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गोदावरी तट और भद्राचलम राम मंदिर

भक्त शिरोमणि रामदास

रामदास द्वारा बनवाए गए आभूषण

रामदास द्वारा बनवाए गए आभूषण

हैदराबाद-गोलकोण्डा का क़िला

गोलकोंडा क़िले की दीवारों पर रामदास द्वारा खुदे चित्र

गोलकोंडा क़िले की दीवारों पर रामदास द्वारा खुदे चित्र

रामदास की रिहाई में चुकाईं स्वर्ण मुद्राएँ

रामदास की रिहाई में चुकाईं स्वर्ण मुद्राएँ

आंध्रप्रदेश/तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री द्वय—ऐन चंद्रबाबू नायुडु और के.सी.आर. भद्राचलम भगवान को विवाहोत्सव पर मोती व रेशमी वस्त्र प्रदान करते हुए!

प्रभु राम सीता का भव्य विवाहोत्सव—भद्राचलम/तेलंगाना

मंदिर का अग्र भाग-भद्रा का शीश

मूल प्रतिमा चतुर्भुजी

दक्षिण अयोध्या में ‘भद्राद्रि रामन्ना’ के प्रभु राम 

 

“रामाय रामचंद्राय रामभद्राय वेधसे, 
 रघुनाथाय, नाथाय सीतायां पतये नमः॥”

 ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’। लेकिन आज की यह कथा है भक्त की . . . भक्ति की . . . भक्ति के चमत्कार की। 

भद्राचलम—दक्षिण अयोध्या—तेलंगाना राज्य के कोत्तागुडेम ज़िले में बसे इस शहर का इतिहास हमारी पौराणिकता से जुड़ा है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार यह प्रदेश प्रभु राम की चरण रज पाकर धन्यता को प्राप्त कर चुका है लेकिन आज आपका ध्यान एक विलक्षण बिंदु पर आकर्षित किया जा रहा है और वह है—इस भद्राचलम की धरा पर हुए एक चमत्कार पर . . . ’राम भक्ति का चमत्कार’। जिस प्रकार ईश्वर से साक्षात्कार कराने वाले गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊँचा माना जाता है उसी प्रकार भगवान की कीर्ति को जगत प्रसिद्धि देने वाला ‘भक्त’ भी उतना ही पूजनीय हो जाता है। महाबली हनुमान इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। इसी कारण कहा जाता है कि भक्ति स्वयं में साध्य है। इस अनंत सृष्टि के नियंता नियामक भगवान को अगर कोई अपने वश में कर सकता है तो वह है—केवल और केवल ‘भक्ति’। यह एक सर्वकालिक सत्य है। और इसी सत्य के अधीन होकर ही भगवान शबरी के झूठे फल खाते है, सुदामा के पाँव पखारते हैं, राज भोग त्यज कर विदुर का रूखा-सूखा ग्रहण करते हैं और कलियुग में—कलियुग में तो नाम मात्र के स्मरण से मोक्ष दे देते हैं, अभय दान दे देते है। भक्ति में असीम शक्ति होती है। “राम से बड़ा राम का नाम।” यह भक्ति की शक्ति नहीं तो और क्या है जब भगवान श्री राम को अपने अनन्य भक्त रामदास की रक्षा हेतु ‘परित्राणाय साधुनाम’ के मंत्र को साकार करने के लिए, उसे कारागार से छुड़ाने के लिए मुसलमान नवाब के सामने साक्षात्‌ प्रकट होना पड़ा। यहाँ भद्राचलम में एक बार फिर भक्त ने भगवान को अपनी भक्ति की शक्ति से प्रकट करवा दिया। आश्चर्य! लेकिन यह सत्य है। यह कथा पौराणिक काल की नहीं। केवल कुछ शताब्दियों पूर्व की गाथा है। यह चमत्कार हुआ दक्षिण की पावन नगरी भद्राचलम में, सत्रहवीं शताब्दी में। 

रामदास, जिनको इस प्रदेश में ‘भद्राद्रि रामन्ना’ कहा जाता है, का असली नाम कंचर्ला गोपन्ना था। कहते हैं कि कबीर एक बार दक्षिण की यात्रा पर आए थे और इनकी राम भक्ति से अत्यंत प्रभावित होकर उन्होंने इनका नामकरण ‘रामदास’ कर दिया था। 1620 में जन्मे रामदास मूलतः नेलकोण्डापली गाँव के निवासी थे जो भद्राचलम के निकट का गाँव है। प्रभु राम की भक्ति इन्हें विरासत में अपने परिवार से मिली थी। अल्पायु में अनाथ हुए गोपन्ना राम भजनों को गा-गाकर भिक्षाटन से अपना पेट पालते थे। इनकी वाणी में जादू था। और माँ सरस्वती की इनपर अपार अनुकंपा थी। संगीत इनकी वाणी से निर्झर झरने की तरह बहता था। प्रभु राम की लीलाओं का रसमय गायन ही इनका जीवनाधार था। इनका जीवन राम-भरोसे चल रहा था। लौकिक जगत की चिंता छोड़ हर क्षण रामरस में वे डूबे रहते। 

इस कारण इनके मामा को इनकी चिंता बहुत सताती थी। वे तत्कालीन नवाब के दरबार में ऊँचे पद पर थे। उन्होंने रामदास के जीवन को सुधारने का निर्णय लिया और गोलकोण्डा के सुलतान अब्दुल हसन तानीशाह से अपने भाँजे रामदास की सहायता करने की गुहार लगाई जिसके परिणाम स्वरूप 1672 में रामदास अपने मामा अक्कन्ना और मादन्ना की अभिशंसा पर ‘पालवंचा परगणा’ के तहसीलदार नियुक्त कर दिए थे जिसके अधीन भद्राचलम शहर भी आता था। रामदास इस प्रदेश की महिमा से भली-भाँति परिचित थे। 

एक किंवदंती के अनुसार जब वे भद्राचलम आए तो वहाँ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में भगवान राम के मंदिर को देखकर इनका हृदय विदीर्ण हो गया। राममंदिर की ऐसी दुःस्थिति वे सह न पाए। जर्जर अवस्था में पड़े राममंदिर के पुनरुद्धार का बीड़ा उठाने का इन्होंने तत्क्षण संकल्प ले लिया। मंदिर के पुनरुत्थान के लिए अपार धनराशि की आवश्यकता थी। राज ख़जाने के कोषाध्यक्ष होने के कारण ‘कर’ वसूली की धनराशि इनके संरक्षण में ही रखी जाती थी। मंदिर निर्माण की इनकी अभीप्सा दिन-ब-दिन बलवती हो रही थी। अंततः इन्होंने निर्णय ले ही लिया। कुछ धनराशि जनता जनार्दन से दान रूप में प्राप्त की और बाक़ी करवसूली की राशि से राममंदिर का जीर्णोद्धार कर डाला। एक किवदंती है कि मंदिर में रामलला की मूर्तियों की प्रतिष्ठा की पूर्व संध्या को इन्हें प्रातिभज्ञान से स्फुरण हुआ कि भगवान का सुदर्शन चक्र गोदावरी के जल में निमग्न है। उसे बाहर निकालना है। और जब अगले दिन सुदर्शन चक्र को नदी से निकाला गया तो सब आश्चर्यचकित रह गए। योजनानुसार मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ, राम दरबार प्रतिष्ठित हो गया। रामदास अति प्रसन्न थे। उनके इष्ट भव्य मंदिर में विराजमान तो हो गए थे पर अब भी एक कमी थी जो खटक रही थी। अयोध्या के राजा राम, और महारानी जनकनंदिनी बिना आभूषणों के भला कैसे सुशोभित हो सकती थी? न . . . न . . . रामदास को यह उचित न लगा। प्रश्न आया आभूषणों का। धन राशि समाप्त हो चुकी थी। कोई विकल्प न था। तो हारकर रामदास ने कर वसूली की राशि से आभूषण बनवा डाले और सोचा दान की राशि से ख़जाने का धन वापस चुका दिया जाएगा। इस पूरे उपक्रम में राज ख़जाने से छह लाख स्वर्ण मुद्राओं का व्यय किया गया। 
रामदास द्वारा बनवाए गए आभूषण सुलतान तक ख़बर पहुँची। उसकी आज्ञा के बिना कोषाध्यक्ष का इतना दुस्साहस? राज ख़जाने का ऐसा दुरुपयोग? वह आग-बबूला हो गया। तत्काल दरबार में रामदास को सुनवाई के लिए बुलवाया गया। जाँच पड़ताल हुई। रामदास पर धोखाधड़ी का अभियोग लगा। रामदास ने अपने बचाव में अनुनय, विनय किया, शीघ्र ही दान की राशि से धन चुका देने का आश्वासन भी दिया। पर सुलतान ने एक न सुनी। दंड संहिता के तहत रामदास को बारह वर्ष कठोर कारावास और इस अवधि के उपरांत तत्क्षण धन न चुकाने पर ‘फांसी’ की सज़ा सुना दी गई। रामदास को मोटी-मोटी ज़ंजीरों में जकड़ लिया गया। उस समय हैदराबाद तानीशाह की हुकूमत में था इसीलिए रामदास को हैदराबाद के गोलकोण्डा क़िले की काल कोठरी में क़ैद कर दिया गया।  

