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जीवनानुभव के व्यंग्य बाण

समीक्षित कृति: मेघदूत का टी.ए. बिल (व्यंग्य संग्रह) 
लेखक: बी एल आच्छा 
प्रकाशक: संस्कृति प्रकाशन, चेन्नई, तमिलनाडु 
प्रकाशन वर्ष: 2022 
मूल्य: ₹180/-

व्यंग्य विधा में सिद्धहस्त लेखक बी.एल. आच्छा का एक और सद्यः प्रकाशित संग्रह है ‘मेघदूत का टी. ए. बिल’ जिसकी एक उपलब्धि यह भी है कि यह संग्रह तमिलनाडु की प्रकाशन संस्था ‘संस्कृति’ से प्रकाशित हुआ है। ध्यातव्य है और दक्षिण में हिंदी प्रचार-प्रसार में यह सराहनीय योगदान है। अस्तु! संग्रह की बात करें तो इस पुस्तक में इकतालीस व्यंग्यालेख है जिसमें लेखक ने समसामयिक विसंगतियों के संक्रामक तेवरों को तीखी मीठी चाशनी में डुबाकर बड़े ही सुघड़ हाथों से हास-परिहास का चोला पहना दिया है ताकि तीर घाव तो करें पर किंचित कोमलता के साथ। लेखक ने भूमिका में ही स्वीकार किया है कि ‘व्यंग्य किसी फ्रेमवर्क का उत्पाद नहीं होता और अभिव्यक्ति में रंजकता वैचारिक आक्रोश के तापमान की तीव्रता को करुणा के द्रवणांक तक ले जा सकती है’। 

देखा जाए तो जीवनानुभवों से उपजे ये व्यंग्य ज़मीनी यथार्थ से जुड़े ही नहीं है बल्कि समाज के व्यापक संदर्भ में कई गंभीर समस्याओं को भी अपने में समेटते लिखे गये हैं जो लेखक की संवेदनशील दृष्टि और परिवेशगत सजगता का द्योतक है। कहा जा सकता है कि समकालीन जीवन और समाज के सभी परिदृश्यों को आत्मसात करते संग्रह के व्यंग्य सामाजिक सरोकार और युग संपृक्तता को सँजो कर चलते हैं। मिथकों के नियोजन से आधुनिकता के द्वंद्व को कलात्मकता के साथ छल्लेदार भाषा में व्यक्त करना लेखक का अभीष्ट रहा है। अलमस्त बेढब भाषा वैचारिक तार्किकता और कल्पना विलास की गलबहियाँ से मनोरंजन तो करती ही है लेकिन साथ ही साथ इन आलेखों में दृश्यमान होता परिवेशगत यथार्थ पाठक की अंतश्चेतना को उद्वेलित कर उसकी चिंतनधारा पर गहरा प्रभाव भी डालता है; चाहे फिर वह औद्योगिक क्रांति से उपजी महानगरीय जीवन की विडंबना हो या प्रौद्योगिकी का वरदान मोबाइल फोन। विकास के उड़न खटोले पर बैठकर आदमी चाँद पर तो पहुँच गया, भौतिक सुख-सुविधाओं का अंबार पा गया लेकिन इसका मूल्य भी उसने चुकाया . . . कुछ पाया तो बहुत खोया भी। स्वास्थ्य खोया, मन का चैन खोया, वसुधैव कुटुम्बकम को साकार करता हुआ अपने से ही दूर हो गया। अपने ही बिछाये मोह जाल में बिछ गया और बाज़ार का उत्पाद बन गया। संग्रह के कई आलेख इसी विसंगति और विडंबना के अनुभूत कड़वे सच को परोसते हैं लेकिन हास्य की मीठी चाशनी के साथ और इसके बावजूद आक्रोश-प्रतिरोध के तेवर की गूँज यदा-कदा पाठक को ध्वनित हो ही जाती है। 

संग्रह का आरंभ ही ‘शीर्षक व्यंग्य’ से होता है जिसमें ‘मेघदूत’ अपने वाहन ‘मेघ’ को तज कर ‘एयर मेघ’ से यात्रा सम्पन्न कर अनुमोदनार्थ अपना टी.ए. बिल कोषालय भेजते हैं तो वहाँ का ऑडिटर मौक़े की नज़ाकत का फ़ायदा उठाकर; महाकवि से ‘संगत’ की अपनी दिली इच्छा पूर्ति का मार्ग ढूँढ़ लेता है और उनके बिल पर आपत्ति लगाते हुए उन्हें कोषालय आने पर विवश कर देता है। ‘ऑडिट की सूखी ज़मीन पर ठहाकों’ का अवसर ढूँढ़ने वाले लेखक ने अधिकारी तंत्र में होने वाले विशेषाधिकारों के दुरुपयोग पर लिखे इस आरंभिक आलेख को देशज और तत्सम शब्दावली में पिरोकर अत्यंत रंजक और परिहासपूर्ण बना दिया है। कथ्य खुरदरा ठोस यथार्थ लेकिन काल्पनाशील परिधान में लिपटा हुआ। वाक्य विन्यास का चुस्त संयोजन। वैसे तो संग्रह के सभी व्यंग्य पाठक के मर्म को भेदते हैं और वक्र उक्तियों से किसी न किसी विसंगति को उधेड़ते चलते हैं, पर बतौर लेखक उन्होंने आज के युग में लेखकों की पीड़ा को भली-भाँति समझा है और उसे अपने अनोखे मिज़ाज में अभिव्यक्त किया है। 

संग्रह के कई लेख मुख्यतः ‘लेखकों’ पर ही केंन्द्रित हैं। माना जा सकता है कि आज लेखन का क्षितिज आत्म प्रशंसक व आत्म मुग्ध लेखकों से भरा पड़ा है। आज का युग ‘तत्काल’ का युग है। मिनटों में व्यक्ति लोकप्रियता हासिल करना चाहता है। आज कुछ लिखा, कल पुस्तक छपी, परसों विमोचन, फिर सोशल मीडिया में साक्षात्कार और अंत होता है स्टेज पर पुरस्कार पाकर। यही है लेखन की इति श्री। लेखक की महत्वाकांक्षाएँ असीम हैं जिनके लिए वह हर मूल्य चुकाने को तैयार है। कविकर्म प्रदर्शन का माध्यम बन कर रह गया है। आज की इसी सच्चाई को बयान करता है संग्रह का व्यंग्य है ‘रचना प्रकाशन के सोलह संस्कार’ जिसमें कृति की गर्भावस्था से लेकर, उसके प्रसव, तदुपरांत प्रकाशन, उसके बाद की अवस्था, अनुकूल समीक्षक की गलियों में भटकन, फिर ‘लोकार्पण के कर्मकाण्ड की यात्रा’ और फिर लोकप्रियता हेतु अख़बारी कतरनों में अपने ‘रचना संसार’ को समेट अंततः ‘पुरस्कार हथियावन’ तक पहुँच कर इस शोडचोपचार प्रक्रिया की सिद्धि का रोचक हास्यपूर्ण वर्णन पाठक को हँसी के सागर में गोते लगवा देता है . . . अत्यंत उलझी और लचकदार भाषा। शब्दों को तोड़-मरोड़ कर प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता में व्यंग्यकार दक्ष है . . . फेसबुकिया, वाटसापिया, पुरस्करिया, लोकतंत्रिया जैसे अनेक शब्दों से संग्रह भरा पड़ा है। 

तदुपरांत आद्यांत अपरिमित हास्य के हिंडोले में बैठाकर झुला देने वाला व्यंग्य है ‘मुझ पर पी एच डी हो गई’। आत्ममुग्धा लेखक की महत्वाकांक्षा होती है कि उसकी रचना किसी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम की शोभा बढ़ाए और उसके रचना संसार पर एक-आध शोध ही हो जाए। हर लेखक का सपना . . . जो जितना छपेगा, वो उतना लोकप्रिय होगा . . .। छपने की इसी महत्वाकांक्षा के ज्वार-भाटा को आच्छा जी ‘साहित्यकारकार के हृदय की मुक्तावस्था’ मानते हैं। ज़मीनी हक़ीक़त भी है। लेकिन भाषा और अभिव्यक्ति में व्यंग्य-हास्य के बाण ऐसे धड़ाधड़ चलते हैं कि पाठक अपने आप को लोट-पोट हुए बिना रोक नहींं सकता। वक्रोक्ति अगर व्यंग्य की आत्मा है तो सांकेतिकता उसका प्राणतत्त्व। कहना अतिश्योक्ति न होगा कि अगर पाठक से साधारणीकरण लेखनी की उपलब्धि मानी जाएगी तो व्यंग्यकार अवश्य सफल हुआ है। भाषा में कहीं बनावटीपन नहीं, कहीं विद्वता प्रदर्शन नहींं। 

अधुनातन परिदृश्य में व्यक्ति के ‘मोबाइल केंद्रित डिजिटल परावर्तन’ को लचकदार शब्दावली में दर्शाता व्यंग्य है ‘मोबाइल का समाज शास्त्र’। महानगरीय जीवन का अभिशाप-पानी की क़िल्लत . . . इसी समस्या को उठाया गया है ‘दादा टैंकर आ गया’ व्यंग्य में जहाँ ‘लोग आस लगाए बैठे हैं कि कब पानी का महाटैंकर आकाश में बादल की तरह दिख जाए’। जल ही जीवन है पर जिसका सर्वथा अभाव आज के युग की सबसे बड़ी चुनौती है। महानगरों की विडम्बना।     

निष्कर्ष में संग्रह के सभी लेख समसामयिक समस्याओं को लेकर चलते हैं। पर्यावरण, बाल पीढ़ी पर बस्तों का बोझ, रेल यात्रा की धक्का-मुक्की, कोरोना काल की भयावहता, विज्ञापनी बाज़ार इत्यादि अत्यंत गंभीर समस्याओं पर लेखक की धारदार क़लम चली है। भाषाई लचीलापन इनके शिल्प की निराली विशेषता है। शब्द संयोजन में अँग्रेज़ी सहज रूप से बोध गम्यता का उपकरण बन सहायता करती है और कहीं कहीं पर अँग्रेज़ी का हिंदीकरण पाठक को हास्याचंभित कर देता है। ‘ऐसी बानी बोलिए, जमकर झगड़ा होय’ व्यंग्य की भाषा देखिए, “अगर यह वोटर शीतल हुआ, तो हम माइनस टेम्परेचर में”। इतना ही नहींं व्यंग्य को धारदार बनाने के लिए फ़िल्मी गीत पूरे संग्रह में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे हुए हैं। गीत संक्षिप्तता में गहरी बात कह देता है। और लेखक ने इस अस्त्र का भी भरपूर प्रयोग किया है। प्रसंग बदलते ही शैली में वांछित परिवर्तन ने व्यंजना को और तीखा कर दिया है। मस्ती की ठसक ने कथ्य की आक्रामकता को कुछ हल्का किया है लेकिन पाठक की अंतश्चेतना में कई प्रश्न अवश्य उठ-उठ जाते हैं जो संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है। आज के तनावपूर्ण वातावरण में पाठक अगर कुछ पल हास्य और मनोरंजन चाहता है हो यह संग्रह उसकी सही पसंद हो सकता है। 

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टिप्पणियाँ

डॉ सुरभि दत्त 2023/01/05 07:10 PM

सिद्धहस्त व्यंग्यकार वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय बी.एल आच्छा जी के व्यंग्य संग्रह मेघदूत का टी ए बिल मुझे पढ़ने का अवसर मिला था । व्यक्ति की बदलती प्रकृति, समाज समस्या, राजनीति के पेंच जैसे विषयों पर पैनी कलम से लिखे हर व्यंग्य की समीक्षा इस से अधिक सुंदर इस से अधिक रसभरी इस से अधिक गहरी अन्य नहीं हो सकती बहुत बहुत बधाई पद्मावती जी ।

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