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तीन पत्र

निनी ने फोन को टेबल पर रक्खा। काँपते हाथों से आँसू पोंछते हुए खिड़की से बाहर देखा कि काले बादलों के बीच सूरज कहीं छुप गया था। दूर समुद्री लहरें उफान पर थीं, जैसे रेत पर पहले पहुँचने की लालसा में लहरें एक दूसरे के साथ होड़ में लिप्त हों। 

हवा का एक तेज़ झोंका आया और बाहर लॉन पर बिखरे पीले, लाल पत्ते भी एक दूसरे के पीछे भागने लगे। लॉन में अकेली बैठी चिड़िया घबरा कर चीं-चीं करती पेड़ पर जा पत्तियों में कहीं छुप गयी। लहरों और हवाओं जैसा एक बवण्डर निनी के मन में भी उठा था। . . . ‘बुआ ने बात अधूरी क्यों छोड़ी?’ काफ़ी देर तक निनी यूँ ही वहाँ खड़ी विचारों में डूबी रही। 

शरद ऋतु की ठंडी हवा में जब कँपकँपी का एहसास हुआ तो विचारों की तंद्रा टूटी। उसने खिड़की बंद कर दी। 

’बुआ को मेल करती हू्ँ’ सोचते हुए लैपटॉप खोला। 

मीरा बुआ का मेल पहले से ही आया हुआ था। . . . 

प्रिय निनी, 

फोन लाइन इतनी ख़राब थी कि ठीक से बात नहीं हो पा रही थी। तभी डिस्कनेक्ट कर दिया। निनी, मैं कह रही थी कि देखो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है कि नीना भाभी के जीवन में अब कोई और आ गया है। हाँ, शायद वह अभी किसी को यह बताना नहीं चाहती। सच कहूँ तो पहले कहीं मैं भी बहुत आहत हो गयी थी यह सोचकर कि भाई की जगह कोई और ले रहा है। लेकिन जब बार-बार सोचा तो समझी हूँं कि मैं ग़लत हूँं। बस तुम्हें भी यही समझना है। तुम परेशान मत हो।

कभी कभी लगता है जैसे कल की ही बात हो . . . 

मैं, माँ, बाबा, भाई राज मतलब तुम्हारे पापा, तुम और भाभी! हमारा छोटा सा परिवार। जाने किसकी नज़र लगी . . . उस दिन यूनिवर्सिटी के बाद तुम्हें स्कूल से लिया था। सारे रास्ते हमारी हँसी बंद ही नहीं हो रही थी। क्या पता था कि घर पहुँचने तक हमारी दुनियाँ यूँ उजड़ चुकी होगी। उस दिन बाज़ार में हुआ एक बम विस्फोट और राज भैया समेत कई निर्दोष एक पल में मृत्यु की बली चढ़ गये थे। 

माँ बाबा तो एक चलती फिरती लाश बन गये थे लेकिन नीना भाभी ने ढाल बन कर हम सबको सँभाल लिया। कुछ सालों बाद माँ-बाबा भी चल बसे। भाभी ने तब भी हिम्मत नहीं हारी थी। 

फिर, शादी के बाद मैं नए जीवन में ढल गयी और तुम भी तो स्कॉलरशिप पर पढ़ाई करने ऑस्ट्रेलिया पहुँच गयी। 

शायद तुम सोच रही हो कि मैं यह पिछले 7-8 वर्षों की कहानी क्यों दोहरा रही हूँ . . . यह इसलिये क्योंकि हम दोनों तो अपनी अपनी लाइफ़ में बिज़ी हो गये लेकिन भाभी का क्या? वह तो वहाँ अकेली—तन्हा रह गयी। 

हाँ निनी, मुझे भी लगता है कि जीवन के इस मोड़ पर, किसी ने भाभी के दिल पर दस्तक तो दी है। कई बार जब मैं अचानक उनसे मिलने घर गयी तो वहाँ चाय की प्यालियाँ, आधी जली हुई सिगरेट देखी। लगता है उन्होंने अपनी एक दुनियाँ बसा ली है। जानना तो मैं भी चाहती हूँ कि वह कौन है लेकिन सीधा पूछना भी ठीक नहीं लगता। उनकी प्राइवेसी का मान है। भगवान से यही प्रार्थना करती हूँ कि उन्होंने अपने लिये सही इन्सान चुना हो। वह ख़ुद मुझे बतायेंगी, बस इसी बात का इन्तज़ार कर रही हूँं। 

निनी, उन्हें हमारा सपोर्ट चाहिये। तुम समझ रही हो न। उनसे बात करो और बताओ कि तुम उनके साथ हो। 

प्यार सहित
मीरा बुआ। 

♦     ♦     ♦

 

निनी कुछ पल के लिये चुपचाप बैठी रही। फिर कुछ सोचकर ईमेल लिखने लगी . . . 

 

प्रिय माँ

आपको कॉल करना चाह रही थी लेकिन शायद लिखना आसान है। 

माँ, सोचा था आपसे इस बारे में कोई सवाल नहीं करूँगी लेकिन अब ख़ुद को रोक भी नहीं पा रही हूँ . . . 

आप जानती हैं कि इस बार छुट्टियों में घर आकर मुझे वहाँ कुछ भी अच्छा नहीं लगा था। मैं यूनिवर्सिटी जल्दी खुलने का बहाना बनाकर लौट आयी। सच तो यह है कि मुझे महसूस हुआ कि आपने मुझे अपने से अलग कर दिया है। 

आपकी तो पूरी दुनिया मेरे चारों ओर घूमती थी। तो अब? 

क्या अब मैं आपकी वह दुनिया नहीं रही? 

हाँ, आपका किसी और के साथ होना . . . शायद मैं आसानी से स्वीकार नहीं पाती। कुछ समय लगता . . . लेकिन क्या अब मुझे कुछ भी जानने का अधिकार नहीं रहा? 

आप झुठलाने की कोशिश मत करना क्योंकि मुझे पता है कि आपके जीवन में कोई है। माँ, मैं समझती हूँ आपके जीवन का ख़ालीपन, अकेलापन . . . मुझे याद है, जब एक बार दादाजी ने आपसे पुनर्विवाह की बात की थी, तो आप ग़ुस्सा हो गयी थीं। आपने कहा था कि वह ऐसा सोच भी कैसे सकते है और पापा की जगह कोई नहीं ले सकता। लेकिन अब . . .? 

माँ, किसी का आपके जीवन में आ जाना ग़लत नहीं है। तो आप छुपा क्यों रही हैं? 

आपके बाथरूम में ‘आफ़्टर शेव लोशन की बोतल’—सब सच बयान कर रही थी। . . . मैंने उसे पहचान लिया था। शायद, मेरे आने पर आप उसे हटाना भूल गयीं। . . . अपने स्कूल के दिनों से, मैंने उस आधी ख़ाली बोतल को ड्रेसिंग टेबल पर देखा था। आपने कहा था, “यह पापा की याद है . . . उनकी पसंदीदा ख़ुश्बू।” 

माँ, इतने सालों के बाद आपने उस ख़ुश्बू को किसी और से बाँट लिया? वह ख़ुश्बू तो बस सिर्फ़ हमारी थी न? उस पर तो मेरा भी हक़ था। 

यही नहीं . . . जब भी पापा कहीं टूर पर जाते थे वह शाम 6 से 7 बजे के बीच फोन करते थे। पापा के जाने के बाद, आप इस समय के बीच, किसी से फोन पर बात करना पसंद नहीं करती थीं। फोन बजता रहता था। धीरे-धीरे हमारे जान-पहचान वालों ने आपकी भावनाओं का आदर करते हुए ख़ास इस समय फोन करना भी बंद कर दिया था। मेरी बाल-बुद्धि को यह सब बहुत अटपटा भी लगता था। याद है, इसे लेकर आपसे झगड़ा भी किया था। और तब आपने मुझे समझाते हुए कहा था कि यह शाश्वत प्रेम बंधन है और इसकी गहराई समझने के लिये मैं बहुत छोटी थी। सच कहूँ तो आपका यह शाश्वत प्रेम तो मुझे अब भी समझ नहीं आया है। और बाई द वे, अब वह शाश्वत प्रेम कहाँ चला गया? फ्लयु आउट ऑफ़ द विन्डो? सॉरी माँ, आपको हर्ट करने का इरादा नहीं है लेकिन सच्चाई तो यही है न? सब कुछ साफ़ समझ आ रहा है। 

यह बात मैं इसलिये कह रही हूँ कि एक बार नहीं, बल्कि कई बार मैंने आपको इसी समय पर फोन किया और फोन बिज़ी आता था। यानी कोई तो है जिससे आप इसी समय पर बात करने लगीं। क्या कुछ कहीं ग़लत कहा मैंने? 

नहीं माँ, मैं आपसे कोई सफ़ाई नहीं माँग रही हूँ। जानती हूँ कि सबको अपनी मर्ज़ी से जीने का अधिकार है। मैं तो बस सोच रही हूँ, कि वह कौन है जिसने इतनी जल्दी पापा की जगह ले ली? और क्या आप को पक्का है कि वह आपके लिये एक सही इन्सान है? 

मैं आपको किसी के भी साथ स्वीकार कर सकती हूँ लेकिन पापा को और उनकी चीज़ों को कैसे बाँट लूँ?—नहीं शायद मैं इसके लिये तैयार नहीं। माँ, मुझसे वह नहीं हो पायेगा। 

तो क्या इसलिये आपने अपने जीवन का इतना बड़ा सच मुझसे छुपा लिया? आपको लगा कि मुझे आप नहीं बतायेंगी तो मुझे ख़बर नहीं होगी। 

माँ, बुआ भी जानती है कि आपके दिल में अब कोई और आ गया है। उन्हें इस बात से कोई परेशानी नहीं है और वह चाहती हैं कि मैं आपके इस निर्णय को सपोर्ट करूँ। मैं समझती हूँ कि मुझे यही करना चाहिये लेकिन . . . नहीं माँ, मैं स्वार्थी नहीं हूँ लेकिन पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है जैसे मेरा सब कुछ खो गया है। पापा तो खो गये थे, अब आप भी . . . 

आपने एक बार भी मुझसे बात नहीं की—माँ आपने मुझे अपने से दूर क्यों कर दिया? क्यों माँ क्यों? और हाँ लव यू माँ-मुझे आप की फ़िक्र है . . . 

निनी

 

♦     ♦     ♦

 

ईमेल पढ़ते पढ़ते नीना का चेहरा पीला पड़ गया। ‘यह सब क्या हो गया? मेरी बच्ची . . . निनी को फोन करना होगा।’ 

घड़ी की ओर देखा, तो रात के साढ़े आठ बजे थे। ‘वहाँ तो रात का एक बजा होगा। सोयी हुई होगी’ . . . नीना की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। 

उसने ईमेल को बार-बार पढ़ा और फिर रिप्लाई पर क्लिक किया। 

डियर निनी

मैंने यह क्या कर दिया—अनजाने में तुम्हें दुखी और निराश कर दिया। शायद भगवान भी मुझे इसके लिये माफ़ नहीं करेगा। सुबह का इंतज़ार नहीं कर पा रही। निनी बेटे तुम्हारे मन में यह क्या चल रहा था मुझे ज़रा भी अहसास नहीं हुआ। कैसी माँ हूँ मैं? अपने आप पर ग्लानि हो रही है। कैसे बताऊँ कि मेरी सारी दुनिया तुम्हीं से है—सिर्फ़ तुमसे। काश तुम मुझसे बात कर लेती . . . 

और मीरा—उसने भी मुझसे बात नहीं की। एक बार पूछती तो सही। वह अभी तक वैसी की वैसी ही है। कुछ भी नहीं बोलेगी। कई बार वह घर आयी लेकिन कभी खोयी-खोयी तो कभी डबडबाई आँखों से घर को देखती थी। कई बार माँ-बाबा के कमरे में जाकर कुछ पल अकेले खड़ी रहती थी। मैंने तो सोचा था कि मन भर आता होगा अपने मायके में आ कर। कितनी यादें हैं जो हैं हम सबकी इस घर के साथ। 

अब समझ आ रहा है मुझे सब कुछ। उससे भी बात करूँगी। 

अनजाने में मैंने तुम दोनों को ही दुखी किया है। 

तुम मेरे जीवन में ‘उस कोई’ के बारे में जानना चाहती हो न? मैं बताती हूँ। 

एक बार, तुम्हारे दादाजी ने मुझसे कहा था, “अकेलापन घना और ठंडा होता है। यह अन्दर तक घर कर जाता है।” इसपर मैंने उन्हें कहा था कि सदियों से इन्सान के जीवन में उथल-पुथल होती रही है, फिर भी लोग ज़िन्दा रहते हैं तो मैं भी रह सकती हूँ। उनकी वह बात वर्षों बाद अब समझी हूँ। 

निनी, समुद्र की गहरी गर्जना के बीच ठंडी रेत पर चलते हुए, मैंने जाना कि अकेलापन कितना गहन होता है। लहरों को क्षितिज की ओर वापस भागते देख, मैं भी राज से मिलन के लिए तरसने लगी थी। आँगन में चिड़ियाँ चहचहाती नहीं बल्कि चीखती सी लगती थी। मेरी खंडित ज़िन्दगी जैसे मुट्ठी में बंद रेत-सी है—मुट्ठी जितनी कसो, रेत उतनी ही फिसलती जाती है . . . 

राज तो मेरे वह प्रकाश-पुँज हैं जिससे मैं रोशन हूँ। बस, अपने उस गहरे अकेलेपन की चादर में मैंने उनके अहसास भर लिये। वह दिल में थे लेकिन सामने नहीं थे। तो मैंने राज को अपने आसपास ज़िन्दा कर लिया। . . . अलमारी में उनके कपड़े वापस लगा दिये, आधी जली सिगरेट ऐशट्रे में रखना शुरू कर दी; शूज़ बाहर निकाले; कभी उनकी शर्टस् धोकर बाहर टाँग दी . . . और अब, मैं राज की सिगरेटस्; कपड़ों; जूतों और उनके आफ़्टरशेव से बातें करती हूँ। 

यह असली आवाज़ों की दुनिया से अलग है लेकिन इसमें अनोखा सुकून है। 

निनी, जो हरदम साथ हो उसे साझा करना कैसे सम्भव है? मुझे पता है कि तुम मेरी फ़िक्र करती हो, मुझे बहुत प्यार करती हो। यक़ीन करो कुछ भी नहीं बदला। मैं वही हूँ—तुम्हारी वही मज़बूत माँ। 

कल जब तुम यूनिवर्सिटी से घर आओगी तो फोन करूँगी। अपना ख़्याल रखना। 

बहुत सारा प्यार 
माँ

♦     ♦     ♦

 

अगली सुबह, निनी को आँसुओं के सैलाब से उभरने में कुछ समय लगा। 

‘हे भगवान्! हमने क्या सोच लिया था और माँ को यह क्या हो गया?’ . . . 

परेशानी की हालत में वह समुद्र तट पर पहुँच गयी। 

रात के तेज़ उफान से थक कर लहरें अब धीरे-धीरे अठखेलियाँ कर रहीं थीं। शांत समुद्र के किनारे का यह एकांत निनी को सुकून दे रहा था। एक चंचल लहर ने जब हल्के से पास आकर निनी के पैरों को भिगोया तो निनी वहीं खड़ी, उस लहर को रेत पर फैलते देखती रही। लहरें आती रहीं और उसके पैर रेत की गहराई में दबने लगे। कुछ देर बाद जब निनी ने चलना चाहा तो पैर रेत में धँसकर गुम हो गये थे। 

‘इन्सान अनजाने ही अपनी किसी गहराई में उतरता जाता हैं, यहाँ तक कि ख़ुद की पहचान भी मिटा बैठे।’ यह सोचते हुए निनी को पैर बाहर निकालने में कुछ समय लगा। 

‘माँ को असली लोग, असली आवाज़ों के बीच होना चाहिये। उन्हें उनकी काल्पनिक दुनियाँ से बाहर निकालना होगा। . . . यह प्यार नहीं है . . . माँ तो डिप्रेशन में जा रही है। इससे पहले कि हालात और बिगड़े, ज़ल्द ही कुछ करना होगा।’ निनी स्थिति की गंभीरता को समझ रही थी। 

तभी एक ख़्याल कौंधा—डॉ. आकाश आनंद!

डॉ. आनंद, राज के मित्र थे और एक सफल मनोचिकित्सक भी। उनकी पत्नी की लगभग 15 साल पहले एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। उन्होंने दोबारा शादी नहीं की। निनी को अपनी बेटी की तरह मानते थे। 

‘माँ को वही इस गहराई से निकाल सकते हैं। क्या मालूम आगे चलकर कोई नयी कोंपल भी फूट पड़े’ . . . निनी हैरान थी कि ऐसा उसने पहले क्यों नहीं सोचा। 

सूरज की सुनहरी किरणों से रेत दमकने लगी थी। मुस्कुराते हुए निनी ने अपनी बाँहें फैला दी जैसे प्रकृति की सारी सुंदरता को बाँहों में समेट लेगी। 

प्रफुल्लित निनी ने घर आते ही डॉ. आनंद को एक ईमेल भेजी। 

 

♦     ♦     ♦

 

कुछ महीनों बाद, जब निनी ने माँ को फोन किया, तो फोन पर न सिर्फ़ टीवी की आवाज़, बल्कि डॉ. आनंद की खाँसी भी सुनायी दी। 

“माँ! क्या अंकल आनंद वहाँ खाने के लिए आये हैं?” 

“अरे नहीं, हम खाने के लिए बाहर जा रहे हैं,” ठिठोली करते हुए नीना ने कहा, “और तुम्हारे बातूनी आनंद अंकल की बोलती आज बंद है, खाँसी ने टेप लगा दी है।” 

वह ठहाके लगा कर हँस पड़ी और इधर निनी की आँखें ख़ुशी में भर आईं। 

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टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2023/01/09 05:49 AM

बढ़िया कहानी, शुभकामनाएं

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