अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

105 नम्बर

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते हुए एक मकान के बाहर लगा ये बड़ा-सा लाल रंग से लिखा हुआ नम्बर देखते ही मुझे चिढ़-सी होने लगती है। झमाझम बारिश में ठेला धकाते और गीला मुँह पोंछते हुए मैंने सोचा, ‘इस नम्बर से ही नफ़रत हो गई है मुझे! रोज़ जैसे ही मैं यहाँ से गुज़रता हूँ इस 105 नम्बर बँगले से एक बूढ़ा बाहर निकलता है और सब्ज़ी लेने के बाद दो-पाँच रुपये का धनिया ज़बरदस्ती मुझसे ले जाता है, फ़्री में! और बोलता है, बोनस में! हूँ ह! शरम नहीं आती इन अमीरों को, हम ग़रीबों से क्या कोई बोनस लेता है? . . . धनिया कौन-सा सस्ता आता है? पर क्या करूँ? सब्ज़ी बेचनी है तो . . .’ मैंने फिर मुँह बिचकाया। ‘आज क्या बात है?’ मकान की ओर देखते हुए मैं बुदबुदाया, ‘मेरी चिल्लाहट सुनकर भी बाहर नहीं आया बूड्ढा? बारिश के कारण अंदर पड़ा होगा, चलो अच्छा है, आज तो बला टली . . .’

लेकिन नहीं, बला टली नहीं थी, उसी समय 105 नम्बर का कम्पाउण्ड गेट खुला और वही बूड्ढा छतरी हाथ में लिए बाहर निकला lपर यह क्या? उसके दूसरे हाथ में आज प्लास्टिक की एक थैली थी जिसमें कोई नीले रंग की चीज़ थी। 

“नहीं-नहीं, आज सब्ज़ी नहीं लेनी lमैं रोज़ देखता हूँ तुम बरसात में गीले होते हुए सब्ज़ी बेचते रहते हो। महामारी का टाइम है भैया। भीगने से कहीं तुम्हें बुख़ार हो गया तो सब कोरोना ही समझेंगे, सो तुम्हारे लिए ये . . . ये रेनकैप और रेनकोट ख़रीद लाया हूँ, बिल्कुल नया! अब इसे पहनकर सब्ज़ी बेचना। ये लो, मेरी तरफ़ से . . . बोनस में!” और कहकर वो बू . . . नहीं नहीं, वे बाबूजी, ठहाका मारकर हँस पड़े। 

बरसती बूँदों के बीच मुझ पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया और अपनी सोच पर शर्माते हुए, कृतज्ञ नज़रों से उन्हें देखते हुए, मैं भी मुस्कुरा उठा lपहली बार मुझे वे अच्छे लगे, और उनके मकान पर लगा, वह 105 नम्बर भी।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

अंडा
|

मिश्रा जी अभी तक'ब्राह्मणत्व' का…

टिप्पणियाँ

सरोजिनी पाण्डेय 2022/11/08 04:58 AM

बहुत अच्छे, ''यहां ख़त का मजमून समझ लेते हैं लिफाफा देखकर ' वाली कहावत झूठी पड़ गई

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं