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ज़िन्दा पड़ाव

कृतज्ञ अभी प्लैटफ़ॉर्म तक पहुँचा भी नहीं था, तब तक ट्रेन पटरी पर रेंगने लगी थी। उसके तो होश उड़ गए। उसने सोचा, ‘मैं जब तक वहाँ पहुँचूँगा तब तक तो ट्रेन अपनी रफ़्तार में होगी।’ एक समय के लिए तो कृतज्ञ के सामने पूरा कैरियर धराशयी होता दिखा। असफलता का पूरा दृश्य उसके सामने घूम गया। बड़े भाई उसे स्टेशन तक छोड़ने आए थे। कृतज्ञ का बैग उनके हाथ में था। उन्होंने निराश होते हुए कहा, “यह ट्रेन हम लोग नहीं पकड़ पाएँगे। हमें लौटना होगा।”

मगर उसके दिमाग़ में तो कुछ और ही चल रहा था। उसने अपने आपको पूर्ण रूप से ट्रेन की रफ़्तार पर केंद्रित किया और हिम्मत बनाई। उसने अपना बैग झटके से उनके हाथों से लिया, कंधे पर लटकाया और बेतहाशा दौड़ पड़ा। उसके भाई चिल्लाते हुए उसके पीछे दौड़ पड़े। वह ट्रेन छोड़ने की बात कह रहे थे, मगर उसने उनकी नहीं सुनी और ट्रेन के साथ होड़ लगा दी। कृतज्ञ ध्यान से यह भी देख रहा था कि किस बोगी के दरवाज़े पर भीड़ नहीं है। अब तक ट्रेन अपनी पूरी रफ़्तार में थी, लेकिन उसने भी हार नहीं मानी। उसकी साँसें फूल गई थी। आख़िर उसे वह बोगी दिखी जिसके दरवाज़े पर भीड़ नहीं थी और वह झटके से ट्रेन पर चढ़ गया। 

चढ़ने के बाद मुड़कर उसने भाई को आश्वस्त करना चाहा कि वह ठीक है। उसे भाई तो नहीं दिखे किन्तु घूमने के क्रम में उसका बैग दरवाज़े से टकरा गया, जिससे उसका संतुलन बिगड़ गया। शायद वह ट्रेन से नीचे गिर पड़ता, किन्तु उसके आत्मबल ने उसे गिरने नहीं दिया। उसने दरवाज़े के हैंडल को बहुत कस के पकड़ रखा था, जिससे वह बच गया। 

विडंबनाओं के कारवां में शामिल हो, विचित्रताओं से क़दम मिलाते हुए मानव जीवन के हर धागे के साथ पल-प्रतिपल जीता चला जाता है। एक छोटा सा बैग लटकाए जब बच्चा स्कूल जाता है तो उसका कोमल मन किसी बोझ तले ना दबकर एक कौतूहल . . .  एक जिज्ञासा . . .  लेकर बाहर की दुनिया में प्रवेश करता है। ना अतीत . . . ना भविष्य . . . ना ही वर्तमान . . . । उन्मुक्त होकर जीवन को खेल समझकर खेलता चला जाता है। उसके लिए तो जीवन होता है—सिर्फ़ एक क्रीड़ा स्थल . . . । किन्तु जैसे ही बचपन की दहलीज़ को लाँघ कर जब वह किशोरावस्था में प्रवेश करता है, तब सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों के रेशे से बँधने लगता है। धीरे-धीरे यह रेशा बड़ा होता जाता है और बंधन भी कसने लगते हैं। वर्तमान और भविष्य के सफ़र को जोड़ने की कोशिश में वह कई पड़ावों, कई मोड़, कई चौराहों से गुज़रते हुए मंज़िल को पाने के लिए जीवन से होड़ लगा देता है। समय दौड़ता चला जाता है, परन्तु छोड़ जाता है कुछ बातें कुछ यादें . . . उन पड़ावों की जो जीवनपर्यंत ज़िन्दा रहते हैं। 

कॉलेज, किताबें, मौज-मस्ती, पढ़ाई, बिंदास सोच, उत्तरदायित्वों का दूर-दूर तक कोई अस्तित्व नहीं . . .  इन्हीं विलक्षण शब्दों से एक ‘विद्यार्थी जीवन’ की एक तस्वीर बनती है। और सभी इसी तस्वीर को देखते हैं। किन्तु यदि तस्वीर के पीछे हम झाँक कर देखें तो वहाँ सकारात्मक भविष्य के उत्तरदायित्व से लदी हुए एक परछाईं दिखाई पड़ती है। 

सिविल सर्विसेज़ के पीटी परीक्षा में पास होने के बाद, कृतज्ञ मेंस की परीक्षा देने पटना से दिल्ली जा रहा था। उसकी तैयारी बहुत अच्छी थी और पूरी तरह से आत्मसंतुष्ट था वह। मन में एक उम्मीद, स्फूर्ति और उल्लास लेकर वह इस परीक्षा को देने जा रहा था। यदि उसकी ट्रेन छूट जाती तो वह परीक्षा नहीं दे पाता। 

उस बोगी में उसे एक सीट मिल गयी, वह वहीं बैठ गया। टीटी जब टिकट चेक करने आया तब उसने अपना टिकट दिखाते हुए बताया कि उसका दिल्ली तक का रिज़र्वेशन है। उसने अपनी पूरी घटना सुनाई और फिर कहा कि अगला स्टेशन आते ही वह अपनी बोगी में चला जायेगा। जब वह दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन (मुगलसराय जंक्शन) पहुँचा, तब वह उस बोगी से उतरकर अपनी बोगी में चढ़ा। उसे जब अपना बर्थ मिला तब जाकर उसे चैन आया। 

भय, थकान और चिंता तीनों सम्मिलित रूप से उसके मन-मस्तिष्क पर छाए हुए थे। जिस तरह से तेज़ रफ़्तार में ट्रेन पर चढ़ा था, वह सोचकर अब उसे भय हो रहा था। दौड़ने के कारण थकान भी महसूस हो रही थी। और भाई के लिए चिंता भी थी कि पता नहीं वह उसके लिए कितना परेशान होंगे। उस समय मोबाइल फोन का दूर-दूर तक निशान नहीं था। आज लगता है कि उस समय मोबाइल फोन होता तो वह भाई से बात कर लेता। 

यह कृतज्ञ को बाद में पता चला चला, जब वह परीक्षा देकर दिल्ली से लौटा था कि भैया घंटों सिर पर हाथ रखे स्टेशन पर बैठे रहे थे। 

ट्रेन प्रयागराज (इलाहाबाद) और कानपुर के बीच में थी। बर्थ पर बैठा कृतज्ञ कुछ किताबें निकाल कर पढ़ रहा था। उस बोगी में दो-तीन परिवार बैठे हुए थे, जिसमें चार-पाँच महिलाएँ और चार-पाँच पुरुष थे। वे ज़ोर-ज़ोर से बातें कर रहे थे। उसे थोड़ी परेशानी तो हो रही थी, किन्तु उसने कुछ नहीं कहा और उसने किताब पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया। अचानक बग़ल से एक व्यक्ति बर्थ के सामने आया और महिलाओं को देखकर अभद्र बातें करने लगा। सीट पर जितने लोग बैठे थे, वे सभी शांत हो गए। उसका व्यवहार अभद्र होता जा रहा था। महिलाओं के बारे में वह अनाप-शनाप बोले जा रहा था। सारी महिलाएँ उसे देख कर डर गईं थीं। वह बार-बार आता और उन लोगों को अभद्र बातें सुना कर चला जाता। वहाँ पर बैठे सारे पुरुष उसके सामने कुछ नहीं बोल रहे थे, किन्तु जब वह चला जाता तो उसके बारे में बुरा-भला कहते। कृतज्ञ ने उसे ध्यान से देखा, उसने बहुत पी रखी थी। महिलाओं को देखकर वह अश्लील बातें करने लगा। बातचीत के क्रम में कृतज्ञ यह जान गया था कि वहाँ जितने भी पुरुष थे, वे सभी उन महिलाओं के पति थे। वह अचंभित था कि उन महिलाओं के पति बिल्कुल चुप थे। उन लोगों ने उस व्यक्ति को रोकने की कोशिश नहीं की। उसकी बातें सुनकर कृतज्ञ का क्रोध बढ़ने लगा था। वह अपनी सीट से उठा और सीधे उसके पास गया। सारी महिलाएँ और पुरुष उसे देख रहे थे लेकिन अब भी वे चुप ही थे। कृतज्ञ ने उसे डाँटते हुए कहा, “शर्म नहीं आती है तुम्हें इस तरह का अभद्र व्यवहार करते हुए। कई परिवार यहाँ बैठे हुए हैं और तुम इस तरह की हरकतें कर रहे हो।”

कृतज्ञ की इस बात पर वह तन गया और उसके साथ गाली-गलौज करने लगा। बात बढ़ने लगी थी। सबसे बड़ी बात यह थी कि वहाँ पर बैठे एक भी पुरुष ने उसका साथ नहीं दिया। उन्होंने उसकी तरफ़ से एक शब्द भी नहीं कहा। वह हिंसक हो उठा था। उसने कृतज्ञ के सर पर वार करते हुए कहा, “मैं तुम्हेंं अभी यहीं ख़त्म कर दूँगा।” 

इस बात पर कृतज्ञ का क्रोध इतना बढ़ गया कि उसने सीधे उसका गला पकड़ा और खींचते हुए दरवाज़े के पास ले गया और कहा, “मैं ट्रेन से तुम्हेंं नीचे फेंक दूँगा।” 

वह अपने को छुड़ाने का प्रयास करने लगा। लेकिन कृतज्ञ ने इतनी मज़बूती से पकड़ रखी थी कि वह अपने को छुड़ा नहीं पाया। उन महिलाओं के पति अब जाकर हरकत में आए, किन्तु उन लोगों ने उस व्यक्ति को रोकने के बजाय कृतज्ञ को रोकने की कोशिश की। किसी ने उस व्यक्ति को कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं दिखाई। अचानक से उस व्यक्ति के कुछ दोस्त दौड़ते हुए आए और कृतज्ञ को रोकने की कोशिश की। कृतज्ञ ने ध्यान से देखा वे सभी फ़ौजी की वर्दी में थे। कृतज्ञ के तेवर और डील-डौल को देखते हुए उन लोगों ने उसे भी फ़ौजी समझ लिया। उस समय कृतज्ञ के बाल भी छोटे-छोटे फ़ौजी स्टाइल में थे। वे सभी उससे माफ़ी माँगने लगे और कहा, “सर इसे छोड़ दीजिए इसने बहुत ही शराब पी ली है। यह होश में नहीं है।” 

कृतज्ञ ने उन्हें ख़ूब डाँटा और कहा, “अब तक आप लोग कहाँ थे और यह कौन हैं?” उन्होंने बताया कि वह भी फ़ौजी ही है, किन्तु वर्दी में नहीं है। 

“आप लोगों की इस तरह के व्यवहार की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। एक फ़ौजी को पूरा देश इज़्ज़त और सम्मान की नज़र से देखता है, पर इसने तो फ़ौजी के सम्मान पर दाग़ लगाया है। फ़ौजी देश की सुरक्षा के लिए शपथ लेता है, किन्तु इसके कारण यहाँ की महिलाएँ अपने आपको भयभीत और असुरक्षित महसूस कर रही थीं,” उसने ग़ुस्से में कहा।

“सर आगे से ऐसा नहीं होगा हम लोग इस बात का पूरा ध्यान रखेंगे,” उन लोगों ने खेद के साथ कहा। उन्होंने कृतज्ञ से दोस्ताना व्यवहार जताते हुए बताया कि वे किस रेजिमेंट से है। और उन्होंने उससे भी पूछा, “सर आप किस रेजिमेंट से हैं?” 

कृतज्ञ ने उनकी बात को टाल दिया और उसके साथी को छोड़ दिया। फिर आकर वह अपनी सीट पर बैठ गया। वे सभी अपने साथी को खींच कर ले गए। 

ट्रेन अब तक कानपुर पहुँच चुकी थी। वह बड़ा ही दुविधा में था और उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि वह सही था या उन महिलाओं के पति? वह सोचने लगा, ‘मैं अविवाहित था, फिर भी मुझे उन महिलाओं की चिंता हुई। उनके साथ हुए अभद्र व्यवहार को मैं सह नहीं पाया, किन्तु उन महिलाओं के पतियों को क्रोध क्यों नहीं आया था? उन्होंने कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दिखाई? वे किस प्रकार इसे सह गए? क्या वे चुप और शांत रह कर अपने परिवार की रक्षा कर रहे थे और विवाद में फँसना नहीं चाह रहे थे? 

‘यह दुनियादारी थी, समझदारी थी या उनकी कायरता थी? अक़्सर वह अपने पिता के मुँह से सुना करता था . . .  अनजान जगह पर या अजनबियों से उलझना नहीं चाहिए, समझदारी से काम लेना चाहिए। क्या उन महिलाओं के पतियों ने यही समझ कर कुछ नहीं कहा था या फिर वह व्यक्ति उन महिलाओं को स्पर्श नहीं कह रहा था, सिर्फ़ दूर से ही उन्हें अभद्र बातें कहता जा रहा था, शायद यही सोचकर वह चुप बैठे थे या फिर वह जानते थे कि वह फ़ौजी है। और फ़ौजी से उलझने से वह डर रहे थे। 

‘क्या मैं ग़लत था? मुझे इस विवाद में नहीं पड़ना चाहिए था। मेरी परीक्षा है, मुझे अपने किताबों पर ध्यान देना चाहिए था। उन महिलाओं की सुरक्षा के लिए उनके पति तो उनके पास थे ही, मुझे बीच में नहीं पड़ना चाहिए था।’ 

मन में द्वंद्व और हज़ारों सवाल थे। वह अनमना-सा हो गया था। इस घटना ने कृतज्ञ को जीवन की बहुत बड़ी सीख दी . . . 

“यदि स्वयं में दमख़म हो, तभी बाहर किसी विवाद में पड़ो या किसी की मदद करो। क्योंकि बाहर एक व्यक्ति भी तुम्हारी मदद के लिए तैयार नहीं होगा।” 

मन में इतनी उथल-पुथल थी कि ट्रेन कब गाजियाबाद पहुँच गई, उसे पता ही नहीं चला। ट्रेन के रुकने और हॉकर्स की आवाज़ ने कृतज्ञ का ध्यान भंग किया। इतनी देर में वह अपनी परीक्षा की बात भी भूल गया था। तभी एक चाय वाला आया, उसने उससे चाय ख़रीदी, ताकि मन फ़्रेश हो सके। एक बात पर उसने और ग़ौर किया कि स्टेट बदलते ही दूसरे स्टेट में प्रवेश करने पर लोगों की भाषा और बोलने के अंदाज़ भी बदल जाते हैं। चाहे पढ़े-लिखे हों या फिर उस चायवाले की तरह, सभी एक ही अंदाज़ में बोलते हैं। उसने अपना ध्यान अपनी परीक्षा की ओर केंद्रित किया और अपना सामान ठीक करने लगा, क्योंकि ट्रेन अब दिल्ली पहुँचने ही वाली थी। इस बीच उसने देखा कि उन महिलाओं के पति उस फ़ौजी को लगातार बुरा-भला कह रहे थे, किन्तु किसी ने उससे कृतज्ञता नहीं जताई। उसके मन में खीझ हुई, ‘सामने तो इनकी बोलती बंद थी और पीठ पीछे बुरा-भला कह रहे हैं।’ 

ट्रेन दिल्ली स्टेशन पर पहुँच चुकी थी। कृतज्ञ ने उनकी तरफ़ देखा तक नहीं। उसने सीधे अपना बैग उठाया और दरवाज़े की तरफ़ चला। अचानक वह मुड़ा यह देखने के लिए कि कहीं सीट पर उसका कुछ छूट तो नहीं गया है। और दो पल के लिए वह हतप्रभ रह गया, उन महिलाओं के पति तो आपस में बातों में व्यस्त थे, लेकिन वे महिलाएँ बड़ी कृतज्ञता से उसे देख रही थीं, मानो उनके दिल से दुआएँ निकल रहीं हों। वे सभी उसके क़रीब आईं, धन्यवाद दिया और कहा, “आप के कारण ही आज हम लोग सुरक्षित दिल्ली पहुँच गए।” 
कृतज्ञ ने उन्हें देखकर सिर्फ़ मुस्कुरा दिया, कहा कुछ भी नहीं और ट्रेन से नीचे उतर गया। 

“वो आँखें” . . .  दुआओं के सागर सी . . . कृतज्ञता की बहती नदी . . . अचानक उसकी सोच बदली . . . “मैं सही था।” 

कृतज्ञ के ज़ेहन में वह पड़ाव हमेशा ज़िन्दा रहा। 

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