अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सोशल मीडिया’ एवं भारतीय शास्त्रीय परंपरा –‘कथक नृत्य एवं योग’

कथक नृत्य एवं योग दोनों ही भारतीय शास्त्रीय परंपरा हैं जिनमें अद्भुत साम्य एवं गहरा सम्बन्ध है। किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्ति हेतु शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होना अत्यंत अनिवार्य है। स्वास्थ्य से तात्पर्य सिर्फ़ रोगों से मुक्ति नहीं अपितु प्रत्येक विपरीत परिस्थिति हेतु पूर्णंतः सजग रहना है, जो हमें योग से प्राप्त होता है। कथक नृत्य साधक योगाभ्यास द्वारा कैसे लाभान्वित हो सकते हैं इस पर मेरा अध्ययन इस प्रकार है –

योग शब्द संस्कृत भाषा के ‘युज’ धातु से बना है जिसका अर्थ है ‘जोड़ना’। यह जोड़ आत्मा का परमात्मा से, व्यष्टि चेतना का समष्टि चेतना से तथा नृत्य साधक का अपने नृत्य से भी हो सकता है, जिसके फलस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति होती है। कथक नृत्य एवं योग साधना दोनों ही पूर्णंतः आध्यात्मिक हैं तथा प्राचीन ग्रंथों में दोनों का अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति बताया गया है। 

कथक नृत्य एवं योग ‘दो परम्पराओं का संयोग’ –

नृत्य साधक जब अपने नृत्य से पूर्णं रूप से जुड़ जाता है तो सृजन होता है अद्भुत अलौकिक रस का, जिसकी परिकल्पना नृत्य साधक के मन एवं मस्तिष्क में होती है। नृत्य साधक का अपने नृत्य से पूर्णं रूप से जुड़ने का आनंद साधक के अंतर्मन से दर्शकों की ओर प्रवाहित होता है जो नृत्य साधक एवं दर्शकों को एक सूत्र में बाँधता है। यही योग है नृत्य साधक का अपने नृत्य से एवं नृत्य प्रस्तुति का दर्शकों से। 

“व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनअलब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्ते अंतरायाः।"              ...(श्रीपातंजलयोगदर्शनं – १/३०)

महर्षि पतंजलि जी ने व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य अविरति, भ्रान्ति दर्शन, अलब्धभूमिकत्व आदि को चित्त हेतु विक्षेप अर्थात् चित्त के अन्तरायों की संज्ञा दी है, जो विभिन्न प्रकार के क्लेशों का कारण हैं। नृत्य साधक एवं नृत्य प्रस्तुति के मध्य ऐसे ही अनेक क्लेश बाधाएँ उत्पन्न करते हैं जो नृत्य साधक को शारीरिक, मानसिक, अतीन्द्रिय, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक अनेक तरह से प्रभावित करते हैं।

“तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानिक्रियायोगः।"     ..(श्रीपातंजलयोगदर्शनं – २/१)

महर्षि पतंजलि जी ने तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान को क्रियायोग की संज्ञा दी है। चित्त विक्षेप एवं उससे उत्पन्न होने वाले अनेक विध क्लेशों को कम करने का महान सामर्थ्य क्रियायोग में है। महर्षि पतंजलि जी के अनुसार क्लेश न तो मात्र शारीरिक हैं न ही मात्र मानसिक। वह एक मनोकायिक प्रक्रिया है तथा उससे मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय है उन पर दोनों ओर से प्रहार किया जाये। यदि एक बार क्रियायोग द्वारा मन पर क्लेशों का नियंत्रण कम कर दिया जाये तो बाद में ध्यान का मनोवैज्ञानिक प्रभाव क्लेशों को नष्ट कर ही देगा।

तप – निरंतर अभ्यास द्वारा कथक नृत्य साधक का अपनी कला अर्थात् नृत्य साधना में तपना।

स्वाध्याय – निरंतर चिंतन-मनन द्वारा अपनी क्षमता को पहचानना, अर्थात् स्वयं का अध्ययन करना।

ईश्वर प्रणिधान – बिना फल की इच्छा किये अपने अथक परिश्रम से सुसज्जित अपनी नृत्य प्रस्तुति को ईश्वर को समर्पित करना।

 “समाधिभावनार्थः क्लेशतनुकरणार्थश्च।"      ...(श्रीपातंजलयोगदर्शनं – २/२)

तात्पर्य है कि इस क्रियायोग से समाधि अर्थात् समता की भावना जाग्रत होती है तथा विभिन्न प्रकार के क्लेश भी कमज़ोर अथवा क्षीण होते हैं। यदि कथक नृत्य प्रशिक्षण के साथ योग शिक्षा को जोड़ दिया जाये तो नृत्य साधक की अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है तथा प्रत्येक नृत्य साधक एक सफल एवं सुन्दर प्रस्तुति दे सकता है। 

सोशल मीडिया का कथक नृत्य एवं योग संस्कृति पर प्रभाव – 

वर्तमान समय ‘डिजिटल युग’ के नाम से जाना जाता है। आज मानव को प्रत्येक सुविधा डिजिटल तकनीक द्वारा प्राप्त है। वहीं इन्टरनेट के ज़रिये सोशल मीडिया के साधनों ने भी जीवन को सरल बना दिया है। वर्तमान समय में सोशल मीडिया मानव-जीवन का महत्वपूर्णं हिस्सा बन चुका है। सोशल मीडिया के विभिन्न लाभों में– मनोरंजन करना, सूचनाएँ प्रदान करना, विभिन्न तत्वों की जानकारी प्रदान करना अथवा कहें तो ज्ञान देना आदि प्रमुख हैं। सोशल मीडिया एक विस्तृत नेटवर्क है, जो सम्पूर्ण जगत को जोड़े रखता है। ये संचार का एक श्रेष्ठ माध्यम भी है। आज सोशल मीडिया, वर्तमान युग के मानव के जीवन का अभिन्न अंग एवं उसकी लोकप्रिय संस्कृति बन चुका है, परन्तु प्रत्येक तथ्य के दो पहलू होते हैं– सकारात्मक एवं नकारात्मक, लाभ एवं हानि।

“समत्वं योग उच्यते।"              ....(श्रीमद्भगवद्गीता – २/४८ )

समता अर्थात् संतुलन का नाम ही योग है। योग मात्र आसन, प्राणायाम एवं ध्यान ही नहीं है अपितु जीवन जीने के एक कला है। एक प्राचीन संस्कृति है। योग वस्तुपरक होने के साथ-साथ व्यक्तिपरक भी है। यह सत्य है कि टेलीविजन, यू-ट्यूब एवं सोशल मीडिया के दूसरे साधनों द्वारा योग एवं कथक नृत्य को प्रचार-प्रसार मिला है। आज अधिक संख्या में लोग योग के कुछ विशेष चरणों के प्रति सचेत हुए है। उनके महत्त्व एवं लाभ को भारत में भी समझा जाने लगा है, परन्तु यह पूर्णं सत्य नहीं है। सोशल मीडिया के साधनों से योग के मात्र कुछ चरणों, जैसे – आसन, प्राणायाम एवं ध्यान को ही प्रचार-प्रसार मिला है, वह भी चिकित्सा के रूप में। जबकि यह पूर्ण योग संस्कृति नहीं है। योग संस्कृति एक अच्छे, स्वच्छ एवं स्वस्थ नागरिक का निर्माण करती है, जिसकी आज के परिवेश में अत्यंत आवश्यकता है। योग मात्र आसन, प्राणायाम एवं ध्यान की प्रक्रियाएँ ही नहीं है अपितु वह स्वयं में एक सम्पूर्णं शास्त्र है, एक प्राचीन विज्ञान है। स्वस्थ एवं स्वच्छ जीवन जीने की एक कला है योग, परन्तु सोशल मीडिया पर योग को मात्र शारीरिक कसरत एवं चिकित्सा के रूप में दर्शाया जाता है। सोशल मीडिया पर प्राप्त जानकारी को ही साधक सम्पूर्ण ज्ञान समझ लेते हैं तथा हमारे प्राचीन ग्रंथों, गुरुओं एवं पुस्तकों का महत्व गौण होता जा रहा है। आज की लोकप्रिय संस्कृति अर्थात् सोशल मीडिया जहाँ लाभकारी सिद्ध हुआ है वहीं यह हमारे जीवन मूल्यों में भी परिवर्तन कर रहा है, जो उचित नहीं है। 

कथक नृत्य को भी सोशल मीडिया पर एक नवीन रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। फ़िल्मी गीतों के साथ कथक में नृत्त पक्ष के कुछ टुकड़ों, तोड़ों एवं परनों आदि को जोड़कर प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे कथक नृत्य की गरिमा प्रभावित होती है। अधिकांशतः लोग कथक नृत्य को मात्र मनोरंजन का साधन मानते हैं। कुछ लोग तो इसके लिए अभद्र शब्दों का भी प्रयोग करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि जिस कला की उत्पत्ति स्वयं शिव-पार्वती से हुई है, जिसको पृथ्वी पर प्रचार एवं प्रसार भगवान् श्री कृष्ण द्वारा प्राप्त हुआ, जिसकी प्रत्येक अभिव्यक्ति परमेश्वर से जुड़ी हुई है, वह मात्र मनोरंजन का साधन कैसे हो सकता है? कथक का अर्थ ही है ‘कथा कहने वाला’, और ये कथाएँ प्रायः पौराणिक एवं आध्यात्मिक ही होती हैं, जिसका वर्तमान के कथक नृत्य में आभाव सा होता जा रहा है। आज सोशल मीडिया पर इसका प्रसार मात्र मनोरंजन की दृष्टि से, नाम एवं धन कमाना ही रह गया है। कथक नृत्य तो भावों की अभिव्यक्ति द्वारा इश्वर साधना कर मोक्ष प्राप्ति का अद्वितीय एवं सरल मार्ग है। द्वारिका महात्म्य में वर्णित है –

“यो नृत्यति प्रह्रष्टात्मा भावैरत्यंतभक्तितःl 
 स निर्दहति पापानि जन्मान्तर शतैरपि॥"         ...(द्वारका महात्म्य)

अर्थात्- “जो प्रसन्नचित्त से, श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक भावों सहित नृत्य करता है, वह जन्म-जन्मान्तरों के पापों से मुक्त हो जाता है l” 

वर्तमान में प्रचार-प्रसार के साथ ही सोशल मीडिया इन पारंपरिक कलाओं के ज्ञान प्राप्ति का भी मार्ग बनता जा रहा है। इन कलाओं के प्रेमी सोशल मीडिया के माध्यम से नृत्य एवं योग का ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। सोशल मीडिया द्वारा शास्त्रीय नृत्य एवं योग के कुछ चरणों को उचित मात्रा में प्रचार-प्रसार तो प्राप्त हो रहा है परन्तु क्या यह लोकप्रिय संस्कृति इन कलाओं के ज्ञान प्राप्ति का उचित माध्यम है?

अगर हाँ . . . तो फिर वह दिन दूर नहीं जब गुरु शिष्य परंपरा लुप्त हो जाएगी। ऐसी परिस्थिति एवं मानसिकता के रहते गुरु एवं विद्यालयों का महत्त्व ही नहीं रह जायेगा, जबकि हमारी यह प्राचीन पारंपरिक कलाएँ गुरुमुखी हैं। इस लोकप्रिय संस्कृति अर्थात् सोशल मीडिया द्वारा हमारी कलाओं का पारंपरिक रूप लुप्त सा होता जा रहा है। शास्त्रों में इन बहुमूल्य कलाओं को गोपनीय रखने की बात कही गई है। यहाँ गोपनीय से तात्पर्य उचित पात्र को ही इन कलाओं का ज्ञान प्रदान करने की बात कही गई है। जिससे इनका दुरुपयोग न किया जा सके तथा वास्तविक स्वरूप सुरक्षित रह सके। हठप्रदीपिका में स्वामी स्वात्माराम जी ने कहा है –

“गोपनीयं प्रयत्नेन रत्नकरण्ङकम्।"             ...(हठप्रदीपिका- ३/८)

स्वात्माराम जी का अभिप्राय दुर्लभ और प्रसंशनीय योगाभ्यास से ही है। उन्होंने कहा है कि जिस प्रकार लोग रत्न की पिटारी को गुप्त रखने का प्रयास करते हैं, उसी प्रकार अत्यंत महत्वपूर्णं समझकर इन अभ्यासों को अपने व योग्य पात्रों तक ही सीमित रखना चाहिए। 

 कथक नृत्य एवं योग साधना का वर्तमान स्वरूप –

आज कथक नृत्य में फ़्यूजन तथा व्यवसायिकरण की परंपरा सी बन गयी है और परब्रह्म की अनुभूति और परमानंद की प्राप्ति जैसी अवधारणाएँ गौण हो चली हैं। योग को भी पॉवर योगा, बियर योगा, हॉट योगा जैसे विभिन्न रूप प्राप्त हो गए हैं। अब आज के समय में हमारी प्राचीन संस्कृतियों के ये नवीन रूप कितने उचित हैं, इस प्रश्न का उत्तर हमें स्वयं से ही पूछना होगा। टेलीविजन तथा सोशल मीडिया द्वारा योग के कुछ चरणों का ज्ञान प्राप्त करने पर अनगिनत योग इंजुरी के पक्ष सामने आ रहे हैं। जबकि शास्त्रों में इनका प्रशिक्षण गुरु के निर्देशन में ही करने पर बल दिया गया है तथा उनके दुष्प्रभाव के प्रति भी सचेत किया गया है। एक प्रसिद्ध कहावत है –

“देखा – देखि कीन्हा योग।
छीजी काया लीन्हा रोग॥”

योग द्वारा कथक साधकों को लाभ –

कथक नृत्य एवं योग दोनों ही शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनिक एवं आध्यात्मिक पहलुओं का संतुलन हैं। योग एक प्राचीन विज्ञान है जो नृत्य साधकों को उनकी अभिव्यक्ति हेतु आवश्यक सुधार, लचीलापन, संतुलन, चित्त की स्पष्टता एवं दृढ़ता, शारीरिक स्वास्थ्य एवं सौन्दर्य, बेहतर गतिशीलता एवं रचनात्मकता, कार्यक्षमता एवं आंगिक मुद्रा में सुधार, स्वस्थ जोड़ एवं संरक्षण, चोट पुनर्वास, एकाग्रता, बेहतर स्मरण शक्ति, स्वस्थ श्वसन तंत्र, आत्म-विश्वास, तनाव एवं द्वंद्व से मुक्ति, निरोग शरीर एवं सुन्दर मन तो प्रदान करता ही है साथ ही आध्यात्मिक एवं उचित संस्कारों को भी सुदृढ़ करता है। नियमित योगाभ्यास से नृत्य साधक अपनी प्रस्तुति सम्बन्धी बाधाओं के प्रति सचेत हो, उन्हें सरलता एवं सहजता से दूर कर सकता है, जो विभिन्न क्लेशों के कारण उत्पन्न होती हैं। योग साधना, नृत्य साधक को प्रत्येक परिस्थिति के प्रति सजग रहना सिखाती है। योगाभ्यास नृत्य साधक के शरीर रूपी यंत्र को ट्यून करने के उपकरण स्वरूप कार्य कर सकता है, यदि नृत्य साधक उसे अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बना लें। 

योग क्षेत्र में कथक शोधार्थी का अनुभव –

कैवल्यधाम योग संस्था, लोनावाला, पुणे, महाराष्ट्र में अपने शोध सम्बन्धी क्षेत्रीय कार्य के दौरान मुझे योग के प्राचीन शास्त्रों को पढ़ने एवं ज्ञानी योग आचार्यों से योग का सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक ज्ञान प्राप्त करने का सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ मुझे समाज में योग को लेकर व्याप्त भ्रांतियाँ एवं उनका कारण समझ में आया। मात्र पुस्तकों एवं सोशल मीडिया द्वारा योग ज्ञान प्राप्त कर योग इंजुरी की संभावनाओं का दृश्य भी उजागर हुआ। कैवल्यधाम योग संस्था में २७ दिसंबर २०१८ से ३० दिसंबर २०१८ तक आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मलेन ‘योग एक चिकित्सा – व्याप्ति, प्रमाण एवं विकास’ विषय के अंतर्गत मैंने अपना एक शोध पत्र -  ‘योग द्वारा चिकित्सा- कथक नर्तकी की दृष्टि से’ शीर्षक से प्रस्तुत किया, तथा अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में अवार्ड प्राप्त कर अपने योग ज्ञान एवं शोध कार्य को उचित दिशा में अग्रसर पाया। 

उपसंहार – 

यह सत्य है कि वर्तमान में सोशल मीडिया एक लोकप्रिय संस्कृति के रूप में चलन में आ गया है, जिसके प्रमुख साधन– यू-ट्यूब, टेलीविजन, फ़ेसबुक आदि हमारी भारतीय शास्त्रीय परम्पराओं के प्रचार-प्रसार हेतु उपयुक्त एवं लाभकारी सिद्ध हुए हैं। इनसे कथक नृत्य एवं योग को देश-विदेश में सराहनीय प्रोत्साहन मिला है। परन्तु वर्तमान में यह लोकप्रिय संस्कृति अर्थात् सोशल मीडिया केवल प्रचार-प्रसार एवं एक सीमा तक जानकारी प्राप्त करने का साधन हो सकते हैं, ज्ञान प्राप्ति का नहीं। हमारी भारतीय पारंपरिक कलाओं का ज्ञान गुरुमुखी है, जिसे गुरु-शिष्य परंपरा के अंतर्गत अथवा किसी मान्यता प्राप्त संस्था के अंतर्गत विषय-विशेषज्ञों के दिशा-निर्देश में सीखना ही उचित है। 

“गुरुपदिष्टमार्गेण योगमेव सदाभ्यसेत्।"     ...(हठप्रदीपिका – १/१४)

अर्थात् गुरु के निर्देशन में ही निरंतर योग का अभ्यास करना चाहिए। केवल पुस्तक पढ़कर या इधर-उधर कुछ जानकारी प्राप्त कर योग का अभ्यास आरम्भ नहीं कर देना चाहिए। ऐसा करने पर अपने ही स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना होगा।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –

  1. श्रीमद्भगवद्गीता, संस्थापकाचार्य : अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ, भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट, जुहू, मुम्बई।

  2. पातंजल योग दर्शनम्, विद्या भास्कर, आचार्य उदयवीर शास्त्री, प्रकाशक विरजानंद वैदिक संस्थान, गाजियाबाद (उ.प्र.)।

  3. महर्षि पतंजलिकृत योगदर्शन, हिंदी व्याख्या सहित, गीताप्रेस, गोरखपुर।

  4. स्वात्मारामकृत ‘हठप्रदीपिका’, संस्करणकर्ता- स्वामी दिगम्बर जी एवं पीताम्बर  झा, कैवल्यधाम आश्रम, लोनावाला, पुणे, महाराष्ट्र।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

शोध निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं