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गोलू और जंगल की सैर

 

“माँ . . . सोने दो न . . . ऊँ . . . ऊँ, . . . मैं अभी तो बच्चा हूँ न?” सुन सुनकर परेशान हो गई थी गबरी। 

गोलू अब पूरी तरह से बड़ा हो गया था। माँ की आँख का तारा राज-दुलारा पिता मिट्ठू से भी अधिक आकर्षक हट्टा-कट्टा और तगड़ा हो तो भले ही गया था लेकिन रहा डरपोक का डरपोक। पिछली बार जब आम-पापड़ के मोह से जाली में फँसा था, तब से यह हथियार अपना लिया था उसने कि बस पत्तों की छाँव में दिन-भर पड़े रहो, माँ बाबा के लाए फल मज़े से खाते रहो और मुँह में राम मंत्र दबाए रहो कि ‘बच्चा हूँ . . . बच्चा हूँ’। कहीं भी जाने से कतराता, न उड़ता, न फिरता। इसीलिए काफ़ी वज़नी भी हो गया था। गाढ़ा हरा रंग, भरा बदन, गोल-मटोल चोंच, बटन जैसी काली आँखें, तीखे नुकीले पंख . . . पूरा का पूरा गबरू जवान। वैसे देखा जाए तो उसकी मौज हो रही थी पर गबरी और मिट्ठू की चिंता उसके इस व्यवहार से दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही थी।

मिट्ठू गबरी के अतिशय दुलार को दोषी मानता और दिन-रात गोलू को समझाने का प्रयत्न करता। 

“ऐसा कब तक चलेगा गोलू? अब तू बड़ा हो गया है, तुम्हें अपना भोजन ख़ुद जाकर लाना है। दुनिया को अपनी आँखों से देखना है। भला बुरा ख़ुद समझना है . . . कब तक माँ की छाँव में बैठा रहेगा? उड़ना हमारा स्वभाव है। अगर वही भूल गया तो कैसे कटेगा जीवन?” गोलू कृत्रिम विनयशीलता दिखलाकर मुंडी हिलाता सुनता तो अवश्य था लेकिन तत्क्षण एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल बाहर करता और अपनी जगह से टस-से मस न होता। 

और तो और बड़े प्यार से तुतलाता कहता, “माँ–बाबा! अभी तो मैं बच्चा हूँ। कहीं फिर फँस गया तो?” 

आज तो मिट्ठू ने निर्णय ले ही लिया था कि कोई न कोई उपाय करना ही होगा क्योंकि पानी सर से ऊपर निकल रहा है। मीठी बातों से उसके कान में जूँ तक नहीं रेंग रही और बड़ा ही आलसी नाकारा हो गया है। 

अचानक ध्यान आया कि सामने के पेड़ पर गोलू का एक मित्र सखा रहता है किक्कू—लगभग उसका ही हम-उम्र या फिर कुछ बड़ा। पर हैं दोनों पक्के दोस्त। किक्कू का लाल रंग और उसके रंग-बिरंगे नीले पीले पंख उसे बहुत भाते थे। 

दोनों की पटती भी बहुत थी। घंटों बतियाते थे शाम को दोनों क्योंकि दिन को तो किक्कू चला जाता था अपने भोजन की खोज में। 

तो मिट्ठू ने सोचा, क्यों न उससे बात की जाए और समस्या का हल ढूँढ़ा जाए क्योंकि अगर गोलू को कोई मना सकता था तो वह था केवल किक्कू। 

गबरी और मिट्ठू अगली सुबह तड़के ही किक्कू के पास गए और उन्होंने उसे अपनी चिंता बताई। 

किक्कू था बड़ा समझदार और ज़िम्मेदार। उनकी बात सुनकर बोला . . . 

“हाँ चाचा, मैं भी यही सोचता रहता हूँ कि गोलू डाल छोड़ बाहर क्यों नहीं आता? मैंने कितनी बार कहा उससे। वह ढीठ मानता ही नहीं। पर आप चिंता करना छोड़ दो। मैं आज उसे साथ लेकर ही जाऊँगा। एक बार बाहर निकलेगा तो सब डर-वर भूल जाएगा। आप निश्चिंत होकर जाए। आज हम दोनों अवश्य साथ–साथ जाएँगे।” 

किक्कू ने आश्वासन दिया तो गबरी और मिट्ठू की आस बँध गई। दोनों वापस आए, गोलू को अपने मित्र की सलाह मानने की हिदायत दी और भोजन की जुगाड़ में उड़ चले। 

किक्कू ने आसमान की ओर देखा, साफ़ था—उजला और स्वच्छ। सूरज की हल्की लालिमा गगन में फैल चुकी थी। सब पंछी अपनी-अपनी उड़ान भर रहे थे। उसने उस डाल की ओर दृष्टि दौड़ाई जहाँ गोलू पंख सिमेटे दुबका हुआ पड़ा था। 

वह उड़ा और गोलू के पास आया। देखा वह तो कल रात का बचा-खुचा आधा कुतरा अमरूद बड़े मज़े से आँख मीच खा रहा है। 

“अरे गोलू, क्या हो रहा है? ये तुम कल का अमरूद क्यों खा रहे हो भई?” किक्कू सामने बैठ गया। 

“क्या करूँ? सुबह होते ही भूख लगती है। माँ-बाबा गए है जंगल ताज़ा फल लाने। तब तक ये काफ़ी है। आज तुम यहाँ कैसे? नहीं गए अभी तक? चले जाते हो न रोज़ इस समय तक। फिर आज क्यों देरी?” गोलू ने आवाज़ सुन धीरे ‌से आँख खोली। 

“नहीं आज मैं सोच रहा था कि तुम्हें जंगल की सैर करवा ही दूँ। तुम देखोगे न तो बस देखते रह जाओगे। बड़ा मज़ा आएगा। चलो मित्र आज मना मत करो।” किक्कू ने हाथ पकड़ उसे खींच कर बिठा दिया। 

“न किक्कू। मैं अभी छोटा हूँ। किसी मुसीबत में फँस गया तो खामंखा मुश्किल हो जाएगी। तुम जाओ। मैं यहाँ ठीक हूँ। शाम को आकर बताना जंगल की बातें,” गोलू ने हाथ छुड़ाकर उसे टालना चाहा। 

“बिलकुल नहीं। आज तो तुम्हें आना पड़ेगा। और फिर मैं हूँ न तुम्हें हर मुसीबत से बचाने के लिए। चलो। बस आज कोई बहाना नहीं मित्र, . . . बड़ा मज़ा आएगा। और तुम्हारे माँ बाबा के लिए एक अनोखा उपहार–लाल रसीले आलूबुखारे तोड़ कर लाएँगे। माँ बाबा दंग रह जाएँगे तुम्हारी हिम्मत देखकर . . . चलो . . . चलो जल्दी। शाम से पहले लौट आएँगे। डरो मत और चलो मेरे साथ-‘मिशन प्लम’–क्या समझे!”

किक्कू जानता था कि एक बार अगर गोलू जंगल देख ले तो बस फिर वह बदल लेगा अपने आप को। 

पर गोलू तो पछता रहा था। आज बुरा फँसा। बहाना ढूँढ़े कि क्या कहकर पिंड छुड़ाए? मन कह रहा था कि रुक जाए। क्यों थकाए बदन को? पर वहीं, मित्र पर भरोसा भी था। तो सोचा चलो आज कुछ सैर हो ही जाए। जो होगा देखा जाएगा। देख लूँ मैं भी कि क्या है इस जंगल में जो माँ बाबा हमेशा मुझे जाने की कहते हैं? कैसा मज़ा आता है ऊँची उड़ान भरकर? और अगर डर लगे तो किक्कू है न। 

सोच में डूबा गोलू सिर खुजाते दबी आवाज़ में बोला, “देखो किक्कू, मुझे तुम पर भरोसा तो है पर अगर समझो बीच में मुझे डर लगे तो वादा करो कि मुझे वापस इसी डाल पर आकर छोड़ जाओगे। ठीक है? मुकर मत जाना फिर बाद में। पहले ही कहे दे रहा हूँ मैं . . . हाँ।” 

“ठीक है बाबा . . . वादा रहा। तुम चलो भी न अब। चलो, पंख खोलो और मेरे साथ उड़ चलो। 

किक्कू मौक़ा न खोना चाहता था। उसने जल्दी मचाई और दोनों मित्र पंख फड़फड़ाते उड़ चले जंगल की ओर। 

