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पारिजात 

 

“दीदी . . . मुनिया फर्स्ट डिनिशन में पास हो गई है . . . और ये सब आपकी मेहनत है दीदी वरना मैं अकेली कहाँ कर पाती ये सब?” कम्मो आकर सीढ़ियों पर धम्म से बैठ गई। मुनिया उर्फ़ परी भी आई थी पीले रंग के सलवार सूट में। परी थी तो केवल सत्रह बरस की पर भरे हुए बदन के कारण काफ़ी बड़ी लग रही थी आज मीरा को। श्याम-वर्णी चेहरे पर निखार देखते ही बनता था। चेहरा खिला-खिला . . . नव यौवन की आभा में नहाई-सी। तीखे नैन नक़्श, पतला माथा . . . गहरी काली आँखें और घनी लंबी चोटी। ऐसी मूरत थी जैसे मंदिर की कोई सुंदर प्रतिमा हो। इतने ध्यान से मीरा ने उसे कभी न देखा था। वह आश्चर्यचकित-सी उसे देखे जा रही थी। और वो . . . आई तो थी उछलती पर मीरा को यूँ अपनी ओर यूँ तीक्ष्ण दृष्टि से निहारते देख उसका उबाल थम सा गया। कपोल पर गुलाबी रंग उतर आया। झट से सँभली और सिमटी सी नज़रें झुकाए पाँव के अँगूठे से धरती खुरचती चुपचाप ताकती रही—कभी ज़मीन को तो कभी मीरा को। 

 सत्रह साल . . .। हाँ . . . कम समय नहीं था। 

“दीदी . . . दीदी दरवाजा खोल . . . देख तो क्या है?” 

उस रात दस बजे अचानक मीरा की आँख खुली और वह हड़बड़ा कर पलंग पर उठ बैठी। बदहवास सा दरवाज़ा कोई पीट रहा था और धीमे-धीमे से कम्मू की आवाज़ कानों में सुनाई पड़ रही थी। कुछ पल के लिए तो वह पलंग से उठ भी न सकी। इतनी रात गए तो वह कभी उसके घर न आती थी। फिर कौन हो सकता है? आवाज़ तो उसकी ही लग रही है। खोलूँ या नहीं? 

इसी उधेड़बुन में थी कि फिर दरवाज़ा पीटने की आवाज़ आई, “दीदी खोलो मैं कम्मो . . . खोलो दरवाजा।” 

डरते-डरते उसने दरवाज़ा खोला। पति भी अपने काम से बाहर गए हुए थे और वह घर में अकेली थी इसीलिए डर गई थी। 

“क्या है? इतनी रात गए यहाँ क्यों आई है और दरवाज़ा क्यों पीट रही है?” आँखें सायास खोलते मीरा ने उसे देखा तो पहले न जाने क्यों उस पर शक हुआ। ऐसा क्या हुआ था कि वह सुबह का इंतज़ार भी न कर पाई। 

“देख दीदी . . . इंसान का बच्चा। इंसान का बच्चा है . . .,” तेज़ी से वह अंदर घुस आई और दरवाज़ा बंद कर आँचल की गठरी खोल मीरा को कुछ दिखाने लगी। अंदर आते ही अपने साथ दुर्गंध भी ले आई। 

“देख . . . इस मासूम को देख . . . कूड़े के ढेर पर फेंक दिया है किसी इज्जतदार ने . . .। लड़की है लड़की और वो भी जिन्दा! कैसे लोग हैं? . . . इतनी भी ममता नहीं। जन कर फेंक दिया? क्या करूँ इसका? तुम ही कहो दीदी।” 

मीरा का मुँह खुला का खुला रह गया। सहमी अधखुली आँखें पूरी होश में आ गईं। जड़वत देखने लगी कभी कम्मो को तो कभी मैले सूखे आँचल में लिपटे उस मांस के लोथड़े को। दिमाग़ झनझना गया। कब उसकी हथेली अपने नाक और मुँह पर चली गई पता ही न चला। तय न कर पा रही थी कि क्या कहे . . . क्या अधिक डरावना था? . . . बच्ची का कूड़े के ढेर पर पाया जाना? या फिर इस मूर्ख का इतनी रात गए चोरी-छिपे उसे उसके घर ला देना . . .? 

कूड़े के ठेर पर नवजात? कितनी अमानवता? कितनी निर्मम माँ होगी? फेंक दिया . . .? लोक-लाज के डर से या लड़की होने के अभिशाप से? क्या था यह? कैसी मजबूरी? न पाल सकने की विवशता थी या फिर प्रेम में छलावे का परिणाम . . .? 

“दीदी . . . बोल न? . . . मैं क्या करूँ?” उसे इस तरह जड़ होते देख कम्मो घबरा गई। “कुछ न सूझा . . . बस ले आई,” उसका बोलना जारी था। “अब कुछ भी हो। अच्छा या बुरा। पता है तुझे . . . थी यह बच्ची कूड़े पर और आस-पास किसी में इतनी हिम्मत न थी कि उसे अस्पताल ही पहुँचाए। और तो आवारा कुत्ते भौंके जा रहे थे उस गठरी के आस-पास। अगर कोई न होता हो तो नोंच चुके होते। किसी में हिम्मत न थी . . . हाँ . . . हिम्मत न थी। वे खड़े तमाशा देख रहे थे और कुछ पुलिस का इंतजार। शायद दीदी किसी ने पुलिस को खबर भी दे दी है। वो आने वाली है। कुछ तो नाक पर रुमाल रखे झाँक-झाँक देखकर निकले जा रहे थे। अँधेरा और ट्रैफिक। मौका देख बिना देर किए मैं कूड़े में घुस गई और इसे उठा लिया। ले आई बच्ची को सीधे तेरे पास . . .। लोग चिल्लाते रहे पर मुझे किसकी परवाह और . . . किसकी फिक्र? मुझे देखते ही बिचक गए सब के सब . . . बदमाश . . . लोग। लगा होगा उन्हें—चलो। हटो . . . परेशानी दूर हुई। अब तू बता दीदी एक जान को कैसे मरने को छोड़ देती, दीदी चल इसे अस्पताल ले चलते हैं?” 

वे बेटोक बोले जा रही थी और बार-बार बच्ची को सहलाए जा रही थी—और आँखों में ममता पानी बन कर बहे जा रही थी। 

पर मीरा के तो होश उड़ चुके थे। वह अभी भी शॉक में थी। बड़ी मुश्किल से होश में आई और सँभलकर दो क़दम पीछे हटती बोली, “हे भगवान! . . . तू क्यों ले आई? यह पुलिस केस है। शोर-शराबा होगा। और मेरे पास क्यों लाई? बिल्कुल नासमझ है पागल कहीं की। ऐसी चीज़ों को हाथ न लगाते और तू पकड़ कर ले आई और वो भी म . . . मेरे पास? मैं क्या करूँ अब इसका? वहीं रख आ . . . रुक। मैं भी चलती हूँ। पुलिस में ख़बर करते हैं। रुक,” मीरा घबरा गई। काफ़ी उलझन पैदा कर दी थी कम्मो ने। समझ न आ रहा था कि क्या करे? 

“नहीं दीदी डरो नहीं। इसे कोई न लेगा। अगर कोई अपनाता तो फेंकता क्या? पुलिस? . . . अरे उसको तो मैं अच्छी तरह जानती हूँ . . . उसे क्या चाहिए क्या नहीं चाहिए मेरे को सब मालूम। और आगे आप सँभाल लो दीदी। अभी मरी नहीं जिन्दा है। साँस चल रही है सच! देखो दीदी कितनी सुंदर नन्ही सी जान।” 

“पर तू क्या करेगी इसका? तेरा ख़ुद का ठिकाना नहीं और . . .” मीरा जल्दबाज़ी में कह तो गई लेकिन कहते-कहते रुक गई। उसने अपने होंठ भींच लिए। जानती थी कि ग़लत बोल रही है पर इस वक़्त यही सही था। 

कम्मो का मुँह उतर गया . . . चुप्प हो गई पर अगले ही क्षण बोली, “मैं पालूँगी दीदी। विश्वास करो . . . मैं इसको पालूँगी। अनाथाश्रम में लड़कियों के साथ क्या होता, तुम्हें नहीं पता दीदी, मैं सब जानती। पुलिस आए तो तुम सँभाल लोगी न? दीदी . . . सच्ची . . . विश्वास रखो . . . पढ़ाऊँगी . . . अपने दम से। बस एक बार आप सँभाल लो न . . . प्लीज।” 

कम्मो आगे कुछ न कह पाई। जो कहना था वह सब उसकी आँखें कह रही थीं। 

एक किन्नर का साहस—मीरा खड़ी रह गई . . . देखती रही उसे . . . बस देखती रही। 

तभी कानों में सायरन की आवाज़ सुनाई दी। पुलिस आ गई थी। 

मीरा से पूछ्ताछ हुई। 

मीरा के पति का ओहदा काम कर गया। समय लगा पर बात सँभाल ली गई और बच्ची, लिखा-पढ़ी के बाद क़ानूनन कम्मो को सौंप दी गई। 

पास की बस्ती में कम्मो एक किराए के टूटे-फूटे मकान में रहती थी। उन किन्नरों की अपनी मंडली थी पर सब स्वतंत्र। कोई किसी पर आश्रित नहीं। कुछ ट्रैफ़िक के हवाले थे, कुछ घर-घर जाकर माँगते पर सब अपने पेट के स्वयं रखवाले। उसे सिगनल पर भीख माँगना बिलकुल मंज़ूर न था। न ही घर-घर जाकर नेग माँगती। एक-दो स्कूलों में झाड़ू-पोंछा लगाती थी, जिससे थोड़ी-बहुत कमाई हो जाती थी। वैसे और भी छोटे-मोटे काम किया करती थी जिससे गुज़ारा तो हो ही जाता था पर तंगी की तलवार हमेशा लटकती रहती थी। कभी-कभार मीरा के घर आ जाती थी कुछ मिलने की आशा में; जब बहुत ही कंगाली रहती घर पर। पर मुँह से कभी भी कुछ भी कहती न थी। और मीरा को उसके हाव-भाव, उसकी भाषा की ख़ूब समझ थी। देखते ही जान जाती कि वह क्या चाहती है। उस ने भी कभी उसे निराश न किया था। वह आती तो घंटों बैठकर अपनी बदक़िस्मती का चिट्ठा सुनाती रहती। थी तो अच्छे परिवार से पर क़िस्मत की मारी। बाहर चबूतरे पर बैठती और घंटों बतियाती। जाते वक़्त मीरा बलपूर्वक उसे चावल दाल कुछ पैसे देना न भूलती थी। देती थी तो बड़ी आत्मीयता से, मनुहार से। क्योंकि मीरा उसके स्वाभिमान को चोट न पहुँचाना चाहती थी। एक सेर तो दूसरा सवा सेर . . .। वह भी ऐसे स्वीकार करती जैसे मीरा का मन रख रही हो। बिना किसी आशा प्रत्याशा के मीरा कब उसके इतने क़रीब आ गई पता ही न चला। दोनों में काफ़ी घनिष्ठता बढ़ गई थी। आख़िर थी तो उसी की हम उम्र। मीरा को सहानुभूति थी या दया, पर जो भी था वह उसे आने से कभी मना न करती और वह भी उसे अपनी बड़ी दीदी मानकर आ जाती थी। 

कम्मो ने तो पूरी जान लगा दी उस बच्ची को पालने में। छह महीने बाद आई थी उसे उठाकर नाम रखने की इच्छा से। 

“दीदी अब तुम ही अच्छा सा नाम दो न मुनिया का,” मुन्नी गोल-मटोल हृष्ट-पुष्ट हो गई थी। रंग थोड़ा साँवला था पर लगती थी प्यारी सलोनी डुलमुल गुड़िया। देखा जाए तो इसके पीछे अगर कम्मो का निःस्वार्थ प्रेम रहा था तो मीरा की आर्थिक सहायता का बल भी कम न था। मुनिया दोनों की साझी ज़िम्मेदारी से पल रही थी। जब भी ज़रूरत पड़ती तो न ना कहती और इसका कम्मो ने भी कभी फ़ायदा न उठाया था। जी जान लगाकर कमाती और अपनी अधिकतर ज़रूरतें स्वयं ही पूरी करती। 

“पारिजात। कैसा है नाम?” मीरा मुनिया को अंदर पूजा मंदिर में ले कर गई और टीका लगाकर कुछ रुपए निकाल कर लाई और कम्मो की तरफ़ बढ़ा दिए। 

“आज खीर बनाना कम्मो। बेटी का नामकरण हुआ है। समझी?” 

“परिजात? अच्छा है दीदी। पर ये नाम क्यों चुना? बताओ न!” 

“पता है, पारिजात का फूल डाली पर नहीं टिकता। खिलते ही मिट्टी में गिर जाता है लेकिन श्रीहरि को अत्यंत प्रिय होता है और यह फूल उनके चरणों में स्थान पाता है। फूलों में सबसे अधिक सुगंध फैलाने वाला फूल है पारिजात . . . जो केवल पूजा के ही काम आता है। पवित्र और पावन। समझी कुछ नासमझ? तेरी मुनिया भी पारिजात है। मिट्टी में गिरी पर तेरी शरण में आ गई। ख़ूब सुगंध फैलाएगी। ख़ूब नाम रोशन करेगी। समझी।” 

“न दीदी। मैं नासमझ क्या समझूँगी? पर जो भी हो, तूने रखा तो ठीक ही होगा। सुंदर भी है नाम। पर मैं तो इसे परी कहूँगी . . . हाँ परी। ठीक न दीदी?” 

हाथ नचाती हुई . . . परिजात . . . परिजात नाम दोहराती कम्मो चली गई थी उस दिन। 

परी बड़ी हो रही थी। स्कूल में दाख़िला लिया गया। अभिभावक के नाम पर मीरा श्रीधर का नाम लिखा गया। कम्मो का अनुरोध था और स्कूल में स्वीकारोक्ति की बाध्यता भी। सो मीरा ने कोई आपत्ति नहीं जताई। सब ठीक चल रहा था। 

और एक दिन!!

परी दूसरी कक्षा में पहुँच गई। एक दोपहर अचानक रोती हुई आई और घोषणा कर बैठी कि वह कल से स्कूल न जाएगी। 

कम्मो घबरा गई और उसे घसीटती मीरा के पास ले आई। जो भी परेशानी होती तो मीरा ही आख़िरी उपाय हुआ करती थी। 

“देख री गुड़िया बता क्या परेशानी है? बड़ी माँ को बता। इस्कूल क्यों न जाएगी?” कम्मो उसे धमका रही थी और वह रोनी सूरत बनाए चली आ रही थी। 

“नहीं जाऊँगी नहीं जाऊँगी . . . नहीं जाऊँगी।” वह हाथ छुड़ाकर दूर छिटक गई। कम्मो ने पास जाना चाहा तो चिल्ला कर बोली, ”तुम मुझे न छुओ . . . तुम मेरी माई नहीं . . . नहीं . . . तुम सब झूठी हो . . .” बाल बिखरे . . . आँखें भीगी . . .। उसका रूप और ढंग देख मीरा अपनी हँसी न रोक पाई। अंततः मनाने के लिए उठी और उसे गोद में खींच कर बोली, “बता गुड़िया क्या बात है? ये आज क्या हुआ तुम्हें? किसी ने कुछ कहा?” 

उसने हठी स्वर में उत्तर दिया, “हाँ।” और ग़ुस्सा रुलाई बन कर फूट पड़ा। 

मीरा को कुछ समझ न आया। प्यार से समझाया तो हिचकियाँ ले रो-रोकर कहने लगी, “बड़ी माँ सब स्कूल में चिढ़ाते हैं।” वह मीरा को बड़ी माँ कहती थी। “कहते हैं कि मैं अनाथ हूँ। ये मेरी माई नहीं है। तरह-तरह की बातें कहते हैं। कोई मुझसे खेलने को भी तैयार नहीं। कोई बात नहीं करता, मुझे देखते ही सब हँसने लगते हैं। मैं न जाऊँगी अब वह स्कूल। कभी नहीं जाऊँगी,” वह पाँव पटक पटककर रोने लगी थी। 

मीरा सकते में आ गई। कम्मो का चेहरा पीला पड़ गया . . . काटो तो ख़ून नहीं। जिसका डर था वही हुआ। दोनों चुप्प एक दूसरे को ताकने लगीं। 

तत्काल निर्णय लिया कि परी को बोर्डिंग के किसी स्कूल में भर्ती करना होगा जो उसे कम्मो की पहचान से दूर रखे। माहौल बदलना आवश्यक था। ऐसी जगह भेजना होगा जहाँ लोग उसके बीते कल से परिचित न हों। यही अच्छा होगा। 

उसे हॉस्टल भेज दिया गया था। नए स्कूल की प्रिंसिपल भद्र महिला थीं। सब जानकारी उन्हें दे दी गई थी सो उन्होंने भी राज़ को राज़ रखा और अपनी ज़िम्मेदारी निभाने का आश्वासन दिया। कम्मो और मीरा आश्वस्त तो हो गईं थीं फिर भी भय से पूरी तरह मुक्त नहीं थी। 

परी पढ़ने में काफ़ी होशियार थी और बहुत जल्द पूरे स्कूल की चहेती हो गई थी। कभी-कभार आती . . . दो-तीन दिन रहती फिर वापस अपने ठौर। उसका मन वहाँ रम गया था और कम्मो ने भी इसी में ख़ुश रहना स्वीकार कर लिया था। 
समय पंख लगाकर उड़ने लगा और . . .  

और आज पारिजात खिलकर फूल बन चुका था जिसका आकर्षण बाँध देता था देखने वाले को। मनमोहिनी सूरत और उससे भी अधिक मोहिनी उसकी प्रतिभा, उसकी मेधा। 

“क्या सोच रही हो दीदी?” कम्मो की आवाज़ से उसकी तंद्रा टूटी। 

“डिनिशन नहीं डिविज़न पगली।” मीरा उसकी अटपटी अँग्रेज़ियत पर हँसने लगी। नज़रें कम्मो की तरफ़ हो गईं। आज वह उसको बहुत ख़ुश देख रही थी। पहली बार उसे इतना उत्साहित देखा था। दर्प से चेहरा चमक रहा था। रोम-रोम प्रफुल्लित था। 

“वाह सच में बहुत ख़ुशी हुई। अब आगे क्या करना चाह रही है परी? तू तो कह रही थी कि कुछ परीक्षा लिखी है . . . क्यों मुनिया . . .?” उसने परी से पूछा। 

“हाँ . . . बड़ी माँ . . . इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा और उसी में बहुत अच्छा रैंक मिला है। माई उसी की बात कर रही है। हमारे मा’साहब ने कहा है कि सरकारी कॉलेज में सीट ज़रूर मिल जाएगी . . . और जिससे फ़ीस भी ज़्यादा नहीं होगी और पढ़ाई भी हो जाएगी,” परी ने स्थिति को स्पष्ट किया। 

“हाँ दीदी मैं क्या जानूँ . . . जो भी कहती है, पढ़ती है यही बस . . . मुझे क्या मालूम?” कम्मो ने उसकी बलाइयाँ ली और दोनों ख़ुशी-ख़ुशी चलीं गई। 

आज कम्मो के घर में उत्सव का माहौल था। झाड़ू-पोंछा साफ़-सफ़ाई की, पकवान बनाए और अपनी लाड़ली को खिलाए। ख़ुशी से सरोबार हो गई माँ बेटी। इसी ख़ुशी की तो उसे जीवन भर तलाश थी। 

♦    ♦    ♦

रात को भोजनोपरांत टहलना मीरा को बहुत भाता था। आवश्यकता भी थी। आख़िर उम्र के इस पड़ाव पर अपनी सेहत का भी तो ख़्याल ख़ुद ही रखना पड़ता था। मंद-मंद बहती ब्यार सुकून पहुँचा रही थी। दिन भर सूर्य कितना भी अग्निकुंड बना रहे शाम ढ‌लते ही ताप शमित हो ही जाता है। प्रकृति भी कितनी उदारमना है। समस्त प्राणियों की पालनकर्ता। सब का ख़्याल रखती है। संपन्न वर्ग अपनी वातानुकूलित कमरों में सुकून पाता है तो सामान्य जन सूर्यास्त उपरांत बहती ठंडी बयार में अपना ताप घुला देता है। 

आज कम्मो नींद को भी नींद न आई। वह भी अँधेरे में अपनी टूटी-फूटी छत पर टहल रही थी . . . उसके अपने हिस्से के स्वर्ग में पिघलती। क्योंकि सुख-चैन राहत तो सभी का एक सा होता है। वह किसी संपन्नता का मोहताज थोड़े न होता है। छत की दीवार से सटी रात की रानी की बेल और उनमें खिले फूलों से उठती मदमस्त सुगंध-दिन भर की परेशानियों को यूँ मिटा देती जैसे कोई नादान बालक अपनी स्लेट पर कुछ लिख कर उसे मिटा देता है और फिर लगता है जैसे उस पर कभी कुछ लिखा ही न गया हो . . . एक दम सपाट . . . एकदम ख़ाली। विस्मृति कितना सुख देती है, कितना सुकून देती है। यही तो सच्चा सुख है। यूँ कहा जाए तो भूल जाना इंसान के लिए कितना बड़ा वरदान है। भूल जाती थी कम्मो या भूलने का अभ्यास करती थी। कम्मो ने परिस्थितियों से यही सीखा था। उसका जीवन अपमान की अग्नि में तप कर अग्निशिखा बन गया था। सच्चे अर्थों वह साधिका थी। इतना संयम? न कभी किसी से शिकायत न शिकवा। न भगवान से, न जन्म देने वालों से, न समाज से और न इस बेटी से। क्या मिला था इन सबसे? घृणा, तिरस्कार, अपमान या प्यार? वह तो हास्य का सामान थी। मिट्टी की कठपुतली जिसको बनाते ईश्वर कितनी बड़ी भूल कर गया था . . . उसको पहचान देना ही भूल गया था? क्या थी वो? नर थी या मादा? और इसमें उसका क्या दोष था? निरंतर ढूँढ़ती रहती पर समाधान न मिलता। माँ-बाप ने दुत्कार दिया। शिक्षा से वंचित, न कोई आसरा न आशा। फिर भी जीती गई, अपने बल पर, अपनी शर्तों पर। जानती है, समाज उसके आर्शीर्वाद का अभिलाषी है। उसका आशीर्वाद शगुन है उनके लिए—लेकिन जीवन अपशकुन, अभिशाप। वह जड़ हो गई थी। निर्लिप्त और निर्विकार। जितना कठोर उसका बदन दिखता था उससे भी कठोर बन गया था उसका मन। लेकिन क्या सब भुलाना इतना आसान था? सब तकलीफ़ें, दुख अपमान कसक ताप संताप? क्या भूल पाई वह उन सभी क्षणों को? मिटा पाई अपनी स्मृति से उन सब पलों को . . . उन भोगनाओं को? क्या यह सम्भव हो पाया . . .? 

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परी को इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला मिल गया था। वह बहुत ख़ुश थी और उसकी ख़ुशी देख कर कम्मो भी ख़ुश। मीरा ने अपनी ज़िम्मेदारी में कभी कोई कटौती न की थी। घर का भी तो पूरा सहयोग था उसे। उन्होंने कब उसकी बात टाली थी? और परी को तो वे भी अपनी बेटी मानते थे। 

दिन, महीने, साल बीतते चले गए। परी इंजीनियरिंग ग्रैजुएट हो गई। उसी साल वहीं किसी बड़ी-सी कंपनी में उसे नौकरी पर भी रख लिया गया . . . बहुत अच्छे पैकेज पर। 

इन सालों में वह बहुत कम ही इस शहर आई थी अपनी माई के पास। वह उसे आने को कहती तो परी परीक्षाओं का बहाना कर देती। और कम्मो भी बहुत जल्द मान जाती . . . ज़िद न करती। और तो और उसे वहीं रहने की सलाह भी देती। कम्मो डरती थी कि उसकी पहचान परी के सुनहरे भविष्य में रोड़ा न खड़ा कर दे—दाग न बन जाए। 

मीरा को पता चलता तो कम्मो को अच्छी डाँट पिलाती थी पर कम्मो हमेशा यही कहती, “दीदी रहने दो न उसे वहीं खुस। जितना दूर रहेगी उतना ही अच्छा है। अब कच्ची बेल घनी डाल बन गई है। फलने-फूलने दो वहीं पर। है न दीदी।” चेहरे पर आई दर्द की लकीर को छिपाने की असफल कोशिश वह अवश्य करती पर आँखें दग़ा दे जाती थी। बह पड़तीं तो चुपचाप सर झुकाकर चली जाती थी। आदत थी उसे . . . तो फिर आज नई बात क्या थी उसके लिए। वैसे मीरा ने कम्मो को कभी रोते-बिलखते नहीं देखा था। निज पर तरस खाना उसे क़तई पसंद न था। कोई और उससे सहानुभूति जताता तो ग़ुस्सा हो जाती थी। इतने वर्षों में परी को उसने उसके जन्म के बारे में सच्चाई न बताई थी। इतना कहा था कि उसके माता-पिता किसी हादसे का शिकार हो गए थे और बच्ची उसे सौंप गए थे। बस परी इतना ही जानती थी। यह शायद यह काफ़ी था उसके लिए। 

आज परी घर आ रही थी। कल फोन पर उसने ख़बर दी थी मीरा को और कम्मो को भी। पर मीरा ने पाया कम्मो हमेशा की तरह आज उतनी ख़ुश नज़र न आ रही थी। काफ़ी संतुलित थी। इन सालों में उसका स्वास्थ्य भी काफ़ी गिर गया था। पहले जितनी मेहनत भी न कर पा रही थी। उम्र भी बढ़ चली थी और अब आवश्यकता भी न थी क्योंकि अपना भार परी ने अपने ऊपर ले लिया था। कमा रही थी और उसने वहाँ घर भी किराए पर ले लिया था। माई से उसकी ज़रूरतें अब सीमित हो चुकीं थीं। 

“बड़ी माँ आपको और माई को बहुत ज़रूरी बात बतानी है। सोचा फोन पर नहीं आकर ही बताऊँगी,” परी ने हलुवे का चम्म्च मुँह में डाल कर कहा। आज मीरा ने हलुवा बनाया था। परी को मीरा के हाथ का हलुवा बहुत पसंद था। 

“क्या है परी? कहो न?” मीरा ने पूछा। कम्मो चुप थी। 

“बड़ी माँ मेरा काम कम्पनी ने बहुत सराहा है।” 

“हाँ क्यों नहीं। तुम हो ही क़ाबिल और मेहनती,” मीरा ने उसकी बात काटते हुए कहा। 

“सुनो न बड़ी माँ, अब वे मुझे एक प्रोजेक्ट पर यू.एस. भेज रहे हैं, दो वर्षों के लिए। कम्पनी से चार लोग जा रहे हैं जिनमें मेरा भी सेलेक्शन हो गया है। सोचा जाने से पहले एक बार आप लोगों से मिलती जाऊँ। फिर अगर उन्हें योग्य लगे तो मुझे स्थायी रूप से वहाँ रहने का अवसर भी मिल सकता है। यह तो अभी कहा नहीं जा सकता पर पता नहीं . . . अगर हो जाए तो बहुत अच्छा होगा . . . है न माई।” 

परी की आँखें चमक रहीं थीं ख़ुशी और गर्व से और कम्मो के होंठ मुस्कुरा रहे थे . . . सूखे . . . निर्जीव से। 

“तो कब जाना होगा?” मीरा दोनों को बार-बार देख रही थी। 

“आज रात को निकल जाऊँगी बड़ी माँ। वो किशोर हैं न, मेरे कोलीग, मेरा बहुत ख़्याल रखते हैं, वे गाड़ी लेकर आएँगे और मैं चली जाऊँगी। माई . . . आप ख़ुश हो न?” परी का स्वर काफ़ी औपचारिक लगा मीरा को। 

“हाँ गुड़िया, कौन्न खुश न होगा? तुमने इतनी बड़ी खुशी जो पाई है? मैं भला कैसे खुश न होंगी,” कम्मो की बुझी-बुझी आँखों कुछ क्षणों के लिए चमक आई। उसने प्यार से उसे निहारा पर तुरंत सर झुकाकर हलुवा खाने में व्यस्त हो गई। 

“माई, बड़ी माँ आप दोनों ने मेरे लिए जो किया मैं उसे जीवन भर . . .” 

“नहीं परी अब बस कुछ मत कहना। भगवान के लिए एक शब्द नहीं,” मीरा रोष में आ गई। अब सीमा पार हो गई थी। सहना मुश्किल लगा और वह बिफर पड़ी, “तुम्हारे लिए जो तुम्हारी माई ने किया है वह तो तुम सात जन्म लेकर भी न चुका पाओगी। पर हाँ जब तुमने निर्णय ले ही लिया है तो हम बीच में न आएँगे पर मुझे भी तुम्हें एक बात बतानी है . . . राज़ की बात।।,” मीरा की गर्दन तन गई और स्वर कठोर बना रहा। 

“क्या बड़ी माँ,” परी की आँखों में आश्चर्य तैर गया। वह थोड़ी डिस्टर्ब-सी हो गई। 

“तुम्हारे माँ-बाप हादसे का शिकार न हुए थे . . .” 

