अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अम्मा (नेहा गोस्वामी)

(अम्मा की याद में)

आज जब अम्मा से मिलने आई हूँ तो न जाने क्यों ये अहसास हो रहा है कि चलती साँसों में इनको आख़िरी बार देख रही हूँ। अम्मा के गालों को छूने की कोशिश की, हलका सा छू कर पीछे हटा लिया। रोने का मन किया, पर रो न सकी। दिल भर आया था, पर अभी आँखों से बूँदें नहीं छलकीं। कभी मेरे आने पर फूल सी खिल उठने वाली यह अम्मा तीन दिन से बिस्तर पर मृत के समान पड़ी है, बस साँसें चल रही हैं। न शरीर हिलता है, न आँखें खुलती है, न मुँह खुलता है। घर वाले जबरन मुँह में चम्मच से कभी जूस तो कभी गंगाजल डाल देते हैं। मल-मूत्र सब बिस्तर पर ही किया जा रहा है। सब भगवान से दुआ कर रहे हैं, इनको मुक्ति मिल जाए। आख़िरकार मुक्ति मिल ही गई, अम्मा को भी और घरवालों को भी।

एक तरफ़ कमरे में अम्मा का पार्थिव शरीर रखा हुआ है। बहुएँ घेरे बैठी हैं और रो रही हैं। अम्मा की दुनिया भर की तारीफ़ें कर डाली हैं। आज ऐसे याद कर रही हैं, परंतु अभी यदि यह जी उठे तो मैं जानती हूँ किसी को अच्छा नहीं लगेगा। बच्चे हुए, बच्चों के बच्चे हुए, फिर उनके भी बच्चे, परपोता भी देख लिया, अब इससे अधिक जीना तो बाक़ी सबके ऊपर बोझ जैसा ही है। लोग आ रहे हैं जा रहे हैं। जो आता है रोता है दो-चार गुणों का बखान करता है और फिर एक कोने में बैठ कर अपनी गपशप में मशग़ूल हो जाता है। मर्द तो बाहर ही हैं, उनको रोना मना है शायद। हाँ बेटे ज़रूर रो रहे हैं। काफ़ी औरतें बहुओं को सांत्वना दे रही हैं कि "अब तो अपनी पूरी ज़िंदगी जी ली, भरा-पूरा घर छोड़ कर गई हैं, कोई कमी थोड़े न है"

इन सबके बीच मैं भी कहीं हूँ। अम्मा की बातें याद आ रही हैं, परंतु लोगों के दोहरे चरित्र को देखकर हैरान भी हूँ। जो लोग जीते-जी क़द्र नहीं करते, लताड़ देते हैं, उनकी भावनाओं की क़द्र नहीं करते, वे सब अब ऐसे रो रहे हैं जैसे वास्तव में उन्हें दुख हो।

आख़िर के दिनों में कुछ ज़्यादा ही परेशान रहती थीं। बाबा के जाने के बाद उनका समय काटे नहीं कटता था। हाथ-पैर तो चलते नहीं थे, जो काम कर सकें। शरीर कमज़ोर था, सो घूमना भी नहीं हो पाता था। पूरा दिन एक कमरे से दूसरे कमरे में या फिर शाम के वक़्त दरवाज़े पर बैठ जाती थीं और आते-जाते लोगों से बतिया लेती थीं। फिर रात को खाना और दवाई खाकर सो जाती थीं। पिछले कुछ वर्षों से यही उनकी दिनचर्या थी। हम पोतियों के आने पर वह बहुत ख़ुश होती थीं। तब हमारे पास ही बैठी रहती थीं। जब हम घर रहने जाते तब भी पास ही बैठी रहती थीं, चाहती थीं कि हम उनसे बात करें। परंतु आज तकनीकी युग में मोबाइल और टी.वी. ने जो हमें अपना ग़ुलाम बना रखा है उसका मोह हम कैसे छोड़ते?

बहुएँ परेशान होकर कहतीं- "माताजी अपने कमरे में बैठा करो, सारा दिन यही बैठी रहती हो" तब वह अपना सा मुँह लेकर अपने कमरे में चली जातीं और वही से सब कुछ देखती रहतीं। एक कमरे के किराए से अपना खर्च चलाती थीं और यदि किसी बेटे ने डॉक्टर की दुकान पर दवाई के पैसे दे भी दिए तो घर आकर पैसे वापस माँग लेता। अम्मा को सफ़ाई बहुत पसंद थी उनके कमरे का फ़र्श और कपड़े एकदम चमकते रहते थे। पर उनके अंतिम दिनों में कोई उनके कमरे में झाड़ू तक नहीं लगाता था। मकड़ी के जालों का अड्डा था उनका कमरा, महीनों बिना धुले बिस्तरों पर पड़ी रहतीं।

आज जब वो नहीं हैं तो यही सोच रही हूँ कि किसी का भी एक रुपये तक का कर्ज़ नहीं लेके गयीं। आख़िर क्यों बुज़ुर्ग लोग अपने परिवार वालों को बोझ लगने लगते हैं। उनको चाहिए भी तो क्या- बस थोड़ा सा समय और सम्मान। पर जो माँ-बाप अपनी पूरी ज़िंदगी अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए खपा देते हैं, अंत में वे अपने बच्चों के लिए बोझ बन जाते हैं।

आख़िरकार पार्थिव शरीर को शमशान ले जाने का समय आ ही गया, ख़ूब बाजे-गाजे के साथ उनकी अंतिम यात्रा निकली। इस घर से हमेशा के लिए उनकी अंतिम विदाई हो चुकी थी, और अब ये घरवाले उनके गहनों के बँटवारे के लिए लड़ेंगे।

नेहा गोस्वामी
शोधार्थी
केन्द्रीय शिक्षा संस्थान
(दिल्ली विश्वविद्यालय)
Email: nehagoswami003@gmail.com

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं