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मन की पीर

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पोस्टर की पंक्तियाँ पढ़ते हुए संतो ने प्रण किया कि अगर उसे जीत हासिल हुई तो वह अवश्य ही इन सब बातों को पूरा करेगी। इसी के साथ उसे उस दिन की घटना याद हो आई जब दद्दन भइया उसके द्वार पर आये थे और उसे ख़ूब खरी-खोटी सुनाकर वापस लौटे थे। उससे उसे बड़ा दुःख हुआ और शायद नफ़रत भी। वह दद्दन की बड़ी इज़्ज़त करती थी। उन्होंने उस पर बड़े एहसान किये थे जिन्हें वह भूली न थी। परंतु संतो व्यक्ति से समाज को बड़ा मानती थी और जब उसके समाज के कुछ लोगों ने उससे चुनाव में खड़े होने का आग्रह किया तो इनकार न कर सकी। उन्नति और विकास के अवसर जब स्वयं आकर द्वार पर दस्तक दें तो फिर आगे बढ़कर स्वागत करना व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है। यही संतो ने किया था। विचार-विमर्श के बीच दोपहर साँझ मंझाती हुई रात में तब्दील हो गई, तब वहाँ उपस्थित लोगों ने सुबह जल्दी आने की बात स्वीकार कर घर जाने की तैयारी की। 

- अन्यथा

गाड़ी जैसे ही बड़ा चौराहा पार कर बाईं ओर मुड़ी, भय के सैकड़ों सर्प फन फैलाकर उसके सामने खडे़ हो गए। ऐसा सन्नाटा और एक के बाद एक लगातार ओवरब्रिज। कुछ भी हो सकता है और उसके चिह्न तक मिटाए जा सकते हैं। स्त्री-मन बड़ा शंकालु होता है। वह प्रायः बुरे की ओर भागता है, और वैसे ही विचार बनते हैं। तनावग्रस्त मानसी की मनोस्थिति भी कुछ वैसी ही रुग्ण थी। अंधकार में नष्ट हुई प्रभा की तरह, बुझी हुई अग्निशिखा की तरह, सूखी हुई सरिता की तरह मानसी का आत्म-विश्वास अनावश्यक आशंकाओ के कारण शून्य की कोटि में पहुँच गया था। उसकी हताशा ने संघर्ष क्षमता को चाट लिया था। पंजे में फंसे शिकार की तरह उसने शिकारी युवक को निरीहता से देखा। वह मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था। हर बार फोन उसके पास आए थे उसने अपनी ओर से नहीं मिलाया था। फोन के दूसरी ओर कौन बेचैन प्राणी था!

- डर

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