अब यातनाओं का दौर आरंभ हुआ। हर दिन रामदास को कोड़ों से मारा जाता। कई-कई दिन भूखा रखा जाता। शरीर अस्थिपंजर बन गया था। रक्त रंजित खाल पर हंटरों की काली-काली धारियाँ पड़ गई थी। प्राण सूख गए पर अधरों से रामनाम न मिटा। हर चोट पर राम नाम गूँजता। रामदास के कई भजनों की सर्जना इसी कारागार में हुई। इनका रोम-रोम राममय बन चुका था। राम नाम के अतिरिक्त जिह्वा पर कोई और शब्द न आता। राम को ही अपना जीवन समर्पित करने वाले इस भक्त को अकल्पनीय यातना नरक देखना पड़ा। लेकिन एकांतवास ने इनकी भक्ति में और शक्ति ला दी। निशि-दिवस अश्रुपूरित नयनों से अपने प्रभु को मनाते, माँ सीता से भी याचना करते कि प्रभु को इनकी दशा से अवगत कराए, राम के अनन्य दास महाबलि हनुमान से गुहार लगाते। इनकी वाणी से जेल की दीवारें गुंजायमान्‌ हो जाती। अपनी ही ज़ंजीरों से क़िले की दीवारों पर अपने प्रभु राम के चित्र बनाते, अपनी निर्दोषता साबित करते। 

इस चारदीवारी में उनकी पुकार सुनने वाला केवल वही ही तो था। अँधेरी कोठरी में अगर कहीं प्रकाश था तो वह था राम नाम की ऊष्मा का प्रकाश। बारह वर्ष–बारह वर्ष नारकीय यातनाएँ सहीं। कोड़ों की चोट पर जलती सलाखों को छुआया जाता, गर्म पानी डाला जाता। शरीर छलनी हो गया था। कोड़े की मार पड़ती, रक्त की एक बूँद नीचे गिरती और मुँह से निकल उठता‌:
“इक्षवाकु कुल तिलक, कब तक चुप्पी लगाए रहोगे, कब तारोगे मुझे?
अगर तुम न तारोगे तो कौन रक्षा करेगा मेरी यहाँ?”

(“इक्षवाकु कुलतिलका इक नैना पलुकवा . . . रामचंद्रा।
नन्नू रक्षिंप कुन्ननू रक्षकुलु एवरिंका रामचंद्रा॥”) (रामदास कीर्तनलु-तेलुगु)

आत्मा में राम को रमाए रामदास मुस्कुराते हुए पीड़ाओं को सहते। लेकिन जब चोट सहिष्णुता की सीमा लाँघ जाती तो आत्मा कराह उठती और अपने प्रभु को उलाहना दे डालती। 

इन सब घटनाओं का ब्योरेवार वर्णन इनके भजनों में मिल जाता है। इनके संकीर्तनों में इनके जीवन की हर एक घटना का सूक्ष्म वृत्तांत चित्रित है।

अपने प्रभु को मनाते, मनुहार करते और कभी-कभी पीड़ा न सह पाने के कारण उलाहना उग्र भी हो जाता। अपने किए अपराध का लेखा-जोखा प्रभु के सिर डालकर उन्हें दुर्वचन भी कह डालते। एक उदाहरण देखिए: 

“सीतम्मा कु चेयिस्ती चिंताकु पतकमु, रामचंद्रा
आ पतकमुनुकु पट्टे पदी वेल वरहालु रामचंद्रा। 
नी तंड्री दशरथ महाराजु पम्पेना रामचंद्रा
लेक नी मामा जनक महाराजु पम्पेना रामचंद्रा। 
एवरब्बा सोम्मु अनि कुलुकुचु तिरिगेवु रामचंद्रा॥” (रामदास कीर्तनलु-तेलुगु) 

अनुवाद: 

“माँ सीता के माणिक हार में लगीं दस हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ 
लक्ष्मण के रत्न हार में लगीं दस हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ
और रत्न जड़ित स्वर्ण मुकुटों में लगीं दस हज़ार मुद्राएँ 
यह राजभोग आपको आया कहाँ से? 
क्या आपके पिता दशरथ महाराज ने भेजा था?
आपके श्वसुर जनक महाराज ने भेजा था? 
किसके अब्बा की सम्पत्ति है जो पहनकर इतरा रहे हो रामचंद्र?” 

बारह वर्ष के कारागार की अवधि का समापन निकट आ गया। आज आख़िरी रात थी। कल का सूरज रामदास के लिए न था कल सूर्योदय से पहले रामदास को फाँसी पर लटकाए जाना था। सब तैयारियाँ हो रहीं थीं। वे अपनी अंतिम यात्रा के लिए तैयार थे। कल उनका उनके प्रभु से मिलन होना था। लेकिन उस रात्रि में एक चमत्कार हुआ। अब्दुल हसन तानीशा के स्वप्न में अनुजद्वय आए और मंदिर निर्माण और आभूषणों में व्यय की गई राज ख़जाने की राशि छह लाख स्वर्ण मुद्राएँ लौटा कर तानीशाह से रामदास को रिहा कर देने का अनुरोध किया। सुलतान की तंद्रा टूटी, सामने स्वर्ण मुद्राओं की पोटलियाँ पड़ीं थीं। गिनती करवाई गई। पूरी छह लाख स्वर्ण मुद्राएँ—न एक अधिक न एक कम। उन स्वर्ण मुद्राओं पर राम, लक्ष्मण और सीता की प्रतिमाएँ अंकित थी। 

रामदास का क़र्ज़ा चुक गया। सुलतान दंग रह गए। अगली सुबह रामदास को रिहा कर दिया गया। सुलतान अब्दुल हसन ने रामदास के बनाए मंदिर के आस-पास की कई एकड़ भूमि मंदिर के रख-रखाव के लिए दान में दे दी। अपने राजकोष से असली मोतियों को मंदिर में राम सीता के विवाहोत्सव में भेंट करने की परंपरा का सूत्रपात किया। यह घटना शताब्दियों पूर्व घटी है। उसके बाद इस परंपरा ने कई सुलतानों, मुग़ल शासकों, निज़ामों और विदेशी आततायियों के झंझावातों को सहा लेकिन परंपरा अक्षुण्ण रही। आज भी हर वर्ष रामनवमी पर भद्राचलम के मंदिर में भगवान सीता-राम के विवाह के लिए प्रदेश मुख्यमंत्री का राजकोष असली मोतियों को भेंट स्वरूप प्रदान करता है। 

