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डर

मानसी अभी बिस्तर पर ही थी कि उसका मोबाइल बज उठा। उसने सवालिया नज़रों से मोबाइल की ओर देखा जैसे जान लेना चाहती हो कि सुबह-सुबह किसे, क्या तकलीफ़ है! "काल बैक" न करना पड़े इसलिए उसने झट से मोबाइल उठा लिया। बटन दबाकर कान से लगाया और धीमे से कहा, "हलो।" दूसरी ओर की आवाज़ सुनकर वह चहककर उठ बैठी। मोबाइल सीधे हाथ से पकड़कर कहा, "अरे मॉम आप! आज सुबह-सुबह! सब ख़ैरियत तो है!"

उसने मोबाइल का लाउडस्पीकर "ऑन" कर दिया ताकि धीमे बोलने वाली माँ की बातों का एक-एक शब्द सुन सके।

उधर से माँ की स्नेहिल फटकार आ रही थी, "आठ कब के बज चुके हैं और तूने अभी तक बिस्तर नहीं छोड़ा है!"

"मॉम, आप तो डाँटने का कोई अवसर नहीं चूकतीं। हुआ यह...।"

"...कि तू रात में काफ़ी देर तक पढ़कर क्लास के लिए नोट्स तैयार करती रही, इसलिए देर से सोई…," माँ ने वाक्य पूरा किया।

"...और देर से सोने वाले को देर तक सोने का हक़ होता है। हैं न मॉम।"

उसकी निश्छल हँसी समाप्त होने के बाद माँ मुद्दे की बात पर आई, "सुन मनु, तुझे आज शाम को घर आना है।"

"लेकिन सनडे तो अभी दो दिन बाद है। कोई बात है क्या!"

"हाँ, बात तो है। तेरे भैया ने एक जगह तेरे रिश्ते की बात चलाई है।"

"ओह मॉम!"

"अरी सुन तो सही। वर पक्ष चाहता है कि लड़का-लड़की एक दूसरे को देख-सुन लें; पसंद कर लें, तो बात आगे बढ़े। लड़का आज ही आ रहा है, शाम तक। बस, तू यह मत कहना कि अभी-अभी नौकरी शुरू की है, अभी जल्दी क्या है! लड़का और उसका परिवार वाले सभी अच्छे हैं। बस, तू देख ले, उसके बाद तेरी मर्ज़ी। हम तेरे ऊपर कोई फ़ैसला नहीं थोपेंगे।"

"बस, बस! मॉम, मुझे इतना मत चढ़ाओ। अपने आँचल की छाया में ही बना रहने दो। आप जो कहोगी करूँगी। पापा को भी बोल देना...।"

"क्या?"

"अरे यही, कि मैं शाम को घर आ रही हूँ।"

 

बस स्टॉप पर खड़ी मानसी ने अपनी बाँहें सीने पर कसते हुए आसमान की ओर देखा। ऊपर हल्की बदली छाई हुई थी। तेज़ हवा ने ठंड कुछ और बढ़ा दी थी। आजकल मौसम कितना "अनसरटेन" हो गया है। उसकी सोच की ताकीद करने के लिए ऊपर से बूँदें गिरने लगीं। उसने इधर-उधर देख, तभी, जैसे उसे असहाय पाकर, कृपा करके बूँदें रुक गईं।

उसे स्टॉप पर खड़े देर हो चुकी थी पर बस का कहीं पता नहीं था। उसने उड़ती-सी नज़र वहाँ खड़ी सवारियों पर डाली। उसे संतोष हुआ कि वह अकेली नहीं है। वह उसी ओर देख रही थी जिधर से बस को आना था। कुछ देर बाद एक बस आती दिखाई दी। ओफ़्फ़! वह कैसे चढ़ पाएगी, इस बस में। इसके दोनों गेटों तक पर सवारियाँ लटकी हुई हैं। बस आकर खड़ी हुई। ओवरलोड थी। दो सवारियाँ उतरीं, चार चढ़ गईं। बस चली गई, वह खड़ी रह गई। भीड़ से उसे शुरू से डर लगता था।

हताश-निराश मानसी वहीं खड़ी रह गई। बूँदें फिर पड़ने लगीं। पानी से बचने के लिए वह सड़क के किनारे छायादार पेड़ के नीचे स्थापित चाय की गुमटी के पास जाकर खड़ी हो गई।

चायवाला अक्सर मानसी को आते-जाते देखता था इसलिए उसे पहचानता था। देखा तो बोला, "का घरै जाय रही हौ? आजु तो बस की बड़ी मारा-मारी है।"

"क्यों?" प्रश्न करते हुए मानसी ने सोचा कि लगता है दूसरी कोई बस नहीं आएगी।

चायवाला सूचना प्रसारित करने लगा, "आजु प्राइमरी स्कूलों मा पढ़ावें वाले शिक्षा-मित्तरों की रैली है न; सो ज्यादातार बसैं रेली मा लगी हैं।"

चायवाले की बातों ने मानसी की चिंता बढ़ा दी। उसे ख़ुद पर ग़ुस्सा आया कि कल अख़बार में पढ़ी रैली वाली बात वह भूल कैसे गई! हर रैली में लोग प्राइवेट बसें हायर कर लेते हैं। याद रहता तो माँ को आज आने के लिए मना कर देती। पर अब मना कैसे करें, वे महाशय तो निकल पड़े होंगे। अनिश्चितता में डोलती वहीं खड़ी रहकर अगली बस का इंतज़ार करने लगी। शायद उसके भाग्य से दूसरी बस आ जाए और ओवरलोड न हो।

मानसी रायबरेली-लखनऊ रोड पर मोहनलालगंज में स्थित अंबालिका इंजीनियरिंग एण्ड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट में "प्रबंधन" पढ़ाती थी। इसी सत्र के प्रारंभ में उसकी नौकरी लगी थी। वह इंस्टीट्यूट केंपस में बने गर्ल्स हॉस्टल में रहती थी। वैसे तो हर शनिवार की शाम को घर जाती ही थी और सोमवार को सुबह लौट आती थी। माँ से सुबह हुई बातों के सिलसिले में आज बुधवार को ही घर जा रही थी।

कॉलेज करके वहाँ से निकलते ही उसकी कलीग रुचि मिल गई। उसे अचानक घर जाने का कारण बताया तो उसने चुटकी ली, "ओ हो! तो मैडम अपने "उस" से मिलने जा रही हैं। जाओ भाई, जाओ, मेरी शुभकामनाएँ आप दोनों के साथ हैं।"

"अभी से शुभकामनाएँ! क्या पता वह मुझे पसंद करे, न करे," यह कहते हुए मानसी के दिल में एक लहर-सी उठी।

"वह तो तुम्हें देखते ही फ़िदा हो जाएगा मेरी जान।"

"और यदि मैं फ़िदा न हुई तो!" मानसी ने चुटकी ली।

"गारंटी करती हूँ कि फ़िदा हो जाओगी।... लड़का अगर सुंदर और स्मार्ट न होता तो उसके पैरेंट्स उसे न भेजकर ख़ुद देखने आते।"

"यार तेरा मनोविज्ञान बड़ा तगड़ा है। चल ठीक है तेरी शुभकामनाएँ लीं, और मैं चली, बॉय।"...

 

बूँदा-बाँदी अब भी जारी थी। मानसी ने मोबाइल में समय देखा, आठ बजे थे।

इंतज़ार करते आधा घंटा और बीत चुका था, पर बस का कहीं अता-पता नहीं था। अगर बस न आई तो! उसका मन दुचित्ता हो गया। क्या अभी और इंतज़ार करे या हॉस्टल लौट जाए। यह सोचते ही उसे कंप होने लगा- हॉस्टल लगभग दो किलोमीटर दूर था; वहाँ तक पहुँचने का छोटा रास्ता खेतों की मेढ़ से होकर था। अगर ज़रूरत पड़े तो भाग भी न सके। और ऊपर से मौसम की मार और उसे झेलता अँधेरा।

उसका दिमाग़ भन्नाने लगा। बुरे विचार स्मृति पर दस्तक देने लगे। अभी कुछ दिन पहले की बात है आशियाना क्षेत्र के एक सुनसान इलाक़े से बदमाशों ने दिनदहाड़े एक लड़की को अगवा कर लिया। उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म करने के बाद उस पर तेज़ाब फेंककर भाग गए। मुँह जलेगा तो उसे दिखाने क़ाबिल नहीं रहेगी और आत्म-विश्वास टूटेगा से अलग। छह महीने बाद बयान देने के क़ाबिल हो पाई। पुलिस को बयान देना, यानी खानापूरी। सुना नहीं कि कोई पकड़ा गया।... हंसा दीदी की क़िस्मत अच्छी थी कि सामूहिक दुष्कर्म झेल न पाने के कारण दम तोड़ दिया। यह उसके लिए कोई समाचार नहीं था, उसने दीदी का शव देखा था। उनका चेहरा पीड़ा से विकृत बना रह गया था, वह ख़ून के तालाब में पड़ी थीं। तब उसका भीत किशोर मन हंसा के मुख पर दुरंत व्यथा-कथा अंकित देखकर अनावश्यक आशंका से भर उठा था। उसे हर बाहरी पुरुष एक दुर्दांत भेड़िया लगता और उसकी अनपेक्षित उपस्थिति से वह शिथिल पड़ जाती। वह नहीं जानती थी कि कौन-सा अनजाना भय उसमें समाया रहता। और फिर भय से संशय, संशय से वितृष्णा, वितृष्णा से मानसिक टूटन, टूटन से ज्ञानबोध का शून्यबोध में परिवर्तन, शून्य बोध यानी संज्ञाहीनता- न चिंतन, न चेतन...।

एक काली वैगन-आर के रुकते ही उसकी विचार-शृंखला टूट गई। उसने देखा एक युवक कार से उतरकर चायवाले की ओर आया, उससे चाय देने को कहा। उसने केतली से प्लास्टिक कप में चाय डाल कर युवक को दी।

युवक ने चाय लेकर एक बार अपनी कार की ओर देखा फिर सिप लेकर पूछा, "यहाँ से शहर कितनी दूर होगा, बाबा?"

"यही कोई बीस मील होई। का पहली बार आए हो?"

"हाँ," युवक ने संक्षिप्त उत्तर दिया।

चायवाले ने मानसी की ओर देखकर कहा, "बिटिया, आप चाहो तो यहिन के साथ सहर तक चली जाओ, हुवां कउनो टेक्सी, टेम्पू मिल जाई। पानी अबहिनो टिपटिपाय रहा है। बस का कउनो ठिकाना नहीं! हमहूँ अपन दुकान बढावै जाय रहन है।"

मानसी दुविधा में पड़ गई।

युवक ने कहा, "चलिए मैं आपको छोड़ देता हूँ। आप साथ रहेंगी तो रास्ता बताने में मेरी मदद ही करेंगीं।"

एक क्षण उसने मानसी के चलने की प्रतीक्षा की, फिर कार की ओर चल पड़ा।

आशंकाओं में डूबी उतराती मानसी अपने आपको धक्का मारकर कार तक ले गई। युवक ने पिछला दरवाज़ा खोलकर मानसी को बैठने के लिए प्रेरित किया। मानसी बैठ गई, दरवाज़ा बंद हो गया तो उसे लगा कि चूहा स्वयं चलकर मार्जार (बिलाव) के पास आ गया है।

युवक ड्राइविंग सीट पर जा बैठा। इगनिशन में चाबी डाली, घुमाने से पहले बाईं ओर देखकर बोला, "राकेश, उठ! बहुत सो लिया।

"अबे साले..."

युवक ने मुँह पर उँगली रखकर कहा, "इश्श्श... पीछे एक महिला बैठी हैं। गाली नहीं।"

सीट पर पसरा हुआ राकेश उठकर बैठ गया। उसने एक नज़र पीछे डाली और अपने साथी से कहा, "सॉरी।"

मानसी घबरा उठी। तो यहाँ एक आदमी और बैठा था। बैठा क्या, छिपा था। उसने बताया भी नहीं कि एक आदमी और है कार में। वैसे तो यह बताने की बात भी न थी। क्या करे, उतर जाय! लेकिन कार तो चल रही है। दरवाज़े ऑटो लॉक से बंद हो चुके हैं।

मानसी संदेहों से घिरी बैठी थी। संदेह जिन सूक्ष्मतम प्रमाणों पर आधारित होते हैं उन्हें न तो किसी को दिखाया जा सकता है और न ख़ुद देखे जा सकते हैं। मानसी हर भोक्ता स्त्री के स्थान पर स्वयं को रख लेती थी। इस समय उसके ज़ेहन में वह युवती घूम रही थी जो इंदिरा गैराज से किसी कार में लिफ़्ट लेकर चढ़ी थी। कार चालक और उसके साथी ने...

उसने अपना सिर झटका और अपने को कोसने लगी कि इस कार में बैठने से पहले उसने देख क्यों न लिया! और वह "साला" भी सीट में ऐसा पसरा था कि पीछे से उसे कोई देख भी न सके।

कार में चल रहे म्यूज़िक सिस्टम की तेज़ आवाज़ से उसकी विचार शृंखला भंग हुई। "रैप" म्यूज़िक था। ओह "रेप"! कितना घिनौना है यह शब्द। वे दोनों भी गा रहे थे। क्या दुष्टों के शौक़ भी एक से होते हैं। निर्भया हादसे को अंजाम देने वाले लोग भी नाच-गा रहे थे। निर्भया और उसका दोस्त दोनों चिल्लाते रहे पर दिल्ली जैसे शहर में किसी ने उनकी मदद न की।

मानसी अतीत की भावुकता से अपने को मुक्त नहीं कर पाई थी तभी संदेह का कछुआ बार-बार अपना सिर बाहर निकालने लगा। उसे याद आया कि निर्भया कांड के बाद सरकार ने एक वूमन्स हेल्प नंबर जारी किया था। उसने पर्स खोलकर अपना मोबाइल निकाला और स्क्रीन पर 1090 टाइप कर लिया जिससे आवश्यकता पड़ने पर उस नम्बर पर तुरंत संपर्क किया जा सके। "ईश्वर करे मुझे इस नम्बर की कभी ज़रूरत न पड़े।" वह सोच ही रही थी कि मोबाइल उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर गया। पता नहीं किस कोण से गिरा कि कार में मैट बिछी होने पर भी उसका पीछे का कवर खुल गया और बैटरी निकल गई। उसने बैटरी ढूँढ़ने की नाकाम कोशिश की। उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि युवक से अंदर की लाइट जलाने के लिए कहे। उसने मोबाइल बैग में डाल लिया।

विचारों से बाहर आकर उसने सुना कि संगीत वैसे ही ज़ोर-शोर से चल रहा था। राहत पाने के लिए उसने थोड़ी-सी खिड़की खोल दी। हवा का तेज़ झोंका अंदर आया तो उसके भय के भाव का भोग कुछ कम हुआ।

"मैडम, प्लीज़ खिड़की बंद कर दें हवा बहुत तेज़ है," युवक के स्वर में अनुरोध था।

वास्तव में भय और संदेह के भाव एक साथ संक्रमित होने के कारण उसके सिर में दर्द होने लगा था। सोचा ताज़ी हवा से कुछ आराम मिलेगा। शीशा ऊपर चढ़ाते हुए कहा, "प्लीज़, यह म्यूज़िक बंद कर दीजिए। मेरे सिर में दर्द हो रहा है।"

म्यूज़िक तत्काल बंद हो गया। सोचा, अब मुसीबत के समय चिल्लाने पर कोई सुन तो सकेगा। इस विचार से उसे थोड़ी राहत मिली।

युवक ने कार में रखे फ़र्स्ट एड बॉक्स से निकालकर एक टेबलेट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, "लीजिए यह दवा ले लीजिए। पानी की बोतल पीछे कवर बैग में है।"

मानसी ने सोचा, "अच्छा ये चालें चल रहा है, मुझे बेहोश करके...।

प्रकट में कहा, "सिरदर्द में मैं दवाई नहीं लेती।"

"कहीं चाय या कॉफ़ी के लिए रोकूँ!"

"नहीं, नहीं, इसकी ज़रूरत नहीं हैं," उसने शीघ्रता से कहा।

कुछ देर तक चुप्पी छाई रही। युवक से नहीं रहा गया, पूछा, "बुरा न मानें तो पूछूँ।... उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना पूछा, "उतने वीराने में आप क्या करने गईं थीं?"

"जी, मैं अपनी सहेली से मिलने गई थी। लौटने में देर हो गई। बातों में टाइम पता ही नहीं चला।" फिर एक दम चुप हो गई। सेाचा मैं यह सब इसे क्यों बता रही हूँ!

युवक समझ गया कि लड़की झूठ बोल रही है। अगर सहेली के यहाँ गई होती तो कोई न कोई बस स्टेंड तक पहुँचाने ज़रूर आता। लेकिन ये तो वहाँ अकेली खड़ी थी। कोई ऐसी-वैसी लड़की न हो, जो गले पड़ जाए।

इंडीकेटर बता रहा था कि पेट्रोल ख़त्म होने वाला है। युवक ने लड़की से पूछा, "गाड़ी का पेट्रोल ख़त्म होने वाला है। क्या आसपास कोई पेट्रोल पंप है?"

बात साधारण-सी थी पर भीत मन अनावश्यक आशंका से भर उठता है। मानसी ने सोचा, "इसके इरादे ठीक नहीं हैं, तभी पेट्रोल ख़त्म होने की भूमिका बाँध रहा है। कहीं सन्नाटे में गाड़ी खड़ी कर देगा और कह देगा कि "पेट्रोल ख़त्म हो गया।" इसी बहाने दोनों नीचे उतर आएँगे। सफ़र पर निकलने से पहले लोग गाड़ी का टैंक फ़ुल करा लेते हैं। क्या पता पेट्रोल पंप पर इसके एक दो साथी हों! ऐसी कितनी घटनाएँ आए दिन घटती रहती हैं जिनमें अपराधी अलग-अलग स्थानों पर आ जुटते हैं और घटना को अंजाम देकर जुदा हो जाते हैं। पुलिस ढूँढ़ती रह जाती है। और इसके साथी अगर पेट्रोल पंप पर हुए तो वह उन्हें पीछे ही बिठा लेगा, मेरे पास। ओफ़्फ़!"

उसने अपना आई कार्ड कार में गिरा दिया। किसी हादसे की यह छोटी-सी गवाही होगी। उसे थोड़ी तसल्ली हुई। तभी यह विचार कौंधा कि घटना होने पर पुलिस को शिकार मिलेगा, शिकारी तो गाड़ी लेकर उड़नछू हो चुकेंगे। उसे खीज हो आई- आख़िर बचने का कोई तो रास्ता होगा जो उसके दिमाग़ में नहीं आ रहा है। क्यों नहीं आ रहा है, क्या मेरा दिमाग कुंद है? शायद वह अपने ही अंतर्द्वंद्व का शिकार हो गई है।

उसने गाड़ी को पेट्रोल पंप की ओर मुड़ते देखा तो आँखें बंद कर लीं। किसी संतुष्टि के कारण नहीं बल्कि भय के कारण। उसे लगा अनहोनी कभी भी घट सकती है। कटु कठोर अनुभव के बाद एक दर्दनाक मौत! मौत न भी हो तो एक अपावन या अपाहिज जीवन को लेकर वह क्या करेगी! कैसी जाएगी घर! कौन-सा मुख लेकर समाज में विचरण करेगी! जो समाज "बेटी बचाओ" का नारा लगाता है वही उसे जीने नहीं देगा। ताने मार-मार कर मार डालेगा। उसने मन ही मन ईश्वर को, माँ, बाबूजी और भाई को याद किया। भाई... मुझसे उम्र में बड़े होकर भी भाई इसलिए अपनी शादी नहीं कर रहे हैं कि पहले मेरे हाथ पीले करना चाहते हैं। आज सुबह माँ कितनी ख़ुश थी। कहा था, "जल्दी घर आ जाना नहीं तो लड़के को बुरा लगेगा।" जब नहीं पहुँचूँगी तब... तब...। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। स्पष्ट देखने के लिए आँखों को हथेलियों से पोंछकर बाहर देखने लगी।

गाड़ी एसजीपीआईआर पार कर रही थी। मानसी ने एक गहरी साँस ली। लखनऊ का वह मेडिकल रिसर्च सेंटर, जो दूर-दूर तक मशहूर था, अब पीछे छूट रहा था। यहाँ भी इस वक़्त सन्नाटा था। लेकिन ये दोनों लड़के क्यों सन्नाटा खींचे बैठे हैं। न आपस में बात कर रहे हैं, न उससे। बात करने से मन का भेद जो खुलता है!

उसे युवक की आवाज़ सुनाई दी। वह धीरे-धीरे मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था, "हाँ, पी.जी.आई. निकल चुका है। मैंने बोर्ड देखा था।... क्या कहा, यहाँ से सीधे बढ़ना है।... हाँ, ठीक है... नहीं वह अकेला नहीं है। वो साथ है। ठीक है, आपके बताए ठीए पर पहुँचता हूँ," बात ख़त्म हो गई। उसने मोबाइल डैश बोर्ड पर डाल दिया।

भय की एक दूसरी लहर मानसी के अंतर में उतर गई। ओह! तो यह अपने किसी साथी से बात कर रहा था। रास्ता मुझसे भी तो पूछ सकता था। लेकिन उन्हें भी तो सूचित करना था जो इंतज़ार कर रहे थे। उन्हें बता रहा था कि अकेला नहीं है यानी शिकार साथ में है। भाग्य ने कहाँ फँसा दिया! लगता है कल वह भी एक ख़बर बन जाएगी। लूट और रेप के बाद हत्या की ख़बर। एक बिफरी हुई पशुता के आक्रोश का परिणाम! इस बार उसके आँसू पलकों पर ही रुक गए, शायद उसकी तरह वे भी डर गए थे।

रूमाल निकालने के लिए उसने बैग में हाथ डाला। रूमाल के साथ एक पेन भी खिंचा चला आया। पेन वहीं छोड़ा पर उसकी स्मृतियाँ बाहर आकर लिपटने लगीं। भाई ने दिल्ली से लौटने के बाद यह सुनहरा पेन दिया था। कई साल पहले की बात है। बोले थे, "मनु, इसी पेन से परीक्षा देना। देखना टॉप करेगी।" तब उसने हँसते हुए, पूछा था, "अच्छा, क्या इसमें जादू कर दिया है?"

बोले थे, "हाँ, जादू, भाई के निश्छल प्रेम का जादू।"

यह पेन उसके लिए लकी साबित हुआ। उस दिन की वह हँसी आज भी याद है, सिर्फ़ यह याद नहीं कि फिर कब हँसी थी। उसने भावुकता में भर कर पेन को कसकर पकड़ लिया। उसे लगा यह पेन उसका सहारा है। उसके ब्याह का सारा भार भाई पर ही तो है। क्या वह उसे दुल्हिन के रूप में देख भी पाएँगे या नही!... मेरी क्यों मति मारी गई थी जो इन दरिंदों के साथ हो ली।

कार तेज़ी से भाग रही थी। सड़क के एक ओर कांसीराम पार्क का विस्तार था तो दूसरी ओर दोहरी ऊँची दीवार थी। दोनों दीवारों के बीच बहते नाले को पाटकर चौड़ा फ़ुटपाथ बना था। मखमली घास व पेड़-पौधे लगाकर उसे दर्शनीय बना दिया गया था। उसी रास्ते पर आगे अम्बेडकर, बुद्ध, कांसीराम व पूर्व मुख्यमंत्री की भव्य मूर्तियाँ स्थापित थीं। एक विशाल रमाबाई अम्बेडकर द्वार भी बना हुआ था। इस द्वार को पार करते ही आलमबाग का भीड़ वाला इलाक़ा शुरू हो जाएगा। भीड़ में होने की अनुभूति ने इस वक़्त उसे राहत की साँस दी।

गाड़ी जैसे ही बड़ा चौराहा पार कर बाईं ओर मुड़ी, भय के सैकड़ों सर्प फन फैलाकर उसके सामने खड़े हो गए। ऐसा सन्नाटा और एक के बाद एक लगातार ओवरब्रिज। कुछ भी हो सकता है और उसके चिह्न तक मिटाए जा सकते हैं। मानव मन बड़ा शंकालु होता है। वह प्रायः बुरे की ओर भागता है, और वैसे ही विचार बनते हैं। तनावग्रस्त मानसी की मनःस्थिति भी कुछ वैसी ही थी। अंधकार में नष्ट हुई प्रभा की तरह, बुझी हुई अग्निशिखा की तरह, सूखी हुई सरिता की तरह मानसी का आत्म विश्वास अनावश्यक आशंकाओं के कारण शून्य की कोटि में पहुँच गया था। उसकी हताशा ने संघर्ष क्षमता को चाट लिया था। पंजे में फँसे शिकार की तरह उसने शिकारी युवक को निरीहता से देखा। वह मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था। हर बार फोन उसके पास आए थे उसने अपनी ओर से नहीं मिलाया था। फोन के दूसरी ओर कौन बेचैन प्राणी था!

गाड़ी की गति कम होते देख वह लगभग चीखकर बोली, "कार धीमी क्यों कर दी है?" उसे लगता कोई आएगा और धीमी गाड़ी का दरवाज़ा खोल कर पीछे बैठ जाएगा।

"अरे! वो सामने जाम लगा है। मुझे बाईं ओर मुड़ना है," युवक का स्वर थोड़ा असहज हो आया।

थोड़ी ही देर में रास्ता साफ़ हो गया और गाडी ने रफ़्तार पकड़ ली।

मानसी एक बार फिर संदेहों के भँवर में डूबने-उतराने लगी। सोचा, "क्या यह युवक झूठ बोल रहा कि लखनऊ पहली बार आया है! जब से वह कार में बैठी है तब से उसने एक बार भी उससे या कार रोकर किसी से रास्ता नहीं पूछा है। उसे अच्छी तरह मालूम होगा कि इस सड़क से बाईं ओर कर्बला पड़ता है। इसके फोन वाले साथी उसी सुनसान जगह पर प्रतीक्षा कर रहे होंगे। उसने फोन पर कहा था कि "साथ में है।" तो यह उन्हें यह बता रहा था कि लड़की साथ में है।

जैसे ही कार बाईं ओर मुड़ने को हुई मानसी ने तेज़ी से कहा, "बस, बस! गाड़ी यहीं रोक दीजिए। मुझे दाईं ओर जाना है। वह सामने मंदिर दिख रहा है उससे थोड़ा आगे मेरा घर है।" मानसी सोच रही थी कि यहाँ मंदिर में काफ़ी भीड़ है। अगर इसने गाड़ी रोकने में आनाकानी की, या बाईं ओर भगाने की कोशिश की तो वह शोर मचा देगी।

युवक ने शालीनता से कहा, "चलिए, मैं आपको घर छोड़ देता हूँ।"

"नहीं, नहीं। मैं आपको घर नहीं ले जा सकती। मेरे घर के लोग परम्परावादी हैं। इतनी रात को ग़ैर मर्द के साथ देखकर शायद उन्हें अच्छा न लगे।”

युवक ने कार रोक दी। "आप परिवार की भावनाओं का इतना ख़्याल रखती हैं, नई पीढ़ी के लिए यह गुण आज दुर्लभ है।"

युवक शीघ्रता से गाड़ी से उतरा और पीछे का दरवाज़ा खोल दिया। मानसी ने बाहर आकर एक गहरी साँस ली जैसे जीवन में प्रथम बार खुली हवा मिल रही हो।

बिना औपचारिक आभार प्रकट किए हुए ही वह आगे बढ़ गई। युवक ने ज़ोर से दरवाज़ा बंद किया और जाकर कार में बैठ गया। कार बाईं दिशा में दौड़ पड़ी। मानसी के घर का वही रास्ता था।

गाड़ी के आँख से ओझल होने पर मानसी ने रिक्षा किया और बाईं ओर चल दी। बीस मिनट बाद घर पहुँची तो देखा उसके घर का ड्राॅइंग रूम खुला है। पर्याप्त रोशनी है। भाई बेचैनी से बाहर की ओर देख रहा था। मानसी को आता देखकर ख़ुश हो उठा। लपककर उसके पास आया और उसे साथ लेकर अंदर पहुँचा। इस बार वह आश्चर्य से जड़ीभूत हो गई जब उसने देखा कि वही कार वाला युवक सोफ़े पर बैठा है और एक किशोर बालक उसके पास बैठा आँखें झपका रहा है।

मानसी ने बाहर झाँका तो पाया कि कार सड़क के दूसरी ओर पार्क की गई थी।

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