकि मैं उसको पसन्द करती थी, इसलिए मुझे उसका यह उत्तर अच्छा नहीं लगा। किन्तु मैंने विद्यालय में कभी उसको किसी और लड़की को देखते हुए भी नहीं देखा। वह फ़्रेंडशिप डे पर सभी लड़कों से तो हाथ मिलाता था, किन्तु उसने कभी किसी लड़की को हाथ मिलाने के बहाने भी नहीं छूआ। और जब तुम काकीनाडा आ गई, उस दिन से मैंने उसको कभी विद्यालय में हँसते हुए नहीं देखा। सौन्दर्या! मुझे माफ़ कर दो, मैंने तुमसे बहुत बड़ी बात छिपाई और तुम्हें दिग्भ्रमित किया। शिवा एक बहुत अच्छा लड़का है। चूँकि उसने अनजाने में मेरे प्रेम को ठेस पहुँचाई थी, इसलिए अपने निजी द्वेष के कारण मैंने तुम्हें उसके विषय में भ्रमित कर दिया था। मैंने बहुत बड़ा अपराध कर दिया है, उसी का यह कठोर दण्ड मुझे मिला है।”

माया की इन बातों को सुनकर आश्चर्यचकित सौन्दर्या तुरन्त रोती-रोती वहाँ से निकल पड़ी। जो कुछ विद्यालय में हुआ, उसपर कभी उसका ध्यान नहीं गया था। वहीं; उसने अपनी अन्तिम भेंट में शिवा को इतना अपमानित कर दिया था कि वह उसके समक्ष जाने का दुःसाहस नहीं कर सकती थी। बस! उसकी आँखों से अश्रुधारा झर्झर बहने लगी, अब तक शिवा के साथ घटित उसकी सारी बातें उसकी आँखों के सामने आने लगा। बहुत दुःखी मन से माधव को खोजने लगी। तभी उसने माधव को फोन करके पूछा, तो ज्ञात हुआ कि वह नीचे भोजनालय में है। द्रुतगति से सौन्दर्या वहीं पहुँच गई। अभी लोकेश ने खाने के लिए एक इडली उठाई ही थी, “आ गई मुसीबत!” 

एकदम सौन्दर्या माधव के सामने आकर खड़ी हो गई और बोली, “क्या शिवा मुझे प्यार करता है?” . . . दो मिनट सन्नाटा छा गया, कोई कुछ नहीं बोला। लोकेश अपनी इडली को चटनी में घुमाता रहा। तभी सौन्दर्या एक छोटे बच्चे के समान रोने लगी और उसने दोनों हाथ जोड़कर माधव के प्रति अपना प्रश्न दोहराया। व्यंग्यात्मक स्वर में लोकेश बोल पड़ा, “कोई शक?” 

यह सुनकर सौन्दर्या के ऊपर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। रोती हुई उसको माधव ने उससे और शिवा से सम्बन्धित सारा पूर्ववृत्त सुनाया। 

“आधुनिकता की चमक ने मुझे अन्धा कर दिया था! ये मुझसे क्या हो गया?” रोती हुई सौन्दर्या पश्चात्तापपूर्ण शब्दों में बोली, “माधव भाई! मेरी एक छोटी-सी सहायता करो। हो सके, तो शिवा से मेरी एक भेंट करवा दो। मैं उसको समझा दूँगी। वह बहुत अच्छा है, मुझे ज़रूर माफ़ कर देगा . . .”

“. . . बाबा मूडी आदमी है!” तुरन्त लोकेश ने उसकी बात काट दी। 

तभी माधव ने उसको सान्त्वना दी, कुर्सी पर बैठाया और उसको पीने का पानी दिया। सौन्दर्या के लिए एक कॉफ़ी मँगवाकर उसने शिवा को फोन लगाया, “भाई! सौन्दर्या तुमसे मिलना चाहती है।” 

“क्यों? मेरी बेइज़्ज़ती से अभी पेट नहीं भरा उसका? मुझे नहीं मिलना,” शिवा ने खीजकर उत्तर दिया। माधव उसको समझा ही रहा था कि ‘मेरी कक्षा है भाई, मैं तुझसे फिर बात करूँगा’, शिवा ने उसकी बात काटकर कहा और फोन रख दिया। फोन लॉउडस्पीकर पर था। पश्चात्ताप में डूबी सौन्दर्या ने सबकुछ प्रत्यक्ष सुना था, अतः वह और अधिक फूट-फूटकर रोने लगी। संयोगवश वह इस बात को नहीं जान पाई थी कि शिवा महाविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हो गया है। उसको यही भ्रम था कि शिवा अब भी एक कोचिंग प्रशिक्षक ही है। अस्तु! 

सौभाग्यवश कुछ दिनों बाद माया अपने घर पहुँच गई। चिकित्सकों द्वारा उसको पूर्ण विश्राम का निर्देश दिया गया। यद्यपि कोविड की गति बढ़ रही थी, किन्तु इसमें माया का सौभाग्य यह था कि लॉकडाउन से पूर्व ही वह घर लौट आई थी। 24 मार्च 2020 की शाम जब सौन्दर्या अपने घर की रसोई में भोजन बना रही थी, तभी प्रधानमन्त्री मोदीजी ने टीवी पर 21 दिनों के लॉकडाउन की आकस्मिक घोषणा कर दी। ग़रीबी में आटा गीला! पहले ही नौकरी नहीं थी, ऊपर से आर्थिक संकट। सौन्दर्या के ग्रह वस्तुतः प्रतिकूल चल रहे थे। जब लॉकडाउन ही लग गया, तो इतनी जल्दी नौकरी की सम्भावना भी नहीं दिखती थी। पिताजी की महँगी दवाइयाँ, घर का राशन . . . कुछ दिन तो जैसे-तैसे निकल गए, किन्तु अधिक दिनों तक परिस्थिति नियन्त्रण में रखना कठिन था। हारकर एक दिन सौन्दर्या ने माधव को फोन किया और अपनी कष्टपूर्ण स्थिति बतलाते हुए 50,000/-की आर्थिक सहायता माँगी।

“बहन! मुझे 10 मिनट का समय दो, कोई-न-कोई उपाय करता हूँ,” माधव ने आश्वासन दिया। सौन्दर्या का फोन काटकर उसने तुरन्त शिवा को फोन किया। शिवा अपनी ऑनलाइन कक्षा में व्यस्त था, किन्तु एक क्षण रुककर उसने माधव का फोन उठा लिया, “हाँ माधव!” 

“भाई! सौन्दर्या का फोन आया था, बहुत परेशान थी। उसको कुछ पैसे उधार चाहिए। 50,000/-कुछ हो सकता है?” शिवा ने कोई उत्तर नहीं दिया। 

अगली सुबह आठ बजे जब सौन्दर्या की आँख खुली, तो उसने अपने फोन पर एक सन्देश पढ़ा। विगत रात्रि उसके बैंक खाते में 50,000/-जमा हो गए थे। 

सौन्दर्या ने तत्क्षण माधव को धन्यवाद देने हेतु फोन किया, “भाई! मैं बता नहीं सकती कि तुमने मेरी कितनी बड़ी सहायता की है।” 

“अरे! धन्यवाद तो शिवा को दो भई, ये पैसे उसने मुझे दिए हैं। मैं तो एक सरकारी क्लर्क हूँ। मेरे लिए तत्काल इतना पैसा निकालना बहुत कठिन है,” माधव ने उत्तर दिया। अब तो सौन्दर्या अवाक् रह गई। उसके पाँव तले ज़मीन खिसक गई और वह पश्चात्ताप के समुद्र में डूब गई। फोन पर माधव ‘हैलो! हैलो’ कहता रहा, किन्तु सौन्दर्या स्वयं को सँभाल न सकी। घुटने के बल बैठकर रोने लगी। पुनः उसकी आँखों के सामने वही दृश्य आने लगे; कि कैसे उसने शिवा को भरी भीड़ में तिरस्कृत करके उसको लात मारी थी। कैसे सर्दियों की उस रात शिवा उसके घर के बाहर किसी चौकीदार की तरह इधर-उधर घूम रहा था। ‘नहीं! मैं उससे माफ़ी माँगूँगी, वह मुझे माफ़ करेगा; उसको करना ही होगा’, सौन्दर्या ने स्वयं को समझाया। कक्ष में लगे शंकरपार्वती के चित्रपट को देखते हुए सौन्दर्या ने प्रार्थनापूर्वक बहुत साहस किया और उसने शिवा को फोन मिलाया। फोन उठा, “हैलो! हाँ जी कौन?” 

“सौन्दर्या!”

इतना सुनते ही ‘मैं अभी कक्षा में हूँ’ कहकर शिवा ने फोन काट दिया। सौन्दर्या पुनः रोने लगी। दो घंटे तक उसने प्रतीक्षा की और फिर साहस करके उसने शिवा के व्हाट्सैप्प पर एक सन्देश डाला। शिवा अपने मन्द अन्धकार वाले कक्ष में भगवान् शिव के समक्ष ध्यानस्थ था, उसको पता ही नहीं लगा। उधर सौन्दर्या शिवा के साथ अपने प्रेमप्रसंग की मधुर कल्पना करने लगी। कभी शिवा उसको सन्देश भेजता था, ठीक वैसे ही अब सौन्दर्या भी उसको सुप्रभात और शुभरात्रि के सन्देश भेजने लगी। शिवा उन्हें देखकर भी अनदेखा कर देता था। पश्चात्ताप की अग्नि में जलती सौन्दर्या के अश्रु मानो उस अग्नि को ईन्धन बन रहे थे। सौन्दर्या अत्यधिक कष्ट में थी, किन्तु दुर्भाग्यवश अपनी मनोवेदना किसी को कह भी नहीं पाती थी। बस! प्रत्येक 5-6 घंटे के अन्तराल में वह शिवा को क्षमायाचना के सन्देश और मित्रता-सम्बन्धित सुभाषित भेजने लगी। अन्ततः उसके इस बढ़ते दुःसाहस से कुपित होकर शिवा ने उसको सभी ओर से ब्लॉक कर दिया। जब एक सुबह सौन्दर्या को व्हाट्सैप्प पर शिवा का चित्र देखने को नहीं मिला, तो उसको लगा कि शिवा ने उसको ब्लॉक कर दिया है। उसकी दुर्दशा अनिर्वचनीय थी, मानो शनि की साढ़ेसाती अपने चरम पर हो। केवल पश्चात्ताप उसका सहचर बन गया। वह घर के कामों में अपने मन को उलझाने के निष्फल प्रयास करती रही; और कर भी क्या सकती थी बेचारी! उसके मुखमण्डल की साधारण सज्जा भी उसने छोड़ दी, आँखों के नीचे बड़े-बड़े काले घेरे आने लगे थे। केवल दुःख ही दुःख! 

बहरहाल! जून 2020 के प्रथम सप्ताह में जब लॉकडाउन को खोलने के प्रथम सरकारी निर्देश आए, तब एक दिन सौन्दर्या के पास माधव का फोन भी आया। 

“बहन! शिवा का फोन आया था, वह पैसे माँग रहा है।”

“पर मेरे पास अभी देने के लिए कुछ नहीं है। अभी तो लॉकडाउन खुला ही है, नौकरी की तलाश करती हूँ। नौकरी मिलते ही धीरे-धीरे सारा पैसा चुका दूँगी।”

“एक काम करते हैं! मैं अपने खाते से तुम्हें 10,000/-दे दूँगा। कल तुम मेरे साथ शिवा के घर चलो और प्रत्यक्ष मिलकर उसको पहली क़िश्त दे दो। बाक़ी पैसों के लिए हम उससे समय माँग लेंगे।”

“ठीक है! मैं तैयार रहूँगी भाई!” सौन्दर्या ने उत्तर दिया। उसके मन में शिवा को प्रत्यक्ष मिलने की कल्पनाएँ उठने लगीं। कदाचित् इस अवसर का लाभ उठाकर वह शिवा से क्षमायाचना भी कर सकेगी, उसने सोचा। 

अगले दिन सुबह शिवा के द्वार की घंटी बजी, उसकी माँ जानकी ने द्वार खोला, “आओ माधव बेटा! बहुत दिनों बाद मिले। लॉकडाउन के कारण हम एक-दूसरे को देख भी नहीं पाए बेटा!” 