♦    ♦    ♦

गोलू को खुली हवा और नीले आकाश में उड़ने का यह पहला अवसर था। पहले तो वह कुछ डरा पर फिर एकदम से ठंडी साँस ली और बस हवा में तैरता-सा बह चला। 

‘अरे . . . ये क्या? मैं तो कितना डर रहा था पर यहाँ तो बड़ा मज़ा आ रहा है। वाह लल्लू वाह . . . कितना विस्तार . . . कितना खुलापन . . . हवा में बादल की तरह हल्का-फुल्का’। उसका रोम-रोम पुलकित होने लगा। कभी सीधा तो कभी टेढ़ा, कभी ऊपर तो कभी नीचे मस्ती करता पूरे आकाश को अपनी छातियों में भरता उड़ा चला जा रहा था। मन ही मन पछतावा भी होने लगा कि इतने दिन पगला क्यों नहीं निकला था अपनी खोह से बाहर? ख़ुशी का ठिकाना न रहा। कभी धरती को देखता, तो कभी ऊँचे उड़ते पंछियों को। ऊँचा . . . ऊँचा . . . और ऊँचा उड़ता ही जा रहा था। 

“बस मित्र . . . और ऊँचाई नहीं। और देखो मेरे साथ ही रहो। नीचे आ जाओ।” 

किक्कू की आवाज़ सुन गोलू खिलखिलाता उसके स्तर पर आ गया। 

“क्या मित्र तुम भी न . . . देखा तुम मेरी बराबरी नहीं कर सकते। वो तो मैं बस यूँही . . . बाहर निकलता नहीं था . . .हाँ,” गोलू ने मुंडी गर्व से तान कर डींक हाँकी। 

“चलो उस ओर जहाँ नदी दिख रही है न। उसे पार कर ही जंगल पहुँचा जा सकता है।” 

दोनों उस ओर मुड़ चले। 

विशाल नदी के तेज़ बहाव को देख गोलू को चक्कर आ गए। 

“ओह इतना पानी . . . बाप-रे-बाप? मैंने तो कभी न देखा!” गोलू की आँखें आश्चर्य से फैल गई। 

वह थक गया था थोड़ा वज़नी होने के कारण तो बोला, “चलो मित्र कुछ देर नीचे धरती पर बैठ जाएँ . . . थोड़ी देर?” 

“न मित्र ऐसी ग़लती कभी न करना। हम गगन के वासी है। धरती पर ख़तरा बहुत रहता है। कहीं से भी कोई झपट्टा मार सकता है। समझे क्या? पहली सीख—बिना सोचे-बूझे अनजान जगह पर असावधानी से नहीं बैठोगे। बैठना पड़े तो दृष्टि सतर्क। ध्यान हटा, दुर्घटना घटी . . . समझे? चलो . . . ध्यान से नीचे जाकर दो घूँट ठंडा पानी पी लें।” 

“समझ गया उस्ताद।” दोनों नीचे उतरे और नदी का निर्मल ठंडा जल पिया। 

“तो मित्र तुम्हीं बताओ कि अब इसे कैसे पार करें इतने तेज़ बहते हुए पानी को?” गोलू शीघ्र जंगल पहुँच जाना चाहता था। रास्ते का यह विघ्न दुखदायी लग रहा था उसे। 

“हुँ . . .” किक्कू सोच में पड़ गया। सामने देखा—एक लकड़ी का बड़ा सा लट्ठा बह रहा था पानी में। गोलू को दिखाते बोला, “देखो सामने लकड़ी का लट्ठा देख रहे हो न? उसी पर बैठ कर चलते हैं। वैसे तो मैं रोज़ उड़ कर जाता हूँ पर तुम . . . लगता है कि तुम कुछ थक गए हो। कोई बात नहीं। हवा उसी ओर बह रही है। यह पानी में तैरते हमें दूसरे किनारे पहुँचा देगा। चलो।” 

दोनों लकड़ी के लठ्ठे पर उछल कर चढ़ बैठे और वह हवा की दिशा में हल्के-हल्के तैरने लगा। 

गोलू ताली बजा-बजा कर नाचने लगा। 

“वाह . . . वाह चारों ओर पेड़ ही पेड़, ठंडी हवा और पानी में सवारी। वाह! मज़ा आ गया . . . मज़ा। 

“आज है मंगल, गोलू चला जंगल, 
जंगल में शेर है, मेरी पहली सैर है, 
गोलू नहीं डरेगा, जंगल जाकर देखेगा।” 

गोलू ख़ुशी के मारे भोंडे सुर में मस्ती से गाने लगा। 

किक्कू ने स्वर में स्वर मिलाया: 

“आज है मंगल, किक्कू गया जंगल” 

“हा . . . हा . . .हा . . . हा! हा . . . हा . . . हा . . .हा!” दोनों गला फाड़ कर हँसने लगे। 

“गिर जाओगे गोलू, धीरे-धीरे। उछलो मत, बैठे रहो।” बीच-बीच में किक्कू उसे सँभालता रहा और गोलू तो बस . . . उत्साह और जोश में उछलता-नाचता रहा। 

किनारा आते ही किक्कू चिल्लाया, “गोलू, चलो उड़ो। आगे की ओर, जंगल में . . . मेरे पीछे–पीछे।” 

दोनों जंगल में प्रवेश कर गए। 

♦    ♦    ♦

घना जंगल। चारों ओर निस्तब्धता। 

हवा की सर्र . . . सर्र। 
पत्तों की खुर्र . . . खुर्र। 
साँपों की सुर्र . . . सुर्र। 

गहरा सन्नाटा। कहीं कोई पंछी कूकता . . . कू . . . ऊ . . . ऊ . . . ऊ . . . कू . . . ऊ . . . ऊ . . . ऊ . . . तो जंगल गूँज जाता। 

चारों ओर ख़ूब घने वृक्ष . . . पत्तों से छनकर आती सूरज की सफ़ेद पीली चमचमाती रोशनी, बेतरतीब उगी हरी-हरी कँटीली झाड़ियाँ, पेड़ों की लटकती शाखाओं पर रेंगते हुए लाल पीले हरे कीड़े, झुंड में उड़ती हुई कई रंगों की तितलियाँ, अनेकानेक पक्षियों से भरी डालियों में अजीब-सा शोर, तूफ़ान की तरह हिलोर खाते शरारती लंगूर जब यहाँ से वहाँ उन डालियों पर कूदते तो उन पर सजे रंग–बिरंगे फूल बारिश की तरह धरती पर झरने लगते और धरती फूलों से रंग जाती . . . वाह! गोलू उड़ना भूल आँखें फाड़ कर अभिभूत देख रहा था। विस्मित सा! उसका यह पहला अनुभव था। चकित था वह प्रकृति के इस मनोरम दृश्य को देखकर। 

उसने नज़रें घुमाईं। दूर पानी का झरना देख वह चिल्लाया, “मित्र . . . मित्र . . . उधर देखो उधर . . . वहाँ बारिश हो रही है . . . बारिश। आश्चर्य . . . यहाँ नहीं हो रही बरसात? क्या जंगल में ऐसा होता है?” 

किक्कू उसके भोलेपन पर खिलखिला कर हँसा। हँसते-हँसते बोला, “नहीं लल्लू . . . वह बारिश नहीं है . . . पानी का झरना है। जो नदी हम पार कर आए न? वही ऊपर से बह रही है। समझे बुद्धू?” 

गोलू अपमानित-सा शर्मा गया। आँखें झुक गई। मुँह लाल हो आया। आख़िर पहली बार जो देखा था। 

“मुझे माफ़ करना मित्र। मैंने तुम्हारा मज़ाक़ उड़ाया,” किक्कू ने अपनी धृष्टता की माफ़ी माँग ली। “देखो तुम्हें और भी बहुत कुछ दिखाता हूँ। चलो आगे उस पेड़ की ओर।” 

दोनों बढ़ चले और अंदर . . . और अंदर, जंगल में। 

आगे बड़े-बड़े पेड़ों पर बंदरों की टोली बैठी थी जिसमें कुछ एक दूसरे की पूँछ खींच उछल-कूद भी कर रहे थे। कभी-इस डाल तो कभी उस डाल। गोलू ने देखा उसी पेड़ पर कई रंग-बिरंगे तोते बैठे हुए थे क़तार में। 

गोलू ताली बजाता चिल्लाने लगा, “देखो मित्र . . . रंगों की बहार . . . कितने तोते, कितने चमकीले रंग। चलो न उनसे जाकर मिलें।” 

“नहीं मित्र। अपरिचित से मित्रता ठीक नहीं। अनावश्यक समीपता ख़तरा बन सकती है। जंगल में अपने काम से काम रखना ठीक होता है। हम ‘मिशन प्लम’ के लिए आए थे, है न? चलो आलूबुखारे का पेड़ आगे है झरने के पास। वहीं चलते है। तो जंगल की दूसरी सीख—अपरिचित से दूरी रखना। आई बात समझ में?” 

“हाँ मित्र . . . आया समझ में पूरी तरह से। चलो।” 

दोनों उसी ओर उड़ चले जहाँ कई आलूबुखारे के वृक्ष थे। 

घने जंगल में नीम अँधेरा था। पत्तों से छन-छन कर रोशनी आ रही थी। आगे रास्ते में एक हिरणी अपने शावक के साथ खड़ी घास चरती दिखाई दी। 

इन दोनों के पंखों की फड़फड़ाहट सुन वे दोनों मुड़े, कुछ पल ठहरे पर अगले ही क्षण कुलाँचे भरते आँख से ओझल हो गए। गोलू मुस्कुराते बोला, “अपरिचित से सतर्कता–प्राण रक्षा। है न मित्र। बड़े समझदार हैं जंगल के वासी।” 

“हाँ। और अब तो तुम भी कुछ समझदार हो रहे हो,” किक्कू ने बुज़ुर्ग की भूमिका निभाते गंभीर स्वर में कहा। 
सामने कुछ देखकर गोलू फिर चिल्लाया, “अरे मित्र देखो-देखो . . . काले–काले पत्थर . . . झरने में हिलते-डुलते पत्थर।” 

“न गोलू ये पत्थर नहीं, ये जंगली हाथी हैं . . . चिंघाड़ने वाले हाथी। इनकी चिंघाड़ से पूरा जंगल काँप जाता है . . . थरथरा जाता है . . . हाँ।” 

“ओह हाँ . . . बाबा ने एक बार बताया था . . . बड़ी-बड़ी सूँड वाले भारी भरकम हाथी।” 

गोलू ध्यान से उन्हें देखने लगा। 

“आगे बड़ो . . . आगे।” 

दोनों आगे उड़ चले। 

आगे मिले हरे-भरे रसीले आलूबुखारे के घने पेड़। 

दोनों उड़ कर उस पेड़ पर जा बैठे और चुन-चुन कर मीठे-मीठे आलूबुखारे कुतरने लगे। 

“वाह . . . हूँ . . . आ . . . आ . . . मज़ा आ गया। रसीले . . . मीठे . . . आलूबुखारे . . . मैं माँ बाबा के लिए पूरा पेड़ ही ले जाऊँगा,” गोलू भाव-विभोर होकर तन्मयता से रस चूस रहा था। 

“पेड़? हा-हा-हा!” किक्कू हँसा। “अब ज़्यादा न हाँको गोलू। बस एक छोटी सी डाली तोड़ लो जिसमें छोटे-छोटे दो तीन आलूबुखारे हों। और फिर चलते बनो।” 

“अरे इतनी जल्दी?” 

“जी मेरे गबरू जवान . . . शाम होने को आई है। सूरज ढल रहा है। आज तो पता ही न चला। जाने का समय हो गया है। सूरज के ढलने के पहले जंगल से बाहर निकलना है। एक लंबी उड़ान . . . अबकी बार-जंगल पार . . . समझे कुछ?” 

“अरे इतनी जल्दी क्या है मित्र? शाम हो गई तो यहीं विश्राम कर लेते हैं कल सुबह चले जाएँगे।” 

“नहीं। पराई अनजान जगह पर ख़तरा हो सकता है। पराई जगह कितनी भी मनभावन क्यों न हो, पर अपना घर अपना ही होता है। पराई वस्तु का मोह घातक हो सकता है। जंगल की तीसरी और आख़िरी सीख—पराई अपरिचित जगह पर रात को विश्राम प्राणघातक हो सकता है—समझे कुछ?” 

