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“हल्की गुनगुनी धूप में चाय की चुस्की . . . मज़ा आ गया भाई।” 

“हाँ जी हाँ, जब से अनिरुद्ध ने अमेरिका ले जाने की बात कही है तब से तो आपको हर बात में रस आने लगा है . . . है न?” सुषमा जी ने चुटकी ली। 

“जैसे तुम्हें जाने की ख़ुशी नहीं क्यों? कल काम वाली और तुम्हारी बातचीत मैं ने सुन ली थी।” 

“अब छह महीने के लिए उसे कह दिया है कि दूसरा घर ढूँढ़ ले। बाद में वापस आकर देखा जाएगा। और हाँ, आप आज जाकर छह महीने की दवाई भी ले लीजिए हम दोनों की। जब जो याद आये कर लें तो अच्छा। आप कल-कल कहकर समय न गँवाइए। बहुत ख़रीदारी है, पता भी नहीं क्या लेना है।” सुषमा जी कठपुतली की तरह फिरक रहीं थीं हाथ में चाय का कप लिए। वैसे आजकल पाँव ज़मीन पर कहाँ पड़ रहे थे। 

“हाँ भई। इस महीने की अंत तक टिकट ख़रीदने की कह रहा था न अनिरुद्ध? सब जल्दी करना होगा। समय कम है। पर दवाइयाँ लेने से पहले सोच रहा हूँ कि एक बार डॉक्टर को ही दिखा लेते है दोनों। अगर वहाँ कुछ हुआ तो ख़ामख़ाँह अनिरुद्ध परेशान हो जाएगा। हाँ, तुम बैठो तो सही, फिर से कहे दे रहा हूँ, ज़रा ध्यान से रहना वहाँ। अनावश्यक दख़लंदाज़ी बिल्कुल नहीं। बहू देर से उठे या कुछ भी करे, मुँह बिल्कुल मत खोलना और टोकने की आदत यहीं छोड़ जाना। छह महीने बिल्कुल वहीं के बनकर रहना है हमें। कोई टोका-टोकी नहीं।” 

“ओफ्फो पता है . . . पता है, रोज़ दस दिन से आपका यही व्याख्यान सुन रही हूँ।” सुषमा जी की निगाहें फाटक पर लगी हुईं थीं, “अरे हाँ भूल गई, दूध वाले को भी कहना है, आता होगा, अगले महीने से दूध नहीं चाहिए। आपने पेपर वाले को कह दिया?” 

“हाँ कह दिया और देखो अपने लिए वहाँ पहनने के लिए सिल्क की साड़ियाँ ही रखना। वहाँ कपड़े धोकर बाहर नहीं सुखाए जाते। कल पार्क में गिरिधर जी बता रहे थे। हाल ही में वहाँ से लौटे हैं न। और भी बहुत कुछ कह रहे थे। मैं भी दो सिल्क के कुर्ते लेने की सोच रहा हूँ। बहुत समय हो गया कुछ अच्छा खरीदे।” 

“हाँ भई, आपने कभी अपने बारे में सोचा ही कहाँ है? ख़ैर, क्या आप ने सब से कह दिया? मैंने कल केवल मिसेज शर्मा को बताया तो देखने लायक़ था उनका मुँह। जल-भुन गई। मुँह फुला कर बोली ‘इसमें क्या बड़ी बात है भाभी?’ मैं ने भी कह दिया अब तो आना-जाना लगा रहेगा तो रोनी सूरत बन गई उनकी . . . फिर भी कहना न भूली; ‘भाभी, आते समय मेरे लिए बादाम ज़रूर ले आना, सुना है बहुत बढ़िया होते है वहाँ’। हूँ . . . अभी गए नहीं, फ़रमाइशें पहले शुरू हो गई इनकी।” 

 रामेश्वर जी के होंठों पर मुस्कान फैल आई। 

“आठ बज गए। दूधवाला नहीं आया” सुषमा जी चाय का कप नीचे रख फिर से फाटक की ओर ताकने लगीं थीं—कुछ परेशान सी। अचानक फोन की घंटी बजी। 

“हैलो पापा।” 

“हाँ बेटा बोलो,” रामेश्वर जी झट से उठे और फोन लाउडस्पीकर में रख दिया, “अनिरुद्ध, वो टिकट की तारीख़ . . .” 

“पापा दरअसल,” उसने बात काटते हुए कहा, “वो मेरा और आपकी बहू का अगले महीने दस दिन ऑस्ट्रेलिया घूमने का प्रोग्राम बन गया है तो मैं सोच रहा था कि आपकी टिकट दो महीने के बाद करूँ और अभी क्रिसमस है न पापा, टिकट का रेट भी ज़्यादा हो गया है। तो . . . आप क्या कहते हैं पापा? मम्मी को पूछिएगा और बताइएगा।” 

“न . . . न . . .। ठीक है . . . बेटा। ज़्यादा रेट में क्यों ख़रीदना। हम बाद में भी आ सकते हैं . . . वैसे जल्दी क्या है?” 

“ओके देन . . . बाय पापा! मैं थोड़ा बिज़ी हूँ। कुछ देर बाद बात करते हैं . . . वीणा भी मम्मी से बात करना चाहती है। प्रणाम पापा!” रामेश्वर जी के बोलने से पहले फोन कट गया। 

सामने द्वार पर दूधवाला आ गया था। इससे पहले सुषमा जी कुछ कहती वह मुस्कुराता बोल पड़ा, “मांजी पता है मुझे, अगले महीने से आप लोगों को दूध नहीं चाहिए। पिछले चार दिन से कह रही हो न। मैं नहीं भूलूँगा . . . पक्का। मेरे लिए इंतज़ार मत किया करो माँजी . . . अभी पूरे दस दिन बाक़ी हैं महीना ख़त्म होने में . . .।”

“नहीं भैय्या,” सुषमा जी ने दूध लेते धीरे से कहा, “अगले महीने दूध जारी रहेगा।” 

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