अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अपने हिस्से का चाँद

 

“सुनो कल हमारी 45वीं वैवाहिक वर्षगाँठ है। पैंतालीस वर्ष हो गए हमारे विवाह को। क्या दोगे मुझे?” मीरा पार्क की बेंच पर पसर गई। 

“साथ रह रहे हैं और एक दूसरे को झेल रहे हैं। और क्या चाहिए मोहतरमा? पूरी ज़िंदगी तो ले ली अब और क्या प्राण लेना चाहती हो प्रिये?” शरारत होंठों पर नाच रही थी उसके। 

“अच्छा? पहले याद है मेरे लिए सफ़ेद गुलाब लाया करते थे,” राजेश की चुहल से मीरा सकपका गई। 

“हाँ हाँ बड़ी शांतिप्रिय जो दिखती थी तब और इसी भ्रम में तो आ गया था मैं। पर थी नहीं तुम।” 

“अच्छा?” बहुत अच्छे! और वो कोट याद है जब हम पहली बार ऊटी गए थे तो मेरे लिए कितना ढूँढ़-ढूँढ़ कर एक जैकेट ख़रीद लाए थे . . . वो भी सफ़ेद ही रंग की,” उसने भी चुटकी ले ली। 

“मैं कहाँ लाया था तुम्हारे लिए? मैं तो अपने लिए लाया था पर तुम्हारी रोनी सूरत देखकर तुम्हें पहना दी।” 

“ओ हो। अच्छा तो लड़कियों की जैकेट पहना करते थे ना? क्यों सफ़ेद झूठ बोल रहे हो। छोड़ो भी ना। और वो कोरोना के समय जब मैं संक्रमित हुई थी तो 24 घंटे मेरे सर के ऊपर सवार रहा करते थे। डॉक्टर के कितना मना करने पर भी मेरे पास रह रहकर ख़ुद भी संक्रमित हो गए थे। उसे क्या कहेंगे? अरे बातें न बनाओ।” 

“मेरे लिए और कोई उपाय कहाँ था? खाना जो बनाना नहीं आता था और अकेले घर में बोरियत। इसलिए।” 

“अच्छा। ये तो भगवान का शुक्र है कि तीसरे लहर में संक्रमित हो गयी थी तो ज़िंदा आज भी बचे हुए हैं। चलो ठीक है भई मान गए तुम्हें मुझसे प्यार नहीं। केवल निर्वाह हो रहा है इतने सालों से। चलिए, चलते हैं घर। आज अमावस की रात है। चाँद ऊपर नहीं है। काली रात में चलना मुश्किल हो जाएगा। मुझे दिखाई कम देने लगा है।” 

“कोई बात नहीं मोहतरमा। चाँद ऊपर नहीं है तो क्या हुआ? है तो मेरे बग़ल में जिसने मेरे जीवन को रोशन कर दिया आज वो रास्ता भी दिखा देगा।” मुस्कुराते हुए राजेश ने मीरा हाथ कसकर पकड़ा और दोनों धीरे-धीरे गेट की ओर चलने लगे। रात आज बिना चाँद के ही चमक रही थी। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

डॉ सुरभि दत्त 2023/09/02 10:21 AM

आयु के साथ परिपक्व होते दाम्पत्य संबंध पर प्रभावशाली लघु कहानी। बहुत बहुत बधाई लेखिका डा पद्मावती जी के परिपक्व लेखन को

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

बाल साहित्य कहानी

कहानी

सांस्कृतिक आलेख

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

स्मृति लेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सामाजिक आलेख

पुस्तक समीक्षा

यात्रा-संस्मरण

किशोर साहित्य कहानी

ऐतिहासिक

साहित्यिक आलेख

रचना समीक्षा

शोध निबन्ध

चिन्तन

सिनेमा और साहित्य

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं