105 नम्बर
कथा साहित्य | लघुकथा सन्तोष सुपेकर1 Nov 2022 (अंक: 216, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते हुए एक मकान के बाहर लगा ये बड़ा-सा लाल रंग से लिखा हुआ नम्बर देखते ही मुझे चिढ़-सी होने लगती है। झमाझम बारिश में ठेला धकाते और गीला मुँह पोंछते हुए मैंने सोचा, ‘इस नम्बर से ही नफ़रत हो गई है मुझे! रोज़ जैसे ही मैं यहाँ से गुज़रता हूँ इस 105 नम्बर बँगले से एक बूढ़ा बाहर निकलता है और सब्ज़ी लेने के बाद दो-पाँच रुपये का धनिया ज़बरदस्ती मुझसे ले जाता है, फ़्री में! और बोलता है, बोनस में! हूँ ह! शरम नहीं आती इन अमीरों को, हम ग़रीबों से क्या कोई बोनस लेता है? . . . धनिया कौन-सा सस्ता आता है? पर क्या करूँ? सब्ज़ी बेचनी है तो . . .’ मैंने फिर मुँह बिचकाया। ‘आज क्या बात है?’ मकान की ओर देखते हुए मैं बुदबुदाया, ‘मेरी चिल्लाहट सुनकर भी बाहर नहीं आया बूड्ढा? बारिश के कारण अंदर पड़ा होगा, चलो अच्छा है, आज तो बला टली . . .’
लेकिन नहीं, बला टली नहीं थी, उसी समय 105 नम्बर का कम्पाउण्ड गेट खुला और वही बूड्ढा छतरी हाथ में लिए बाहर निकला lपर यह क्या? उसके दूसरे हाथ में आज प्लास्टिक की एक थैली थी जिसमें कोई नीले रंग की चीज़ थी।
“नहीं-नहीं, आज सब्ज़ी नहीं लेनी lमैं रोज़ देखता हूँ तुम बरसात में गीले होते हुए सब्ज़ी बेचते रहते हो। महामारी का टाइम है भैया। भीगने से कहीं तुम्हें बुख़ार हो गया तो सब कोरोना ही समझेंगे, सो तुम्हारे लिए ये . . . ये रेनकैप और रेनकोट ख़रीद लाया हूँ, बिल्कुल नया! अब इसे पहनकर सब्ज़ी बेचना। ये लो, मेरी तरफ़ से . . . बोनस में!” और कहकर वो बू . . . नहीं नहीं, वे बाबूजी, ठहाका मारकर हँस पड़े।
बरसती बूँदों के बीच मुझ पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया और अपनी सोच पर शर्माते हुए, कृतज्ञ नज़रों से उन्हें देखते हुए, मैं भी मुस्कुरा उठा lपहली बार मुझे वे अच्छे लगे, और उनके मकान पर लगा, वह 105 नम्बर भी।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
सरोजिनी पाण्डेय 2022/11/08 04:58 AM
बहुत अच्छे, ''यहां ख़त का मजमून समझ लेते हैं लिफाफा देखकर ' वाली कहावत झूठी पड़ गई