“न दीदी न न न। रहने दे। अब इन बातों का कोई मोल है? क्यों अब ये सब। बिटिया खुशी से जा रही है तो खुस रहने दे न दीदी,” कम्मो ने कटोरी नीचे रखी। उठी और सधे क़दमों से घर की ओर निकल गई। 

“नहीं बड़ी माँ बताइए आप क्या कहना चाहती हैं? प्लीज़,” परी ने कम्मो को रोकने का प्रयत्न न किया। 

“तो सुनो तुम्हारी माई तुम्हें कूड़े के ढेर से उठा लाई थी। फेंक गया था कोई अपनी ग़लती को। दुनिया भर को चुनौती देते हुए उसने अपना सब कुछ दाँव पर रख तुम्हारा पालन-पोषण किया। केवल और केवल तुम्हारे  लिए। समझी। कभी कोई कमी न होने दी। ख़ुद ख़ाली पेट रही, तुम्हें खिलाया। दिन-रात मेहनत की, तुम्हें बोर्डिंग स्कूल भेजने के लिए। और . . . और . . . बस . . . तुम यह जान गई मेरे लिए यह काफ़ी है। जाओ परी . . .। दुनिया की सब दौलत, धन ऐश्वर्य तुम्हारे चरणों में। तुम भाग्यशाली हो जो कम्मो जैसी माँ तुम्हें मिली। परी तुम सोच रही हो कि आज मैंने यह राज़ क्यों खोला? तो सुनो। शायद तुम्हारा अपनी माई से यह मिलन आख़िरी मिलन हो। हो सकता है तुम कभी फिर कम्मो से न मिलो और मैं जानती हूँ कि तुमने कभी अपनी माई को मन से नहीं अपनाया। वह बहुत बीमार है परी। शायद अगली बार जब तुम आओ तो वह न बचे। उसने पत्थर में जान फूँक दी है, हीरा बना दिया है। और यह सब जानकर, मैं सोचती हूँ कि फिर कभी तुम उस मूरत से घृणा न कर पाओगी। उसकी तपस्या का यह फल काफ़ी है। जाओ परी, एक बार अपनी माई के पाँव छूकर आशीर्वाद ले लो। पारिजात की धन्यता भगवान के चरणों में ही है। सदा ख़ुश रहो!” मीरा फूट-फूट कर रोने लगी। 

परी को साँप सूँघ गया। पत्थर सी जम गई थी। साँस भी जैसे चलना भूल गई हो। 

बाहर गाड़ी का हॉर्न बजा। वह हड़बड़ा कर उठी और चली भागती गई-पीछे मुड़कर भी न देखा। 

♦    ♦    ♦

कुछ महीने बाद . . .। 

“बड़ी माँ, फ़्लाइट रात के दो बजे की है। मैं सुबह पहुँच जाऊँगी। आप माई को तैयार रखिएगा। वैसे मैंने सब औपचारिकताएँ पूरी कर लीं हैं। मैं चाहती हूँ आप भी एयरपोर्ट आएँ हमें सी-ऑफ़ करने के लिए। मानेंगी न मेरी बात बड़ी माँ . . . आख़िरी बार,” परी फोन पर लगभग रो रही थी। 

मीरा की गाड़ी कम्मो को लिए एयरपोर्ट पहुँची। आज परी कम्मो को अपने साथ विदेश ले जा रही थी। अपने ख़र्चे से। उसने कम्पनी से अनुमति ले ली थी अपनी माई का इलाज करवाने। कम्मो को बड़ी मुश्किल से मनाया गया था। और अंत में जीत गई थी परी। 

“बड़ी माँ,” परी आगे आकर मीरा के पाँव पर झुक गई। “आपने सच कहा था बड़ी माँ, पारिजात ईश्वर के चरणों में ही शोभा देता है। आप भी तो ईश्वर से कम नहीं। मुझे आपने माँ दे दी। आपका क़र्ज़ कैसे चुकेगा बड़ी माँ।” 

मीरा ने परी को उठा कर गले से लगा लिया। माथा चूमते बोली, ”पगली माँ-बाप का कोई क़र्ज़ होता है संतान पर? ख़ुश रहो, सदा ख़ुश रहो।” 

मीरा ने कम्मो की तरफ़ देखा और मुस्कुरा कर कहा, “कम्मो तुम्हारी परी सचमुच की परी है . . . है . . . न।” 

दोनों सहेलियाँ मुस्कुरा रहीं थीं और दोनों की आँखें ज़ार-ज़ार आँसू बहा रहीं थीं। 

तभी घोषणा हुई और कम्मो परी के साथ प्रस्थान गेट की ओर चली पर नज़रें पीछे मीरा पर ही अटकी रह गईं . . .! 

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टिप्पणियाँ

सरोजिनी पाण्डेय 2023/07/15 10:14 AM

अद्भुत।,

कृपया टिप्पणी दें

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