विभिन्नताओं से लबरेज़ अनूठा संग्रह: ओस नहाई भोर
समीक्षा मीना श्रीवास्तव1 Jun 2024 (अंक: 254, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
समीक्षित पुस्तक: ओस नहाई भोर (नवगीत संग्रह)
लेखक: अविनाश ब्यौहार
प्रकाशक: उदीप्त प्रकाशन, लखीमपुर- खीरी, (उ.प्र.)
मूल्य: ₹200.00
वैसे नवगीत की शुरूआत नई कविता के दौर में उसके समानांतर मानी जाती है “नवगीत” एक यौगिक शब्द है जिसमें नव और गीत विधा का समावेश है।
सन् 1947 से 1957 के बीच रचित गीतों की रचनाधर्मिता पर विचारने से स्पष्ट होता है कि इस अघोषित नवगीत दशक में राजेंद्र प्रसाद सिंह के साथ ही जिन महत्त्वपूर्ण रचनाकारों ने अपने गीतों में रचना की प्रचलित परंपरा से हटकर गीत रचने का प्रयास किया उनमें वीरेंद्र मिश्र, देवेंद्र शर्मा इंद्र, कुमार रवींद्र आदि उल्लेखनीय है। अनेक नवनीतकारों ने इस विधा के प्रति अपना योगदान दिया।
अविनाश ब्यौहार का यह नवगीत संग्रह ‘ओस नहाई भोर’ भी इसी परंपरा को लेकर चल रहा है, नेतागिरी में कैसे अयोग्य व्यक्ति पढ़े-लिखे लोगों को चलाता है। भाईचारे की भावना समाप्त हो रही है, अभद्रता बढ़ रही है, प्रकृति कवि के मन को प्रभावित करती है। कवि को अपने आसपास विरोधाभास दिखाई देता है। यदा कदा उत्प्रेक्षा अलंकार की छटा भी दिखाई देती है। जैसे:
“है अंबर जब जब रोता
मानो फिर बारिश होती” (उत्प्रेक्षा अलंकार)
“सन्नाटे में
शोर दिखा है
शोर में सन्नाटा” (विरोधाभास अलंकार)
इनकी कविताओं में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार, विलोम शब्द, शब्द युग्म दिखाई देते हैं:
जब-जब थिगड़े-थिगड़े (पुनरुक्ति प्रकाश)
नदी-पोखर, भूकंप (विलोम)
छप्पर-छानी, लू-लपट (शब्द युग्म)
भाषा तुकांत है लेकिन देशज शब्दों का प्रयोग मुहावरेदार शैली में दिखाई देता है:
“भाग्य हीन पल
बात-बात में
खींसें रहे निपोर
हाय हुआ होगा
ग़रीबी में है
गीला आटा” (मुहावरा)
रूपक अलंकार बारिश कविता में दिखाई देता है:
“लगाती होगी बारिश
पावस में ठुमके
सितारों के पहने है
रातों ने झुमके।”
अपनी संस्कृति नदियों के संगम, वहाँ भरे मेले कवि को प्रभावित करते हैं कविता के माध्यम से मेले का चित्रण दिखाकर चित्रात्मक भाषा का प्रयोग किया है। व्यक्ति ‘ख़ुश्बू के जाम’ कविता से मेले की सैर कर लेता है। यात्रा वृत्तांत की छटा दिखाई देती है।
आधुनिक युग के मोबाइल कंप्यूटर की ऐप भी कवि से अछूते नहीं रहे। मानवता से विपरीत अमानवीय जीवन शैली कवि का मन झकझोर देती है। अपनों का अपनों से दूर होना, माता-पिता का बच्चों में बँट जाना कवि को पीड़ित करता है। संविधान की धज्जियाँ उड़ाते देख लोगों के प्रति कवि की भावना पढ़कर लगता है कवि को लोग जानवरों की तरह दिखाई देते हैं।
‘धुंधलके में’ कविता संगीतात्मकता उत्पन्न करती है। गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता सहर्ष स्वीकारा है मैं जैसे किसान बादल की ओर निहारता है इसी प्रकार कवि वर्षा न होने पर चिंतित दिखाई देते हैं।
“अस्त-व्यस्त रितु देखकर
दिवस हुए रुआँसे” (पंक्तियों में दिवस का मानवीकरण देखते बनता है)
शिक्षा का ह्रास देख कवि उद्वेलित होते हैं, झूठा दिलासा उन्हें परेशान करता है, गाँव का जीवन और वहाँ बचपन की पढ़ाई उन्हें भूतकाल में ली जाती है। कोरोना की महामारी उन्हें पीड़ित करती है। कहीं-कभी बारिश न होने से परेशान है तो कहीं वर्षा होने पर प्रसन्न। शहरी जीवन की परेशानियाँ, आपसी सम्बन्ध, बदलता समय, शिष्टाचार में परिवर्तन, भ्रष्टाचार, नैतिकता का, धार्मिक त्योहार, खेत-खलियान जैसे विषय पर कवि की अच्छी पकड़ है।
कविता नं 81 ‘शहर’:
“सारे शहर में
चहल पहल है
लेकिन निरा अकेला में
लोग यहाँ
पांखुरी पर सोए
पर्वत सा दुख झेला मैं”
कविता-90 ‘घर खपरैल’:
“खड़े हुए हैं लोफ़र जैसे अवसादों के शैल
ऊँचे महलों से अच्छे हैं अपने घर खपरैल॥”
दोनों कविताओं की तुकांत शैली, प्रवाह अति आकर्षक, छू लेने वाला है मैं उनके उज्जवल भविष्य की कामना करती हूँ।
शुभकामना सहित—
मीना श्रीवास्तव H O D Hindi
न्यू एज पब्लिक स्कूल गाडरवारा
ज़िला नरसिंहपुर (म प्र)
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Lalita Soni 2024/05/29 11:57 PM
Excellent and outstanding work ma'am