“समझ गया सरकार। रुको मैं दो फल तोड़ लूँ। फिर चलते हैं।” 

गोलू ने दो आलूबुखारे पंजों में दबा लिए। और दोनों मित्र अपनी वापसी को उड़ चले। 

नदी नाले पार कर दोनों अपनी उड़़ान भर रहे थे। गगन की लालिमा मन को मोहित कर रही थी। रूई के फाहों जैसे धवल बादलों की छोटी-छोटी टुकडियाँ इधर से उधर मस्ती में टहल रही थी। आकाश की नीलिमा में गुलाबी रंग धीरे-धीरे भूरा बन रहा था। सूरज अस्त हो चुका था। 

♦    ♦    ♦

वे दोनों सकुशल अपने ठौर पहुँच गए। गबरी और मिट्ठू उनकी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्हें देखते ही वे चहक उठे। 

किक्कू ने पास आकर कहा, “देखा चाचा; मैंने अपना वादा पूरा किया। आज गोलू को बड़ा मज़ा आया। आप ख़ुद ही पूछ लीजिए उससे। वह काफ़ी थक गया है।” 

“हाँ माँ–बाबा!” गोलू की ख़ुशी का पारावार न था। उत्साह का कलश छलके जा रहा था। प्यार मिश्रित गर्व से उसने उनकी हथेली पर रसीले लाल आलूबुखारे धर दिए। 

“माँ . . . आज बड़ा मज़ा आया। कई जानवर देखे जंगल में: रंग बिरंगे कीड़े, तितलियाँ, पंछी, साँप, हाथी नदी और झरना भी। सच माँ बड़ा मज़ा आया।” 

वह मुड़ा और किक्कू का हाथ अपने हाथ में लेकर बोला, “मित्र मैं तुम्हारा ऋणी हूँ। मेरे माँ बाबा ने मुझे जन्म दिया और तुमने . . . जीवन दृष्टि। सच . . . मैं तुम्हारा उपकार कभी न भूलूँगा।” 

“हाँ गोलू तुमने सही कहा . . . और हाँ . . . कल से तुम रोज़ किक्कू से मिलकर . . .” 

“न माँ। किक्कू ने बहुत कुछ सिखाया है मुझे। अब मैं रोज़ अकेले एक नए प्रदेश जाऊँगा, एक नया स्थान देखूँगा। हर दिन एक नया अनुभव होगा, एक नई दृष्टि होगी। और रोज़ शाम हम दोनों अपना–अपना अनुभव एक दूसरे को बताएँगे। क्यों मित्र?” 

उसकी काली बटन जैसी पुतलियों में झलकते आत्मविश्वास को देख कर मिट्ठू पुलकित हुए जा रहा था। 

“लेकिन बेटा . . .” 

“न माँ . . .” गोलू माँ के गले में बाँहे डाल मीठी आवाज़ में बोला, “माँ . . . अब मैं . . . बच्चा . . . थोड़े न हूँ . . .!” 

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टिप्पणियाँ

डा वासुदेवन शेष 2024/04/30 11:19 PM

बहुत ही रोचक रोमांचित गोलू किककू की जंगल की कहानी ।जंगल इतना सुंदर भी होता है मैने आज जाना। discovery channel और जंगल बुक मैने पढी है परन्तु उसमे इतना आनद नही आया।फिल्मो मे भी जंगल के दृश्य आते है पर वह भी इस बालमनोविज्ञान कहानी के आगे कुछ नही ।इस कहानी की यह वाक्य जो इसका सार है मां बाप ने मुझे जन्म दिया और तुमने जीवनदृषटि।चाहे मनुष्य पशु पक्षी उसे अपना जीवन स्वयं जीना चाहिए दूसरो पर निर्भर होकर नही। लेखिका ने शबदो और भाषा शैली का ऐसा जाल बुना है पढनेवाला बेसुध होकर उसमे डूब जाता है खो जाता है। कहानी मे हास्य पुट है जो गुदगुदाती है।बच्चो के लिए ही नही वयस्क के लिए भी प्रेरणादायक है।लेखिका को इस कहानी के लिए बाल साहित्य पुरस्कार मिलना चाहिए। बधाई।

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