स्वातन्त्रोत्तर हिन्दी और तेलुगु काव्य में राष्ट्रीय चेतना: एक सिंहावलोकन
आलेख | शोध निबन्ध डॉ. पद्मावती15 May 2025 (अंक: 277, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
शोध सार
साहित्य और समाज का गहरा सम्बन्ध होता है। साहित्य समय सापेक्ष होता है, युग की पहचान होता है। और समाज समय के साथ परिवर्तित होता रहता है। यह कहना समीचीन होगा कि समय के प्रति सजगता लेखक की पहली अनिवार्यता होती है। समय सापेक्ष रचनात्मकता ही कालजयी बनकर अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाती है। जिस तरह ठहरे हुए पानी में काई जम जाती है और वह पीने के योग्य नहीं रह जाता, ठीक उसी प्रकार साहित्य में ठहराव भी उसे निरुपयोगी बनाकर काल में गर्भ में विलुप्त कर देता है। काल के साथ सतत प्रवाहमयी साहित्य ही सार्थक माना जाता रहा है। इतिहासकारों ने हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का समय उन्नीसवीं शती से माना है। यह काल गद्य के आविर्भाव का काल था। राजनैतिक परिस्थितियों पर दृष्टिपात करें तो इस शती के पूर्वार्ध में देश परतंत्र था और समाज ग़ुलामी की दासता को झेल रहा था। चारों और अशांति और तनाव का वातावरण था। रक्त-पात और मार-काट का बोलबाला था। क्रांतियों और बलिदानों का समय था। राजनैतिक और सामाजिक दृष्टि से यह पूर्वार्ध भले ही उथल-पुथल का युग था लेकिन साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टियों से यह काल अत्यंत प्रौढ़ माना जा सकता है। अस्तु! अंततः कई पुरज़ोर आंदोलनों और सत्याग्रहों के बल पर देश स्वतंत्र हुआ। आज़ादी मिली और देश का विभाजन हो गया। इन सभी स्थितियों की गूँज तत्कालीन गद्य साहित्य में हमें देखने को मिल जाती है।
बीज शब्द: साहित्यिक चेतना का आविर्भाव, ध्वन्यात्मक प्रभाव, नया चिंतन, तेलंगाना मुक्ति संघर्ष, नवीन उद्बोधन।
हिन्दी कविता की बात करें तो बीसवीं शती के पूर्वार्ध में भारत में एक नवीन राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और साहित्यिक चेतना का आविर्भाव हो रहा था जहाँ विचार स्वातंत्र्य को प्रश्रय दिया जाने लगा था। पूर्व और पश्चिम के सम्पर्क से नवीन चेतना उद्भूत हुई जिसने काव्य में रूढ़ि के बंधनों को तोड़ कर उसे नवीन दिशा प्रदान की। इसीलिए आधुनिक काल के प्रथम चरण नवजागरण काल के साहित्य में यदि प्राचीन के प्रति मोह है तो नवीनता के प्रति आग्रह भी। भारतेंदु युग में कवियों की वाणी में देश भक्ति का गाढ़ा रंग था। यह समय की माँग भी थी। द्विवेदी युग में हिंदी परिष्कृत हुई और गद्य और पद्य दोनों में प्रतिष्ठित हो गई। राजनीतिक पराधीनता, उपेक्षितों के प्रति सहानुभूति और देशानुराग जैसे विषय इस दौर में भी साहित्य के विषय बने रहे। वस्तुतः द्विवेदी युग गद्य का युग था पर इस समय में राष्ट्रीय काव्य धारा की भी आशातीत अभिवृद्धि हुई। कविता के क्षेत्र में राष्ट्र कवि गुप्त और हरिऔध इस युग के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर बनकर उभरे जिनकी रचनाएँ राष्ट्रीयता के उदात्त स्वरों का उद्घोष कर रही थी। तदनंतर पाश्चात्य साहित्य से प्रेरित हो कर हिन्दी में भी स्वछंदतावादी साहित्य का बोलबाला हुआ। साहित्यिक दृष्टि से यह काल प्रौढ़तम काल माना गया है। तत्कालीन राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों का अंकन कविता में तो इतना परिलक्षित नहीं हुआ, पर गद्य में प्रेमचंद के आविर्भाव से जन सम्पृक्त सृजनात्मकता का युग स्थापित हो गया। कथा साहित्य कल्पना के रोमांचक वायवी लोक को तज कर यथार्थ की भाव भूमि पर लिखा जाने लगा। लेकिन वहीं कविता में आरंभ के चार दशकों में रूमानियत का ही वर्चस्व रहा। ध्वन्यात्मक लाक्षणिकता की शैली में लिखी गई इस व्यक्तिवादी कविता धारा के बहाव में यत्र-तत्र राष्ट्रवादी कविताओं की लहर भी दृष्टिगोचर हो जाती है। रामेश्वर शुक्ल अंचल, बाल कृष्ण शर्मा नवीन, उदय शंकर भट्ट और रामधारी सिंह ‘दिनकर’, सुभद्रा कुमारी चौहान इत्यादि कई कविओं की रचनाओं में राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी पड़ी है।
आज़ादी के बाद भारत एक शक्तिशाली लोकतंत्र और गणतंत्र बनकर उभरा। समाज शिक्षित होकर अपने अधिकारों और दायित्वों के प्रति सजग हुआ। अपवाद अब भी थे जो हर काल में होते है। नए दार्शनिक विचारों का आलोक चिंतकों साहित्यकारों की वाणी में प्रतिबिम्बित होने लगा जिसने साहित्य के चिंतन की दिशा में अप्रत्याशित परिवर्तन ला दिए। साहित्यकार सौंदर्य का मोह त्यागकर सत्य और शिव की ओर अग्रसर हुआ। विश्व बंधुत्व की भावना से प्रेरित मानव मात्र के कल्याण में उसकी क़लम चलने लगी।
साहित्य नए आयामों में परिभाषित होने लगा। नई लहरों ने साहित्यकारों की अवधारणा में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया। नई जीवन दृष्टि ने नए विमर्शों को जन्म दिया। कहना अतिशयोक्ति न होगा कि उत्तर शती का साहित्य वादों और विमर्शों का साहित्य है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आधुनिक बोध, आदिवासी विमर्श इत्यादि विविध धाराओं ने साहित्य में दस्तक दीं।
बीसवीं शती के उत्तरार्ध में साहित्यकारों ने राष्ट्रीय भक्ति चेतना को भिन्न-भिन्न संदर्भों में परिभाषित किया। इसके पीछे कारण यह था कि अब देश में वो परिस्थितियाँ नहीं थी कि देश के लिए मर मिटने की बात की जाए। बलिदानों के लिए जन मानस को प्रेरित किया जाए। देश को आज़ादी तो मिल चुकी थी लेकिन जिस रामराज्य की कल्पना राष्ट्र कवियों ने की थी, वो भारत दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रहा था। स्वराज्य के रूप में जिस समतावादी समाज की अभीप्सा की गई थी जहाँ बकरी और शेर एक घाट का पानी पी रहे हों। जहाँ चारों ओर चैन की बंसी बज रही हो, ऐसी स्थितियाँ तो बनी नहीं। और तो और पहले सब जन एकजुट होकर देश को आततायियों से विमुक्त करने में लड़ जुट गए थे और अब भाषाओं के आधार पर राज्यों का विभाजन हो रहा था। धरती बँट गई, नदी नालों के पानी का बँटवारा हो गया। दक्षिण में मद्रास, कर्नाटक, आंध्र अपनी सीमाएँ निर्धारित कर भाषाई आधार पर अलग स्वतंत्र राज्य बन कर उभर रहे थे। इस विभाजन हेतु अब स्थानीय स्तर पर आंदोलन होने लगे। आमरण अनशन होने लगे। भाई-भाइयों में आपसी कलह और द्वेष की ज्वालाएँ उठने लगीं। और राष्ट्रीय परिदृश्य भी इससे भिन्न न था। राष्ट्रीय स्तर पर उत्तरशती में भारत पाक विभाजन की त्रासदी, भारत चीन युद्ध, साम्प्रदायिकता, बेरोज़गारी, आतंकवाद, निजीकरण, बाज़ारवाद इत्यादि कई समस्याएँ अजगर की भाँति मुँह खोले खड़ी थीं। देश अशांत था तो साहित्यकार इन स्थितियों से कैसे विमुख रह सकता था? इन सभी गतिविधियों की सशक्त अभिव्यक्ति का माध्यम बना उत्तरार्ध का हिंदी साहित्य। इन सभी विसंगतियों के बावजूद स्वातंत्रोत्तर हिंदी कविता में भारतीयता की महक है, आशावादी विचारधारा पोषित हो रही है, अस्तित्ववाद के प्रति गहन आस्था के दर्शन होते है और राष्ट्रीय चेतना को नए संदर्भों में अभिव्यक्ति मिली है।
उत्तर शती का राष्ट्र वाद अपनी संश्लिष्टता में नहीं बल्कि अपने विशिष्ट दायरों में पहचान बना कर नए संदर्भों में व्याख्यायित हुआ है। रचनाकार युग के सुख-दुख का सहभागी होता है। वह रचना में तत्कालीन युग को प्रतिबिम्बित करता है। उसके सभी पक्षों की समालोचना करता है। साहित्य का युग से सीधा सम्बन्ध होता है। युग जीवन को साहित्य की अपेक्षा रहती है। अर्थात् दोनों अन्योंन्याश्रित है। आज साहित्यकार का रचनात्मक बोध इन समस्याओं के समाधान ढूँढ़ने में सार्थकता पा रहा है। उत्तर शती के साहित्य की राष्ट्रीय चेतना समाधानंवेषी है, नव आशावादी है, नव निर्माण की अभिलाषी है।
प्रस्तुत है कुछ उल्लेखनीय कवियों की रचनाओं का विहंगावलोकन . . .
रामधारी सिंह दिनकर: मुख्यतः जन चेतना के गायक है। भारत की स्वतंत्रता पूर्व इनकी रची रचनाओं में जहाँ ब्रिटिश शासन के विरोध के स्वर गूँजते है, वहीं स्वराज्य के पश्चात आशा के अनुरूप देश की स्थिति न देखकर इनके हृदय में चिंगारी भड़क उठती है। वे राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता के सजग प्रहरी रहे हैं। उनकी कविताओं में क्रांति का उद्घोष है, पीड़ित दलित उपेक्षित समाज के प्रति सहानुभूति है, विश्व कल्याण की भावना है।
“कह दो निज अस्तमित विभा से, तम का हृदय विकीर्ण करे,
होकर उदित पुनः वसुधा पर, स्वर्ण मरीचि प्रकीर्ण करे॥”1
स्वातंत्रोत्तर काल का कवि परिवेश के प्रति काफ़ी सजग है। युगीन समस्याओं से जूझना उसकी नियति अवश्य है, लेकिन फिर भी वह इन तमाच्छादित स्थितियों में भी आशा की डोर नहीं छोड़ता।
ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी ऐसे ही कवि है जिन्होंने राष्ट्रीय भावना को अपनी रचनाओं में सर्वत्र ध्वनित किया। कलरव, पांचजन्य, पाषाण के आँसू, पांचजन्य की पुकार, दर्दों के बादल आदि सभी रचनाएँ राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत है।
जनकवि नागार्जुन की कविताएँ भी मानव मन की खंडित छवियों का ही चित्रण नहीं करती बल्कि सामाजिक विरूपता, राजनैतिक विश्रृंखलता, धार्मिक रूढ़ियों पर तीव्र व्यंग्य कसती हैं। कवि का सजग मन वर्तमान पर क्षुब्ध है लेकिन भविष्य के प्रति निराश नहीं।
एक उदाहरण प्रस्तुत है—
“पेट-पेट में आग लगी है, घर घर में है फ़ाक़ा,
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का॥”2
“पद्म-भूषणों, भारत रत्नों से उनके उद्गार लो,
पार्लमेंट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो,
यह तो नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो,
जय ब्रिटेन की, जय हो इस कलि काल की,
आओ रानी, हम ढोएँगे पालकी॥”3
केदारनाथ सिंह प्रगतिशील यथार्थवादी राष्ट्रीय कवि है जिनकी रचनाओं में राष्ट्र का ऊँचा और उदात्त स्वर मुखरित हुआ है। सत्ता और अधिकार का विकेंद्रीकरण उनका अभीष्ट है। इन्होंने अपनी प्रज्ञा और प्रतिभा से नए प्रतिमान बनाए हैं। नई परिभाषाएँ गढ़ी हैं। तत्कालीन घटनाओं और विचारधाराओं के आंतरिक और बाह्य दबावों व अंतर विरोधों से इन्होंने संघर्ष करते हुए नवीन चेतना का निर्माण किया है। वे आशावादी हैं कि युग की गंगा रूढ़ियों की चट्टान तोड़ देगी और नए संसार का निर्माण करेगी।
“जो जीवन की आग जला कर आग बना है,
फ़ौलादी पंजे फैलाए नाग बना है,
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है,
जो युग के रथ का घोड़ा है,
वह जन मारे नहीं मरेगा, नहीं मरेगा॥”4
विगत काल में भारत ने राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में गौरवशाली इतिहास और परंपराओं को आत्मसात करते हुए मानवीयता, समानता, सहिष्णुता, धर्म-निरपेक्ष लोक तांत्रिक जीवन पद्धति इत्यादि मूल्य अर्जित किए थे। सत्यम शिवम सुंदरम का आदर्श मानव हृदय पर अंकित किया था। विश्व बंधुत्व की भावना को पुनः प्रतिष्ठित किया था। लेकिन आज भौतिकता की अंधी दौड़ में ये मूल्य शनैः शनैः तिरोहित हो रहे हैं। भौतिक विकास को पाने के लिए जीवनोपयोगी आदर्श हाशिए पर चले गए। अमानवीय प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा ने भोगवादी संस्कृति को जन्म दिया। मनुष्यता जैसी संवेदनात्मक भावनाएँ अपना अर्थ खो चुकी है। आज कवि इन विसंगतियों को झेलता करुण क्रंदन कर बैठता है। जिस स्वराज्य के लिए प्राणों का उत्सर्ग किया गया, आहुतियाँ दी गई, हँसते-हँसते खंभों पर झूल गए, आज देश किन आदर्शों को जी रहा है? मानवता की पहचान आज संदेह के घेरे में चली गई है देश पर गहरा संकट छाया हुआ है। धूमिल के शब्द देखिए—
“हाँ हो सके तो बग़ल से गुज़रते, अपनों से कहो,
लो तुम्हारा चेहरा,
जुलूस में पीछे गिर पड़ा था॥”5
भ्रष्ट शासन प्रणाली पर कुँवर नारायन की पंक्तियों में करारा व्यंग्य देखिए—
“सुबह जागे लोग थककर जो,
सड़कों फुटपाथों पर सोए थे।,
सरकारी रास्तों को साफ़ कराया,
तो सोने और जागने का पूरा
संदर्भ ही बदल चुका था॥”6
एक ओर विश्व सिमटता जा रहा है, ग्लोबल विलेज की संकल्पना की जा रही है। और वहीं आदमी आदमी से कट गया है। विकास काग़ज़ी आँकड़ों तक सिमट कर रह गया है। चारों ओर आतंक . . . असुरक्षा . . . छल, छद्म . . . राजनीति भ्रष्टाचार की नियति बन गई है। कवि क्षुब्ध है—
“इस महानगर में जहाँ भी जाता हूँ,
कुर्सी पर साँप को कुँडली मारे बैठा देखता हूँ,
दफ़्तरों और रेस्तरां में इनकी फुफकार उठती है॥”7
दरअसल देश का अर्थ किसी राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में बँधे भूमि के टुकड़े से नहीं होता। देश का व्यापक अर्थ होता है . . . यहाँ की जनता, यहाँ के आदर्श और यहाँ की संस्कृति की महक। जब देश में दंगे फ़साद की ज्वाला जल रही हो तो कवि हृदय कैसे शांत रह सकता है। देश का विभाजन त्रासदी पूर्ण घटना थी जिसने हर एक प्राणी को उद्वेलित किया था। लाखों निरीह बेघर हो गए थे चाहे फिर वह हिंदू था या मुसलमान। दंगों की रक्तस्नात विभीषिका से व्यग्र होकर कवि क्रंदन कर उठता है—
“दानों को मोहताज हो गए, दर-दर बने भिखारी,
भूख अकाल महामारी से, दोनों की लाचारी।
आज धार्मिक बना धर्म का नाम मिटाने वाला,
मेरा देश जल रहा है, कोई नहीं बुझाने वाला॥”8
साहित्यकार समय से आगे चलता है। परिवर्तन की प्रक्रिया में अग्रगामी होता है। यथा स्थिति को बदल कर नए युग निर्माण का कर्णधार होता है। अपनी अमूर्त आकांक्षाओं को मूर्त शब्दों में पिरोता है। उत्तर शती के कवियों की राष्ट्रीयता आशावादी दृष्टि से सर्वथा वंचित नहीं है। कवि सामयिक समाज की राजनैतिक क्षुद्रता, धर्मांधता, अलगाव वाद, आतंकवाद, प्रांतीयता, भाषाई विरोध जैसी चुनौतियों के सामने समाधान खोजने में प्रयत्न रत है। वह षड्यंत्रकारी पद-लोलुपता धूर्त प्रवृत्ति का पर्दाफ़ाश कर राष्ट्र के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता और समर्पण का लालायित है—
“इस विशद विश्व प्रहार में, किसको नहीं बहना पड़ा,
सुख दुख हमारी तरह, किसको नहीं सहना पड़ा।
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ, मुझ पर विधाता वाम है . . .
चलना हमारा काम है, चलना हमारा काम है॥”9
हिंदू और हिंदुत्व पर कवि को गर्व है। भारत माता ज्ञान की देवी सरस्वती का रूप है। भारत विश्व गुरु था, है और रहेगा। कवि अतीत का गुण गान करता है और भविष्य के प्रति आशावान है। उसे गर्व है कि इस पुण्य भूमि में उसका जन्म हुआ है। इसी संदर्भ में पूर्व प्रधान मंत्री अटल जी की कविता की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं—
“फिर अंतरात्मा की ज्वाला से जगत में आग लगा दूँ मैं,
यदि धधक उठे जड़ चेतन अम्बर तो कैसा विस्मय?
हिंदू तन मन, हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय,
मैंं अखिल विश्व का गुरु महान, देता विद्या का अमर दान।
मैंंने दिखलाया मुक्ति मार्ग, मैंंने सिखलाया ब्रह्म-ज्ञान,
गुंजार उठे ऊँचे स्वर में “हिंदू की जय तो क्या विस्मय?
“हिंदू तन हिंदू मन रग रग हिंदू मेरा परिचय॥”10
अंत में संक्षेप में कहा जा सकता है स्वातंत्रोत्तर हिंदी काव्य नई चेतनाओं को संदर्भित करता चला है।
व्यक्तिवाद की घोर अनास्था, अति बुद्धिवाद क्षणिक वाद का ह्रासोन्मुख अतिरेक भले ही कविताओं में सर्व व्याप्त रहा हो, लेकिन वहीं उत्तरार्ध का साहित्य ज्ञान विज्ञान की संचेतना को आत्मसात कर मुक्त विकास की प्रेरणा ग्रहण करता हुआ राष्ट्र के विकास में अपनी यथा शक्ति सहभागिता दर्ज कराने का प्रयत्नशील साहित्य भी माना जा सकता है। इन कवियों की राष्ट्रीयता भारतोत्थान की अवधारणा पर आधारित है। यही उसकी सच्ची देश भक्ति है, देश के प्रति सच्ची कृतज्ञता है।
तेलुगु साहित्य राष्ट्रीयता: एक विहंगावलोकन
राष्ट्र की आज़ादी मानव संसृति को बीसवीं शती की महान उपलब्धि मानी जा सकती है। अहिंसा के बल पर अर्जित भारत की स्वतंत्रता ने पूरे विश्व के सामने एक आदर्श उपस्थित कर दिया। विद्रोह की ज्वालाओं के साथ सम्पूर्ण भारत में नवजागरण की नई चेतना में जन्म लिया जिसने जन मानस को कई स्तरों पर प्रभावित किया। तेलुगु साहित्य भी इन हलचलों से अछूता न रह सका।
साहित्यकारों ने अपनी धारदार क़लम से समाज संस्कृति सभ्यता इतिहास अतीत के विभिन्न बिंदुओं को समेटते हुए तत्कालीन मानवीय पीड़ा और उसके समष्टि गत समस्याओं को लक्षित कर अपनी सृजनात्मक क्षमता के आलोक में उन प्रश्नों के हल ढूँढ़ने का प्रयास किया है। समाज आंदोलनों से आक्रांत था। इन्हीं गतिविधियों की सशक्त अभिव्यक्ति तेलुगु साहित्य में परिलक्षित होती है। अगर उन आंदोलनों को चिह्नित किया जाए जिसने तेलुगु साहित्य को अत्यंत प्रभावित किया तो मुख्यतः तीन आंदोलन मोटे तौर पर हमारे सामने आते है। वे हैं—
स्वतंत्रता आंदोलन, आंध्र मुक्ति संग्राम, तेलंगाना मुक्ति संघर्ष।
तेलुगु साहित्य का आधुनिक काल उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध से माना जाता रहा है। इस काल को हम हिंदी साहित्य में नव जागरण युग के नाम से अभिहित करते है। इस काल के तेलुगु साहित्य में सर्वत्र देश भक्ति और राष्ट्रीयता की लहर पाई जाती है। स्वतंत्रता संग्राम में जहाँ शहीदों ने प्राणों की आहुति देकर देश के प्रति अपनी श्रद्धा ज्ञापित की वहीं अपनी क़लम के बल पर इस संग्राम में महत्ती भूमिका दर्ज कराने वाले देश भक्त कवियों में सर्वप्रथम चिलकमर्ती लक्ष्मी नरसिंहम, गरिमेल्ला सत्यनारायना, रायप्प्रोलु सुब्बा राव, बसवराजु अप्पा रावु, देवुलपल्ली वेंकट कृष्ण शास्त्री, विश्वनाथ सत्यनारायना, मैगी पूड़ी वेंकट शर्मा, इत्यादि कवियों का नाम श्रद्धा के साथ लिया जा सकता है। इन क़लम के सिपाहियों की रचनाओं में जन जागरण के आह्वान के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता का उदात्त स्वर गुंजायमान् है। अतीत का गौरव गान और वर्तमान की दीन दशा और सामयिक हलचलों को इन रचनाओं में समग्र अभिव्यक्ति मिली है। इनके शब्द बाणों ने आंध्र जन मानस में देश भक्ति का ऐसा मंत्र फूँक दिया कि चारों ओर ऊर्जा और उत्साह की लहर फैल गई। इन क़लमकारों ने अपनी ओजस्वी रचनाओं से नव चेतना का बीज बो दिया था। आधुनिक शिक्षा के आलोक में इन्होंने इस तथ्य को जान लिया कि ज्ञान और साधन सम्पन्न भारत की दुर्दशा का कारण अज्ञान का अंधकार है जिसके चलते कई मूढ़ मान्यताएँ और अंध विश्वास रूढ़ियाँ बनकर जीवन को खोखला कर रही है। इन अंध रूढ़ियों से मुक्ति ही विकास का सोपान है। इन क़लम के योद्धाओं ने समाज सुधार का बीड़ा हाथ में लिया और प्राचीन रूढ़ियों का खंडन व नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा को अपनी कविताओं का विषय बनाया। अधिकतर कविताएँ गीति शैली पर आधारित थी जो साधारण जन मानस पर त्वरित और स्थायी प्रभाव डालने में सक्षम थी। चिलकमर्ती की रचनाएँ ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह की चिंगारियाँ उगलती है वहीं देवुलपल्ली का काव्य प्राचीन रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष का काव्य है।
जिस प्रकार हिंदी कविता के कई सोपान है, उसी प्रकार तेलुगु काव्य ने भी अपनी यात्रा में कई पड़ावों को पार किया है। ध्यातव्य है कि बीसवीं शती के पूर्वार्ध में हर भारतीय भाषा के साहित्य में देश भक्ति भावना की लहर ही विशेष रूप से व्याप्त रही। यह युग की आवश्यकता भी और अनिवार्यता भी। क्योंकि अधिकतर कवि समाज सुधार की मंगल कामना से प्रेरित होकर ही अपनी रचनाएँ लिखते थे। तेलुगु कवि भी इसका अपवाद नहीं। गुरुजाडा की वाणी हुंकार कर उठती है, “देशमंटे मट्टी कादोई, देशमंटे मनुषुलोई।” (देश का अर्थ मिट्टी नहीं, देश का सही अर्थ है, यहाँ के प्राणी, यहाँ बसने वाले जन)।
इस युग का कवि विदेशी आततायियों की नृशंस अत्याचारों का साक्षी रहा था। वह ‘सुनी’ नहीं, ‘देखी’ लिखता था। इसी कारण पीड़ित मानव मन की व्यथा उसके साहित्य में सर्वथा व्याप्त रही है। सामाजिक दुर्व्यवस्था विधवाओं की दयनीय स्थिति, बाल विवाह, नारी उत्पीड़न, अशिक्षा जैसी सड़ी गली रूढ़ियों के विरोध में उनकी क़लम पैनी बनकर धारदार चोट करती है। राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य भारत को विदेशी शासन से मुक्त करना तो था ही, पर वहीं हर प्रकार की सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक ग़ुलामी और अन्याय का अंत करना भी था।
अंग्रेज़ी सत्ता के विरुद्ध गरिमेल्ला की कविता, “माकोद्दु ई तेल्ल दोरा तनमु” (हमें इन सफेदों का शासन नहीं चाहिए) ने पूरे प्रांत में इतनी हलचल मचाई थी कि अँग्रेज़ों की तो नींद ही हराम हो गई थी।
बीसवीं शती के पूर्वार्ध में जो नवचेतना जनमानस में जगी थी, वही चेतना उत्तरार्ध में फली फूली और संपोषित हुई। दूसरा मुख्य उल्लेखनीय बिंदु जिसकी सशक्त अभिव्यक्ति का माध्यम तेलुगु साहित्य बना था . . . वह था—‘आंध्र मुक्ति संग्राम’। स्वतंत्रता के बाद यह आंदोलन राष्ट्र स्तर पर एक महत्त्वपूर्ण पहल माना जा सकता है। विदित है स्वतंत्रता के पूर्व उड़ीसा राज्य ने भाषाई आधार पर स्वतंत्र राज्य की संकल्पना की अगवाई कर यह बिगुल बजा दिया था। दक्षिण में मद्रास आंध्र और कर्नाटक एक छतरी के नीचे थे। आन्ध्र जन ने आज़ादी के बाद पृथक राज्य की माँग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया। इस आंदोलन के पुरोधा बने स्वतंत्रता सेनानी समाज सुधारक पोट्टी श्री रामुलु जिन्होंने इस संघर्ष में आमरण निराहार व्रत का संकल्प लेकर अपने प्राणों की आहुति दे दी थी . . . जबकि वे भली-भाँति इस तथ्य से परिचित थे कि सरकार यह निर्णय कभी नहीं लेगी। फिर भी साहस दिखाते हुए उन्होंने अनशन का प्रण लिया था। जिसकी आशा थी वही परिणाम हुआ। वे शहीद हो गए और शुरूवाती दौर के ‘शान्ति आंदोलन’ ने भयंकर हिंसात्मक मोड़ ले लिया। सत्ता घुटने टेकने पर मजबूर हो गई और 1953, 1अक्तूबर को आंध्र मद्रास से विलग होकर स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित हो गया। स्वातंत्रोत्तर कवियों की रचनाधर्मिता इस विजय से काफ़ी प्रेरित हुई। उन्होंने इस आंदोलन की जीवंत चेतना को अपनी रचनाओं में ज़ोर शोर से महिमा मंडित किया है।
इस काल के तेलुगु कवियों ने राज्य निर्माता कर्णधारों के प्रति भी अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है। इस काल की रचनाओं में आंध्र भूमि के लिए प्रेम और उत्सर्ग की भावना विशेष दर्शनीय है। इन कवियों ने आंध्र के गौरवमयी इतिहास का अंकन करते हुए जनमानस में जन्मभूमि के प्रति आदर भाव को पुनः प्रतिष्ठित कर दिया। अतीत का गौरव गान और नवीन का उद्बोधन इन कवियों का अभीष्ट रहा था। इन कवियों में पुरोधा थे ‘रायप्रोलु सुब्बा राव’, जिन्होंने ’मेरी जाति, मेरी भूमि, मेरी भाषा’ का समवेत नारा देकर लोगों में जन्मभूमि के प्रति आदर सम्मान को साकार कर नवीन पीढ़ी के लिए लक्ष्य निर्धारित कर दिया था . . . और वह लक्ष्य था . . . स्वतंत्र ‘आंध्रप्रदेश की स्थापना’। आंध्र पुनरुत्थान की इसी परम्परा में एक और उल्लेखनीय हस्ताक्षर रहे थे विश्वनाथ सत्यनारायना जिन्होंने राष्ट्र कवि गुप्त के पद चिह्नों का अनुसरण कर आंध्र के वीर नायकों की साहसी शौर्य गाथाओं को अपने काव्य में चित्रित कर लोगों में उत्साह और ओज भर दिया था। इसी शृंखला में कवि द्वय तुम्मला सीता राम मूर्ति और चंद्र मूर्ति का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है जिन्होंने ‘आंध्र निर्माण’ में अपनी महती भूमिका अदा की थी।
स्वातंत्रोत्तर तेलुगु काव्य में राष्ट्रीयता का एक और महत्त्वपूर्ण बिंदु है विशालांध्रा की संकल्पना को साकार करता हुआ ‘तेलंगाना मुक्ति संघर्ष’। बीसवीं शती के उत्तरार्ध में राष्ट्रीयता ‘जन्मभूमि, मातृ भाषा’ के संदर्भों में व्याख्यायित होने लगी। आंध्र राज्य का निर्माण होने के बाद भी हैदराबाद और तेलंगाना के कुछ प्रदेशों को इस राज्य में जोड़ा नहीं गया था जबकि इन प्रदेशों की भाषा भी तेलुगु ही थी। हैदराबाद के निज़ामों की अमानवीय पूर्ण दासता के विरोध में आज़ादी का बिगुल बजाता संघर्ष है ‘तेलंगाना मुक्ति संघर्ष’। इस संघर्ष को आवाज़ दी ‘दूपाटी शेषाचार्यलु’ और ‘दूपाटी वेंकट रमनचार्युलु’ जैसे क्रांतिकारी द्वय कवियों की वाणी ने जिन्होंने तेलंगाना की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का गौरव गान अपनी पुस्तक ‘निज़ाम राष्ट्र प्रशस्ति’ में कर लोगों में तेलंगाना के गौरवमयी इतिहास को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया।
इसी दौर में अगला उल्लेखनीय नाम दासरथी कृष्नामाचार्य और सी नारायन रेड्डी का आता है जिन्होंने तेलुगु काव्य क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन कर नवीनता का आह्वान किया। इनकी रचनाओं में सौंदर्य बोध के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना के भी दर्शन होते है। स्वतंत्रता आंदोलन, आंध्र मुक्ति और तेलंगाना संघर्ष इन तीनों को आत्मसात करती इनकी क़लम चली है। दासरथी की आरंभिक रचनाएँ सूक्ष्म अनुभूतियों की भावपूर्ण व्यंजना को उकेरती चली है लेकिन प्रकारांतर से ये भी पंत की भाँति मानवता वादी विचारधारा से अभिभूत होकर प्रगतिशील काव्य सृजन में प्रवृत्त हुए।
इनकी रचनाओं में देश प्रेम की अग्नि है, राष्ट्रीयता की ज्वालाएँ हैं।
मातृभूमि के मान में कुछ पंक्तियाँ दृष्ट्व्य हैं—
“ओ जनता, नतांजलि पुटोज्वल, दिव्य कवोष्ण, रक्तधारा जलसिक्ता,
पाद कमला द्वय शोभी मनोज्ञ्न देहरेखा,
जय भारती॥”11
इस काव्य संग्रह की हर कविता अनुपम सौंदर्य से ओत-प्रोत है। कवि ‘भारत माँ’ की ‘ईश्वरी अम्बिका’ के रूप में आराधना करता है जिसका मान सम्मान माँ आदि लक्ष्मी के कौस्तुभ मणि और कल्पवृक्ष से भी ऊँचा है। इनकी रचनाओं में देश स्वाभिमान के प्रतीक उन सभी महान नेताओं का भी प्रशस्ति गान है जिन्होंने माँ भारती को अँग्रेज़ों की दासता से मुक्त कर भारत माँ के मान की रक्षा की है।
सुंदर शब्द विन्यास और भावपूर्ण अनुभूतियों से रचित काव्य में दासरथी ‘विशालांध्र संघर्ष‘ को ‘बसंत का हास’ कह कर संबोधित करते हैं। ये केवल क़लम के वीर ही नहीं थे बल्कि प्रत्यक्ष रूप से इन्होंने इन सभी आंदोलनों में भाग लिया था। तेलंगाना संघर्ष में इनका योगदान अभूतपूर्व रहा। इसी परम्परा के पोषक कवियों में कंदूकूरी आंजनेयुलु, गंगीनेनी कालोजी, कोडला वेंकटरावु, इत्यादि का नाम लिया जा सकता है।
विशालांध्र की संकल्पना को मूर्त रूप देने में सी नारायण रेड्डी का ‘दिव्वेला मुव्वलु’ और सत्यनारायन शास्त्री की ऐतिहासिक कालजयी रचना ‘आंध्र पुरानम’ भी मानी जा सकती है।12
अगला युग तेलुगु साहित्य में ऐसा आया जिसने एक क्रांतिकारी परिवर्तन कर साहित्य को नई दिशा प्रदान की। व्यक्तिवादी सूक्ष्म भावनाओं के चित्रण में जिन कवियों की क़लम भावनात्मक बिम्बों का सृजन कर रही थी, वे अब शोषक शक्तियों के ख़िलाफ़ अग्नि शिखाएँ बनकर चतुर्दिक अंगारों की बौछारें करने लगी। इस धारा में श्रीरंगम श्रीनिवास राव का नाम विशेष उल्लेखनीय है जिन्होंने तेलुगु साहित्य को एक नया मोड़ देकर युग प्रवर्तक की भूमिका में हमारे सामने आते है। इन्होंने साहित्य की भाव सलिला में आमूल-चूल परिवर्तन ला दिया। इसी कारण तेलुगु साहित्य में श्री श्री का साहित्य मील का पत्थर माना जाता है। इनकी परम्परा के पोषक कवियों में बेल्लमकोण्ड रामदास, रेंटाला गोपाला कृष्णा, गंगीनेनी रमना रेड्डी, इत्यादि कवियों का नाम सम्मिलित हैं।
इस दौर में स्वतंत्र राज्य बनकर आंध्र प्रदेश स्थापित तो हो गया था, लेकिन जिस दिवास्वप्न को अहर्निश संघर्ष से फलीभूत किया था, वह उन मानदण्डों पर खरा नहीं उतरा था जिसकी आशा की थी। कई अनुत्तरित प्रश्न अब भी समाज को मथ रहे थे। समाज साम्प्रदायिक, जातिगत, धार्मिक भेद-भावों से जूझ रहा था। दलबंदी, गुटबंदी, वंचितों के शोषण ने जनमानस को खंडित कर दिया। इन्हीं विसंगतियों के विद्रोह में इस दौर के लेखकों का एक दल उग्रवादी बन गया। यह तेलुगु साहित्य में एक अप्रत्याशित मोड़ था। इन कवियों ने समाज की हर एक शोषक शक्ति के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। इनकी धारदार लेखनी इतनी पैनी हो उठी कि मर्यादा की हर दीवार लाँघ गई। इस प्रकार के साहित्य से तेलुगु में एक नई उग्र धारा का सूत्र पात हुआ जिसे ‘दिगम्बर कविता’ की संज्ञा दी गई और इन कवियों को विद्रोही विप्लवकारी कवि के नाम से अभिहित किया गया। दमनकारी शोषक शक्तियों के विरुद्ध विद्रोह की छटपटाहट इनके काव्य में आक्रोश बन कर उभरी है। साम्यवादी सिद्धांतों का अक्षरशः पालन करते लिखा गया उग्रवादी काव्य है ‘दिगम्बर कविता’। इन कवियों की लेखनी वंचितों के प्रति सहानुभूति और शोषकों के प्रति ज्वालामुखी बनकर आग उगलती है। ये कवि अधिकतर अपने उपनामों से ही साहित्य रचना में प्रवृत्त हुए है जिनके नाम है . . . नग्न मुनि, ज्वालामुखी, निखिलेश्वर, चंदबंदराजु, भैरव्य्या और महास्वपन। इन पर मायोवादी सिद्धांतों का आरोप भी किया गया है।
उपसंहार
निष्कर्षतः यह सर्वमान्य तथ्य है कि लेखक समाज का प्रहरी होता है। वह समाज से प्रेरणा लेता है तो समाज को दिशा देने का नैतिक कर्त्तव्य भी निभाता है। तेलुगु और हिंदी साहित्यकारों ने तत्कालीन समाज को अपनी समग्रता में चित्रित किया है। युग संपृक्तता ही साहित्य को अमर बनाती है। अभी और पड़ाव बाक़ी है। आशा है ऐसा की समाजोन्मुख साहित्य भविष्य में भी लिखा जाएगा और एक नवीन इतिहास का सृजन करेगा।
संदर्भ सूची:
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“रश्मि आलोक”-रामधारी सिंह दिनकर–पृ.सं 215
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नागार्जुन, “चमत्कार”–साभार-कविता कोश
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नागार्जुन, “आओ रानी”–साभार हिंदवी
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केदारनाथ अग्रवाल, “जो जीवन धूल चाट कर बड़ा हुआ है” –साभार कविता कोश
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धूमिल, “संसद से सड़क तक”–पृ.सं. 8
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कुँवर नारायण, “पहला सवाल”-पृ.सं. 67
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भरत भूषण अग्रवाल, “एक उठा हुआ हाथ”–पृ. सं. 21
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शिव मंगल सिंह, “मेरा देश जल रहा है” साभार कविता कोश
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शिव मंगल सिंह, “मेरा देश जल रहा है”-साभार कविता कोश
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“मेरी इक्यावन कविताएं”-अटल बिहारी वाजपई-साभार कविता कोश
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“अग्निधारा”–दासरथी कृष्णामाचार्य–विकि सोर्स
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Influence of Independence, Andhra and Telangana Movements on Telugu Poetry–Triveni Journal-Mar 1991-By Dr K.V.S. Murthy–साभार विकि सोर्स
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