भद्राचलम मंदिर की संरचना दक्षिण भारत की द्रविड़ स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है जहाँ शिखर, बाहरी और अभ्यांतरिक दीवारों पर रामायण के दृश्यों को प्रतिबिम्बित करती जटिल नक़्क़ाशीदार प्रस्तर मूर्तियों का उत्कीर्णन तत्कालीन मूर्तिकला व शिल्पकला की भव्यता का परिचय देती है। विशाल विस्तीर्ण प्रांगण। चारों दिशाओं में चार द्वार। मध्य द्वार वैकुंठ द्वार कहा जाता है जिस पर राजगोपुरम विन्यस्त है जहाँ पहुँचने के लिए पचास सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती हैं। 

गर्भ ग्रह में प्रभु राम की पद्मासन में विराजित विलक्षण चतुर्भुजी स्वयंभू प्रतिमा दर्शन देती है जिसका आधार हमारे पुराणों में वर्णित एक रोचक दंतकथा है। रामायण काल में जब प्रभु राम दण्डकारण्य में अपनी अर्द्धांगिनी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ निवास कर रहे थे, तब प्रभु की अनुकंपा से एक शिला को मानव रूप मिल गया था जो मेरू पर्वत का पुत्र ‘भद्रा’ था। राम नाम का तारक मंत्र उसे देवर्षि नारद से प्राप्त हुआ था। कई सहस्र वर्ष शिला रूप में उसने कठोर तपस्या कर भगवान के दर्शन प्राप्त किए थे और प्रभु राम ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वचन भी दिया था कि लंका विजय पश्चात वे आकर पुनः उसे कृतार्थ करेंगे। लेकिन प्रभु ऐसा कर न सके। रामावतार की परिणति हो गई। प्रभु दरस का अभिलाषी भद्रा एक बार फिर निशि-दिन घोर तपस्या में डूब गया। उसकी देह से प्रज्वलित तपोग्नि से सप्त लोक काँप गए। दसों दिशाएँ थरथराने लगी। पंच-भूत स्तंभित हो गए। सृष्टि हाहाकार करने लगी। देवों ने उसकी तपस्या भंग करने के सभी हथकंडे आज़मा लिए पर उसके निकट भी न जा पाए। अंततः हारकर वे सब भगवान विष्णु की शरण में गए। तब भगवान श्रीहरि क्षीर सागर में शयन कर रहे थे। उन्हें भद्रा की तपस्या से अवगत कराया गया। श्री हरि चेत हुए, अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। रामावतार और वचन भंग . . . घोर अपराध? तत्क्षण अविलम्ब चतुर्भुज विष्णु ने वायु वेग से भूलोक की ओर गमन किया। पीछे-पीछे शंख और सुदर्शन चक्र भी दौड़ने लगे। महा लक्ष्मी भी उनका अनुगमन करती दौड़ने लगी। शेषनाग भी उठकर कारण जाने बिना अपने प्रभु के पीछे दौड़ने लगे। गरुड़ भी वायु वेग से प्रभु के साथ चले जा रहे थे। 

भद्रा के सम्मुख आकर भगवान ने बाण तूणीर धारण कर लिए। उसे रामावतार में दर्शन देने का वचन जो था। ऊपरी दो हाथों में शंख चक्र विराजमान हो गए। महालक्ष्मी सीता के रूप में आकर प्रभु की जंघा पर बैठ गईं, और शेषनाग लक्ष्मण के रूप में धनुष बाण लेकर मूर्तिमान हो गए। प्रभु भूल गए कि रामावतार में वे नर रूप में थे नारायण नहीं। भद्रा की आँख खुली। सामने अपने आराध्य को देखकर वह विभोर हो गया। प्रभु के चरण कमलों में शीश रखकर उसने प्रभु से वरदान माँगा कि प्रभु इसी चतुर्भुज रामावतार में वे यहीं उसके शीश पर निवास करेंगे। प्रभु के पास कोई विकल्प न था। भक्त के सामने प्रभु निरीह जो हो जाते हैं। और अब वचन भी निभाना था। उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया। भद्रा ने पुनः अपना शिला रूप धारण कर लिया और प्रभु सीता लक्ष्मण सहित अमूर्त से मूर्त प्रतिमा में रूपांतरित हो उस शिला पर प्रतिष्ठित हो गए। तभी से इस पठार का नाम भद्राद्री पड़ गया और कालांतर में भद्राचलम के नाम से विख्यात हो गया। आज भी मूल मंदिर में विराजमान प्रभु राम की प्रतिमा चतुर्भुजी है और मंदिर को तीन भागों में विभाजित माना जाता है। प्रथम भाग भद्रा का शीर्ष है जहाँ एक विशाल शिला के दर्शन होते है जिस पर चंदन का तिलक लगाए जाने की परंपरा है ताकि भक्त जनों को भद्रा के शीश का दर्शन सुलभ कराया जा सके। 

मध्य भाग भद्रा के हृदय की प्रतीति देता है, जहाँ मूल गर्भ गृह है और अंतिम यानी तीसरा भाग भद्रा के चरण है जहाँ राजगोपुर बना हुआ है। मूल मंदिर के सामने स्वर्ण जड़ित ध्वज स्तंभ निर्मित किया गया है जिस के ऊर्ध्व भाग में शिखर पर श्रीहरि के वाहन गरुड़ विराजे हैं वहीं राजगोपुरम के ऊपरी तल के विमान वातायन में सहस्रकोणी अष्ट्मुखी सुदर्शन चक्र उत्कीर्ण किया गया है। यह वही सुदर्शन चक्र है जो रामदास को गोदावरी नदी की धारा में प्राप्त हुआ था। प्रांगण में और भी कई देवी-देवताओं के उपालय है जिनमें अभय वरद हस्त हनुमान, योगमुद्राधारी लक्ष्मी नरसिंह भगवान, भगवती लक्ष्मी की मूर्तियों का नित्य पूजा अर्चना आराधना का विधान है। 

प्रांगण के बाहरी मार्ग में एक विशाल मंडप बना हुआ है जहाँ हर वर्ष रामनवमी को प्रभु राम और जानकी के विवाहोत्सव का भव्य आयोजन किया जाता है। इसी मंडप के पास एक आश्रम है जो कभी कई संतों का निवास स्थल हुआ करता था। दक्षिण दिशा के विशाल प्रकोष्ठ में भोजनालय भी बना हुआ है जहाँ नित्य असंख्य भक्तों को भोजन कराने की व्यवस्था की जाती है। 

भोजनालय के निकट ही एक संग्रहालय में भगवान के गहने जो भक्त रामदास ने बनवाए थे, उनकी रिहाई के अभिलेख, व्यय की रसीदें और प्रभु राम द्वारा लौटाईं गईं स्वर्णमुद्राएँ यथासंभव संरक्षित की गई है। पर्यटक इन वस्तुओं का दर्शन कर सकते हैं। कोई कुछ भी कहे, हाथ कंगन को आरसी क्या? श्रद्धा का आधार विश्वास होता है। भक्ति अनुसंधान का क्षेत्र नहीं है। यहाँ विश्वास कर लेने के बाद ही ज्ञान के चक्षु खुलते हैं। तथ्य अनायास स्पष्ट होने लगता है। यह तो अपनी-अपनी श्रद्धा पर निर्भर करता है। 