माधव ने उनका चरणस्पर्श किया। तभी जानकी की दृष्टि पीछे सहमी हुई खड़ी सौन्दर्या पर पड़ी। फीका-सा मुखमण्डल, वैसा ही फीका परिधान भी। वह एक दुःखियारी लग रही थी। जानकी ने माधव से पूछा, “बेटा! ये बिटिया कौन है?” 

“मेरी दूर की बहन है मौसी, सौन्दर्या,” माधव ने उत्तर दिया। 

“बहुत सुन्दर है ये! साक्षात् महालक्ष्मी है,” जानकी ने सौन्दर्या के सिर पर हाथ फेरा, और अचानक . . . ‘अरे! मैं तुम्हें भीतर भी लेकर नहीं गई। आओ! शिवा अभी अपने कक्ष में है, ऑनलाइन पढ़ा रहा है। तुम दोनों यहाँ बैठो, मैं कॉफ़ी लेकर आती हूँ,” कहकर जानकी ने उन दोनों को अतिथि-कक्ष में बैठाया और स्वयं रसोई में चली गई। अतिथि-कक्ष में पाँव रखते ही सौन्दर्या के आश्चर्य का पारावार नहीं रहा। कक्ष की दो दीवारें अनेक पुरस्कारों, प्रशस्तिपत्रों एवं प्रतिष्ठित लोगों के साथ शिवा के चित्रों से भरी हुईं थीं। सभी का मध्यवर्ती चित्र अत्यन्त विलक्षण था; जिसमें शिवा को महामहिम राज्यपाल एक राजकीय सम्मान दे रहे थे। अनेक स्वर्ण पदक थे; जिन्हें देखकर सौन्दर्या का मस्तिष्क घूम गया। 

अकस्मात् सौन्दर्या की पीठ की ओर का द्वार खुला और उसमें से शिवा निकला। 

“आओ प्रोफ़ेसर साहब!” माधव ने प्रेमपूर्वक शिवा को बुलाया और उसका आलिंगन किया। किन्तु उस भेंट में शिवा ने सौन्दर्या को मानो देखा ही नहीं। इस उपेक्षा से सौन्दर्या के हृदय पर वज्रपात हो गया। किन्तु वह जानकी के संकोच में वहाँ कोई प्रतिक्रिया न दे सकी। 

“मेरे काम का क्या हुआ?” शिवा के द्वारा माधव से तत्काल कठोर स्वर में हुए प्रश्न ने सौन्दर्या को अत्यधिक भयभीत कर दिया। माधव ने सौन्दर्या को इशारा किया और सौन्दर्या ने अपने हाथ में सुरक्षित पकड़ा पैसे का लिफ़ाफ़ा शिवा की ओर बढ़ा दिया। 

“भाई! मैंने पैसे तुझसे लिए थे, मुझे और किसी से क्या काम?” शिवा ने कुपित होकर माधव को अपनी देखा। सौन्दर्या अत्यन्त तिरस्कार का अनुभव कर रही थी। अतः उसने पैसों का वह लिफ़ाफ़ा वहीं छोड़ा और रोती-रोती उस कक्ष से बाहर चली गई। जब तक जानकी कॉफ़ी लेकर आई, तब तक सौन्दर्या जा चुकी थी। केवल माधव ही वहाँ बैठा मिला। रोती हुई सौन्दर्या पैदल अपने घर की ओर चल पड़ी। मार्ग में एक छोटा-सा शिवमन्दिर आया। उमामहेश्वर की सुन्दर छवि को देखकर सौन्दर्या ने प्रार्थना की, “माँ! जैसे आपको अपने शिव का प्रेम प्राप्त है, वैसे मुझे अपने शिवा का प्रेम मिले।” कुछ देर रोने के बाद वह अपने घर लौटी। सौन्दर्या ने अपने पिता और भाई से अपने अश्रुओं को छिपाया, पर सीधे जाकर उसने अपने कक्ष का द्वार बन्द किया और द्वार के सहारे बैठकर फूट-फूटकर रोने लगी। उसके मन में शिवा और उसके प्रेम के काल्पनिक चित्र नाच रहे थे। फिर वह दुर्भाग्यपूर्ण दृश्य भी उसकी आँखों के सामने आ गया, जब उसने शिवा को डाँटा-फटकारा था। 

