डायरी का एक पन्ना – 002: सर्कस का क्लाउन
कथा साहित्य | सांस्कृतिक कथा विजय विक्रान्त1 May 2021 (अंक: 180, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
एक मशहूर कहावत है कि “दूसरे की थाली में परोसा हुआ बैंगन भी लड्डू लगता है”। अपना जीवन तो हम सब जीते ही हैं लेकिन दूसरे की ज़िन्दगी में झाँक कर और उसे जी कर ही असलियत का पता चलता है। इस कड़ी में अलग अलग पेशों के लोगों के जीवन पर आधारित जीने का प्रयास किया है।
जैमिनी ब्रदर्स सर्कस में क्लाउन की नौकरी करते हुये मुझे बीस साल से ऊपर हो गये थे। अपनी उछल-कूद और बेतुकी हरकतों से मेरा काम लोगों को हँसाना था। बीस साल के इस लम्बे अरसे में मैंने बहुत कुछ सीखा था। मेरी उछल-कूद को देख कर सर्कस में आये लोगों के और विशेषकर बच्चों के चेहरे पर हँसी और मुस्कान देखकर मुझे बहुत सुकून (संतोष) मिलता था। अपने आत्मविश्वास के बलबूते पर सब को हँसाना तो अब मेरे बायें हाथ का खेल हो गया था। इस काम में मैं अब अपने आपको एक एक्सपर्ट समझने लगा था।
सन २०१६ में हमारा कैंप टोरोंटो के सीएनई ग्राउण्ड में लगा हुआ था और इसी वर्ष जैमिनी ब्रदर्स सर्कस ने अपनी पच्चीसवीं जयंती को बहुत ज़ोर-शोर से मनाने का फ़ैसला किया। क्योंकि इन दिनों स्कूल की छुट्टियाँ थीं इस लिये सर्कस ने अपने ग्यारह से दो और तीन से छ: वाले दो शो केवल बच्चों के लिये रखे थे। इन दोनों कार्यक्रमों में बच्चों को और उनके साथ बड़ों को भी टिकट की क़ीमत में पचास प्रतिशत की छूट थी। रेडियो और टेलीवीज़न के माध्यम से लोगों को जानकारी दी जा रही थी। फिर क्या था। पूरा परिवार का परिवार शो देखने के लिये आ रहा था। शनिवार और रविवार को तो ख़ास तौर पर हमारा तम्बू पूरी तरह से भरा हुआ होता था। इसी बीच जिस दिन मेरी ड्यूटी होती थी, मैं भी अपना हँसाने का काम पूरी ईमानदारी से करता था। मेरी हरकतों को देख-देख कर बड़ों के साथ-साथ ख़ुशी से बच्चे भी बहुत चिल्लाते और ख़ूब आनन्द लेते। जितना वो खिलखिलाते उतना ही मुझे जोश आता और मैं नये से नये पैंतरे दिखाता था।
ऐसे ही एक बार रविवार के दो बजे वाले शो में मेरी ड्यूटी थी और मैं अपना काम कर रहा था। मुझे देख कर बड़े और बच्चे ख़ूब हँस-हँस कर आनन्द ले रहे थे। अचानक मेरा ध्यान एक बच्चे पर पड़ा जो मेरी तमाम कोशिशों के बावजूद भी गुमसुम बैठा था और हँस नहीं रहा था। उस बच्चे को चुपचाप बैठा देख कर मुझे बहुत अजीब लगा। अपने अनुभव के आधार पर मैं ने जो-जो भी सीखा था वो सब किया लेकिन वो बालक टस से मस नहीं हुआ और ऐसे ही चुपचाप बैठा रहा। मेरे लिये तो यह एक बहुत बड़ी चुनौती बन गई। मैं भी इतनी जल्दी हार मानने वाला नहीं था। हालाँकि इस बीच मैं जो भी कर रहा था उसे देख कर बाक़ी सब बड़े और बालक तो खिलखिला कर हँस रहे थे लेकिन मेरा ध्यान केवल उस बच्चे की ओर था। मेरे सब कुछ करने के बाद भी जब मैं उस बालक के मुख पर हँसी न ला सका तो मुझे अपने और अपनी कला पर बहुत लज्जा आने लगी और मेरी आँखों से आँसू गिरने लगे। मुझे ऐसे रोता देख कर वो बालक बहुत ज़ोर से हँसा और अपनी माँ की तरफ़ देख कर बोला—
"मम्मी मम्मी देखो वो क्लाउन रो रहा है।"
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दीप्ति अचला कुमार 2021/05/03 03:15 AM
बहुत सुन्दर लघुकथा , विजय ! कहानी का अंत बहुत प्रभावशाली रहा. दूसरों के जीवन में पैठ कर, उनके अनुसार सोचना दुष्कर कार्य है। तुमने इसमें सफलता पाई। बधाई !