भद्राचलम से 35 किमी की दूरी पर है ‘पर्णशाला’ गाँव। वाल्मीकि रामायण के अनुसार यह वही जगह है जहाँ दण्डकारण्य के दौरान प्रभु राम ने कुटीर बनाकर निवास किया था। यह वही स्थान है जहाँ रावण ने ब्राह्मण वेश धारण कर छल से भगवती सीता का अपहरण कर लिया था और अपने विनाश के बीज बो लिए थे। पावन गोदावरी के तट पर बसा यह वह पवित्र स्थल है जहाँ का कण-कण प्रभु महिमा से गुंजायमान्‌ होता रहता है। वेदों के अनुसार गोदावरी नदी भारत की सप्त पुण्य नदियों में से एक मानी गई है। वाल्मीकी रामायण के अरण्य काण्ड में प्रसंग आता है कि दण्डकारण्य में दस वर्ष बिताने के बाद प्रभु श्रीराम ने मुनि अगस्त्य के निर्देश पर इस पावन स्थल पंचवटी–पाँच वट वृक्षों के समूह में अपना आश्रम बनाकर निवास किया था। यहीं उनका परिचय न्याग्रोधा वृक्ष पर निवास कर रहे जटायु से होता है। सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का त्राण हेतु लिए रामावतार में प्रभु कई राक्षसों का संहार इसी स्थल पर करते है। 

पर्यटकों को यहाँ प्रभु की छोटी सी कुटिया में रामायण की चित्र दीर्घा के दर्शन हो जाते हैं। निकट ही है ‘सीता ताल’ जहाँ, मान्यता है कि माँ सीता ने अरण्य वास दौरान स्नान किया था। ताल में लाल और पीले वर्ण के पत्थर देखने को मिल जाएँगे। कहते है इन्हीं पत्थरों को रगड़ कर माँ सीता अपने मुख पर कुमकुम और हल्दी का लेप किया करती थी। शिलाओं पर आज भी भगवती सीता के वस्त्रों के निशान अंकित हैं। गोदावरी के ठीक विपरीत दिशा के तट पर एक शिला खण्ड पर रावण के पुष्पक विमान के निशान आज भी स्पष्ट देखे जा सकते हैं। इनको रथमु कोण्डलु (रथ पर्वत) कहा जाता है। कहते हैं यह शिला खण्ड शापितहै। इस पर दूब भी उगती नहीं है। 

रामायण का स्मरण कराता यह स्थल पर्यटकों को विशेष रूप से आकर्षित करता है। यह पंचवटी प्रभु राम की तपोभूमि है, ऋषियों की यज्ञ भूमि है, असुरों के संहार की भूमि है। इस स्थल का दर्शन भक्तों को रामरस में आद्यांत आप्लावित कर देता है। भद्राचलम से यहाँ तक पहुँचने के लिए या तो सड़क मार्ग का उपयोग किया जा सकता है या जल मार्ग का। पर गोदावरी में नौका विहार का आनंद मनो मस्तिष्क को तरोताज़ा कर चेतना में ऊर्जा भर देता है। 

संस्कृति, दर्शन और अध्यात्म की त्रिवेणी को अपनी जड़ों में गहराइयों से सहेजता इस स्थल का इतिहास हमारी सांस्कृतिक विरासत का अनुपम प्रतीक तो है ही साथ ही साथ मानव मन की आत्मगत चेतना को ऊर्ध्व क्षितिज में प्रतिष्ठित करने के लिए भक्ति के आदर्श को संदर्भित करता हुआ उसे शाश्वत अर्थ प्रदान करता है। भद्राचलम की सांस्कृतिक यवनिका हिंदू आचार-विचार और परंपराओं के रेशों से बुनी हुई है जिसका आधार है वाल्मीकि रामायण। आइए, हैदराबाद से लगभग तीन सौ किमी दूर, कल-कल बहती गोदावरी के तट पर प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित इस तीर्थ स्थल के दर्शनार्थ-जिसको श्री विष्णु के 108 दिव्य क्षेत्रों में गिना जाता है। 

 जय श्री राम . . .। 

दक्षिण अयोध्या में ‘भद्राद्रि रामन्ना’ के प्रभु राम 

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टिप्पणियाँ

शैलजा सक्सेना 2024/03/27 09:27 PM

बहुत सुंदर लेख! आपका धन्यवाद और बधाई!

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