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सै सै नरसिम्हा

(ऐतिहासिक घटना पर आधारित डॉ. पद्मावती जी ऐतिहासिक आलेख पढ़ें:  उय्यालावाड़ा नरसिम्हा रेड्डी )

 

“राम-राम शास्त्री जी।” 

“राम-राम दादा। आज लोग नहीं आए? मैं सोचा मैं ही देर हो गया।” 

“न . . . आ जाएँगे धीरे-धीरे . . . आप बैठिए।” 

“आज क्या सुनाओगे दादा?” नीचे बैठे एक आदमी ने कहा। 

चौपाल पर नीम के नीचे शाम के अस्त होते सूरज की हल्की रोशनी में धीरे-धीरे लोगों जमघट लगने लगा था। दादा ऊपर बैठे हुए थे। 

“आज . . . आज तो नरसिम्हा रेड्डी की कथा बाँच दो दादा . . .” मास्टर जी ने कहा। 
“हाँ . . . अवसर भी अच्छा है . . . लो फिर . . . हमारे आंध्र राज्य के कर्नूल ‘सीमा सिम्ह’ की अमर कथा . . . वीरता और पराक्रम की, जिसने गोरों की नींद उड़ा दी थी . . . उन्हें लोहे के चने चबवा दिए थे।” 

“वो कैसे दादा?” 

“जागीरदार था नरसिम्हा नोसोमु का और उय्यालावाड़ा का। किसानों का सच्चा हितैषी, अँग्रेज़ों का दुश्मन। रैय्यतवारी क़ानून लाकर जागीरदारों की जागीरें छीन ली थी कम्पनी सरकार ने। उन आततायियों ने अजीबोग़रीब क़ानून बनाकर देश का ख़ूब ख़ून चूसा। किसान, ज़मींदार, सामंत, जागीरदार सब की ज़मीनें हड़प ली थी आक्रमणकारियों ने। यहाँ तक कि आदिवासियों को भी न छोड़ा। सब के मन में विद्रोह की चिंगारी जल उठी और उसे धधकती ज्वाला पता है किसने बनाया . . . नरसिम्हा रेड्डी ने। सेना संगठित की और अँग्रेज़ों के छक्के छुड़ा दिए।” 

“फिर क्या हुआ दादा, अँग्रेज़ों के पास तो आधुनिक हथियार थे?” 

“अरे तो क्या, नरसिम्हा भी तो कम न था। पक्का तलवार बाज़ ही नहीं छापामार भी था। और जनता का नायक भी। वनपर्ती, जटप्रोलु, हैदराबाद, कर्नूल के ज़मींदार भी साथ थे। तीर की तरह आता और दुश्मन को साफ़ कर देता था। उसकी दिलेरी के आगे फिरंगी मुँह की खाते। लेकिन हाय! अपनों ने ही धोखा दिया। भाई ने पकड़वा दिया।” 

“क्या . . . भाई ने?” 

“हाँ . . . और क्या . . . सामने चौक देख रहे हो न, वहीं खंबा गाड़ा गया और ज़ंजीरों में बाँध कर रायल सीमा के सिंह को फाँसी दे दी गई और सिर तीस साल तक यहीं चौक के खंबे से लटका दिया,” दादा का कंठ अवरुद्ध हो गया। 

“पर क्यों दादा’? 

“दहशत फैलाने के लिए।” 

कुछ पल के लिए सब स्तंभित हो गए। 

सहसा भीड़ में से आवाज़ आई, “जै जै नरसिम्हा।” और पूरा आसमान जयकार से गूँज उठा। 

 

(तेलुगु में ‘जै जै’ को सै सै भी कहा जाता है)
 

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