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बादशाह पर जुर्माना

एक बार रात्रि के समय बादशाह औरंगज़ेब सोने ही जा रहे थे कि शाही घंटी बज उठी। बादशाह शयनकक्ष से बाहर आये। उन्हें एक दासी आती दिखाई दी। वह बोली, ''हुज़ूरे आलम! क़ाज़ी साहब आलमपनाह से मिलने के लिए दीवान खाने में तशरीफ़ लाये हैं और आपका इन्तज़ार कर रहे हैं।"

औरंगज़ेब फ़ौरन दीवानखाने पहुँचे। क़ाज़ी ने उन्हें बताया, "जहांपनाह, गुजरात जिले के अहमदाबाद शहर के एक मुहम्मद मोहसीन ने उन पर पाँच लाख रुपयों का दावा ठोंका है। अतः कल आपको दरबार में हाज़िर होना होगा।" क़ाज़ी के चले जाने पर औरंगज़ेब विचार करने लगा कि उसने तो किसी से पाँच लाख रुपए उधार नहीं लिए हैं। स्मरण करने पर भी उसे याद नहीं आया। इतना ही नहीं, मुहम्मद मोहसीन नामक व्यक्ति को भी वह न पहचानता था।

दूसरे दिन दरबार लगा और मुज़रिम के रूप में औरंगज़ेब हाज़िर हुआ। सारा दरबार खचाखच भरा हुआ था और तिल रखने को भी जगह न थी। औरंगज़ेब को उसके जुर्म का ब्यौरा पढ़कर सुनाया गया।

बात यह थी कि औरंगज़ेब के भाई मुराद को गुजरात जिला सौंपा गया था। शाहजहां जब बीमार पड़ा तो उसने स्वयं को ही गुजरात का शासक घोषित कर दिया। उसे स्वयं के नाम के सिक्के जारी करने के लिए धन की ज़रूरत हुई तब उसने मुहम्मद मोहसीन से पाँच लाख रुपए उधार लिए थे। इस बीच औरंगज़ेब ने हिकमत करके शाहजहां को क़ैद कर लिया तथा अपने तीनो भाइयों- मुराद, दारा और शुजा को क़त्ल कर उन तीनो की संपत्ति अपने ख़ज़ाने में जमा कर ली। इस तरह मोहसीन से लिया गया धन भी उसके ख़ज़ाने में जमा हो गया।

औरंगज़ेब ने अपने अपराध के प्रति अनभिज्ञता ज़ाहिर की। मोहसीन ने अपने पास मौज़ूद दस्तावेज़ दिखाया। औरंगज़ेब ने जुर्म क़ुबूल कर लिया और शाही ख़ज़ाने से पाँच लाख रुपए निकलवा कर जुर्माना अदा किया।

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