कुछ देर बाद रोती हुई सौन्दर्या ने अपने फोन पर दृष्टि डाली, तो उसको माधव की तीन मिस्ड कॉल दिखाई पड़े। फोन साइलेंट पर था, अतः माधव की कॉल का पता नहीं लगा। सौन्दर्या ने स्वयं को ढाढ़स बँधाया और अपने आँसुओं को पोंछकर उसने माधव के फोन पर एक विस्तृत लिखित सन्देश भेजा: ‘भाई! मुझे एक बार शिवा से बात करनी है। भले फिर कभी वह मुझसे बात न करे। जो मैंने किया, वह ग़लती नहीं; अपराध है। परन्तु मुझे अपने अपराध की क्षमायाचना हेतु एक अवसर तो मिलना चाहिए’, दुःखित मन से सौन्दर्या ने कहा। पन्द्रह-बीस मिनटों के बाद माधव का एक लिखित प्रत्युत्तर आया: ‘आज तुम्हारे प्रति शिवा के रुख़ को देखकर मैं प्रत्यक्ष कुछ करने का दुःसाहस नहीं कर सकता। मुझे उसने पहले ही सावधान किया है कि आज के बाद मैं तुम्हें लेकर उसके सामने न जाऊँ, और न ही तुम्हारी कोई बात उसके सामने रखूँ। किन्तु एक महत्त्वपूर्ण बात तुम्हें बताता हूँ। शिवा प्रतिदिन दक्षिणकाशी मन्दिर में भगवान् शिव के दर्शन हेतु जाता है। पर कितने बजे, यह नहीं कह सकते। तुम किसी तरह उसको वहीं मिलो, तब तुम्हारा कुछ काम बन सकता है।’

उक्त सन्देश को पढ़कर सौन्दर्या ने मन बना लिया। आतुरता में उसने उस दिन भोजन भी नहीं किया। अपने पिताजी से उसने कहा कि वह ब्रह्ममुहूर्त में दक्षिणकाशी-मन्दिर जाना चाहती है; ताकि इस कष्टपूर्ण स्थिति से भगवान् शिव हमें उबारें। पिताजी सहर्ष मान गए। आधुनिक युग में आस्तिकता का संस्कार दुर्लभ है। यदि किसी की सन्तान भक्त है, तो निश्चित वह माता-पिता का पुण्य-परिपाक एवं ईश्वर-अनुग्रह का लक्षण है। आर्त्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी—सभी के लिए भगवान् के द्वार खुले हैं। अब; शिवा को मिलने की आशा में सौन्दर्या प्रातः चार बजे उठी। स्नान-आदि से निवृत होकर वह घर से पैदल ही निकल पड़ी। विगत दिन निराहार होने पर भी शिवा से मिलने हेतु उसकी उत्कण्ठा ने उसकी ऊर्जा में न्यूनता नहीं आने दी थी। सूर्य तो बाद में उदयाचल तक पहुँचे, सौन्दर्या पहले ही मन्दिर पहुँच गई। मन्दिर में शिवजी की मंगला-आरती होने लगी। ‘ओं जय गंगाधर हर शिव जय गिरिजाधीशा’ का भक्तिमय उद्घोष सभी को कष्टमुक्त करने वाली दिव्य चेतना से भर देता है। सौन्दर्या के मन में भी अभीष्ट-सिद्धि के प्रति उत्साह दिखाई पड़ा। किन्तु थोड़ी ही देर में, आरती समाप्त हो जाने के बाद, क्षण-प्रतिक्षण उसका उत्साह भी घटता गया। निराशा ने उसको क्षीण करना आरम्भ कर दिया और वह मन्दिर के एक कोने में एक स्तम्भ के सहारे बैठकर अपना मुख छिपाकर रोने लगी। 

सहसा एक कृपापूर्ण वरदहस्त उसके सिर पर आया, मानो एक बूढ़े दादाजी ने अपनी पौत्री के सिर पर हाथ रखा हो। सौन्दर्या ने सिर उठाकर देखा, तो उन्हीं परमकृपालु मौनी दण्डी संन्यासी को अपने समक्ष खड़ा पाया। अभयमुद्रा दिखाकर मुस्कुराते हुए महात्माजी ने अपनी झोली में से गीता की वही लाल पोथी निकाली और उसको खोलने का इशारा किया। पोथी में एक जगह धागा लगा था, अतः एक पृष्ठ स्वाभाविक रूप से खुला; जिसमें एक श्लोक रेखांकित था: ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो माँ ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्’ अर्थात् अनन्य भाव से मुझ परमात्मा का चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त भक्तों का योग-क्षेम मैं वहन करता हूँ (9.22)। इस श्लोक को पढ़ते ही सौन्दर्या ने अपने अश्रु पोंछ लिए और स्वामीजी ने मुस्कुराते हुए उसको शिवमन्दिर का शिखर दिखलाया। तभी घंटियाँ बजने लगीं। 

सुबह से बैठे-बैठे शाम हो गई। भूखी-प्यासी सौन्दर्या प्रतीक्षारत थी, पर अब तक उसको शिवा नहीं मिला। सायंकाल की आरती की तैयारी होने लगी थी। तभी उसकी दृष्टि शिवा पर पड़ी। बस! फिर क्या था। वह एक ही क्षण में उसके दृष्टिपथ में आ गई। शिवा ने उसको देखा और तत्क्षण अनदेखा कर दिया। शिवा सीधे मन्दिर में भगवान् उमापति के दर्शन हेतु चला गया। तब तो सौन्दर्या संकोचवश कुछ कर न सकी, किन्तु उसके बाहर लौटते ही सौन्दर्या ने उसके आगे-पीछे घूमना आरम्भ किया। वह फूट-फूटकर रोने लगी और क्षमायाचना करने लगी। 

“क्षमा क्यों? तुम मेरे सामने क्यों रो रही हो? क्या तुम मेरा पैसा नहीं लौटा सकती? कोई बात नहीं, मैंने सारा क़र्ज़ माफ़ किया। जाओ!” शिवा ने अत्यन्त शिष्ट एवं सीमित शब्दों में उत्तर दिया। 

दुःखी सौन्दर्या की आँखें अचम्भे से फट गईं। उसका हृदय चूर-चूर हो गया और वह पुनः ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, “मुझे माफ़ कर दो, मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई। मैंने तुम्हें और तुम्हारे प्यार को नहीं पहचाना, तुम्हारा अपमान किया,” उसने शिवा का हाथ पकड़कर कहा। 

किन्तु शिवा के मुख पर एक शिष्ट मुस्कान थी। “मैं तुम्हारा कोई अपराध नहीं मानता। जो कुछ हुआ, सब विधिलिखित था,” यह कहकर उसने अत्यन्त शिष्टाचार से अपना हाथ छुड़वाया और मन्दिर-परिसर से निकलने लगा। सौन्दर्या उसके पीछे-पीछे बिलखती हुई रोने लगी और एक क्षण आने पर वह टूट गई। अपने घुटने के बल बैठकर उसने शिवा का पाँव पकड़ लिया और रोते-रोते वह असहाय कन्या कमज़ोरी एवं अवसाद के कारण सहसा मूर्च्छित हो गई। उसकी आँखों के सामने अन्धकार छा गया। 

कुछ क्षणों बाद; उसी मूर्च्छा के अन्धकार में उसको अपने मुख पर जलबिन्दुओं का आभास हुआ। मानो उसके मुख पर पानी छिड़का जा रहा हो। किसी पुरुष के बिलख-बिलखकर रोने का मन्द स्वर सुनाई दे रहा और उसने अपनी आँखें खोलीं। आश्चर्य! उसका सिर शिवा की गोद में था। शिवा उसको लेकर मन्दिर के उद्यान में बैठा था और रोते-रोते उसके मुख पर पानी छिड़क रहा था। कभी वह उसके मुख को छूता और कभी अपने गीले हाथों से वह उसके हाथों को मलता। यह देखकर सौन्दर्या को पूर्ण चेतना आ गई और शिवा की गोद में अपने सिर को रखे-रखे ही उसने हाथ जोड़कर पुनः क्षमायाचना की। उसकी आँखों से पुनः अश्रुधारा बहने लगी; जिसको शिवा ने तत्क्षण पोंछ दिया। उसने गम्भीर स्वर में सौन्दर्या को यह बतलाया कि बाल्यकाल से ही उसके इष्टदेव—शिव की उपासना के बल पर उसको ध्यानावस्था में कुछ विचित्र दृश्य दिखते थे। बाद में जब पता लगा कि उन दृश्यों का प्रत्यक्ष सम्बन्ध उस (सौन्दर्या) से ही है, तो वह उसको रोकने के लिए आया था। सौन्दर्या तो बच गई, किन्तु दुर्भाग्यवश माया को नहीं बचा सका। फिर अत्यन्त भावुक होकर शिवा ने विगत दिनों में अपने रुक्ष व्यवहार हेतु सौन्दर्या से क्षमायाचना की। इस सत्य को भी उजागर किया कि पहले दिन से ही उसने माधव को तुम्हारा ध्यान रखने हेतु लगा रखा था। माधव शिवा के निर्देश पर ही उससे प्रत्येक व्यवहार करता था। 

सम्पूर्ण वृत्तान्त को सुनकर सौन्दर्या ने शिवा के हाथ को कसकर पकड़ा और वह फिर रोने लगी। वह उठना चाहती थी, किन्तु कमज़ोरी के कारण उसको अस्वस्थता प्रतीत हुई और शिवा ने उसको उठने भी नहीं दिया। उचित अवसर जानकर प्रेम के अश्रुओं से प्रपूरित नेत्रों वाली सौन्दर्या के प्रति शिवा ने अपना प्रणयनिवेदन किया। 

“जब से तुम मेरे जीवन में आई हो, मुझे प्रतिक्षण उन्नति मिल रही है। मैं क्या था, और तुमसे मिलने के बाद क्या बन गया! यह सब तुम्हारे आने के बाद ही हुआ है। सौन्दर्या! तुम मेरे जीवन में सौभाग्य लेकर आई हो। क्या तुम मुझसे विवाह करोगी?” भावुकहृदय शिवा ने ऐसा कहकर अपना एक हाथ महादेवजी के मन्दिर के शिखर की ओर उठाया और पुनः बोला, “मैं तुम्हारी आँखों में फिर कभी आँसू नहीं आने दूँगा। बस! तुम हमेशा-हमेशा के लिए मेरा हाथ पकड़ लो। जैसे इन (शिवजी) के जीवन में माता पार्वती हैं, वैसे मेरे जीवन में तुम आ जाओ।’

आँखों में ख़ुशी के आँसू भरे सौन्दर्या कुछ बोल न सकी। नम आँखों के साथ मुस्कुराते हुए उसने शिवा का हाथ पकड़कर ‘हाँ’ में सिर हिला दिया। फिर बहुत श्रम करके वह उठकर बैठी और उसने शिवा के हृदय पर अपना सिर रखकर उसका आलिंगन किया, “तुम-जैसा जीवनसाथी मिलना मेरा सौभाग्य है। मैं जानती हूँ कि मैं इस लायक़ नहीं हूँ, पर यहाँ भगवान् ने मुझे बहुत कुछ दे दिया है।” 

भावी दम्पत्ति प्रसन्नता के अश्रुओं के साथ एक-दूसरे का सहृदय आलिंगन कर ही रहे थे कि शिवा की दृष्टि उनसे लगभग 40-50 क़दम दूर बैठे उन्हीं मौनी संन्यासी पर पड़ी। वे भी प्रसन्नतापूर्वक अपने दोनों हाथों को उठाए उन्हें वरदमुद्रा दिखाकर आशीर्वाद दे रहे थे। शिवा और सौन्दर्या ने वहीं बैठे-बैठे भावपूर्वक सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। किन्तु चमत्कार! एक ही क्षण में सिर उठाते ही वे दण्डी स्वामी अपने सामान सहित उन्हें पुनः वहाँ दिखाई नहीं पड़े। कौन थे वे? कहाँ अदृश्य हो गए? कुछ पता लगा पाते . . . उसी समय घंटे-घड़ियाल-शंख-आदि बज उठे। मन्दिर में भगवान् शिव की आरती आरम्भ हो गई, भावी दम्पत्ति की नवपरिणय कथा के साथ। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं