अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सोने का हार

 

गले के हार को हर जगह ढूँढ़़ लिया था अर्चना ने। अपने कमरे में, पुराने बैगों में भी, कहीं भी नहीं मिला। आज अपनी लापरवाही पर ग़ुस्सा और रोना आ रहा था। 

माँ और दीदियाँ उसे कितना समझाती थीं, चीज़ों को यथास्थान रखो। पर नहीं, उसे अपनी आदत नहीं बदलनी थी और फिर चीज़ भी ऐसी गुम हुई थी कि किसी को बता भी नहीं पा रही थी। मौसी की बेटी रंजना की शादी थी। साथ में ससुराल से मिला ‘सोने का हार’ भी ले गई थी। उसकी लापरवाही से परिचित संजीव ने एक बार उसे दबी ज़बान से टोका भी था, पर उसकी मति मारी गई थी, जो लेकर गई। अब तो सारे बैग भी वह देख चुकी थी। उसे सिर्फ़ इतना याद था कि किसी बैग में रखा है। 

अभी तो शादी के सिर्फ़ दो महीने हुए थे, उस पर घर की छोटी बहू ऐसी ग़लती करे, ये सब सोचकर ही वह हलकान हुए जा रही थी। 

संजीव तो आते ही मीटिंग के लिए दिल्ली निकल गए। फोन पर बता नहीं सकती। इतने लोग हैं कोई भी सुन सकता है और फिर संजीव भी मीटिंग में परेशान हो जाएँगे। शादी से पहले सब कुछ कितना अच्छा था। माँ और सुधा दीदी कितना सहेज कर रखती थी उनका सामान। हाँ, मँझली दीदी अवश्य ही डाँटती, पर वह भी स्नेह से। स्कूल की सारी किताबें वही तो सहेज कर रखती थी। 

उसका पैन रसोई में मिलता, तो घड़ी सोफ़ा पर, रुमाल तो शायद ही वह कभी अपना ले जाती, हमेशा दीदी लोग ही उसे देती थी। रुमाल उसके तभी मिलते थे जिस दिन घर की सफ़ाई होती थी। 

दोनों दीदी की शादी हो गई, तो कुछ हद तक अपनी चीज़ों को सहेजना शुरू किया और इतना सहेज कर रखती थी कि याद रखना मुश्किल। अब तो अर्चना को सिर्फ़ इतना याद आ रहा था कि सुबह क़रीब सात बजे वे लोग लौटे। नहा-धोकर वह माँजी के पास शादी के उपहार लेकर चली गई। फिर जब कमरे में आई, तो बड़ी भाभी उसी के कमरे से निकल रही थी और बड़ी जल्दी में थी। वैसे भी वह सुबह बहुत व्यस्त रहती है। संजीव बाथरूम में थे। फिर नाश्ता, खाना, पैकिंग इन सब में वक़्त निकल गया। सचिन दिल्ली के लिए निकले, तब जाकर उसने सामान ठीक से लगाने की सोची और तभी से उसे परेशानी है। उसका ‘सोने का हार’ भी कहीं नहीं मिल रहा था। संजीव दो दिन बाद आएँगे। क्या करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा था? 

ससुराल में भरा पूरा परिवार था। सास कर्मठ महिला थी। सारे परिवार पर चौकस नज़र रखती थी। बड़े भैया बैंक में थे। बड़ी भाभी रमा बड़ी बहू का सारा दायित्व निभा रही थी। मँझले भैया व्यापारी थे। मँझली भाभी गर्भवती थी, फिर भी हर समय काम में लगी रहती थी। उसका भी पूरा ध्यान रखा जाता था। अभी दो ही महीने हुए थे, इस घर में आए। पता नहीं क्यों, अपनी जेठानियों के साथ वह सामंजस्य नहीं बैठा पा रही थी। दोनों भाभियाँ हर काम को जिस फ़ुर्ती से अंजाम देती, उसे काम समझने में ही आधा वक़्त निकल जाता। लेकिन इसके लिए उसे किसी ने कभी नहीं टोका। पता नहीं क्यों, बार-बार उसे सुबह बड़ी भाभी का जल्दी से उसके कमरे से निकलना याद आ रहा था। लाख ना चाह कर भी वह उन्हें शक के दायरे में ले ही आई। शाम तक उसका चेहरा उतर चुका था। वह पूरे घर की तलाशी तो नहीं ले सकती, दोनों भाभियों से पूछ-पूछ कर थक चुकी थी, वह बताती भी तो क्या? 

शाम को माँजी बाज़ार चली गईं। दोनों भाई अभी लौटे नहीं थे। मँझली भाभी को डॉक्टर के पास जाना था, पर उसे भी अकेला नहीं छोड़ सकते थे। 

वह घर में कुछ देर अकेली रहेगी, यह जानकर शक का कीड़ा फिर कुलबुलाने लगा। उसने ज़ोर देकर कहा, “मैं अकेली कहाँ हूँ। गुड्डू तो है ना! माँजी भी आती होगी। 

किसी तरह से उनको भेजकर तीन साल के गुड्डू को गोद में उठाए उसने मेन-डोर अच्छी तरह से बंद कर लिया, फिर कार्टून लगा कर वह अपने खोज अभियान में जुट गई। यहाँँ तक कि बड़ी भाभी की तिज़ोरी चेक करने में भी उसके हाथ नहीं काँपे। सारी चाबियाँ माँजी के पास रहती थीं और माँजी अपनी चाबियाँ कहाँँ रखती है यह तो तीनों देशों की बहुओं को ही मालूम था। ”हार” नहीं मिलना था, सो नहीं मिला। अब रोने के सिवा और कुछ कर भी नहीं कर सकती थी। उसे चिंता इस बात की थी कि ससुराल में भी शादी पड़ी थी और माँजी ने एक महीने पहले ही घोषणा कर दी थी कि तीनों बहुए अपना-अपना ‘सोने का हार’ पहनेंगी। तभी कॉलबेल की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूटी। दोनों भाभियाँ लौट आई थी। 

बड़ी भाभी ने घुसते ही उसका हाथ पकड़ा और सीधे अपने कमरे के पलंग पर लाकर बैठा दिया। बिना किसी भूमिका से पूछा, “अर्चना! क्या बात है? क्या खोया है? सुबह से कुछ ढूँढ़ रही हो?” 

अब छुपाने से कोई लाभ नहीं था। अर्चना ने रोते हुए सारी घटना उन्हें सुना दी। सुनकर चेहरे तो उनके भी उतर गए, लेकिन उसे शांत कर दोनों ही सोचने लगी। 

उधर अर्चना सोच रही थी। अभी भाषण होगा फिर नसीहत दी जाएगी और माँजी के आने के बाद शिकायत होगी। वह और ज़ोर से रोने लगी। उसे अभी भी बड़ी भाभी पर ही शक था। 

तभी मँझली भाभी ने कहा, “सबसे पहले शादी वाले दिन की व्यवस्था करनी होगी। उसके बाद माँ जी कई दिनों तक ज़िक्र नहीं करेगी और तब तक कोई व्यवस्था हो जाएगी।” अगली सुबह तक दोनों ने हल ढूँढ़़ लिया था। मँझली भाभी उसे अपना सोने का हार पहनने को दे रही थी।

”लेकिन आप क्या पहनेंगी?” अर्चना आश्चर्य से भर गई। 

“अरे! मैं अभी इतनी भारी साड़ियाँ और गहने नहीं पहन पा रही हूँ। मुझे उलझन होती है। माँजी को तो हम समझा लेंगे,” मँझली भाभी ने उसे समझाया। 

पर वह जान रही थी कि उसे बचाने के लिए वे दोनों ऐसा कर रही है। मन का मैल धुल रहा था, जो आँखों के रास्ते बह रहा था। बड़ी भाभी ने आँचल से उसके आँसू पोंछते हुए कहा, “चल, तुझे एक अच्छी ख़बर सुनाती हूँ। उस दिन तेरे कमरे की दराज़ में कुछ सामान रखा था, लेकिन ऐसी आपा-धापी हुई कि चाभी लेना ही भूल गई। हम तेरे लिए कामदानी लहँगा लेकर आए थे। सोचा तेरी अलमारी में रख देंगे और तुझे सरप्राइस देंगे, लेकिन तुझे दुःखी देख हमने ही यह राज़ खोल दिया।”

शाम तक सब सामान्य हो चुका था। रात को संजीव लौट आया था। आते ही उसने अर्चना को खींचते हुए अपने कमरे में ले गया। 

“क्या कर रहे हो संजीव?” 

“पागल हो तुम मुझे कर दोगी।”

“ये देखो,” सचिन के हाथ में ‘सोने का हार’ देख अर्चना स्तब्ध थी। 

“आज जब मीटिंग के लिए कपड़े निकाल रहा था, उसमें मिला। समझो मेरी हालत, ना होटल में छोड़ सकता था और ना साथ ले जा सकता था। किसी तरह कोट की जेब में रखकर सारा दिन गुज़ारा। चाहता तो तुम्हें बता सकता था, लेकिन सोचा देखूँ तुम्हें कब याद आता है।”

अर्चना को याद ही ना रहा कि साथ ले गए बैगों में से एक तो सचिन अपने साथ लेकर गया था। बस उससे ये ग़लती हुई कि आते ही उसने ‘सोने का हार’ यथास्थान नहीं रखा। 

अर्चना सोच रही थी, कितना विष घुल गया था उसके मन में, पर वह ख़ुश थी कि इस विष वृक्ष को उसने पनपने नहीं दिया। हार ढूँढ़़ने में भले ही उसे सफलता नहीं मिली हो, पर अपनी दोनों दीदियों को उसने ढूँढ़ लिया था, बस उनके चेहरे ही तो बदल गए थे। 

हार हाथ में छिपाए रसोई की ओर बढ़ गई। आख़िर उसे भी चिंतामुक्त जो करना था। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं