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अंतिम याचना

 

शबरी की निर्निमेष प्रतीक्षा का छोर दिखाई न दे रहा था। क्षीण जर्जर काया धुँधली पड़ती दृष्टि साथ छोड़ देने को तत्पर साँसों की डोर—लेकिन गुरु वाक्य पर अडिग विश्वास ने अभी तक जीवित रखा था। अहिर्निश उसने कानों में गुरु मंत्र की लहरियाँ गूँजती थीं, ‘शबरी प्रतीक्षा करना, प्रभु अवश्य आएँगे’। उगते सूरज के साथ घने जंगल जाती, फल-फूल चुनती, थाल सजाती और देहरी पर आकर बैठ जाती प्रतीक्षा में। मन आशंकित। प्रभु आएँगे यह तो निश्चित था पर क्या क्षत्रिय कुल नंदन राम भीलनी का छुआ ग्रहण करेंगे? संभवतया न . . . तिरस्कार कर दें . . . राजपुरुष जो ठहरे . . . बुद्धि विकल हो जाती और हृदय विचलित। दिन महीने साल युग बीत गए पर प्रभु न आए। 

दक्षिण के घने जंगल को पार करते प्रभु शबरी का आश्रम खोज रहे थे। अचानक जंगल ने अपना रूप बदलना शुरू कर दिया। चारों ओर विचित्र सी अनुभूति, अभूतपूर्व स्पंदन। पंछियों के कोलाहल और कलरव से प्रकंपित वायुमंडल। जलस्रोतों के रागात्मक संगीत से मयूर भाव-विभोर होकर नाच रहे थे। कुसुमित लताएँ फूलों का भार न सह सकने के कारण पृथ्वी पर बिछ गईं और वसुंधरा पुष्पाच्छादित दृष्टिगोचर हो रही थी। वात्सल्य की ऊष्मा से दिशाएँ महक रही थी। श्री राम को संज्ञान हो रहा था कि शबरी का आश्रम निकट आ गया है। 

शबरी देहरी पर बैठी थी। हठात्‌ प्रभु को सामने पाकर स्तंभित रह गई . . . उठ भी न पाई। 

अनुजद्वय ने प्रणाम किया और सहारा देकर उठाया। 

शबरी ने कुशासन पर रघुनन्दन को विराजमान किया। 

कोदंडधारी के मुखमंडल की रक्तिम कान्ति प्रभा की दीप्ति से प्रकोष्ठ जाज्वल्यमान हो रहा था। शबरी सम्मोहित हुई जा रही थी। 

तभी रघुनाथ की वाणी ने उसकी तंद्रा भँग की। 

“माँ थक गया हूँ, क्षुधा व्याकुल कर रही है, कुछ भोजन मिलेगा?” 

उसने थाली से एक बेर उठा कर प्रभु की ओर बढ़ाया। रघुनाथ मुँह में रखने ही वाले थे कि यकायक उनके हाथ से बेर छीन लिया और बोली, “ना रघुनंदन! यह कच्चा है,” और उसे उछाल कर कोने में फेंक दिया। 

थाली में से दूसरा बेर उठाया और फिर प्रभु की ओर बढ़ाया। रघुनंदन जैसे ही खाने लगे तो उन्हें फिर टोक कर उनके हाथ से बेर छीन लिया और बोली, “न न रघुनाथ यह भी कच्चा है।” 

निकट ही खड़े लक्ष्मण का हृदय चीत्कार कर उठा। मन ही मन बड़बड़ा उठे, “प्रभु आज कैसी दीन हीन स्थिति में आ गए हैं आप? हर कोई आपसे कुछ न कुछ छीन रहा है—किसी ने राज्य छीन लिया, किसी ने अर्द्धांगिनी छीन ली। किसी ने हाथ का भोजन छीन लिया,” उनके नैनों में अश्रु चमक उठे। 

शबरी ने तीसरा बेर निकाला पर इस बार भगवान को न दिया। स्वयं चखा। मीठा था। 

बोली, “प्रभु ये खाइए मीठा है।” उसने प्रभु के हाथ में अपना चखा झूठा बेर रख दिया। 

शेषनाग फुफकार उठे पर प्रभु के संकेत पर शांत हो गए। 

“कैसा है राम? मीठा है ना? शबरी ने दूसरा बेर चखा। 

मंद मुस्कान से प्रभु बोले, “अयोध्या छोड़ने के बाद पहली बार इतना मीठा बेर खाया है माँ ।” शबरी गद्‌गद्‌ हो गई। 

अब तो वह हर बेर चख-चख कर भगवान को खिलाती रही और भगवान प्रेमविह्वल खाते रहे। इसी बीच उसने अपने गुरु का संदेश उन तक पहुँचा कर उनकी आगामी यात्रा की मार्गदर्शिका बनने का सौभाग्य भी प्राप्त कर लिया। 

उसका दायित्व संपन्न हुआ। प्रभु तृप्त हुए। 

अब श्रीराम से शबरी ने स्वधाम जाने की आज्ञा माँगी। 

प्रभु हाथ जोड़कर खड़े हो गए शबरी के सम्मुख। विनीत बोले, “देवी, मैं आपका ऋणी हूँ। कहिए प्रत्युपकार में क्या अपेक्षित है?” 

“प्रभु एक याचना है ,” शबरी भी नतमस्तक हो गई। 

“माँ, कहिए, पर उससे पहले मैं आपको अपने स्वधाम में स्थायी निवास का वर देना चाहता हूँ। स्वीकार है।” 

“प्रभु वह तो मेरे गुरुवर ने मेरे लिए बहुत पहले ही आरक्षित कर लिया है। मैं तो किसी और वर की आकांक्षी थी।” 

“हाँ, माँ कहिए, पर उससे पहले मैं इस प्रदेश को शबरी वन का नाम देना चाहता हूँ, स्वीकार है?” 

“प्रभु, जब आप मेरे लिए यहाँ आ गए हैं तो यह इसी नाम से ही तो जाना जाएगा। प्रभु मेरी याचना इतनी गंभीर नहीं,” शबरी मुस्कुरा उठी। 

प्रभु अचरज में पड़ गए। बोले, “कहो देवी और क्या इच्छा है?” 

शबरी ने मृदुल स्वर में कहा, “प्रभु, बस आपकी बनाई इस धरती पर लोगों के हृदय हम जैसी उपेक्षित जातियों का स्थान सुरक्षित कीजिए, मान सम्मान के साथ।” 

देवरथ प्रतीक्षा कर रहा था। शबरी उस पर आरूढ़ हुई और रथ वैकुण्ठ धाम की ओर गमन कर गया। 

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