अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

भाग्य का लिखा टल नहीं सकता

बनारस के ज्योतिषाचार्य पण्डित कपिलदेव के बारे में प्रसिद्ध था वो जन्म कुण्डली और ग्रहों का अध्ययन करके किसी का भी भविष्य ठीक ठीक बता सकते थे। कभी कभी तो यदि ग्रहों का चक्कर अनुकूल न हो तो उपाय भी सुझा देते थे। अभी तक उनकी भविष्यवाणी या उचित उपाय सदा सच होते आए थे और दूर दूर के लोग उनको बहुत मानते थे तथा सम्मान देते थे।

कपिलदेव जी के परिवार में केवल पत्नी योगेश्वरी देवी और पुत्री कलावती थी। जैसे जैसे कलावती बड़ी होने लगी, योगेश्वरी देवी को उसके विवाह की चिंता होने लगी। वो बार बार पति को ये बात याद दिलाती थी कि वो जल्दी से जल्दी पुत्री के हाथ पीले कर दें। कपिलदेव जी को भी अपनी ज़िम्मेवारी का पूरा एहसास था मगर एक भविष्य की घटना जो उन्हें घुन्न की तरह खाए जा रही थी, उसे वो पत्नी से कहते हुए बहुत घबरा रहे थे। आखिर पत्नी के बहुत आग्रह करने पर वो बोले –

“योगेश्वरी, तुम क्या समझती हो कि मुझे इस बात का फ़िक्र नहीं है। मैंने कलावती की कुण्डली कई बार देखी है और हर बार इस निश्चय पर पहुँचा हूँ कि ये कन्या विवाह के तीन साल बाद विधवा हो जाएगी।”

कपिलदेव की ये बातें सुनकर योगेश्वरी बोली, “हे नाथ अगर इस के भाग्य में यही क्खा है तो इसका कोई उपाय भी तो होगा।”

“उपाय तो अवश्य है परंतु ग्रह इतने बलवान हैं कि कोई भी उपाय काम नहीं करेगा।” ऐसा कहकर कपिलदेव दुखी होकर रो पड़ा।

योगेश्वरी देवी बहुत सहनशील औरत थी। उसने दिल नहीं छोड़ा और पति से आग्रह किया कि जो भी उपाय है हम उसे करेंगे। आप बस वर तलाश में लग जाओ। माता पिता ने  एक योग्य वर ढूँढ कर मकर संक्रांति के दिन शादी का महूरत निकाला। सब ग्रहों का अध्य्यन करके कपिलदेव ने एक चाँदी का कटोरा लिया और उसके बीच में एक बहुत छोटा सा सुराख कर के पानी में तैरने के लिए छोड़ दिया और बोले, “ग्रहों के अनुसार जब ये कटोरा पानी से भर कर डूब जाएगा वही फेरों का महूरत होगा और बुरी घड़ी टल जाएगी।”

उधर कलावती अपने पूरे साज शृंगार से सुसज्जित थी। सोने चाँदी और मोतियों के आभूषण उस पर बहुत अच्छे लग रहे थे। उस ने भी चाँदी के लोटे की बात सुनी और उसे देखने को उत्सुकित हो गई। पिता की आज्ञा लेकर अपनी सहेलियों सहित वो नीचे आई और जहाँ लोटा तैर रहा था वहाँ सिर झुका कर सुराख में से पानी को आता देखने लगी और थोड़ी देर बाद वापिस चली गई। उसे क्या मालूम था कि जब वो झाँक कर कटोरे में देख रही थी तो उस के सिर के आभूषण का एक मोती कटोरे में गिर गया है और कटोरे के उस छोटे से सुराख को बन्द कर दिया है। इधर सारे लोग लोटा डूबने की इंतज़ार में थे कि कब लोटा डूबे और कब शादी की रसम शुरू हो। कपिलदेव के हिसाब से लोटे को डूबने में कोई दो घण्टे लगने चाहिये थे मगर जब इस बात को तीन घण्टे हो गए और लोटा फिर भी नहीं डूबा तो सब ने वहाँ जाकर लोटे का निरिक्षण किया और जो पाया उसे देख कर चकित हो गए। हालाँकि शादी का महूरत निकल चुका था मगर लड़के वालों के आग्रह करने पर शादी कर दी गई। ठीक तीन साल बाद वही हुआ जिसका डर था।

ज़ोर लगाले मनुष्य तू कितना, भाग्य पलट न पाओगे
हाथ की रेखाओं में जो लिखा है, उसी को बस तुम पाओगे

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

17 हाथी
|

सेठ घनश्याम दास बहुत बड़ी हवेली में रहता…

99 का चक्कर
|

सेठ करोड़ी मल पैसे से तो करोड़पति था मगर खरच…

अपना हाथ जगन्नाथ
|

बुलाकी एक बहुत मेहनती किसान था। कड़कती धूप…

अपने अपने करम
|

रोज़ की तरह आज भी स्वामी राम सरूप जी गंगा…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ऐतिहासिक

सिनेमा चर्चा

स्मृति लेख

सांस्कृतिक कथा

ललित निबन्ध

कविता

किशोर साहित्य कहानी

लोक कथा

आप-बीती

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं