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चिंता

 

मध्याह्न का सूर्य बीचों-बीच पहुँच ताप उगल रहा था। 

खेत के उस छोर से किसना ने आवाज़ दी। 

“अरे ओ रग्गू, चल अब सुसताय देत हैं कुछ बखत। चल आ जा। खा भी लें। बहुत थक गया है बदन।” 

किशन हैंडपंप पर हाथ-मुँह धो खाना निकालने लगा। 

दोनों मित्रों के खेत सटे हुए थे और दोनों का नित्य नियम था एक साथ बैठ कर निवाला उतारना। 

“तो तुम्हारा बिटुवा जब सहर से टरैकटर ला देगा रग्गू, तो बताओ इन बूढ़े बैलों का क्या काम? अनाज के दुश्मन . . . इनको बेच दियो। मैं कहता हूँ अभी थोड़ा मांस है, अच्छा दाम मिल जाएगा। बाद में कौड़ियों के दाम जाएँगें, क्यों बापू क्या कहते हो?” 

रग्गू का बूढ़ा बापू वहीं खेत में चटाई पर लेटा हुआ था। बढ़ती उम्र के कारण आजकल काम तो न होता था पर घर भी न बैठा जाता था। किसान था, इसीलिए खेत ही उसका रैन-बसेरा बन गया था। 

रग्गू के हाथ में पकड़ा रोटी का टुकड़ा नीचे गिर गया। 

“कैसी अनर्गल बात कह रहा किसना? बुढ़ापे में माँ-बाप को बेच खाइते हैं? ऐसा सोचा कैसे? छिः छिः। बूढ़े हो गए तो यह बयबहार? इन्होंने हमें पाला पोसा . . . हमारी इत्ती सेवा की . . . तो क्या अब ट्रैक्टर आते ही? न। न। अब कभी ऐसा . . .” 

“अरे काहे को रोष में आता है मूर्ख। तेरा बेटा बड़ा आदमी बन गया है सहर में। ये सब मोह बंधन जंजाल है जंजाल। बस पैसा देख पैसा। सब छोड़ सहर जा और ऐश कर।” 

“बस किसना बस। यही सिखायेगा अपनी संतान को? बैल हमारी इज्जत है, हमारा ही अंग है। सोच, कल हम बुढ़ाए तो क्या हमें घर निकाल कर देगा हमारा बिटुवा? कल वो हमसे क्या सीखेगा? न, फिर कभी ऐसा मत कहियो। पाप है पाप वरना तेरी मेरी दोस्ती खत्म।” 

“चचा, सुन लिया। तू बेकार फ़िक्र कर रहा था कल। देख लिया अपने पूत को? अब चिन्ता छोड़। न बैल कहीं जाएँगे और न तू और न वो। समझे। चल निश्चिंत हो रोटी खा ले।,” किसना ने रोटी उसकी थाल में डाल दी। 

भरी दोपहर में ठंडी बयार चलने लगी। दोनों बैल चारा खाते हिनहिनाए और आसमान की ओर ताकने लगे। कहीं दूर काली बदली धीरे धीरे अपने पाँव जमा रही थी। वर्षा आने के आसार दिख रहे थे। 

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